Tuesday, August 30, 2011

एक अनावश्यक अनशन

एकसूत्रीय बिंदु पर आधारित अन्ना हजारे के अनशन ने बहुत से लोगों को अनेक कारणों से प्रभावित किया है. कुछ इसे आंदोलन कहते हैं, कुछ दूसरी आजादी की लड़ाई का नाम देते हैं तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से करते हैं. अन्ना के अनशन को दिल्ली और देश के दूसरे भागों में जबर्दस्त समर्थन मिला है. अनशन को असल दुनिया के साथ-साथ इंटरनेट में भी जमकर समर्थन मिला है.वेबसाइटें, फेसबुक, ट्विटर, एसएमएस आदि में अन्ना छाए रहे. इतिहास के निर्माण की ताकत वाले मीडिया ने इसे राष्ट्रव्यापी अवधारणा के रूप में पेश किया है. टीवी मीडिया देश के कोने-कोने से इस अनशन के बारे में दिन-रात सीधा प्रसारण कर रहा है. हालांकि मीडिया ने इससे असहमति और असंतोष के स्वर को बहुत कम स्थान दिया है.
सबसे पहले तो इस अनशन को आंदोलन नहीं कहा जा सकता. एक आंदोलन ऐसे लोगों के बड़े समूह का संगठित प्रयास होता है जो किसी विचारधारा और संगठन से जुड़े हों, जिनके नेतृत्व का उन पर अधिकार हो और जो एक व्यवस्था को बदलने के लिए एकजुट हुए हों. अन्ना का प्रदर्शन संगठित लोगों का प्रयास नहीं है. यह स्वत: प्रेरित लोगों का जमावड़ा है, जिन पर अन्ना हजारे का कोई नियंत्रण नहीं है. यह इस तथ्य से साबित हो जाता है कि अनशन में लोग अपनी-अपनी विचारधारा के नारे लगा रहे हैं. उदाहरण के लिए 'यूथ फार इक्वेलिटी' के कार्यकर्ता आरक्षण के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं. जब इस संबंध में अन्ना टीम के सबसे अहम सदस्य से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इन समूहों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है.
इसी प्रकार इस अनशन को जेपी आंदोलन के समान नहीं माना जा सकता. जेपी का अनशन नहीं, बल्कि एक विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन था. यह आंदोलन ऐसी सरकार के खिलाफ था, जो लोगों को गिरफ्तार कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रही थी. इस लंबे राजनीतिक आंदोलन की आंच में तपकर अनेक नेता कुंदन बने. हालांकि इस अनशन में सरकार मात्र एक गिरफ्तारी के बाद ही धरने के लिए स्थान और अनुमति दे रही है. दूसरे, इस बात की कोई संभावना नहीं है कि अनशन में जीत हासिल करने के बाद एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया जाएगा. यह दावा भी एक धोखा है कि इस अनशन का राष्ट्रीय चरित्र है. देश में अनेक सामाजिक और पंथिक समूह हैं, जिनका प्रतिनिधित्व इस अनशन में नहीं है. शुरू में टीम अन्ना के पांच सदस्यों में सभी पुरुष थे. इनमें एक भी महिला, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व नहीं था. अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को योग्यता के आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस समय इन वर्गो से अनेक योग्य व्यक्ति मौजूद हैं. इसका मतलब है कि टीम हजारे की कोर कमेटी स्वनियुक्त है. न ही इनका लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचन हुआ है और न ही इन्हें लोगों ने चयनित किया है. यही नहीं, ये सिविल सोसाइटी का भी प्रतिनिधित्व नहीं करते. एक टीवी बहस में अरविंद केजरीवाल ने मुझे बताया कि वे सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधित्व नहीं करते. बेहूदगी की हद तो तब हुई जब इसी शो में किरण बेदी ने कहा कि सिविल सोसाइटी का मतलब सभ्य समाज से है, जैसे कि राजनीतिक तबका असभ्य है. अनशन के नेताओं की समझदारी का यह स्तर है.
कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि जब यह एक आंदोलन नहीं है तो इतनी बड़ी संख्या में लोग इससे क्यों जुड़ रहे हैं? इसका उत्तर यह है कि भ्रष्टाचार एक चेहराविहीन शत्रु है. कोई भी एक भ्रष्ट व्यक्ति की पहचान नहीं जानता है. यहां तक कि जो लोग भ्रष्टाचार में गहरे संलिप्त रहे हैं वे आगे की पंक्तियों में बैठकर विरोध कर रहे हैं. लेकिन यदि आप इसी भीड़ को सामाजिक न्याय, दलितों के खिलाफ अत्याचार, समाज में संसाधनों के बंटवारे आदि के खिलाफ आवाज दें तो वे सभी भाग जाएंगे. इसलिए, क्योंकि तब दुश्मन का एक चेहरा या एक पहचान होगी. स्पष्ट है कि संख्या से यह अनिवार्य रूप से स्पष्ट नहीं होता कि कोई आंदोलन वैधानिक है या नहीं? क्या हम एक बड़ी भीड़ द्वारा विवादित ढांचे के ध्वंस को सही ठहरा सकते हैं? क्या ईडन गार्डन में पाकिस्तान के खिलाफ भारत का मैच देख रहे लाखों दर्शकों को देशभक्त कहा जा सकता है? फिर हम इस अनशन को सिर्फ इस आधार पर उचित कैसे कह सकते हैं कि इसमें लाखों लोग भाग ले रहे हैं?
हजारे और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार की बड़ी संकीर्ण व्याख्या की है. वे केवल सरकारी भ्रष्टाचार को ही भ्रष्टाचार मान रहे हैं. हजारे और उनके साथी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का संज्ञान लेने के लिए तैयार नहीं. यह भ्रष्टाचार एक बड़ी संख्या में लोगों को संस्थानों और सरकारी नौकरियों में जाने से रोकने के साथ आरंभ हो जाता है. फिर कारपोरेट सेक्टर, मीडिया और सबसे ऊपर अंतरराष्ट्रीय और गैर-सरकारी संगठनों के भ्रष्टाचार को लोकपाल बिल में लाने की बात नहीं की जा रही है. इससे गंभीर बहस पैदा होती है. वंचित वर्ग इस पर जोर दे रहा है कि मौजूदा अनशन जानबूझकर उन संस्थानों को निशाना बना रहा है जहां थोड़ी-बहुत जातीय और धार्मिक विभिन्नता परिलक्षित होती है.
इस अनशन की विडंबना यह है कि यह अविश्वास पर आधारित है. अविश्वास संसद पर, सरकार पर और न्यायपालिका पर. हम कैसे पांच स्वयंभू नेताओं पर भरोसा कर सकते हैं, जबकि वे खुद लोकसभा के 545 और राज्यसभा के 242 निर्वाचित लोगों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं? अगर निर्वाचित प्रतिनिधि अपना काम नहीं कर पाते हैं तो हम उन्हें हर पांच वर्ष बाद बदल सकते हैं, लेकिन हम अन्ना हजारे, केजरीवाल, शांति भूषण और प्रशांत भूषण जैसे लोगों को कैसे बदल सकते हैं?

साभारः दैनिक जागरण
(लेखक डा. विवेक कुमार, जेएनयू में प्राध्यापक हैं और उभरते हुए चिंतक हैं)

लोकपाल बिल में सुझाव देगा 'सोशल जस्टिस फोरम'

लोकपाल में वंचित तबके की भागीदारी और उनके हितों की रक्षा को लेकर ‘सोशल जस्टिस फोरम’ का गठन किया गया है. यह फोरम स्टैंडिंग कमेटी के सामने अपना सुझाव रखने की तैयारी में है. दलित एवं पिछड़े समाज से ताल्लुक रखने वाले सोशल एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवियों और एनजीओ का यह संगठन अपनी पांच मांगों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने रखेगा. 31 अगस्त को इस संबंध में दिल्ली के Indian social institute में फोरम के कोर ग्रुप की एक बैठक होनी है, जहां इसके तमाम पहलुओं पर चर्चा होगी. 5 सितंबर को इस फोरम द्वारा अंबेडकर भवन से जंतर-मंतर तक एक रैली निकाली जाएगी.
जिन पांच मांगों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने रखने का निर्णय लिया गया है, उनमें सर्च कमेटी, सेलेक्शन कमेटी, लोकपाल और जांच एजेंसी में अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यक प्रतिनिधि को शामिल किए जाने की मांग की गई है. अनुसूचित जाति/जनजाति के खिलाफ लोकपाल के समक्ष आने वाले मामले को लोकपाल से पहले अनुसूचित जाति आयोग के पास ले जाने की मांग भी उठाई जा रही है. फोरम में शामिल लोगों का कहना है कि वंचित तबके से ताल्लुक रखने वाले अधिकारियों को लेकर सवर्ण समाज में जातिगत पूर्वाग्रह रहता है. इसके चलते अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों को छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान किया जाता है. फोरम जिन पांच मांगों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने पेश करने की तैयारी में है, उनमें-

1. सर्च कमेटी, सेलेक्शन कमेटी, लोकपाल और जांच एजेंसी में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का भी प्रतिनिधित्व हो.
2. फोरम ने कॉरपोरेट में फैले भ्रष्टाचार, मीडिया के भ्रष्टाचार, एनजीओ, पंचायत, म्युनिसिपैलिटी और म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन जैसी स्वायत संस्थाओं को लोकपाल के दायरे में लाने की मांग की है. अनुसूचित जाति/जनजाति के विकास की योजनाओं के लिए मिलने वाले पैसे को दूसरे मद में खर्च किए जाने और इनके विकास के लिए आवंटित होने वाले सब प्लान के फंड के उचित इस्तेमाल नहीं होने पर इसे भी भ्रष्टाचार के दायरे में लाया जाए.
3. अनुसूचित जाति/जनजाति से जुड़े अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ आने वाली शिकायत को पहले अनुसूचित जाति आयोग और जनजाति आयोग को भेजा जाए. आयोग यह जांच करे कि उस पर भ्रष्टाचार का आरोप जातिगत आधार पर लगाया गया है या फिर वो वास्तव में दोषी है.
4. संविधान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण के लिए उल्लिखित किसी भी सिद्धांत या बिंदु को न छुआ जाए.
5. लोकपाल बिल पास करने से पहले हमारी सभी मांगों पर भी बहस हो.

Monday, August 29, 2011

दलितों को ‘धन्य’ कर गया अन्ना का आंदोलन

तब रामलीला मैदान में मेला लगा था. ‘अन्ना मेला’. बड़ी भीड़ थी. हजारों लोग पहुंचे थे मैदान में. अन्ना को अनशन जो तोड़ना था. वह अन्ना जो पिछले बारह दिनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर के लाखों लोगों की आवाज बना था. तभी मीडिया में खबरें चलने लगी कि अन्ना एक दलित और एक मुस्लिम बच्ची के हाथ से अपना अनशन तोड़ेंगे. चौंकना लाजिमी था. ‘दलित बच्ची’, ‘मुस्लिम बच्ची’ ये दोनों शब्द बेध से रहे थे. लगा, बारह दिन के अनशन की कलई खुल गई हो. इसी दिन अचानक से मंच पर अंबेडकर भी प्रकट हो गए थे. अन्ना के रणबांकुरों का ह्रदय परिवर्तन हो चुका था. ‘बाबा साहब का भारत, बाबा साहब का संविधान, बाबा साहब की जय’. एक बार फिर चौंका. अब यकीन हो चुका था कि आंदोलन अपने असली रंग में आ चुका है.
अन्ना के दरबार में सीना ताने उनके मंत्री मंच के चारो ओर घुमड़ रहे थे. पिछले शाम की जीत ने उन्हें मदहोश कर दिया था. राजनीतिक बिसात बिछ चुकी थी. पहले मुख्य सेनापति पधारे. इनकी खासियत यह है कि ये दलितों और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण के घोर विरोधी हैं. आते ही इन्होंने बाबा साहब का जयकारा करवाया. आप खुद सोचिए कि आरक्षण का विरोध करने वाले व्यक्ति की जुबान पर जब बाबा साहब का नाम हो तो उसके दिल में क्या चल रहा होगा. खैर, उसने बाबा साहब का जयकारा करवाया. अमूमन नारे लगाने के वक्त रामलीला मैदान की गूंज पूरे चांदनी चौक में सुनाई देती थी. लेकिन इस बार आवाज जरा धीमी आई. बाबा साहब पर लेख पढ़ा गया. उनके संविधान की दुहाई दी गई कि हम इसकी इज्जत करते हैं. ध्यान रहे, ये बातें वो लोग कर रहे थे जिन्होंने आंदोलन शुरू करने से लेकर आंदोलन खत्म करने तक हर पल संविधान को तोड़ने की बात कही थी. संविधान को बदलने की बात की थी. संसद में लोकपाल पर चर्चा के दौरान शरद यादव का सवाल वाजिब था कि अन्ना ने हर पल गांधी की बात की, शिवाजी को याद किया, लेकिन वह अपने प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले देश के दो महान विभूतियों अंबेडकर और फुले को भूल गए. सोचना होगा. भूल गए या फिर याद ही नहीं किया. मंच से इस तरह की बातों ने अन्ना के आंदोलन की कलई खोल दी थी.
रही-सही कसर दो खास समुदाय की बच्चियों से अन्ना का अनशन तुड़वाने की घोषणा कर के किया गया. अब तक लोकपाल के समूचे आंदोलन में दलितों और मुसलमानों को कभी भी शामिल नहीं किया गया था. लेकिन जिस तरीके से इन दोनों समुदाय के बच्चों को सामने लाया गया उसने ब्राह्मणवादी सोच का एक घिनौना चेहरा पेश किया. कोर टीम से जुड़े एक कवि महोदय बार-बार मंच से घोषणा कर रहे थे और दोनों बच्चों की जात और धर्म बता रहे थे. गोया कह रहे हों ‘’ए दलितों...ए पिछड़ों...ए मुसलमानों. तुमने हमारा बहुत विरोध किया. लेकिन देखो, देखो कि हम कितने उदार हैं. तुम्हारे बच्चों के हाथ से पानी पी लिया. हमने तुम पर अहसान किया. अब जाओ तुम्हारी कौम पवित्र हो गई. अब विरोध छोड़ो. हमें लोकपाल बनाने दो. अगली बार फिर आंदोलन करेंगे तो तुम लोग साथ देना. हम तुम्हारी कौम को फिर से धन्य कर देंगे.’’

Tuesday, August 23, 2011

अन्ना के आंदोलन पर 'दलित' राय

अन्ना के आंदोलन पर पिछले दिनों में काफी बातें हुई है. यह बहस का मुद्दा बन चुका है कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना और उनके सहयोगी आंदोलन चला रही है क्या वह पूरे समाज का आंदोलन है या फिर समाज का एक विशेष तबका यह आंदोल चला रहा है. पिछले दिनों में फेसबुकिया दुनिया में भी इस आंदोलन को लेकर बवाल मचा हुआ है. इस पूरी प्रक्रिया में दलितों के लिए कुछ नहीं है और दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं है, यह बात भी हो रही है. हर कोई अपने-अपने विचारों को रख रहा है. इसी क्रम में 'दलित मत' ने विभिन्न मंचों पर दलित समाज का नेतृत्व करने वाले लेखकों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और समाजसेवी से बात की. उनका 'मत' जानने की कोशिश की. पेश है...

डा. विवेक कुमार (प्रध्यापक, समाजशास्त्र विभाग, जेएनयू)
प्रजातंत्र बाहें मरोड़ने से नहीं चलता. दूसरी बात, भ्रष्टाचार की जो परिभाषा है वह बहुत संकुचित और सीमित है. यह केवल सरकारी भ्रष्टाचार की बात करता है, जबकि पूरे देश की संरचना में भ्रष्टाचार व्याप्त है. जिसमें लोगों के मानव अधिकारों का हनन, असमानता का व्यवहार और व्यक्तिगत पृथकता व्याप्त है. भगवान को चढ़ावा चढ़ाने का और पाप कर के गंगा नहाने का भी प्रावधान है. हजारों टन सोना मंदिरों में मौजूद है. सोना चढ़ाने वाले क्या रसीद देते हैं कि उन्होंने कहां से खरीदा, टैक्स दिया कि नहीं. जिस तरह सरकार लाखों करोड़ों रुपये का कारपोरेट टेक्स, एक्साइज ड्यूटी और इंपोर्ट ड्यूटी जिस तरह एक बार में माफ कर देती है, क्या यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है या फिर आएगा? अगर आएगा तो इसमें जन लोकपाल बिल क्या करेगा.
अगर आप 542 प्रतिनिधियों पर विश्वास नहीं कर रहे हो तो मैं पांच स्वघोषित प्रतिनिधियों पर कैसे भरोसा कर लूं. यहीं पर प्रजातांत्रिक प्रणाली की अवहेलना हो रही है, क्योंकि वो तो चुन कर आए हैं. जनता ने चुन कर भेजा है. लेकिन ये जो पांच लोग है वो स्वघोषित हैं. जनता ने इन्हें चुना नहीं है बल्कि इनके बैठ जाने के बाद लोग आए हैं. जहां तक लाखों लोगों का समर्थन मिलने की बात कही जा रही है तो अगर लाखों लोग जाकर बाबरी मस्जिद तोड़ रहे थे तो क्या वो जायज है? कानूनन क्या जायज है कि आप प्राइवेट बिल को पास करने के लिए कहे, जबकि संसद मौजूद है. आप उसी राजनीति को धत्ता बताते हो. कहते हो कि पूरा सिस्टम खराब है और दूसरी ओर उसी राजनीतिज्ञों के पास जाकर गिरगिरा रहे हो कि हमें बैठने की इजाजत दो, हमारा बिल पास कर दो. आप प्रजातंत्र की हमारी स्थापित संस्थाओं का गला घोंट रहे हैं. ये लोग आम जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
इस देश में यह कौन तय करेगा कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मसला है कि भूख सबसे बड़ा मसला है. हमारी 70 फीसदी जनता जो हर दिन महज 20 रुपये कमाती है, वो किस तरह घूस देगी? जो लोग सत्ता की संस्थाओं में काबिज हैं चाहे वो राजनीति में हो, ब्यूरोक्रेसी में हो, इंडस्ट्री में हो या फिर यूनिवर्सिटी में हो, जरा अनुपात देखिए कि कौन लोग हैं जो इन पर काबिज हैं. एकछत्र राज कायम कर रखा है. उसी के खिलाफ अन्ना आंदोलन कर रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अन्ना स्वतः सवर्ण समाज के खिलाफ ही आंदोलन कर रहे हैं और राष्ट्र को शामिल करने की बात कर रहे हैं. तो यह कहीं न कहीं विरोधाभाष है. यह पूरे समाज का आंदोलन नहीं है.

चंद्रभान प्रसाद (लेखक एवं चिंतक)
अन्ना का आंदोलन अपर कास्ट का आंदोलन है. यह संविधान पर सवाल खड़े कर रहा है, संसद और लोकतंत्र पर सवाल उठा रहा है. जहां तक सिविल सोसाइटी द्वारा आंदोलन की बात है तो सवाल उठता है कि क्या भारत सिविल सोसाइटी यानि सभ्य समाज बन चुका है? जाति के प्रारूप के मौजूद रहते कोई समाज, सभ्य समाज कैसे बन सकता है? हां, यह प्रक्रिया जारी है. जब एनडीए सरकार आई थी तो उसका सबसे पसंदीदा विषय था ‘रिव्यू ऑफ कांस्टीट्यूशन’. इसके बहाने वह एक तबके को खुश कर रही थी. यानि की संविधान के विरुद्ध समाज के एक तबके में एक Sentiment (विचार) है. क्योंकि संविधान के पहले चाहे अंग्रेजों का राज रहा हो या फिर मुगलों का, सब कुछ अपर कॉस्ट के हाथ में था.
संविधान के बनने के बाद लोकतंत्र के आने से ही उनका एकाधिकार टूटा है. अपर कॉस्ट में जो अधिक कंजरवेटिव तबका है उसके दिमाग में यह बात हमेशा रही है कि संविधान की वजह से हमारा नुकसान हुआ है. उसको ERUPT (दबी भावनाओं का बाहर आना) करने का एक मौका मिला है. जैसे आपने देखा होगा कि ब्रिटेन में, इटली में अचानक दंगे हो गए. तो यह बिल्कुल ज्वालामुखी की तरह है. जो सालों साल तक खामोश रहने के बाद फट पड़ता है. इसी तरह यह बात उनकी चेतना में बैठ गई है कि संविधान आने से हमारा नुकसान हुआ है. एंटी कांस्टीट्यूशन, एंटी डेमोक्रेसी, एंटी स्टेट की यह भावना बहुत पहले से है. इसलिए मैं यह कहूंगा कि यह अपर कॉस्ट का आंदोनल है. अगेंसट कांस्टीट्यूशन, अगेंस्ट स्टेट, अगेंस्ट डेमोक्रेसी.

अशोक भारती (समाज सेवी, अध्यक्ष नैक्डोर)
भारतीय समाज पूरी तरह से भ्रष्ट है. यह मानसिक रुप से भ्रष्ट है, सामाजिक रूप से भ्रष्ट है, आर्थिक रूप से भ्रष्ट है. इस दृष्टि से भ्रष्टाचार दलित समाज और भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है. मेरा मानना है कि बहुजनों और दलितों को इस पूरे आंदोलन को आगे बढ़कर लीडरशिप प्रदान करनी चाहिए. ये जो पांच लोग हैं वो ‘सो कॉल्ड’ प्रवक्ता बने हुए हैं. जो रामलीला मैदान में लाखों जनता इकठ्ठी हो रही है वो पांच लोग नहीं है. सड़कों पर पांच लोग नहीं है. हमारे समाज के शामिल होने की बात है तो सिविल सोसाइटी का इतिहास रहा है कि उनकी कभी कोशिश नहीं रही की वो हमें इसमें शामिल करें. लेकिन हमें यह देखना है कि अगर वो शामिल नहीं करना चाहते तो हम कैसे उन्हें कंपेल करे.
मेरा मानना है कि दलित-बहुजन समाज को आगे बढ़कर आंदोलन का नेतृत्व ले लेना चाहिए. हालांकि मैं मानता हूं कि आंदोलन में जो लोग शामिल हैं, उनमें हमारी भी जनता है. लेकिन वह जनता के तौर पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर मौजूद है. उन्हें एक समुदाय के तौर पर साथ आना चाहिए. अगर वो समुदाय के तौर पर सामने आते हैं तो इस आंदोलन का नेतृत्व हमारे हाथ में आएगा, नहीं तो नहीं आएगा. तो यह टेबल टर्न करने का मामला है. एक मामला यह भी है कि सरकार अगर इस बारे में कोई भी प्रक्रिया आगे बढ़ाती है तो उसे दलितों को भी इसमें शामिल करना चाहिए. उसे दलितों से बात करनी चाहिए. अगर अन्ना की टीम दलितों और बहुजनो को शामिल नहीं करना चाहती तो सरकार को यह साफ कर देना चाहिए कि दलितों की भागीदारी के बिना वो इस प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाएगी.

प्रकाश आंबेडकर (अध्यक्ष, आरपीआई)
देश की पोलिटिकल लिडरशिप बहुत वीक है. पढ़े लिखे जरूर हैं लेकिन प्रशासन चलाना जानते नहीं हैं. दूसरा यह है कि सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं है. जहां तक लोकपाल बिल की बात है तो वो सुपर पावर बनाना चाहते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. लोकपाल बिल के कुछ मुद्दों का विरोध कर रहे हैं. पूरे मुद्दे पर समर्थन नहीं है. सुपर पार्लियामेंट बनाने का जो मुद्दा है, हमारा उससे विरोध है. जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इस पर हमारा पूरा समर्थन है. क्योंकि भ्रष्टाचार हो रहा है तो आम आदमी का ही पैसा जा रहा है. अमीर और अमीर हो रहा है, गरीब और गरीब हो रहा है.
सिविल सोसाइटी का कहना है कि राजनीतिक करप्शन कर रहे हैं. लेकिन यह भी है कि आम आदमी भी करप्शन कर रहा है. करप्शन कई प्रकार के हैं. फाइनेंनसियल करप्शन तो दिखाई देता है लेकिन इंटलेक्चुअल करप्शन कहां दिखाई देता है. बाबा साहब ने जो सबसे बड़ी बात कही थी कि यहां पर इंटलेक्चुअल ओनेस्टी नहीं है. जब ऑनेस्टी नहीं है तो करप्शन तो होगा ही. सिविल सोसाइटी वाले ऑनेस्टी की बात तो करते नहीं हैं. समाजिक व्यवस्था में ऑनेस्टी कैसे लाई जाए इसका विकल्प न तो सिविल सोसाइटी के पास है और ना ही सरकार के पास है. जो आम आदमी आंदोलन में आ रहा है क्या वो शपथ लेगा कि वो घूसखोरी नहीं करेगा. क्या वो इंटलेक्चुअल करप्शन हो, पैसे की हो, शिक्षा की हो या एडमिनिस्ट्रेशन की हो. वो सिर्फ पॉलिटिकल करप्शन को टारगेट कर के चल रहे हैं. ये एक मुद्दा है. असल में देश का चरित्र निर्माण करने की बात है, जिसके लिए किसी के पास कोई विकल्प नहीं है. जहां तक ये लोग देश की पूरी जनता के साथ होने की बात कर रहे हैं तो मान लिया जाए कि करप्शन के मुद्दे पर इनके साथ 90 फीसदी जनता है. लेकिन ये सभी जन लोकपाल बिल के साथ हैं ऐसा नहीं है. जनता जन लोकपाल के विरोध में काफी है लेकिन वो सामने इसलिए नहीं आ रही है क्योंकि इसके साथ करप्शन का मुद्दा जुड़ा है. अगर इसका विरोध करेंगे तो वो कहेंगे की हम भ्रष्टाचार की लड़ाई कमजोर कर रहे हैं.
जहां तक यह कहा जा रहा है कि इस आंदोलन में दलित और बहुजन समाज नहीं है तो यह समाज अपना आंदोलन क्यों नहीं करता. वह क्यों इनके पास भीख मांगने जा रहा है. इनको किसने रोका है. अब अगर ये कहते है कि राजा दलित है इसलिए उसको पकड़ा है तो और लोगों को टारगेट करने के लिए किसने रोका है. राजा अकेला थोड़े ही चोर है. मैं सारे दलित संगठनों से पूछना चाहता हूं कि तुमको पूछा नहीं जा रहा है तो तुम क्यों उनके रिकागनाइजेशन के लिए भाग रहे हो. बाबा साहब ने तो आंदोलन के लिए एक अलग आइडेंटिटी बनाई थी, आप उस आइडेंटिटी के साथ चलो. सभी अपने रिकागनाइजेशन के पीछे लगे हैं. दलित बुद्धिजीवी असल में रीढ़वीहीन हैं. कोई भी कमाता है तो उसके पीछे लग जाता है कि मैं दलित हूं हमें अपने साथ ले लो. असल में ये लोग मेहनत करने के लिए तैयार नहीं हैं.

(दलित मत.कॉम के संपादक अशोक दास से बातचीत पर आधारित )

दलित मुद्दों पर आधारित देश के पहले हिंदी न्यूज पोर्टल www.dalitmat.com से साभार

दलित परिवार ने किया आत्मदाह

बिहार के औरंगाबाद जिले में दलित परिवार के पांच सदस्यों ने एक साथ आत्मदाह कर लिया. इन सदस्यों में दंपत्ति के अलावा दो बेटी और एक बेटा शामिल है. आत्मदाह का कारण परिवार को इंदिरा आवास नहीं मिल पाना बताया जाता है. जिले के हसपुरा थाने के तहत आने वाले मुजहर गांव में यह घटना 21 अगस्त को घटी. गांव वालों के मुताबिक आत्मदाह करने वाले इस परिवार के नाम पर पिछले दिनों इंदिरा आवास आवंटित हुआ था. लेकिन परिवार को आवंटित पैसे मिलने के पहले ही कुछ बिचौलियों ने धोखे से यह पैसा बैंक से निकाल लिया. गरीबी से जूझ रहे इस परिवार के पास अपना घर तक नहीं था और इंदिरा आवास ही इनके घर का सपना पूरा होने का एकमात्र जरिया था. लेकिन अपने साथ धोखा होने के बाद यह सपना टूट जाने के कारण पीड़ित परिवार पिछले कुछ दिनों से काफी तनाव में था. इस बीच वह बिचौलियों से पैसा दे देने की मिन्नत करता रहा. अपने साथ हुए धोखे के बारे में पीड़ित परिवार ने प्रशासन से गुहार भी लगाई. लेकिन कोई रास्ता नहीं निकलने के बाद धोखाधड़ी का शिकार हुए दलित ने पूरे परिवार के साथ किरोसिन डालकर आत्मदाह कर लिया. खानापूर्ति के लिए पुलिस द्वारा मामले की छानबीन जारी है.

लोगेस होप पर दलित विमर्श

अगस्त के शुरू में एक महत्त्वपूर्ण यात्रा का मौका आया. विशाखापट्टनम में दुनिया के 50 देशों के जनप्रतिनिधियों से भेंट हुई जो दुनिया के उन विभिन्न देशों के समाजों की आवाज उठाने के लिए दुनिया का भ्रमण कर रहे थे, जिन्हें गुलाम बनाया गया था और दूसरे दर्जे की जिन्दगी जीने को मजबूर कर दिया गया था. जैसे अमेरिका के मूलवासी रेड इंडियन, अफ्रीकी मूल के अश्वेत, मेक्सिको, ब्राजील, चिली आदि दक्षिण अमेरिकी देशों के वे मूलवासी जिन्हें स्पेनी हमलावरों ने पराजित किया था. द. अफ्रीकी अश्वेत समाज के प्रतिनिधित्व करने वाले सज्जन कभी के भारतीय ही थे. उनके सहित 50 देशों के ऐसे ही प्रतिनिधि 'लोगोस होप' नाम के एक विशाल पानी के जहाज पर दासता की नियति से नई पीढ़ी को मुक्ति का संदेश देने के लिए निकले थे. यह सम्मेलन विशाखापट्टनम के समुद्र में खड़े इसी जहाज पर हुआ.
इसी जहाज की एक मंजिल में किताबों की एक विशाल दुकान देखने वाली थी, जिसका नाम विशालता और विविधता के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रेकार्ड में दर्ज हो चुका है. पानी के जहाज पर दिन गुजारना एक अच्छा अनुभव था, इसमें सन्देह नहीं. विश्व प्रतिनिधियों को भारत के दलित, ओबीसी और जनजातियों के ऐतिहासिक और सामाजिक हालत से रू-ब-रू कराने के लिए कांचा इल्लैया और दलित फ्रीडम नेटवर्क के प्रमुख जोसेफ डिसूजा के अलावा मुझे भी बोलना था. दोपहर के भोजन और शाम के नाश्ते के वक्त आये हुए प्रतिनिधियों से हमारी लंबी बातें हुईं. खासतौर से दलित प्रश्न पर बड़े पैमाने पर विश्व जनमत तैयार करने के मुद्दे को लेकर.
उन्हें इस बात पर गहरा आश्चर्य हुआ कि ऋग्वेद से लेकर परवर्ती हिन्दू धर्मग्रंथों में जातीय गैरबराबरी ही नहीं दलित, पिछड़ी जातियों पर अमानवीय अत्याचारों के विधान हैं, जिनके बारे में विदेशों में बसे भारतवासी बिल्कुल नहीं जानते. सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने कहा कि विदेशों में बसे भारतवासियों तक वे इस मुद्दे पर लिखा साहित्य ज्यादा से ज्यादा प्रचारित करने की कोशिश करेंगे.
निस्संदेह जहां 'लोगोस होप' में वंचित समाज की आवाज उठाने निकले पचास देशों के जनप्रतिनिधियों को भारत में दलितों के इतिहास और वर्तमान स्थिति की सीधी तस्वीर मिली, वहीं हमें भी दुनिया में अन्य स्थानों के जातीय भेदभाव के स्वरूप का एक अलग ही परिचय मिला. अभी तक हमें अमेरिका में अफ्रीकी अश्वेतों के साथ हुए भयावह अत्याचारों की जानकारी अमरीकी अश्वेत लेखकों की कृतियों से मिली थी. लेकिन अमेरिका के रेड इंडियन समुदाय की स्थितियों से हम ज्यादा परिचित नहीं थे.
अमेरिकी महाद्वीप पर कब्जा करने वाले श्वेत समुदाय ने रेड इंडियनों पर जो भीषण अत्याचार किए थे, उनकी जानकारी काफी हद तक हावर्ड जिन की मशहूर किताब 'ए पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स' में मिलती है लेकिन रेड इंडियंस द्वारा लिखी किताबें मैं दुर्भाग्य से देख नहीं सका. हमें हैरानी हुई स्काटलैंड की स्थिति पर. वहां के प्रतिनिधि अपनी परंपरागत स्कर्ट वाली पोशाक में बेहद आकर्षक व्यक्ति थे. हमारे साथ दलित फ्रीडम नेटवर्क के अध्यक्ष जोसेफ डिसूजा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे दलित आंदोलन पर विस्तारपूर्वक बयान दिया जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र ने भी अंतत: दलित प्रश्न को गंभीरता से लेना शुरू किया है.
दलित प्रश्न की सीमा केवल भारत ही नहीं है. बहुत बड़ी संख्या में भारतवासी अमेरिका, यूरोप और आस्ट्रेलिया तक में बसे हुए हैं और मुसलमानों को छोड़कर बाकी लोग प्राय: हिन्दू ही हैं. वे अपने संस्कार अपनी धार्मिक परंपरा के साथ ही बनाए हुए हैं. वहां भी जातीय भेदभाव और अलगाव के तत्व बने हुए हैं. जाहिर है वहां बहुत बड़ा तबका ऐसा भी हो सकता है, जो जातीय भेदभाव के सवाल पर आधुनिक और उदार हो बशर्ते कि उन तक दलित प्रश्न ही तार्किकता पहुंच सके. वह वहां पहुंच सके इस नजरिए से भी दलित विमर्श को वैश्विक स्तर पर खड़ा होना होगा और इसके लिए अंग्रेजी अपनानी होगी. कांचा इल्लैया या जोसेफ डिसूजा ने अंगरेजी में किताबें लिखी हैं जिनकी पैठ पश्चिम में हुई है और इनका असर भी हो रहा है. ब्राजील के मि. मार्शल, धार्मिक आजादी के लिए काम कर रही ऐजेला वू और टीना रेमीरेज अमेरिका में इस प्रश्न पर काम कर रही हैं. उनके साथ उप्र के पूर्वांचल का हमने 2009 में दौरा किया था.
लेखक- मुद्राराक्षस
साभारः समय लाइव

Tuesday, August 16, 2011

'हर बात को जाति के चश्मे से देखना ठीक नहीं'

बात किसी अन्ना की नहीं है, न ही किसी केजरीवाल, भूषण और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ टाइप संस्था की है. बात भ्रष्टाचार की है जिसके विरुद्ध देश भर में उबाल है. एससी/एसटी सब प्लान के करोड़ों रुपये केंद्र सरकार दूसरे मद में खर्च कर देती है. कई जगह दलित छात्रों को छात्रवृति के पैसे नहीं मिलते. इंदिरा आवास बनवाने के लिए उन्हें पांच से दस हजार रुपये तक घूस देना पड़ता हैं. लालकार्ड धारी गरीबों को आधा राशन देकर भगा दिया जाता है. यहां तक की लाल कार्ड बनवाने के लिए भी उन्हें पैसे खर्चने पड़ते हैं. शायद इसे भ्रष्टाचार कहते हैं, जिससे दलित वर्ग भी हर कदम पर पीड़ित है.
किसी का ‘मत’ है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए कड़ा कानून है लेकिन वो लागू नहीं होता. यहां मैं अपने समाज के नेताओं की बात करुंगा. सवाल उठता है कि क्या किसी ने हमारे नेताओं को रोका है कि वो इसके खिलाफ आंदोलन न करें? वो क्यों नहीं एससी/एसटी कमिशन के खिलाफ मुहिम छेड़ देते. देश में कितनी जगहों पर दलितों के खिलाफ अत्याचार होने पर दलित पार्टियों के कार्यकर्ता पहुंच कर उनके लिए लड़ते हैं? क्यों नहीं लड़तें? अगर वो अपने आप को राजनीतिक कार्यकर्ता और दलितों का नेता कहते हैं तो क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती. यह भी बात आ रही है कि सिविल सोसाइटी ने दलितों का मुद्दा क्यों नहीं उठाया. क्या यह एक अलग मुद्दा नहीं है. और फिर इतिहास गवाह रहा है कि हर समाज को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है. जातिवाद और दलित अत्याचार के खिलाफ भी लड़ाई हमें खुद लड़नी पड़ेगी. इसके लिए कोई अन्ना या केजरीवाल नहीं आएगा. हमें किसी अन्ना या केजरीवाल से अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए न ही हमें उनकी जरूरत है. मैं इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं कि जिस रालेगांव सिद्दी को अन्ना ने आदर्श गांव बना दिया, शायद वहां भी दलितों की स्थिति वही होगी जो देश भर में है. और आदर्श गांव बनाते हुए अन्ना उसे भूल गए होंगे. लेकिन यह हमारी लड़ाई है, हमें लड़नी होगी.
1857 की पहली क्रांति में लड़ने वाली झलकारी बाई (लक्ष्मीबाई के साथ) हों या फिर आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले उधम सिंह या फिर देश को संवारने के वक्त संविधान लिखकर अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले महान भारतरत्न डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर. देश को जब भी जरूरत हुई है हमने कदम आगे बढ़ाकर अपना योगदान दिया है. हम मूल निवासी हैं तो देश को बचाने, संभालने और संवारने की जिम्मेदारी हमारी अधिक है. फिर इस वक्त देश में हो रहे आंदोलन को आप चुपचाप कैसे देख सकते हैं? यह कौन तय करेगा कि इस समय देश भर में सड़कों पर उतरे लोगों में दलित नहीं हैं. क्या करना है यह आप खुद तय करिए लेकिन मेरा अपना ‘मत’ है कि हर बात को जाति के चश्मे से देखना शायद ठीक नहीं.

Monday, August 15, 2011

Story From Poultry To Software


When you stay in a 200 sq ft shanty and fail at 20 businesses, there is only one way you can go: up. The transformation for Sushil Patil, 37, has been dramatic. He now lives in a glass-fronted, threestoried, 3,000 sq ft house in the tony Nagpur locality of Manish Nagar; and he owns and runs a Rs 280 crore company that does engineering consultancy and project work.

Till 2003, Patil knew only losses. From poultry to software, broking to services, the civil engineer from Nagpur University dabbled in every conceivable business. And as Reliance chairman Mukesh Ambani says, learnt 20 ways of avoiding mistakes. Setbacks were nothing new for Patil. From an early age, he was witness to financial strain and caste prejudice. Like the day his father had to request the engineering college to waive Patil's finalyear fees. "I can never forget my father bowing before the dean. That hit me hard," says Patil. He also recalls the discrimination his father, Ramrao Patil, faced.

Senior Patil was as a labourer in an ordnance factory; and, after office hours, he sold snacks in the office to feed his family of four. Still, he once went 15 years without apromotion. "His colleagues, who were from upper castes, received regular pay hikes and other benefits," he says. This humiliation made Patil resolve to have his own venture. After completing his civil engineering in 1995, Patil worked for several construction firms. "I never wanted to work under anyone, and soon quit," he says. In 1996, Patil borrowed Rs 1 lakh from a friend and started a stock-broking firm.

But the venture failed because he knew little about the business. In 1999, Patil started cleaning overhead tanks. That too went bust -- he lost Rs 1 lakh and was saddled with a Rs 7 lakh liability. In 2000, he sunk Rs 1 lakh in the poultry business. His experience with running a software-development firm was similar. "I had no money, but I somehow survived," he says. Patil returned to his calling: engineering. This time, though, he played safe. He worked for a small firm for six months and learned project-implementation strategies.
Written by Tapas Talukdar
Courtesy: THE ECONOMIC TIMES

Friday, August 12, 2011

अंबेडकर ने डाली थी दलितों के आजादी की नींव

आम तौर पर आजादी की बात करते समय लोग दलितों की आजादी की बात भूल जाते हैं. लेकिन आज जब हम फिर से आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं तो इस बार दलितों की आजादी की बात भी होगी. यह एक ऐसा तबका था, जो दोहरी गुलामी का शिकार था. जिसे आजादी दिलाया डा. अंबेडकर ने. 12 नवंबर 1930 को गांधी जी के नागरिक अवज्ञा आंदोलन से घबराई अंग्रेज सरकार ने लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया. लेकिन इस सम्मेलन में शामिल एक युवा बैरिस्टर ने गांधी जी को पूरे भारत का नेता मानने से इंकार कर दिया. उनका नाम था डॉ. बी.आर. अंबेडकर. उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी ऊंच-नीच में विश्वास रखते हैं. वे दलितों को संवैधानिक प्रक्रिया में भाग नहीं लेने देंगे इसलिए जरूरी कि ऐसे पृथक निर्वाचक मंडल बनाए जाएं जहां दलित उम्मीदवार हों और जिन्हें सिर्फ दलित चुनें.

16 अगस्त 1942 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मेकडॉनल्ड ने कम्युनल अवार्ड यानी सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी. इसके तहत दलितों को हिंदुओं से अलग मानकर अलग निर्वाचन मंडल का प्रावधान किया गया था. गांधी जी तब पूना की जेल में थे. ये घोषणा उन्हें दलितों को हिंदुओं से अलग करने का सरकारी षड्यंत्र लगा. 20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने कम्युनल अवॉर्ड के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया. देश भर में हाहाकार मच गया. डॉ. अंबेडकर से गांधी जी की जान बचाने की गुहार लगाई गई. हर तरफ से पड़ रहे दबाव को देखते हुए डॉ. अंबेडकर समझौते के लिए राजी हुए. लेकिन शर्त थी कि दलितों को हर स्तर पर आरक्षण दिया जाए. गांधी जी मान गए. 26 दिसंबर को उन्होंने अनशन तोड़ दिया. इस पूना पैक्ट ने दलितों की सूरत बदलने में क्रांतिकारी भूमिका अदा की.

डॉ. अंबेडकर से पहले 9वीं सदी के आखिरी दौर में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले जैसे समाजसुधारक ‘गुलामगीरी’ जैसी किताब लिखकर ब्राह्मणवादी कर्मकांडों पर कड़ा प्रहार कर चुके थे. उधर, दक्षिण में नारायाणा गुरु और पेरियार भी वर्णव्यवस्था के खिलाफ बिगुल बजा रहे थे. डॉ. अंबेडकर के महत्व को समझते हुए उन्हें देश का संविधान लिखने की जिम्मेदारी सौंपी गई. वे देश के पहले कानून मंत्री भी बनाए गए. डॉ. अंबेडकर के विचार, आजादी के हर बढ़ते साल के साथ ज्यादा प्रासंगिक होते गए हैं. ये उनके मिशन का ही नतीजा है कि जिस उत्तर प्रदेश में दलितों को ऊंची जाति वालों के सामने बैठने की इजाजत नहीं थी, वहां दलित समाज से ताल्लुक रखने वाली मायावती मुख्यमंत्री बन कर उसी समाज पर राज कर रही हैं.
साभार
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आरक्षण पर बवाल बेवजह

कई दिनों से फिल्म आरक्षण पर 'मत' पूछा जा रहा था. मैने पहली प्रतिक्रिया अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल पुनिया द्वारा फिल्म देखने के बाद दिए बयान के आधार पर दी थी. लेकिन अब खुद फिल्म देखने के बाद कह सकता हूं कि फिल्म पर बवाल बेवजह है. फिल्म में कहीं भी दलितों को कमजोर और लाचार नहीं दिखाया गया है. बल्कि वह सजग है. अपने अधिकारों को लेकर अपने स्वाभिमान को लेकर. वह मेधावी है, टॉपर है. मुंहतोड़ जवाब देना जानता है. फिल्म में जब-जब उस पर उंगली उठी है, उसने जवाब दिया है.
'हंस चुगेगा दाना' // 'आप लोग लात की भाषा समझते हैं' // और सैफ द्वारा दी गई मेहनत की जिस परिभाषा पर बवाल मचा है और उसको फिल्म से निकालने की बात हो रही है, मेरे 'मत' से उसको फिल्म से हटाने की कोई जरूरत नहीं है. आप खुद से पूछिए, क्या आपके-हमारे पीठ पीछे ऐसी बातें नहीं कही जाती. फिर सामने से उसका सामना करने में कैसा डर? बल्कि मैं तो कहूंगा कि जिसे कहना है सामने से आकर कहे, ताकि हम उसे जवाब दे सकें. हमने जवाब दिया है- हम दे रहे हैं जवाब. बल्कि फिल्म में यह सच दिखाया गया है कि अपने दम पर दलितों के आगे बढ़ने से और दलित हितैषियों से तथाकथित सवर्ण तबके को कैसे मिर्च लगती है और वह एक हो जाता है.
फिल्म में एक सवर्ण लड़की (दीपीका) को दलित लड़के (सैफ) के साथ प्रेम करते दिखाया जाता है लेकिन लड़की के मां-बाप इस पर कोई ऐतराज नहीं करते. कल तक फिल्म में दलित को 'कचरा' (लगान) दिखाया जाता था. लेकिन आक्रोश (अजय देवगन) और आरक्षण (सैफ) जैसी फिल्मों में वह मुख्य भूमिका में आ रहा है. मेरे 'मत' से यह स्थिति बेहतर है.
बात होनी जरूरी है. समस्या भूल जाने से या उसे छिपाने से वह खत्म नहीं होती. उसका सामना करना होता है. हमें सामना करना होगा.
जहां तक दलितों और पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण की बात है, मैं शिक्षा सहित तमाम क्षेत्रों में आरक्षण का घोर समर्थक हूं. और तब तक रहूंगा जब तक एक ब्राह्मण और क्षत्रिय कहा जाने वाला समाज अपनी बेटी का रिश्ता लेकर दलित के घर नहीं आता. तब तक रहूंगा, जब तक अगड़ों और पिछड़ों की यह व्यवस्था है. जब तक देश में कहीं भी एक भी दलित पर अत्याचार की खबर आती रहेगी, मैं आरक्षण का समर्थन करता रहूंगा.
जहां तक प्रकाश झा की बात है, ट्विटर पर उनका दलित विरोधी ट्विट सामने आया था. मुझे उससे घोर ऐतराज है. मैं विरोध करता हूं. हां, झा को धन्यवाद, जिसने हम सबको एक बार फिर और मजबूती से साथ लाकर खड़ा कर दिया. इस एकता को कायम रखने की जरूरत है.

अशोक दास
संपादक
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Wednesday, August 10, 2011

यूपी में आरक्षण पर बैन, आयोग को भी ऐतराज

उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रकाश झा की विवादास्पद फिल्म आरक्षण पर बैन लगा दिया है. बैन दो महीने के लिए लगाया गया है. फिल्म को बैन करने के पीछे राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई गई है. तो इधर अनुसूचित जाति आयोग ने भी फिल्म के कुछ दृश्यों और डॉयलग पर एतराज जताया है. आयोग ने विवादास्पद बातों को फिल्म से निकालने को कहा है. फिल्म इस शुक्रवार को रिलीज हो रही है.
यूपी में फिल्म के रिलिज होने पर दो महीने तक बैन की सिफारिश बसपा के अधिकारियों की उच्चस्तरीय समिति ने किया. समिति ने फिल्म देखने के बाद राज्य सरकार को बुधवार शाम को रिपोर्ट सौंप दी. जिसके बाद यूपी सरकार ने दलितों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने को आधार बनाते हुए इस पर बैन लगा दिया. दूसरी ओर तमाम विवादों और ना-नुकुर के बाद सेंसर बोर्ड ने आखिरकार अनुसूचित जाति आयोग को फिल्म दिखा दिया. इसके बाद आयोग के अध्यक्ष पी.एल पुनिया ने कुछ डॉयलग और दृश्यों पर आपत्ति जताया. फिल्म देखने के बाद पुनिया ने बताया, ‘‘हमने आयोग के सभी सदस्यों के साथ मंगलवार को यह फिल्म देख ली है. इसमें कई ऐसे संवाद हैं जो अनुसूचित जाति के लिए अपमानजनक हैं. हमने सेंसर बोर्ड से कहा है कि इन संवादों को फिल्म से हटाकर रिलीज किया जाए.’’ पुनिया ने उदाहरण के तौर पर बताया कि फिल्म में एक जगह कैंटीन में लिखा होता है ‘आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, इस बारे में कहा गया कि इसकी जगह यह लिखो कि ‘आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध खैरात है’, इस तरह से आरक्षण का मजाक उड़ाया गया है.
पुनिया ने कहा कि उच्चतम न्यायालय और संविधान कह चुका है कि आरक्षण सही है फिर भी फिल्म में इसे गलत तरीके से दिखाया गया है. उन्होंने कहा कि यह फिल्म शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ है. अनुसूचित जाति को अधिकार दिलाने को लेकर जो भूमिका है उसे अमिताभ बच्चन ने निभाया है लेकिन जो संवाद है वह अनुसूचित जाति के लिए अपमानजनक है जो पूरे समाज की समरसता के लिए घातक है. पुनिया से पहले महाराष्ट्र के वरिष्ठ मंत्री और दलित नेता छगन भुजबल भी आपत्ति जता चुके हैं.

Tuesday, August 9, 2011

मिर्चपुर पर फैसले से दलित आशंकित

हरियाणा के बहुचर्चित मिर्चपुर प्रकरण में आगामी 20 अगस्त को फैसला सुनाया जाएगा. मामले की सुनवाई कर रही रोहिणी की विशेष अदालत 97 आरोपियों के बारे में अपना फैसला सुनाएगी. फैसले की घड़ी नजदीक आता देख बचाव पक्ष में छटपटाहट बढ़ गई है. वह इस पूरे मामले को जातिगत विवाद की बजाए सामुदायिक विवाद बताने में जुटा हैं. साथ ही कई और बातों को सामने रखकर मामले को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. तो इधर सवर्णों द्वारा जलाकर मार डाले गए मृतक ताराचंद की पत्नी कमला सहित तमाम पीड़ितों ने सुरक्षा की गुहार लगाई है.
कमला देवी अपने बेटे अमर लाल, रवींद्र व प्रदीप के साथ हिसार के एसपी से मिली और परिवार की सुरक्षा की मांग की. एसपी से की शिकायत में कमला ने कहा कि अदालत के फैसले को देखते हुए उनकी जान को खतरा बढ़ गया है. उन्होंने खुद को मिली सुरक्षा को और बढ़ाने की मांग की. इधर, 20 अगस्त को अदालत के निर्णय को देखते हुए मिर्चपुर के ग्रामीणों ने तंवर फार्महाउस में एक बैठक का आयोजन किया. इसमें आशंका जताई गई कि फैसले के बाद गांव में तनाव बढ़ सकता है. एक जाति विशेष को निशाना बनाया जा सकता है. इससे पहले भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी हैं. गवाहों को भी निशाना बनाया जा सकता है. आशंका जताई गई कि हमलावरों को प्रदेश सरकार की मूक सहमति हासिल है. बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 6 अगस्त से हिसार लोकसभा क्षेत्र के सभी गांवों का दौरा कर प्रदेश सरकार की दलित विरोधी नीति से लोगों को अवगत करवाया जाएगा.

कांग्रेस का जमीन घोटाला!

भूमि अधिग्रहण को लेकर उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार को घेरने वाली कांग्रेस पार्टी खुद जमीन घोटाले में घिर गई है. राजीव गांधी ट्रस्ट को हरियाणा सरकार द्वारा कई एकड़ जमीन देकर उपकृत किए जाने के बाद बवाल बढ़ गया है. जमीन की कीमत कई करोड़ रुपये हैं. मामला सामने आने के बाद राजनीतिक सरगर्मी भी तेज हो गई है. तो किसानों के हितों की बात करने वाले कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की नियत पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं.
असल में मामला ऐसा है, जिसमें हरियाणा सरकार द्वारा राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट को सीधे करोड़ों की जमीन देकर फायदा पहुंचाने की बात दिख रही है. सवाल इसलिए भी उठाए जा रहे हैं क्योंकि हरियाणा की कांग्रेस सरकार ने इस ट्रस्ट को जो जमीन खैरात दी है, उस जमीन का कोर्ट में केस चल रहा था. गुड़गांव के उल्लावास गांव में जिस जमीन को लेकर विवाद है, ये जमीन इंदिरा गांधी आई हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की है. यहां पर राजीव गांधी चेरिटेबल ट्रस्ट की देखरेख में एक अस्पताल बनना है. इस जमीन के आसपास जितनी भी जमीन है ज्यादातर हरियाणा सरकार अधिगृहित कर चुकी है. लेकिन आस-पास की तमाम जमीनों के अधिग्रहण के बावजूद इंदिरा गांधी आई हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की जमीन को अधिग्रहण से अलग कर दिया. यानी आसपास के किसानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं की जमीन पर तो सरकार ने कब्जा कर लिया, लेकिन आई हॉस्पिटल की जमीन को कब्जा करने के बाद छोड़ दिया गया. इस घटना के सामने आने के बाद कांग्रेस की दोहरी नीति सामने आ गई है. पिछले ही महीने राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में घूम-घूम कर किसानों के हित की बात कर रहे थे. लेकिन एक महीने बाद ही किसानों के इस हमदर्द का मुखौटा उतर गया है.

शह-मात के खेल में सपा को बसपा की पटखनी

आगामी उत्तर प्रदेश चुनावों को लेकर बसपा और मुख्य विपक्षी सपा के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ शुरु हो गई है. दोनों ही दल एक-दूसरे के विधायकों को तोड़कर अधिक शक्तिशाली दिखाने की होड़ में पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं. लेकिन शह-मात के इस खेल में फिलहाल बसपा समाजवादी पार्टी पर भारी पड़ती दिख रही है. शुक्रवार को बसपा ने सपा के आधा दर्जन विधायकों को तोड़ कर पार्टी में शामिल करने का ऐलान किया. सपा के जो विधायक बसपा में शामिल हुए हैं, उनके नाम सर्वेश सिंह सीपू -सगड़ी (आजमगढ़), सुल्तान बेग-कांवर (बरेली), अशोक कुमार सिंह चंदेल-हमीरपुर, संदीप अग्रवाल-मुरादाबाद, सुंदर लाल लोधी -हड़हा (उन्नाव) और सूरज सिंह शाक्य- सकीट (एटा) हैं.
विधायकों के सपा छोड़कर बसपा की सदस्यता लेने के दौरान वरिष्ठ मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और लालजी वर्मा भी उपस्थित रहे. इधर पालाबदल के खेल में बसपा से मात खाई सपा का कहना है कि सत्तारूढ़ दल ने जिन विधायकों को पार्टी से तोड़ने की बात कही जा रही है वह सभी पहले से ही बसपा के साथ हैं. पार्टी इनको टिकट से भी वंचित कर चुकी है. बसपा ने अपनी सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की नीति से साबित कर दिया है कि वह समाज के सभी वर्गो की हितैषी है. एक-दूसरे के विधायकों को तोड़ने की होड़ में समाजवादी पार्टी बसपा के मसौली (बाराबंकी) विधायक फरीद महफूज किदवई, जलालपुर (अंबेडकर नगर) के विधायक शेरबहादुर सिंह और मल्लांवा (हरदोई) के विधायक कृष्णकुमार सिंह उर्फ सतीश वर्मा को पहले ही अपने पाले में कर चुकी है. इससे पहले बसपा ने 4 अगस्त को सपा विधायक संध्या कठेरिया को अपनी तरफ कर लिया था.

पंचायत के तुगलकी फरमान से बेबस दलित परिवार

मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के जीगनी गांव में पंचायत के तुगलकी फरमान के बाद एक दलित परिवार मुसीबत में घिर गया है. इस परिवार का कसूर इतना था कि उसने दबंग जाति से ताल्लुक रखने वाले दो युवकों के खिलाफ पुलिस से शिकायत की थी. इसके बाद दबंगों ने ग्राम पंचायत सभा की बैठक कर इस परिवार को गांव से बेदखल करने का प्रस्ताव पारित कर दिया. तुगलकी फरमान के खिलाफ परिवार एक बार फिर प्रशासन की शरण में है, जिसने इस फरमान को गैर कानूनी बताया है.
विवाद तब शुरू हुआ जब पीड़ित परिवार की लड़की घर से गायब हो गई. परिवार वालों ने अपनी लड़की को बहला-फुसला कर ले जाने के मामले में गांव के ही दबंग परिवारों के दो लड़कों के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करा दिया. हालांकि बाद में लड़की अपनी ही जाति के एक लड़के के साथ बरामद हुई थी. लेकिन इस बीच दोनों लड़कों के नाम प्राथमिकी दर्ज कराए जाने को गांव के सवर्णों ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया. उनलोगों को यह खुन्नस हो गई कि आखिर दलित जाति का कोई व्यक्ति उनके खिलाफ थाने जाने की हिम्मत कैसे कर सकता है. इस बात से उनको इतना गुस्सा आया कि ग्राम पंचायत की बैठक कर उन्होंने दलित परिवार को गांव से बाहर जाने का फरमान सुना दिया.

दलित महिला सरपंचों को नहीं मिलता सहयोग

संविधान में भले ही महिला व दलितों के प्रति भेदभाव व छुआछूत को खत्म करने की भावना और प्रावधानों को शामिल किया गया हो, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है. खासतौर पर राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में दलित उत्पीड़न की प्रवृति में कोई परिवर्तन नहीं आया है. प्रदेश में एक नया मामला सामने आया है, जिसमें दलित महिला सरपंचों को अपने साथी पंचायत प्रतिनिधियों व विकास अधिकारियों के भेदभाव का शिकार होना पड़ रहा है. जिससे उन्हें काम करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पर रहा है. दलित महिला सरपंचों को आदेशों को मानने से भी ये साफ मुकर जाते हैं.
लगातार इस तरह की शिकायत आने के बाद अब ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज विभाग ने अब ऐसे ग्राम सेवकों व पंचायत प्रतिनिधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा की है. इस संबंध में तत्काल एक सर्कुलर जारी करते हुए सभी जिला परिषद के सीईओ को महिला सरपंचों की शिकायतों पर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दिए गए हैं. राज्य की 9177 ग्राम पंचायत में से लगभग 734 पंचायतों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. जिला परिषद विभाग के उपशासन सचिव ने यह माना है कि अधिकतर ग्राम पंचायतों में नव निर्वाचित दलित महिला सरपंचों को ग्राम सेवकों व पंचायत समिति की ओर से केन्द्र व राज्य सरकार की ग्रामीण विकास योजनाओं की जानकारी नहीं दी जा रही है. साथ ही ये सदस्य महिला सरपंचों के आदेशों का पालन भी नहीं करते हैं. महिला के सरपंच होने के कारण ग्रामसेवकों द्वारा उनके विभिन्न आदेशों की अनदेखी भी की जाती है. ऐसे में उपशासन सचिव ने दलित महिला सरपंचों को योजनाओं की समय पर लिखित में जानकारी देने के आदेश दिया हैं.

रेप नहीं कर पाएं तो जिंदा जला दिया

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में कुछ गुंडों ने बारहवीं क्लास की एक दलित छात्रा को जिंदा जला दिया. ठीक एक दिन पहले ही आरोपियों ने छात्रा से बलात्कार करने की कोशिश की थी, इसमें विफल रहने के बाद उन्होंने उसे जला दिया. गंभीर रूप से झुलसी छात्रा को सीतापुर जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया. उसकी हालत नाजुक बनी हुई है. घटना 2 अगस्त की है. लड़की को जलाने वाले सभी आरोपी फरार हैं. जहां घटना घटी है वो लखनऊ कमिश्नरी के सीतापुर जिला स्थित थाना रामकोट क्षेत्र का जुहरी गांव है. घटना को तब अंजाम दिया गया जब लड़की अपने घर में सो रही थी. चार लोग अचानक उसके घर में घुस आए. लड़की के पिता मोल्हू जब तक कुछ समझते इन लोगों ने मिट्टी का तेल डालकर सोती ममता को जलाकर मारने का प्रयास किया. वहीं राजस्थान के अलवर जिले में घटी एक घटना में बलात्कार के बाद लड़की की हत्या कर दी गई. पिछले हफ्ते घटी इस घटना में आरोपियों ने लड़की को अपहरण कर लिया था. इसके बाद उसके साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी और उसे जिला अस्पताल के बाहर फेंककर फरार हो गए.

पहला जनजातिय सामुदायिक रेडियो शुरू

पश्चिमी मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा क्षेत्र में बसी 'भील' जनजाति के पास अब अपना रेडियो स्टेशन होने जा रहा है. यह रेडियो स्टेशन इस जनजाति की ठेठ बोली में बात करेगा, उसके सरोकारों को समझेगा और उसकी संस्कृति के तराने सुनाएगा. भाबरा रेडियो स्टेशन से हर रोज दो घंटे का कार्यक्रम प्रसारित किया जाएगा. इन कार्यक्रमों को स्थानीय स्तर पर जनजातीय समुदाय ही तैयार करेगा और इन्हें रेडियो स्टेशन के 20 किलोमीट के दायरे में सुना जा सकेगा. भाबरा रेडियो स्टेशन दुनिया का पहला जनजातीय सामुदायिक रेडियो केंद्र होगा, जिसे यह समुदाय खुद चलाएगा.
पिछड़े इलाकों में बसे आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में लाने और उनकी संस्कृति को अगली पीढ़ियों के लिए बचाए रखने के लिए 110 स्थानों को सामुदायिक रेडियो स्टेशन खोलने के लिए चिन्हित किया गया है. उनके अनुसार, भाबरा रेडियो स्टेशन से इस अभियान की शुरूआत होगी, जिसमें राज्य सरकार का आदिम जाति कल्याण विभाग मदद कर रहा हैं. भाबरा, वह स्थान है, जहां महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद का बचपन बीता. राज्य में जनजातियों के सामुदायिक रेडियो स्टेशन शुरू करने के अभियान की अगुआई सरकारी उपक्रम 'वन्या' कर रहा है. 'वन्या' के प्रबंध संचालक और संस्कृति विभाग के संयुक्त सचिव श्रीराम तिवारी के अनुसार, राज्य के 110 आदिवासी बहुल इलाकों में सामुदायिक रेडियो स्टेशन शुरू करने का संकल्प लिया है, ताकि इस समुदाय में सूचनाओं के अभाव को दूर किया जा सके. उनके अनुसार, रेडियो जैसा सस्ता और सुलभ माध्यम पिछड़े इलाकों में बसे आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में लौटाने के लिए बेहद कारगर साबित हो सकता है.

साभारः शिल्पकार टाइम्स

कौन सुनेगा चकमा जनजाति का दर्द

मिजोरम के मुख्यमंत्री लालथनहॉला द्वारा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले स्थानीय चकमा समुदाय के लोगों को कहे गए अपशब्द के बाद अल्पसंख्यक चकमा और ब्रू समाज में आक्रोश साफ नजर आ रहा है. यह घटना उस समय की है, जब छात्र संगठन जिराइल पॉल द्वारा आइजॉल के वणप्पा हॉल में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मिजोरम के चकमा और ब्रू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मिजो में नॉकसक वाई छेहो और टूइकूक जैसे अपशब्दों का प्रयोग किया गया. नॉकशक का शाब्दिक अर्थ मूर्ख, वाई छेहो का अर्थ बिना काम के और टूइकूक का गंदी नाली का कीड़ा है. इस घटना के बाद लगभग एक दर्जन चकमा और ब्रू छात्र और सामाजिक संगठनों ने मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य का जमकर विरोध किया है. सामाजिक संगठनों का कहना था कि समाज के पिछड़े, अल्पसंख्यक समाज के लोगों को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी सरकार की होती है. लेकिन सरकार के मुखिया ही इस तरह के गैर जिम्मेवार किस्म के वक्तव्य देंगे तो उनके मातहतों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
मिजोरम में चकमा और ब्रू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव आम सी बात हो गई है. इसकी एक वजह यह है कि चकमा समाज के लोग अहिंसा प्रिय हैं. इस बात को मिजो समाज के लोग भी जानते हैं कि बौद्ध धर्म में विश्वास रखने वाले चकमा समाज के लोग हिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं. चकमा ऑटोनॉमस डेवलपमेन्ट काउंसिल में मिजोरम के तीन जिले आते हैं, लुंगलई, लुंगतलई और मामिट. ये तीनों जिले बोर्डर एरिया डेवलपमेन्ट प्रोग्राम के अंदर आते हैं. मामिट एवं लुगतलई मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेन्ट प्लान के अंतर्गत आते हैं. बैकवर्ड रिजन ग्राट फंड की योजना लुंगतलई का नाम है. विभिन्न योजनाओं से बहुत सारा पैसा चकमा ऑटोनॉमस डेवलपमेन्ट काउंसिल के नाम पर आता है. इन सबके बावजूद दिलचस्प यह है कि देश सबसे पिछड़े इलाकों में ऑटोनॉमस काउंसिल का क्षेत्र भी शामिल है. राज्य के मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘क्रिश्चिनियटी ना सिर्फ मिजोरम के समाज में परिवर्तन का द्योतक रहा है बल्कि हमारे बीच में प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा वहीं से आई है. हम तो सौ फीसदी साक्षरता की दर पाने की उम्मीद रखते हैं लेकिन दक्षिण मिजोरम के दो जिलों की वजह से हमारा यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा.’ उनका इशारा शायद बातों ही बातों में मारा (सिआहा) और लुंगलेई की तरफ था. यह दो जिले मारा और चकमा समुदायों के गढ़ माने जाते हैं. राज्य के इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों के अपना-अपना स्वायत जिला परिषद है. यदि राज्य में इन दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच शिक्षा की ये दुर्दशा है तो इसके लिए दोषी राज्य सरकार ही है. चूंकि जिलों के बीच में विकास के मद में पैसा बांटने में ही ऊपर से ही भेदभाव बरता जाएगा तो निश्चित तौर पर एक खास समाज पिछे छूट ही जाएगा. मिजोरम की स्थिति को देखकर लगता है कि योजना के साथ अल्पसंख्यक चकमा, ब्रू और मारा समाज के लोगों को पिछड़ेपन का शिकार बनाया गया है.
मिजोरम चकमा डेवलपमेन्ट फोरम से जुड़े पारितोष चकमा कहते हैं, मिजो समाज के लोगों को समझना चाहिए कि जिस तरह दिल्ली-मुम्बई में अपने साथ भेदभाव की बात वे लगातार उठाते रहे हैं, कम से कम इस आधार पर उन्हें हम अल्पसंख्यकों की तकलीफ को समझना चाहिए. यदि वे हमारी तकलीफ को नजरअंदाज करते हैं तो उन्हें क्या हक है कि दूसरे प्रदेशों में अपने साथ होने वाले भेदभाव की बात को वे विभिन्न मंचों से उठाएं?
परितोष अपनी बात में उडि़सा और गुजरात की घटना को जोड़ना नहीं भूलते, बकौल पारितोष कंधमाल (उडि़सा) में जिस तरह क्रिश्चियन अल्पसंख्यकों के साथ बूरा बर्ताव हुआ और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ जिस तरह का व्यवहार गोधरा (गुजरात) में हुआ, उसके बाद अल्पसंख्यक समाज के लोग चुप नहीं बैठे. उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई है. उसी तरह मिजोरम में चकमा समाज के लोगों के साथ भेदभाव किया जा रहा है तो समाज के लोगों को एक स्वर में विरोध के साथ सामने आना चाहिए.
देश की स्वतंत्रता की दुहाई हम लाख दे लें लेकिन आज भी इस तरह के साम्राज्यवादी सोच वाले मुख्यमंत्री हमारे देश में हैं. जो सार्वजनिक मंचों पर खड़े होकर इस तरह का विद्वेशपूर्ण भाषण दे सकते हैं. मिजोरम के मुख्यमंत्री का यह भाषण निन्दनीय है. दुख की बात यह है कि इस घटना को एक महीना गुजरने के बाद भी किसी केन्द्रिय स्तर के नेता ने इस बात को तवज्जों तक नहीं दिया. जबकि भारत के अंदर पूर्वोत्तर का क्षेत्र कितना संवेदनशील है यह किसी से छुपा नहीं है. लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों की बात जब भी दिल्ली में की जाती है लोगों के बीच कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया होती है मानों किसी दूसरे देश की बात हो रही हो. यहां यह बात विश्वसनीय नहीं है कि इतनी बड़ी घटना की जानकारी देश के गृह मंत्रालय को नहीं होगी. लेकिन उनकी तरफ से इस घटना का संज्ञान लेकर कोई कार्यवाही की गई हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती है. वैसे अब चकमा समाज की नई पीढ़ी अपने समाज के लोगों पर वर्षों से हो रहे भेदभाव के खिलाफ चुप रहने को तैयार नहीं है. वह सवाल उठाने लगी है. मिजोरम जो देश में पढ़े लिखे लोगों के राज्य तौर पर पहचाना जाता है, 2011 के गणना के अनुसार जहां शिक्षा 91.58 प्रतिशत है. देश का सबसे अधिक पढ़ा लिखा जिला सर्चिप (98.76 प्रतिशत) और दूसरा जिला आईजॉल (98.50 प्रतिशत) मिजोरम में ही हैं. उसके बावजूदर चकमा समाज के 72 प्रतिशत गांवों में कोई मध्य विद्यालय नहीं है और 96 प्रतिशत से भी अधिक ऐसे गांव हैं, जहां उच्च विद्यालय नहीं है.
मिजोरम सरकार में चकमा मंत्री निहार कान्ति चकमा अपने सरकार का बचाव करते हुए इस संबंध में सारा दोष चकमा समाज पर ही डाल देते हैं. मंत्री श्री चकमा के अनुसार हमारे चकमा समाज में शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है. जिसकी वजह हमारे समाज में जागरुकता की कमी और सुविधाओं का अभाव है. मंत्रीजी सरकार के बचाव मे चाहें जो कहें लेकिन सच्चाई यह है कि बेहद चालाकी के साथ मिजोरम में विकास की बयार चकमा समाज के लोगों के बीच पहुंचने ही नहीं दी गई. आज बेहद समझदारी के साथ उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों से दूर किया जा रहा है. दूसरी तरफ उनकी जमीनों पर भी अलग-अलग बहाने से कब्जा किया जा रहा है. चकमा समाज के लोग सरकारी नौकरी में प्रवेश ना पा सकें इसलिए मिजो भाषा को सरकारी नौकरियों के लिए अनिवार्य किया गया. जबकि चकमा उसी समाज के नागरिक हैं. उनके पास अपनी भाषा और लिपी है फिर उनपर एक और भाषा का बोझ अनिवार्य करना कितना उचित है? उदाहरण के तौर पर पिछले साल छह दिसम्बर को मिजोरम में प्राथमिक और मध्य विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों की बहाली के लिए हुए परीक्षा में पचास फीसदी सवाल मिजो में पूछे गए. इसका अर्थ तो यही निकलता है कि मिजो छोड़कर दूसरे समाज के लोगों को परीक्षा से बाहर रखने का यह सरल रास्ता सरकार ने निकाला है. उन्हें जमीन से बेदखल करने के लिए भी सरकार के पास कई परियोजनाएं हैं. ममिट में डम्पा टाइगर रिजर्व के विस्तार में 227 चकमा परिवार प्रभावित हो रहे हैं.
गौरतलब है कि इस टाइगर रिजर्व में वर्तमान में कुल जमा छह शेर ही हैं. स्वास्थ सेवा की बात करें तो चकमा बहुल गांवों में उसकी हालत बेहद खराब है. लुंगलेई जिले में मलेरिया जैसे रोग की वजह से आधा दर्जन बच्चों की मौत हो जाने के बाद चिकित्सा सेवा वहां पहुंचती है. उस वक्त उस छोटे से गांव में लगभग पांच दर्जन लोग थे, जिन्हें स्वास्थ सेवाओं की जरुरत थी. चकमा समाज के लोग अब इस बात को जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें लगातार सिर्फ अत्याचार के खिलाफ अहिंसा के साथ खड़े होने की सजा मिल रही है. मिजोरम में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सजा मिल रही है. यदि नहीं तो उनके विकास के लिए मिजोरम सरकार के पास क्या योजनाएं हैं?

सरोकार.नेट से साभार
लेखक- आशीष कुमार अंशु

Sushant Meshram setting up 30 bed hospital Ambedkar Institute of Medical Science

As a child, whenever he fell ill, good healthcare would eludeSushant Meshram. "I couldn't receive good treatment as I was poor and a dalit," he says. Today, as a sleep physician in Nagpur, the 41-year-old does his bit to ensure those two attributes are not the basis for denial of treatment.
At the second floor of Neeti Gaurav Complex, near Ramdaspeth in Nagpur, a dozen kids are queued up to consult Meshram, whose board announces him as Central India's only certified sleep physician. When he was their age, though, he was working. At the tender age of 12, Meshram would pack small boxes in a plastics factory in Nagpur and earn Rs 5 per day. His family needed that money as his father was a worker in the ordnance factory and mother a maid.
Despite their poverty, Meshram and his siblings received a good education. Meshram went to a Kendriya Vidyalaya in Nagpur, where most of his classmates were from upper castes. But neither poverty nor the caste-based differences deterred him in his studies. Meshram always came first or second, and topped 90%; even in medical college, he was an accomplished student, and he went on to do a fellowship from the prestigious John Hopkins Medical University in the US. While studying medicine in Nagpur, he recalls incidents of discrimination from upper-caste teachers. He failed a semester in third year after a tiff with a professor. "We argued over a pathology slide project and I was later declared failed. I was not supposed to raise my voice."

CLINIC TO HOSPITAL
Those days of hardship led him to another decision, one that is now a business plan. Meshram is looking beyond his clinic, which is currently a Rs 10 lakh venture. He is setting up a 30-bed, multi-specialty hospital in Nagpur, for Rs 10 crore:Ambedkar Institute of Medical Science.
Spread over 7,000 sq ft, the hospital is expected to open in December. Four doctors, one of them being Meshram, are the primary stakeholders; plus, there are a few investors. The venture has secured bank loans of Rs 5 crore for the construction and equipment, and 10 doctors have signed up. Meshram wants to take this chain to Raipur, Mumbai, Pune and Aurangabad as well.
In order to be stay affordable to those who need it the most, the hospital will cross-subsidise services. Those who have the ability to pay will be charged extra, while the poor will either not pay or pay a minimal amount. "One engine pulls along various classes of bogies - be it general, sleeper or air-conditioned - to reach the same destination," says Meshram.
"Our hospital will serve all classes of people with equality." The stakeholder-doctors are also finalising plans for a medical college, and are talking to the government on land and policy issues.

Courtesy: ET

मिर्चपुर पर फैसले से दलित आशंकित

हरियाणा के बहुचर्चित मिर्चपुर प्रकरण में आगामी 20 अगस्त को फैसला सुनाया जाएगा. मामले की सुनवाई कर रही रोहिणी की विशेष अदालत 97 आरोपियों के बारे में अपना फैसला सुनाएगी. फैसले की घड़ी नजदीक आता देख बचाव पक्ष में छटपटाहट बढ़ गई है. वह इस पूरे मामले को जातिगत विवाद की बजाए सामुदायिक विवाद बताने में जुटा हैं. साथ ही कई और बातों को सामने रखकर मामले को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. तो इधर सवर्णों द्वारा जलाकर मार डाले गए मृतक ताराचंद की पत्नी कमला सहित तमाम पीड़ितों ने सुरक्षा की गुहार लगाई है.
कमला देवी अपने बेटे अमर लाल, रवींद्र व प्रदीप के साथ हिसार के एसपी से मिली और परिवार की सुरक्षा की मांग की. एसपी से की शिकायत में कमला ने कहा कि अदालत के फैसले को देखते हुए उनकी जान को खतरा बढ़ गया है. उन्होंने खुद को मिली सुरक्षा को और बढ़ाने की मांग की. इधर, 20 अगस्त को अदालत के निर्णय को देखते हुए मिर्चपुर के ग्रामीणों ने तंवर फार्महाउस में एक बैठक का आयोजन किया. इसमें आशंका जताई गई कि फैसले के बाद गांव में तनाव बढ़ सकता है. एक जाति विशेष को निशाना बनाया जा सकता है. इससे पहले भी इस प्रकार की कई घटनाएं हो चुकी हैं. गवाहों को भी निशाना बनाया जा सकता है. आशंका जताई गई कि हमलावरों को प्रदेश सरकार की मूक सहमति हासिल है. बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 6 अगस्त से हिसार लोकसभा क्षेत्र के सभी गांवों का दौरा कर प्रदेश सरकार की दलित विरोधी नीति से लोगों को अवगत करवाया जाएगा.

ऊंचाई छूती सरोज की 'कल्पना'

बात इसी साल जनवरी महीने की है. दलित उद्यमियों द्वारा आयोजित एक पार्टी में काले सूट पहने उद्यमियों से घिरे चंद्रभान प्रसाद ने पूछा, ‘अगले साल कौन हेलीकॉप्टर खरीदने जा रहा है?’ भीड़ में से जिस शख़्स को आगे किया गया उसने अपना हाथ ऊपर उठा रखा था और वह एक काली चमकीली साड़ी पहने थी तथा उनके गले में रूबी और हीरा जडि़त एक भारी हार था. वह हाथ कल्पना सरोज का था. वहां मौजूद ज्यादातर लोग इस बात से सहमत थे कि कमानी ट्यूब्स की अध्यक्ष कल्पना सरोज वहां उपस्थित सबसे सफल उद्यमी हैं.
बाद में एक बातचीत में सुश्री सरोज ने बताया कि उनकी कुल संपत्ति पांच बिलियन रुपए (लगभग 112 मिलियन डॉलर) की है. दलित बिजनेस चैंबर और योजना आयोग के बीच सोमवार को होनेवाली बैठक के पहले यह सम्मेलन आयोजित किया गया था. वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले स्तर में आनेवाले समुदाय के लोगों ने कहा कि उदार आर्थिक नीति से उन्हें लाभ मिला है. उन्होंने कहा कि इसके जरिए भारत के समाजवादी युग तथा इसकी सरकारी नौकरियों की तुलना में उनकी प्रतिभाओं तथा योग्यताओं को कहीं अधिक अवसर प्राप्त हुए हैं. शायद सुश्री सरोज की तरह इस आंदोलन का कोई और प्रतीक नहीं हो सकता है. उनके पति समीर सरोज का कहना है कि ‘मुख्य बात यह जानने की है कि यह महिला नौवीं पास हैं और प्रतिदिन दो रुपए कमाया करती थीं.’ श्री समीर पहले निर्माण कार्यों के लिए बालू की आपूर्ति करनेवाली कंपनी चलाया करते थे, और अब वे अपनी पत्नी के लिए काम करते हैं.
सुश्री सरोज ने 1980 के दशक के मध्य में महाराष्ट्र के अकोला से मुंबई आने की एक उल्लेखनीय यात्रा का वर्णन किया. यह भारत द्वारा अपनी अर्थ-व्यवस्था को उदार बनाने के दौर से शायद पांच साल पहले की बात है. अकोला में, उनकी शादी 12 साल की उम्र में कर दी गयी और 14 साल की उम्र में उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा. उनकी शादी टिक नहीं पायी. उनके पिता के पुलिस अधिकारी के पद से निलंबन के बाद उन्हें किशोर वय में ही काम करना पड़ा. मुंबई में, दर्जी का काम करके वे रोजाना दो रुपए (लगभग .05 अमेरिकी सेंट) कमाया करती थीं. उनकी कमाई बढ़ने पर पर उन्होंने अपनी सुविधा के लिए सिलाई मशीन ले ली. बाद में, बैंक ऋण लेकर वे एक फर्नीचर की दूकान चलाने लगीं. जैसा कि भारत के नवधनिकों के साथ हुआ करता है, रियल एस्टेट ने उनके जीवन में एक बड़ा मौका प्रदान किया.
1997 में, उन्होंने शहर में एक जमीन खरीदी. जिद्दी किरायेदार तथा संभावित कानूनी समस्याओं के कारण यह संपत्ति उन्हें सस्ते में मिल गयी. सुश्री सरोज ने कहा, ‘मैं लोगों को जानती थी. मैंने सोचा कि मैं यह काम कर सकती हूं… मेरे अंदर ऐसी ताकत है.’ तब तक उन्हें मुंबई में एक दशक से अधिक समय हो चुका था. सुश्री सरोज ने कहा कि वे अपनी इमारत से संबंधित फाइलों का पीछा एक सरकारी दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक करती रहीं, जब तक कि किराये दार का मामला सलट न गया. उन्होंने अंतत: उस जमीन पर एक इमारत खड़ी की (उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े हीरे के नाम पर इसका नाम कोहिनूर प्लाजा रखा).
वे कहती हैं कि इस बीच उन्हें स्थानीय माफिया की ओर से धमकियां मिलने लगीं, जो संपत्ति के व्यवसाय में किसी बाहरी व्यक्ति के हस्तक्षेप से नाखुश थे. उन्होंने बताया कि इमारत का प्लान के पास हो जाने के बाद एक व्यक्ति ने आकर उन्हें चेतावनी दी कि उनके खात्मे के लिए 500,000 रूपए (11,363 डॉलर) की सुपारी दे दी गयी है और बेहतर है कि वे शहर छोड़ कर चली जाएं. सुश्री सरोज ने कहा कि उस व्यक्ति ने कहा कि, ‘तुम जहां से आयी हो, वहां जमीन पानी मांगती है, लेकिन यहां मुंबई में जमीन ख़ून मांगती हैं.’ वे पुलिस स्टेशन गयीं और उन्होंने इस धमकी की शिकायत दर्ज करायी. पुलिस ने गुंडे को गिरफ्तार कर लिया. उस गुंडे का नाम उन्होंने उस व्यक्ति से जान लिया था जिसने उन्हें उक्त ‘सुपारी’ के बारे में बताया था. उन्होंने कहा, ‘बाद में मामला सुलझ गया.’ 2000 में उन्होंने कोहिनूर प्लाजा बेच दिया और उससे प्राप्त रकम को दूसरे भूमि सौदे में लगा दिया. सुश्री सरोज ने कहा कि इससे उनकी छवि ऐसी महिला की बन गयी जो मुंबई में जटिल समस्याओं को सुलझाने में लोगों की मदद कर सकती है.
2006 में, धातु का ट्यूब बनानेवाली कंपनी कमानी ट्यूब की कमान संभाली (वे पहले इसके बोर्ड में शामिल थीं), जिस पर 1.1 बिलियन रुपए का कर्ज था और जो दिवालिया होने के कगार पर थी. वे कहती हैं कि उन्हें उम्मीद है कि अगले साल तक यह कारखाना सारे कर्ज चुका देगा. उनकी एक चीनी मिल भी है. सुश्री सरोज अपनी सफलता के लिए अपनी धुन को श्रेय देती हैं. वे कहती हैं कि एक बार जब उन्होंने कोई काम करने की ठान लिया तो वे उसे पूरा नहीं कर सकतीं, यह बात मानने को वे तैयार नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘बहुत सारे रास्ते हैं, अगर कोई एक रास्ता काम न आएं तो मैं दूसरा रास्ता तलाशती हूं. अगर उससे भी बात न बने तो मै उसके अन्य विकल्प के बारे में सोचती हूं.’ वे फिलहाल बैलार्ड एस्टेट पर काम कर रही हैं, जिसके आसपास के दफ़्तरों में भारत के सबसे धनी व्यक्ति मुकेश अंबानी का रिलायंस हाउस भी है.
इस बीच उन्होंने अपने छोटे भाई और बहन की शादी के खर्च भी उठाये और दोनों को एक-एक अपार्टमेंट उपहार में दिया. अपनी बेटी को होटल प्रबंधन की पढ़ाई के लिए लंदन और अपने बेटे को पायलट के प्रशिक्षण के लिए जर्मनी भेजा. जहां तक हेलीकॉप्टर का सवाल है, सुश्री सरोज का कहना है कि वे इस साल एक हेलीकॉप्टर और एक विमान खरीदना चाहती हैं, लेकिन अपने निजी इस्तेमाल के लिए नहीं (वे कहती हैं, कम से कम शुरूआत में नहीं). अपने बेटे के विदेश में जाकर प्रशिक्षण लेने के तथ्य का जिक्र करते हुए वे कहती हैं कि वे जिस जिले में पली-बढ़ी हैं, वहां दलित मसीहा डॉ बी. आर. अंबेडकर के नाम के हवाईअड्डे में अरबों डॉलर के उड्डयन हब बानये जाने की योजना है, वहीं एक पायलट प्रशिक्षण स्कूल खोलना चाहती हैं.
साभारः इंडिया रियल टाइम

Monday, August 8, 2011

'जय भीम' बोलना बंद करें दलित- अनिल चमडिया

बिहार के एक मरवाड़ी परिवार में जन्में अनिल चमडिया के पिता चाहते थे कि उनका बेटा चार्टेड अकाउंटेंट बने. लेकिन चमडिया की किस्मत चुपचाप उनके लिए एक अलग राह तैयार कर रही थी. गैरबराबरी से लड़ाई की राह. समय का चक्र घूमता गया और चमडिया ने एक दिन खुद को इस राह पर खड़ा पाया. सन 1991, जुलाई की बात है, जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, पटना ने उनके बारे में एक आर्टिकल लिखा. शीर्षक था ‘No Armchair Journalist’.
दो दशक बाद भी इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. आज भी वह आपको दिल्ली और देश के कई हिस्सों में उसी शिद्दत से अपनी बात कहते मिल जाएंगे. दलित न होते हुए भी जिन कुछ खास लोगों ने दलित हित की आवाज को मजबूती से उठाया है, अनिल चमडिया उनमें प्रमुख हैं. तकरीबन तीन दशक पहले उन्होंने लेखन और एक्टिविज्म के जरिए गैरबराबरी का जो विरोध शुरू किया था. वह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस लड़ाई में अतिसक्रियता के कारण उन्हें कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ा. समाज का एक तबका उनपर स्वार्थवश दलित राग अलापने का आरोप तक लगाता है. लेकिन चमडिया इन सबसे बेपरवाह, बिना विचलित हुए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. वर्तमान समय में दलित आंदोलन, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीति में दलितों की स्थिति और अंबेडकर सहित तमाम मुद्दों पर दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक दास ने उनसे बातचीत की. www.dalitmat.com से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है.

आपका जन्म कहां हुआ, किस परिवार में, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई?
- बिहार में सासाराम एक शहर है, मेरा जन्म वहां हुआ. जन्म का साल 1962 है और तिथि शायद 27 अक्तूबर है. ‘शायद’ इसलिए क्योंकि मेरे जन्म का कोई ऐसा लिखित प्रमाण नहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा.

अपने नाम के साथ ‘चमडिया’ कब जोड़ा, इसकी क्या वजह थी?
- जोड़ा नहीं, चमडिया तो हमारे परिवार में लोग लगाते हैं. इसकी क्या वजह थी हमें नहीं मालूम. यहां हम एक बात कोट कर सकते हैं, ‘प्रभाष जोशी एक संपादक थे जनसत्ता के, काफी मशहूर. उन्होंने एक बार हमारे एक दोस्त हैं शेखर जो कि अभी पटना में हैं और काफी अच्छे कहानीकार माने जाते हैं. तो राजेंद्र भवन में एक कार्यक्रम चल रहा था. शायद किसी किताब का विमोचन था. प्रभाष जोशी भी आए थे. उन्होंने हमारे दोस्त से पूछा कि आप जानते हैं कि आपके मित्र अनिल चमडिया,‘चमडिया’क्यों लगाते हैं? हमारे दोस्त ने कहा कि मुझे कभी पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. तब प्रभाष जोशी ने हमारे दोस्त को बताया कि इनके जो पूर्वज थे वो चमड़े का कारोबार करते थे. इसकी वजह से ये लोग अपनी टाइटिल चमड़िया लगाते हैं. ’वो खुद को राजस्थान का मानते थे और हालांकि मैं जानता नहीं लेकिन मेरा परिवार भी शायद वहां से आया होगा. क्योंकि एक बार मैं इंटरनेट पर सर्च कर रहा था कि चमड़िया टाइटिल कहां-कहां कौन लिखता है. तो कुछ क्रिश्चियन नाम जैसा देखा, पाकिस्तान के कुछ मुस्लिम नाम जैसा देखा, गुजरात में देखा. तो कई तरह के और जगह के लोग इस टाइटिल का इस्तेमाल करते थे.

यानि यह टाइटिल आपके साथ शुरू से रहा?
- हां, शुरू से रहा. इसके चलते हमें परेशानियां भी होती थी. क्योंकि जिस शहर में हमलोग थे वो बहुत छोटा शहर था. हमारे कॉलेज में भी लोग हमको बड़ी अजीब तरीके से पुकारते थे. चमड़ी-चमड़ी ही कहते थे, चमड़िया कोई नहीं कहता था. बहरहाल हमने कभी इसके जड़ में जाने की जरूरत इसलिए महसूस नहीं की क्योंकि टाइटिल स्थाई नहीं होते हैं. टाइटिल बदलते रहते हैं. जैसे हमारे ही परिवार में अब एक फर्क आ गया. मेरे भाई ड़ लिखते हैं, हम ड लिखते हैं. तो इसमे मैं कभी डीप में नहीं गया कि क्या कारण हैं. मैं केवल इतना जानता हूं कि इस परिवार में पैदा हुआ हूं, यह टाइटिल मिला है और इसे लेकर चलना है.

आपके दलितवादी होने की वजह क्या थी. आप खुद को कब से दलितवादी मानने लगे?
- समाज में दलित क्या हैं? वह उत्पीड़न के शिकार हैं, गैरबराबरी के शिकार हैं और इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है. कोई तर्क नहीं है कि ऐसा क्यों? तो एक तरह से यह एक अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती.

यानि ऐसे लोग भी हैं, जो मौका देखकर दलितवादी बन गए.
- अब देखिए, हमारे समाज में अवसरवादिता तो हैं ही. हम आपको बता सकते हैं कि जो ये अपने को कम्यूनिस्ट और वामपंथी कहते हैं इसका बड़ा हिस्सा (जोड़ देकर) अवसरवादी है. क्योंकि मैने देखा है अपने कई मित्रों को की उन्हें लेक्चररशिप चाहिए होती है तो वह‘लाल सलाम’कहने लगते हैं और उस आयडोलॉजी में नौकरी है. हमने कई ऐसे वकीलों को देखा कि जब उन्हें प्रैक्टिस शुरू करनी है और केस चाहिए तो उन्होंने‘लाल सलाम’कहना और कामरेड कहना शुरु कर दिया. लेकिन वास्तव में उनका जो चरित्र था वो अवसरवादिता का था. तो मैं यह मानता हूं कि दलित के संदर्भ में यह जो उभार आया है, खासतौर से 90 के बाद से आपको बहुत सारे लोग यह कहने वाले मिल जाएंगे कि मैं दलितवादी हूं, समाजिक न्याय का पक्षधर हूं. लेकिन मैं सवाल ये करता हूं कि जो लोग आज अपने आप को ऐसा कहते हैं, उनका इतिहास उठाकर देखा जाए कि वो 78 में क्या थे? और 78 से पहले उनकी क्या भूमिका थी? इसको देखने की जरूरत है. तब जाकर सही आकलन हो पाएगा कि बुनियादी रूप से यह आदमी क्या है.
(कुछ नाम बताएंगे आप, मैं बीच में टोकता हूं)
नहीं, नाम नहीं बताऊंगा मैं क्योंकि यह उनको सर्टिफिकेट देने जैसा मामला है. इसको एक ट्रेंड के रूप में देखना चाहिए. इसलिए आप देखिए कि आज बहुत सारे लोग जो वामपंथी हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है.

जैसा आपने अवसरवादी दलितवादी और वामपंथ के बारे में कहा. तो आप पर भी यही आरोप लगता है. समाज का एक तबका है जो यह कहता है कि अनिल चमडिया दलित नहीं हैं. और स्वार्थवश दलितवादी बनते हैं. इन आरोपों के बारे में क्या कहेंगे?
- जो सवाल खड़ा करता है, उसे करने दीजिए. देखिए मेरा कोई लाभ नहीं है. कोई हित नहीं है. पहली बात कि अगर कोई आरोप लगाता है तो मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है. मान लिजिए मेरा पूरा जीवन है और आप ही बताइए कि मैने कभी यह कह कर लाभ उठाया है कि मैं दलितवादी हूं, मुझे लाभ दो. कहीं कोई पद हासिल किया है. कोई पैसा लिया है. कोई एक उदाहरण बताए हमको. मैं तो कह रहा हूं कि मेरा अपना कोई इंट्रेस्ट नहीं है. जो स्वार्थी किस्म के लोग होंगे, अवसरवादी किस्म के लोग होंगे जो दलित-दलित कर के अपना हित पूरा करना चाहते होंगे. वो भइया मुझे कठघरे में खड़ा करें. बात साफ है. क्योंकि उनके पास वही कार्ड है. उसी के साथ वो खेलेंगे. जैसे आपने पूछा कि मैं दलितवादी हूं तो मैने कहा कि हूं. मैं दलितों के हितों की बात करता हूं. उनके हितों की लड़ाई लड़ता हूं. लेकिन हम इसका कोई प्रोजेक्ट नहीं बनातें. यह मेरे प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं है कि मैं दलितवादी हूं और मुझे कोई प्रोजेक्ट मिल जाए. कहीं विज्ञापन मिल जाए. ये मेरा काम नहीं है. हमारे भीतर ये बात है. हमारे भीतर एक छटपटाहट है, एक बेचैनी है तो हम इसे व्यक्त करते हैं. अब किसी दूसरे को परेशानी होती है तो हो, उसकी मुझे चिंता नहीं है. और ऐसे बहुत सारे लोग हैं. गैरदलितों में भी बहुत सारे लोग परेशान होते हैं. चिंता करते हैं. यह एक लड़ाई है. लड़ाई है कि हम सवाल खड़े करेंगे तो आप मुझे कठघरे में खड़ा करेंगे. क्योंकि आपके पास सवालों का जवाब नहीं है. न आपके पास सवाल हैं. तो आप मुझे दूसरे तरह से कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करेंगे. मैं किसी के बारे में नहीं कहता. मैं कहता हूं कि सबकी अपनी-अपनी भूमिका है. सभी अपना-अपना काम कर रहे हैं. लेकिन बहुत सारे लोग जिन पर जब सवाल खड़े होने लगेंगे तो आप पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने लगेंगे. क्योंकि वह वैचारिक रूप से खोखले इंसान हैं. उनके पास विचार नहीं है. उनके पास एक लंबी योजना नहीं है समाज को बदलने की.
आप मान लिजिए की अनिल चमड़िया दलितवादी नहीं है, दलित नहीं है. कुछ नहीं है. आप कीजिए ना काम, आपको कौन कुछ कह रहा है. अनिल चमड़िया कहां आपको डिस्टर्ब करने आ रहे हैं. अनिल चमड़िया ने आपको कभी डिस्टर्ब किया हो, सीधे कोई सवाल उठाया हो कि आपको इतने लाख की परियोजना मिल गई. आपने इतना कमा लिया. ये तो हम कभी कहने नहीं जाते थे. तो लोगों के कहने की मैं चिंता नहीं करता.

तमाम पार्टियां दलित हित का दम भरती हैं. आजादी के बाद तमाम पार्टियां सत्ता में आई, लेकिन दलितों की स्थिति सुधारने के लिए किसी ने मिशन की तरह काम नहीं किया. चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा या फिर वामपंथ.
- देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने
मंदिर खोलो, अपने यहां ब्राह्मण पैदा करो. एक धारा जो है वह कहता है कि ब्रह्मणवाद खत्म करो. तो दो तरह की धाराएं हमें दलित राजनीति में देखने को मिलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि जो राजनीतिक पार्टियां हैं, वो क्या कहती हैं? उनके शब्द और भाव क्या हैं? उनका शब्द और भाव यह होता है कि आप दलितों का कल्याण करिए. दलितों को थोड़ा ऊपर उठाने का भाव होता है. दलित नेतृत्व करे, यह भाव किसी का नहीं होता है. वह भाव जब भी पैदा हुआ, वह कांशीराम में ही पैदा हुआ. वह मायावती ने ही पैदा किया. तो इन दोनों भावों को समझने की जरूरत है. दलितों की स्थिति क्यों ज्यों की त्यों बनी हुई है, अगर उन कारणों को समझें तो इन भावों को समझ सकते हैं. तो यह तो हर राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि दलितों का कल्याण हो. लेकिन जो राजनीतिक नेतृत्व है, समाज में बैठे हुए जो लोग हैं. उनकी मानसिकता अगर दलित विरोधी और पिछड़ा विरोधी है तो यह कैसे हो पाएगा. यह कभी संभव नहीं होगा.

आप खुद को वामपंथी विचारधारा का मानते हैं?
- मैने कहा न कि कई उतार-चढ़ाव रहे जीवन में. और मैं यह समझता हूं कि भारतीय समाज में जिस तरह के अन्याय की स्थिति है उसमें यदि आप किसी को वामपंथी कह देते हैं तो आप उसकी लड़ाई की एक दिशा की ओर इंगित कर देते हैं. वामपंथी मतलब आप आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करने पर जोड़ देते हैं. आप समाजिक गैरबराबरी को इग्नोर करते हैं. मेरा यह कहना है कि भारतीय समाज में वो वामपंथ नहीं हो सकता, जो दुनिया के अन्य देशों में है. यह अलग है भी. आप जब क्यूबा में जाएंगे यह आपको अलग मिलेगा, नेपाल में अलग मिलेगा, सोवियत संघ में अलग था, चाइना में अलग मिलेगा. मार्क्सवाद कहीं से यह नहीं कहता है कि समाजिक स्तर पर गैरबराबरी की जो स्थितियां हैं, उसे सेकेंड्री मानें. तो जहां तक मेरी बात है, वामपंथ को जिस तरीके से परिभाषित किया जाता है, उस रूप में मैं वामपंथी नहीं हूं. हां, लेकिन मैं यह मानता हूं कि समाज में गैरबराबरी की लड़ाई का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन सामने आया है वह वामपंथ में है.

आपने अभी जो कहा उसमें एक द्वंद सा नहीं है कि आप खुद को वामपंथी तो मानते हैं लेकिन एक खास रूप में नहीं मानते. इसका मतलब क्या है?
- मैने तो आपसे कहा कि दुनिया के तमाम देशों में जो वामपंथी हैं, वह देश की सामाजिक-आर्थिक स्थित के अनुरुप मार्क्सवाद को ढ़ालने का काम करते हैं. तो मैने कहा कि अगर हमारे यहां वामपंथ की ये परिभाषा है कि वामपंथी होने का मतलब केवल आर्थिक गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने वाला राजनीतिक कार्यकर्ता है, तो उस अर्थ में हम वामपंथी नहीं है. उसके साथ ही मैं यह भी कह रहा हूं कि गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन है वह मार्क्सवाद में है. आप मार्क्सवाद की अवहेलना नहीं कर सकते. आप देखेंगे कि हमारे देश में दलित और पिछड़े समाज के जो नेता निकले, जो लड़ाई लड़ी. उनके जो शब्दकोष हैं वह मार्क्सवाद से निकले हैं. लालू यादव कहते हैं कि लांग मार्च करेंगे. और आप अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी.

वामपंथ के मुताबिक दलित समस्या का समाधान क्या है. वामपंथी दलों ने दलितों के हित के लिए अब तक क्या किया है?
- महाराष्ट्र के इलाके को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में दलितों के हितों की राजनीतिक चेतना का विकास जितना वामपंथी दलों ने किया है, उतना दूसरे लोगों ने नहीं किया है. हमको ये फर्क करना पड़ेगा कि लड़ाई का जो आपका उद्देश्य है वो क्या है? वामपंथी जो यहां लड़ाई लड़ते रहे हैं वो बुनियादी परिवर्तन की लड़ाई लड़ते रहे हैं. उनमें जो उनके साथ सबसेज्यादा लड़ने वाले लोग रहे हैं वो दलित रहे हैं. क्योंकि उनमें मुक्ति की आकांक्षा थी. केवल सरकार बनाने की लड़ाई नहीं लड़ते रहे हैं इसलिए उस तरह की लड़ाई में आपको फर्क यह दिखाई देगा कि वहां राजनीतिक कार्यकर्ता तो निकले लेकिन सत्ता में नहीं पहुंचे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भेदभाव की लड़ाई लड़ी. मेरे कई मित्र बताते हैं जैसे भोजपुर के इलाके में दलित खाट पर नहीं बैठ सकते थे. उनके लिए कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग लड़े. लेकिन उन्होंने उन्हें सत्ता में जगह नहीं दी. तो लड़ाई को इतने सपाट तरीके से नहीं देख सकते. क्योंकि वो हर स्तर पर उत्पीड़न का शिकार है. तो जाहिर सी बात है कि आप एक स्तर पर आगे बढ़ाने की बात करते हैं तो दूसरे स्तर पर रह जाता है. जैसे आज उत्तर प्रदेश में मायावती सत्ता में हैं लेकिन क्या वहां दलितों के साथ भेदभाव की स्थिति नहीं है. लेकिन हम फिर भी इसे भी प्रोत्साहित करते हैं. हम मानते हैं कि दलित नेतृत्व होना चाहिए. लेकिन फिर भी मानते हैं कि भेदभाव की स्थिति बनी हुई है. यही बात कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी है. यहां भी दो तरह की धारा देखने को मिल रही है. एक राजनीतिक रूप से चेतना संपन्न है. दूसरी तरफ आप उनकी शिकायत कर सकते हैं कि उन्होंने आपको नेतृत्व में आने का मौका नहीं दिया. बाबा साहब के आंदोलन से लेकर वामपंथ और कांशी राम जी के आंदोलन तक सारे आंदोलनों की अपनी एक बड़ी भूमिका रही है. और आप हर आंदोलन पर सवाल उठा सकते हैं. तो आपको अगर राजनीतिक लाभ उठाना है तब तो यह अलग बात है. लेकिन समाज का एक बौद्धिक सदस्य होने के नाते जो लोग उन्हें इस स्थिति से निकालने के बारे में सोचते हैं वो ऐसा नहीं सोचते कि उन्होंने ऐसा किया, ऐसा नहीं किया.

दलितों के समाज में आगे आने के बाद जातीय उत्पीड़न का रूप भी बदला है. अब यह प्रत्यक्ष न होकर इसने दूसरा रूप ले लिया है? इसकी वजह क्या है?
- वो आएगी ही. देखिए एक बात जान लिजिए. जब ढ़ांचागत परिवर्तन होगा तो उत्पीड़न का रूप भी बदलेगा. जैसे ढ़ांचागत परिवर्तन यह हुआ है कि अब आपको स्कूल में पढ़ने को मिल रहा है. तो अब उत्पीड़न का तरीका बदलेगा. पहले उत्पीड़न का तरीका यह था कि आपको स्कूल में नहीं आना है. अब जब उन्होंने आपको अंदर आने दे दिया तो उनके मन में जो यह बात फिट है कि आप छोटे हैं तो वह स्कूल के भीतर किसी न किसी रूप में तो काम करेगा ही. वह खत्म नहीं होगा. बस उसका रूप सूक्ष्म हो जाएगा. आपसे बात करते हुए मैं एक महत्वपूर्ण बात करने जा रहा हूं.
मैं इधर दलित समाज द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में गया. मैं वहां यह बात बार-बार कह रहा हूं कि आप‘जय भीम’बोलना बंद करिए. जय भीम क्यों बोलते हैं? आप इसका अर्थ बताइए. यह कहां से निकला?‘जय’का पूरा एक ढ़ांचा है. आप कहते हो कि हम‘भीम’को जय कर रहे हैं. यानि भीम की जय कर के आप उन्हें एक ढ़ांचे में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है.

'जय भीम' दलितों के लिए एक मंत्र बन गया है. आप जो यह कह रहे हैं कि दलित जय भीम बोलना बंद करें तो क्या वो इस स्थिति को स्वीकार करेंगे?
- देखिए मैं तो कह रहा हूं कि इस पर विचार करें. जय भीम क्यों बोलते हैं, यहां से सोचना शुरू करें. हमारा हाल यह है कि हम इतने ज्यादा उत्पीड़न की स्थिति में रहे हैं कि जरा सा भी सुख देने वाला कोई भी विकल्प हम अपना लेते हैं. तो जय भीम क्यों बोला जाता है. आप इसके विस्तार का काल देखिए. तो मैं आपके उस सवाल का जवाब दे रहा था कि आप कह रहे हैं कि स्ट्रक्चर चेंज नहीं करेंगे तो आपकी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन होने नहीं जा रहा है. साफ सी बात है. हां, क्षणिक सुख मिलेगा. लेकिन ये जो लड़ाई है वो क्षणिक लड़ाई नहीं है. आप पर जो गैरबराबरी थोपी गई है वो क्षणिक नहीं है. वह एक योजना का हिस्सा है. और वो वर्षों पुरानी, बहुत दूरदर्शी किसी शासक द्वारा रची है. तो मैं मानता हूं कि अगर आपको गैरबराबरी को खत्म करना है तो आपको तात्कालिक सुख, संतोष की लड़ाई से निकलना होगा.

आप मीडिया से लगातार जुड़े रहे हैं. मीडिया में दलितों को लेकर जो एक भेदभाव है. उसे आप कैसे देखते हैं?
- मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि यह पूरा मामला स्ट्रक्चर का है. बहुत सारे लोग कहते हैं कि दलित मीडिया खड़ा हो. लेकिन ये हो नहीं पाया है. (मैं बीच में टोकता हूं)

तो क्या दलित मीडिया खड़ा होना चाहिए. आप इसके पक्ष में हैं?या फिर इसी सिस्टम में दलितों को जगह मिलनी चाहिए?
मैं इतने सपाट तरीके से चीजों को देखता नहीं हूं. मान लिजिए की अगर दलित मीडिया है तो वो फिर दलित मीडिया हो गया. हम कह रहे हैं कि एक मीडिया ऐसा हो जो समाज की गैरबराबरी को दिखाए. दलित मीडिया का क्या मतलब हुआ, केवल दलितों की बात करने वाला. तो मान लिजिए की ऐसा कोई मीडिया खड़ा हो भी गया तो मुझे नहीं लगता कि वो ज्यादा कामयाब होगा. हां, दलित समाज के भीतर एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन पूरे समाज को एडजस्ट करने के लिए वो काम नहीं करेगा. तो मैं ये मानता हूं कि केवल दलित मीडिया से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पूरे समाज को संबोधित करने के लिए, उसकी वस्तुस्थिति जाहिर करने के लिए उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
जैसे यूपी में इन दिनों एक भाषा इस्तेमाल की जा रही है. दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न. आप इसकी बारीकी को समझिए कि कैसे वो दलित के उत्पीड़न के लिए दलित को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है. आप इसको सोचिए. मायावती दलित नहीं भी हैं और हैं भी. वह सरकार की मुख्यमंत्री हैं. प्रदेश चला रही हैं तो वो पूरे समाज की हैं. लेकिन आप उनको संबोधित कर रहे हैं केवल दलित. और खासतौर पर वहां कर रहे हैं जहां दलित उत्पीड़न की शिकायत है. तो आप क्या कर रहे हैं कि आप वहां सरकार को बचा रहे हैं. सरकार के ढ़ांचे को बचा रहे हैं और दलित को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यानि की उनका दलित होना इस विफलता का परिचायक है. बहुत सूक्ष्म तरीके से ऐसी सांस्कृतिक लड़ाई होती है. बड़ी बारीक लड़ाई है. और अगर हम इस बारीकी को समझने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं तो हम क्या करते हैं कि जो भी चीजें (नारा) आती हैं, हम उसमें बह जाते हैं. तो मुझे लगता है कि हमें उस बहने वाली स्थिति से निकलना होगा.

मीडिया में तमाम बड़े नाम हुए हैं. जैसे प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, एसपी सिंह. उन्हें काफी अच्छा माना जाता है. उनके जमाने में क्या दलित मुद्दों को जगह मिल पाती थी. उन्होंने इस ओर ध्यान दिया था.
- नहीं, कोई ध्यान नहीं दिया था. इन लोगों का कभी भी इससे कंसर्न विषय नहीं रहा. मैं मानता हूं कि भारतीय मीडिया में अभी तक कोई भी ऐसा मीडिया लीडर नहीं निकला है जो इस सवाल को बहुत गंभीरता से लेता हो. मीडिया मे दलितों के खिलाफ खबरों के आने का जो ट्रेंड है, वो जो शुरू में था वही अब है. दलितों के बारे में जो खबर आती है वो तब आती है जब दलित उत्पीड़न की बड़ी घटना हो जाती है. वह इसलिए आती है क्योंकि आप उसे इग्नोर नहीं कर सकते हैं. मैं नहीं समझता हूं कि किसी ने बहुत सचेत होकर कोई कोशिश की है कि मीडिया में जो दलितों के खिलाफ या तमाम तरह की गैरबराबरी के खिलाफ खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिल पाए. और इस गैरबराबरी से निकलने की अवस्था बने. ऐसा भी नहीं है कि दलित समाज के जिन बच्चों की पत्रकारिता में रुचि है और जो इसमें आना चाहते हों, इनलोगों ने उनकी मदद की हो.

संविधान में हमें आरक्षण का लाभ मिला है लेकिन कई जगहों पर यह नहीं दिया जाता. जैसे आपने ही एक आरटीआई डाली थी, जिसमें निकल कर आया था कि लोकसभा चैनल में दलित नहीं हैं. जबकि वो भी सरकारी चैनल है. क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है?
- बिल्कुल है. जब से यह चैनल शुरू हुआ उसके पहले ही यह नियम बन गया कि हम कन्सलटेंट के रूप मे किसी को भी भर्ती कर सकते हैं. उसमें आरक्षण का कोई लेना-देना नहीं है. अब उन्होंने एक रास्ता निकाला कि आरक्षण के सिद्धांत को कैसे दरकिनार कर दें. तो इसके लिए एक अलग रास्ता निकाला गया. लोकसभा में देश का सारा कानून बनता है. यहीं यह नियम बना कि दलितों के लिए नौकरियों में शिक्षा में आरक्षण होगा और उसी के संस्थान में आरक्षण लागू नहीं है. संपादकीय के 107 लोगों के ढ़ांचे में मेरी जानकारी में एक भी लोग नहीं हैं. और अगर वो यह सोचते हैं कि बिना आरक्षण लागू किए इस व्यवस्था में कोई आदिवासी आ जाएगा, कोई दलित आ जाएगा तो यह ऐसे ही हैं, जैसे कोई यह कहता है कि बिना आरक्षण के कोई लोकसभा में पहुंच जाएगा. इतने सालों बाद भी इसके बारे में नहीं सोचा जा सकता. आप सोचिए कि इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. ठीक इसी तरह मैने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाया था. वहां पूरी वर्ण व्यवस्था को प्रदर्शित करने वाली तस्वीरें लगी हैं. कि किसको ब्राह्मण कहते हैं, किसको क्षत्रिय कहते हैं, किसको वैश्व और किसको शूद्र कहते हैं. हमने इस बारे में आरटीआई डाला, संसद में सवाल करवाया लेकिन यह जवाब नहीं आया कि वो क्यो?
यह 1932 से लगी है. जब से अंग्रेज थे तब से. उस आफिस में हर दल के लोग जाते हैं. कई दलों की सरकार रह चुकी है. उसमें तमाम दलित लोग रह चुके हैं. मुझे हैरानी होती है कि किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाया. आपने खुद को एकोमोडेट करने की जो मानसिकता बना रखी है इसमें यही होगा. ऐसे में आप रिलेक्स हो जाते हैं. जो अकोमोडेट हो जाते हैं उनको फिर समाज में परिवर्तन की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहता.
आज जो लोकसभा की स्पीकर हैं वो दलित परिवार से आती हैं. बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं लेकिन उनके राज में भी यह व्यवस्था चलती जा रही है. मेरा यह मानना है कि अगर स्ट्रक्चर में आप केवल अपनी जगह बनाएंगे और स्ट्रक्चर गैरबराबरी का है. तो आप मान कर चलिए कि गैरबराबरी किसी ना किसी रूप में बनी रहेगी. उसका रूप बदल जाएगा.

यही चीजें शिक्षण संस्थाओं में भी देखने को आ रही हैं. पिछले दिनों मे तमाम आरटीआई में यह निकल कर आया है कि दलितों और पिछड़ों के लिए निर्धारित सीटों को भरने में तमाम तरह की धांधली हो रही है?
- मैं तो कह रहा हूं कि आपके हाथ से आरक्षण जा रहा है. अब जो राजनीतिक नेतृत्व तैयार किया गया है वो आरक्षण के मुद्दे को उठाकर जोखिम लेने की स्थिति मे नहीं है. आप सोचिए ना कि आरक्षण को लागू हुए देश में कितने साल हो गए. मैने तो आरटीआई के माध्यम से कई जानकारियां निकाली थीं. इसमें सामने आया था कि भारत सरकार में एक भी सेक्रेट्री दलित नहीं था. ग्रुप‘ए’के अधिकारी भी रेयर ही थे. शिक्षण संस्थाओं मे भी यही हाल है. एम्स में भी लड़ाई लड़ी गई है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की स्थिति को खत्म करने के जो प्रयास हो रहे हैं वो दलित और पिछड़े के नेतृत्व में किया जा रहा है. यह ज्यादा खतरनाक बात है.

आप पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाते रहे हैं, वहां के अनुभवों को बताइए?
- आईआईएमसी के हिंदी विभाग में 3 साल तक पढ़ाया. 2-3 साल दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा. वर्धा में कई वर्षों से जाता रहा हूं. फिर वहां प्रोफेसर के रूप मे नियुक्त भी हुआ था. अब भी कई संस्थानों से जुड़ा हूं. लेकिन पढ़ाने के बीच में दुविधा की स्थिति भी होती है कि हम छात्रों को किसके लिए तैयार कर रहे हैं? क्या हम मीडिया आर्गनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार कर रह हैं, या फिर समाज के लिए पत्रकार तैयार कर रहे हैं. आखिर हम मीडिया आर्गेनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार क्यों करें? यह दुविधा है.

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहने के दौरान वहां के कुलपति वीएन राय से आपका विवाद काफी सुर्खियों मे रहा था. विवाद की वजह क्या थी. क्या अब वो सारा विवाद खत्म हो गया?
- व्यक्तिगत विवाद नहीं था. हर संस्थान का लीडर चाहता है कि संस्थान उसके मुताबिक चले. कोई आजादी देता है, कोई नहीं देता. झगड़ा यहीं होता है. वर्धा में जो कुलपति हैं, वो पुलिस बैकग्राउंड के हैं. उनका जीवन आदेश देने-लेने में गुजरा है. मेरा जीवन स्वतंत्र रहा है. तो मूलतः यही अंतरविरोध था. फिर धीरे-धीरे विवाद का विषय बनता चला गया. उन्होंने ही आमंत्रित किया था. अप्वाइंट किया था. इंटरव्यूह के वक्त ही मैने साफ कहा था कि मैं दिल्ली छोड़कर आ रहा हूं तो मेरी एक योजना है. मैने उसे सामने रखा था. लेकिन जब उसे लागू करने लगा तो दिक्कत आने लगी. फिर ईसी (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) ने फैसला किया कि मुझे हटाना है. एकतरफा फैसला था. फिलहाल नागपुर हाई कोर्ट में केस चल रहा है.

लोकसभा में दलित-आदिवासी समुदाय से 120 सांसद हैं. लेकिन मिर्चपुर जैसा बड़ा कांड होने के बावजूद संसद में वह प्रमुखता से नहीं उठ पाया. इसकी क्या वजह है?
- संसद ही क्यों, जितना शोर-शराबा संसद के बाहर होना चाहिए था, वहां भी नहीं हो पाया. इस पर अध्ययन होना चाहिए कि मिर्चपुर जैसे बड़े कांड के बावजूद भी आंदोलन की शक्लक्यों नहीं बन पाई. इस घटना के बाद पूरा सरकारी तंत्र जागरूक हो गया था. भावी प्रधानमंत्री कहा जाने वाला शख्स भी वहां पहुंच गया था. मुआवजे की घोषणा हुई. अधिकारी गिरफ्तार किए गए. मेरा सवाल है कि क्या आंदोलन इसी तरह की मांगों के लिए होते हैं? आंदोलन का उद्देश्य क्या बस ऐसी मांगों को पूरा करवाना होता है? या फिर आंदोलन का उद्देश्य इस तरह की घटनाओं को रोकना होता है. तो आंदोलन का उद्देश्य उस उद्देश्य तक नहीं पहुंचा है, जहां इसे पहुंचना चाहिए था.
दलित समाज का बड़ा हिस्सा सत्ता में है. लाखों लोग अच्छी नौकरी में है. सबकुछ है लेकिन आप एक बड़ा आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर पा रहे हैं. खैरलांजी, मोहाना, दुलीना जैसे आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर सके. दलित उत्पीड़न विरोधी जो राजनीतिक धारा है, उस पूरी धारा का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए.

क्या आप दलित आंदोलन के वर्तमान रुख और तेजी से संतुष्ट हैं?
- बिल्कुल नहीं हूं. संतुष्ट तब होते, जब सब ठीक होता, दुरुस्त होता. आंदोलन का विस्तार होता रहता है. अभी जड़ता की स्थिति है. अगर इसे तोड़ा नहीं गया तो लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी.

वर्तमान में दलित आंदोलन में किन नई बातों को शामिल किए जाने की और पुरानी बातों को छोड़ने की जरूरत है?
- आंदोलन में जो एक बात दिखाई दे रही है कि यह शहरी हिस्से, मध्यवर्ग और शिक्षित लोगों तक ही सिमटती जा रही है. यह बड़ा खतरा है. हम कभी यह नहीं सुनते कि जो आरक्षण नहीं मिलने की शिकायत करते हैं वो देश के खेत मजदूरों की भी बात करते हैं. खेत मजदूरों की सर्वाधिक आबादी दलितों की ही है. आंकड़ें उपलब्ध है कि 20 रुपये रोज पर 76 फीसदी लोग गुजारा करते हैं, आप उनमें दलितों की संख्या का अंदाजा लगा लिजिए. इसके मुकाबले इनकी चिंता कितनी होती है, उसे साफ तौर पर देख सकते हैं. आंदोलन की भाषा को सबसे पहले चेक करने की जरूरत है. आरक्षण समाज को मिलता है, व्यक्ति को नहीं. आरक्षण के जरिए व्यक्ति सरकारी संस्थाओं में समाज का प्रतिनिधित्व करता है. जब तक वह इस स्थिति को महसूस नहीं करेगा कि वह अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि अपने समाज का प्रतिनिधि है, वह अपने आप को जिम्मेदार नहीं बना सकता है.

उत्तर प्रदेश के अलावा और कहीं सशक्त नेतृत्व उभर कर क्यों नहीं आ पाया?
- उत्तर प्रदेश में जो आंदोलन की स्थिति बनी है, उसमें कांशी राम जी का आंदोलन लंबे समय तक चला. उसी की वजह से दलित चेतना जागी. कांशी राम जी का आंदोलन पूरे प्रदेश में दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करता था. यूपी ब्राह्मणवाद का केंद्र रहा है. लोगों की चेतना में यह लंबे समय से था. इसमें इतनी आक्रमकता थी कि‘इनको मारो जूते चार’की बात कही गई. कांशीराम जी ने इस बात को समझा की जब तक इस आवाज में अभिव्यक्त नहीं करेंगे, गुस्से को उभार नहीं पाएंगे. कांशी राम ने लोगों की सोच के साथ तालमेल बैठा लिया. इसलिए यूपी में सफलता मिली. यह बिहार में नहीं मिलती. पंजाब में नहीं मिल सकती थी, जहां के कांशीराम खुद थे.

मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, उदित राज और रामदास अठावले जैसे प्रमुख दलित नेताओं की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? इनका भविष्य क्या है?
- ये सारे लोग सत्ता से जुड़े लोग हैं. अब अगर आप मायावती से आंदोलन करने की उम्मीद करेंगे तो यह मुश्किल है. कांशी राम ने कभी भी मुख्यमंत्री बनने की नहीं सोची. आप (मेरी ओर इशारा करते हुए) जिन तमाम लोगों के नाम ले रहे हैं, उन्हें सत्ता सुख मिल गया है. ये आंदोलन नहीं कर सकते. हां, यह सत्ता के अंतरविरोधों को उभार कर जातीय गठबंधन के अनुरूप सत्ता में जगह बना लेंगे. ये कोई बदलाव, कोई आंदोलन नहीं कर सकते.

दलित-आदिवासी हित के लिए तमाम एनजीओ काम कर रहे हैं. क्या आप उनकी कार्यप्रणाली को ठीक मानते हैं, क्या वो ईमानदार हैं?
- हमेशा विकल्प का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिए. तात्कालिक हित और दूरगामी हित के बीच के फर्क को समझना चाहिए. जो एनजीओ हैं, वो राजनीतिक तौर पर बुनियादी परिवर्तन का हथियार नहीं हो सकता है. इसलिए किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ के काम से यह दिखता तो है कि वह आपके हित की बात कर रहा है,लेकिनउससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आ पाता है. जैसे वह शिक्षा की बात तो करेगा लेकिन जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के कारण से शिक्षा नहीं मिल पा रही है, उसकी बात नहीं करेगा. तो जो एनजीओ काम कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने बहुत उल्लेखनीय काम कर दिया है. या फिर जो दलितों के ऐसे आंदोलन को मजबूत कर रहा हो जो बुनियादी ढ़ांचे को तोड़ने की बात करता है.

अगर आपको दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा सुधारने की छूट दी जाए तो आप क्या करेंगे?
- मुझे काम करने की छूट मिली हुई है. जो कारण मेरी समझ में आता है उसे लोगों के सामने रखता हूं. और भी बहुत सारी चीजें जो उनपर थोपी गई है, उसे सामने लाता हूं.

चंद्रभान प्रसाद, प्रो. तुलसी राम, डा. विवेक कुमार और श्योराज सिंह बेचैन जैसे तमाम दलित चिंतक, लेखक और विचारक दलितों की आवाज को हर मोर्चे पर उठाते रहते हैं. इनके विचारों से आप कितने सहमत हैं?
- सबके अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना नजरिया है. सब महत्वपूर्ण लोग हैं और सबका योगदान हैं. बराबरी के चिंतन और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई को इन तमाम लोगों के विचारों ने नया आयाम दिया है.

आप दलित हित की बात करते हैं, आप बाबा साहेब को कैसे देखते हैं?
- उनके विचारो से मेरी बिल्कुल सहमति हैं. दरअसल बाबा साहेब की जो पूरी चिंतन प्रणाली है, उसकी तमाम लोग अपने तरीके से व्याख्या करते हैं. जैसे बाबा साहब कहते हैं किशिक्षित बनों, संगठित बनों, संघर्ष करो. हर कोई यह नारा लगाता है. मैं इसमें बाबा साहब की एक बात जोड़ता हूं कि बाबा साहेब जैसे ही यह कहते हैं कि मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, तो उनका यह कथन, पहले वाले कथन के मायने बदल देता है. उनके लिए शिक्षित होने का मतलब खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए शिक्षित होना नहीं है. या फिर बस स्कूली शिक्षा भर नहीं है. शिक्षा का मतलब यहां बदल जाता है.
जैसे मेरे एक मित्र हैं- अनंत तिलतुमरे. बाबा साहेब के परिवार के हैं. जिस तरह से वो बाबा साहेब के विचारों को प्रस्तुत करते हैं, आप बाबा साहेब के विचारों के अलावा किसी और के विचारों से सहमत नहीं हो सकते. तो महत्वपूर्ण यह है कि आप उन्हें कैसे प्रस्तुत करते हैं. मैं बाबा साहब का दिया संदेश पसंद करता हूं. उनका प्रभाव महसूस करता हूं और उनका सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का जो कारण है, वो हमें सोचने की गति देता है.

आपके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका रहा?
- आपके जीवन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभाव नहीं होता. मैं इसका पक्षधर भी नहीं हूं. परिवर्तन की हर धारा को, बराबरी का समाज बनाने की सभी धाराओं को करीब से देखने की कोशिश करता हूं. जिसका साकारात्मक पक्ष महसूस करता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं. तो किसी व्यक्ति से प्रभावित हूं, ऐसा नहीं कह सकता. खुद को आधुनिकतम राजनीतिक विचारधारा से जोड़ पाता हूं. लोकतंत्र और बराबरी से जोड़ पाता हूं.

अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में बताइए?
- कोई दुश्मन नहीं है. व्यक्ति के रूप में किसी को दुश्मन नहीं मानता हूं. जिन्होंने मेरे ऊपर गोली चलाई, अपहरण करने की कोशिश की, उन्हें भी नहीं. हां, विचारधारा को दुश्मन मानता हूं. जो प्रतिक्रियावादी धारा है वह मेरे दुश्मन की तरह है.

गोली चलाई, अपहरण की कोशिश? कब की घटना है यह? जरा विस्तार से बताइए.
- सब कॉलेज के दिनों की बात है. उन दिनों आरक्षण समर्थक थे तो क्लास रूम की बजाए बाहर होते थे. उस दौरान कुछ लड़कों के साथ झगड़ा हुआ था. मेरे ऊपर गोली चलाई गई, मेरे अपहरण की कोशिश हुई.

क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपके जीवन को प्रभावित किया?
- दो लोगों की बातों ने काफी प्रभावित किया. एक केशव शास्त्री थे. लीडर थे. लोहियावादी थे. उनका एक किस्सा बड़ी प्रभावित करता था. एक दिन उन्होंने पूछा कि कभी किसी नदी के किनारे गए हो? मैने कहा- हां, गया हूं. उन्होंने कहा कि क्या कभी गौर किया है कि पहाड़ से नदी की ओर जो धारा निकलती है, वह कई बड़े पेड़ों को उस धारा में बहाकर ले आती है. लेकिन उस नदीं में जो छोटी मछली होती है वह धारा के विपरीत चलती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. उसमें चेतना है. तो वह प्रदर्शित करती है कि धारा बहाकर नहीं ले जा सकती. उनके इस किस्से ने काफी प्रभावित किया.
एक दूसरी घटना जिसने मेरे विश्वास को बढ़ाया, वो घटना नौवीं कक्षा में घटी. मेरे सामने संकट था कि क्या करें. तब एक टीचर मिले. कुशवाहा जाति के थे. हम उन्हें मुंशी मास्टरकहते थे. (आज की बदलती बोली की ओर ध्यान दिलाकर कहते हैं, सर नहीं मास्टर कहते थे) उन्होंने नौंवी पास करने के बाद मुझसे कहा कि तुम 11वीं (तब बोर्ड) की परीक्षा दो. मैने कहा- मास्टर साहब यह कैसे होगा. उन्होंने भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मैं आने वाले 4-6 महीने तक पढ़ाई करूंगा तो टॉप-10 में आ जाऊंगा. हालांकि ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर जो भरोसा दिखाया उसने मेरे भीतर आत्मविश्वास का एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया.
आपके आत्मविश्वास को तोड़ना और बनाए रखना, यही पूरी लड़ाई है. खासकर एक दलित के भीतर यह मायने रखता है. अगर एक दलित को बार-बार यह कहा जाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता तो उसके आत्मविश्वास का ढ़ांचा टूट जाता है. शासक यही काम करते हैं. तो सारी लड़ाई आत्मविश्वास को बनाए रखनी की है. तो ऐसे कई पात्र मेरे जीवन में आए हैं. वो सभी सामान्य थे. मेरे भीतर उन सभी का कंट्रीब्यूशन है. मुझे गढ़ने में उनकी बड़ी भूमिका है.

सर आपने इतना वक्त दिया, हमसे बात की धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी।

(दलित मुद्दों पर देश के पहले न्यूज पोर्टल www.dalitmat.com से साभार)