अन्ना के आंदोलन पर पिछले दिनों में काफी बातें हुई है. यह बहस का मुद्दा बन चुका है कि जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना और उनके सहयोगी आंदोलन चला रही है क्या वह पूरे समाज का आंदोलन है या फिर समाज का एक विशेष तबका यह आंदोल चला रहा है. पिछले दिनों में फेसबुकिया दुनिया में भी इस आंदोलन को लेकर बवाल मचा हुआ है. इस पूरी प्रक्रिया में दलितों के लिए कुछ नहीं है और दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं है, यह बात भी हो रही है. हर कोई अपने-अपने विचारों को रख रहा है. इसी क्रम में 'दलित मत' ने विभिन्न मंचों पर दलित समाज का नेतृत्व करने वाले लेखकों, चिंतकों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिज्ञों और समाजसेवी से बात की. उनका 'मत' जानने की कोशिश की. पेश है...
डा. विवेक कुमार (प्रध्यापक, समाजशास्त्र विभाग, जेएनयू)
प्रजातंत्र बाहें मरोड़ने से नहीं चलता. दूसरी बात, भ्रष्टाचार की जो परिभाषा है वह बहुत संकुचित और सीमित है. यह केवल सरकारी भ्रष्टाचार की बात करता है, जबकि पूरे देश की संरचना में भ्रष्टाचार व्याप्त है. जिसमें लोगों के मानव अधिकारों का हनन, असमानता का व्यवहार और व्यक्तिगत पृथकता व्याप्त है. भगवान को चढ़ावा चढ़ाने का और पाप कर के गंगा नहाने का भी प्रावधान है. हजारों टन सोना मंदिरों में मौजूद है. सोना चढ़ाने वाले क्या रसीद देते हैं कि उन्होंने कहां से खरीदा, टैक्स दिया कि नहीं. जिस तरह सरकार लाखों करोड़ों रुपये का कारपोरेट टेक्स, एक्साइज ड्यूटी और इंपोर्ट ड्यूटी जिस तरह एक बार में माफ कर देती है, क्या यह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है या फिर आएगा? अगर आएगा तो इसमें जन लोकपाल बिल क्या करेगा.
अगर आप 542 प्रतिनिधियों पर विश्वास नहीं कर रहे हो तो मैं पांच स्वघोषित प्रतिनिधियों पर कैसे भरोसा कर लूं. यहीं पर प्रजातांत्रिक प्रणाली की अवहेलना हो रही है, क्योंकि वो तो चुन कर आए हैं. जनता ने चुन कर भेजा है. लेकिन ये जो पांच लोग है वो स्वघोषित हैं. जनता ने इन्हें चुना नहीं है बल्कि इनके बैठ जाने के बाद लोग आए हैं. जहां तक लाखों लोगों का समर्थन मिलने की बात कही जा रही है तो अगर लाखों लोग जाकर बाबरी मस्जिद तोड़ रहे थे तो क्या वो जायज है? कानूनन क्या जायज है कि आप प्राइवेट बिल को पास करने के लिए कहे, जबकि संसद मौजूद है. आप उसी राजनीति को धत्ता बताते हो. कहते हो कि पूरा सिस्टम खराब है और दूसरी ओर उसी राजनीतिज्ञों के पास जाकर गिरगिरा रहे हो कि हमें बैठने की इजाजत दो, हमारा बिल पास कर दो. आप प्रजातंत्र की हमारी स्थापित संस्थाओं का गला घोंट रहे हैं. ये लोग आम जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.
इस देश में यह कौन तय करेगा कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मसला है कि भूख सबसे बड़ा मसला है. हमारी 70 फीसदी जनता जो हर दिन महज 20 रुपये कमाती है, वो किस तरह घूस देगी? जो लोग सत्ता की संस्थाओं में काबिज हैं चाहे वो राजनीति में हो, ब्यूरोक्रेसी में हो, इंडस्ट्री में हो या फिर यूनिवर्सिटी में हो, जरा अनुपात देखिए कि कौन लोग हैं जो इन पर काबिज हैं. एकछत्र राज कायम कर रखा है. उसी के खिलाफ अन्ना आंदोलन कर रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि अन्ना स्वतः सवर्ण समाज के खिलाफ ही आंदोलन कर रहे हैं और राष्ट्र को शामिल करने की बात कर रहे हैं. तो यह कहीं न कहीं विरोधाभाष है. यह पूरे समाज का आंदोलन नहीं है.
चंद्रभान प्रसाद (लेखक एवं चिंतक)
अन्ना का आंदोलन अपर कास्ट का आंदोलन है. यह संविधान पर सवाल खड़े कर रहा है, संसद और लोकतंत्र पर सवाल उठा रहा है. जहां तक सिविल सोसाइटी द्वारा आंदोलन की बात है तो सवाल उठता है कि क्या भारत सिविल सोसाइटी यानि सभ्य समाज बन चुका है? जाति के प्रारूप के मौजूद रहते कोई समाज, सभ्य समाज कैसे बन सकता है? हां, यह प्रक्रिया जारी है. जब एनडीए सरकार आई थी तो उसका सबसे पसंदीदा विषय था ‘रिव्यू ऑफ कांस्टीट्यूशन’. इसके बहाने वह एक तबके को खुश कर रही थी. यानि की संविधान के विरुद्ध समाज के एक तबके में एक Sentiment (विचार) है. क्योंकि संविधान के पहले चाहे अंग्रेजों का राज रहा हो या फिर मुगलों का, सब कुछ अपर कॉस्ट के हाथ में था.
संविधान के बनने के बाद लोकतंत्र के आने से ही उनका एकाधिकार टूटा है. अपर कॉस्ट में जो अधिक कंजरवेटिव तबका है उसके दिमाग में यह बात हमेशा रही है कि संविधान की वजह से हमारा नुकसान हुआ है. उसको ERUPT (दबी भावनाओं का बाहर आना) करने का एक मौका मिला है. जैसे आपने देखा होगा कि ब्रिटेन में, इटली में अचानक दंगे हो गए. तो यह बिल्कुल ज्वालामुखी की तरह है. जो सालों साल तक खामोश रहने के बाद फट पड़ता है. इसी तरह यह बात उनकी चेतना में बैठ गई है कि संविधान आने से हमारा नुकसान हुआ है. एंटी कांस्टीट्यूशन, एंटी डेमोक्रेसी, एंटी स्टेट की यह भावना बहुत पहले से है. इसलिए मैं यह कहूंगा कि यह अपर कॉस्ट का आंदोनल है. अगेंसट कांस्टीट्यूशन, अगेंस्ट स्टेट, अगेंस्ट डेमोक्रेसी.
अशोक भारती (समाज सेवी, अध्यक्ष नैक्डोर)
भारतीय समाज पूरी तरह से भ्रष्ट है. यह मानसिक रुप से भ्रष्ट है, सामाजिक रूप से भ्रष्ट है, आर्थिक रूप से भ्रष्ट है. इस दृष्टि से भ्रष्टाचार दलित समाज और भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है. मेरा मानना है कि बहुजनों और दलितों को इस पूरे आंदोलन को आगे बढ़कर लीडरशिप प्रदान करनी चाहिए. ये जो पांच लोग हैं वो ‘सो कॉल्ड’ प्रवक्ता बने हुए हैं. जो रामलीला मैदान में लाखों जनता इकठ्ठी हो रही है वो पांच लोग नहीं है. सड़कों पर पांच लोग नहीं है. हमारे समाज के शामिल होने की बात है तो सिविल सोसाइटी का इतिहास रहा है कि उनकी कभी कोशिश नहीं रही की वो हमें इसमें शामिल करें. लेकिन हमें यह देखना है कि अगर वो शामिल नहीं करना चाहते तो हम कैसे उन्हें कंपेल करे.
मेरा मानना है कि दलित-बहुजन समाज को आगे बढ़कर आंदोलन का नेतृत्व ले लेना चाहिए. हालांकि मैं मानता हूं कि आंदोलन में जो लोग शामिल हैं, उनमें हमारी भी जनता है. लेकिन वह जनता के तौर पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर मौजूद है. उन्हें एक समुदाय के तौर पर साथ आना चाहिए. अगर वो समुदाय के तौर पर सामने आते हैं तो इस आंदोलन का नेतृत्व हमारे हाथ में आएगा, नहीं तो नहीं आएगा. तो यह टेबल टर्न करने का मामला है. एक मामला यह भी है कि सरकार अगर इस बारे में कोई भी प्रक्रिया आगे बढ़ाती है तो उसे दलितों को भी इसमें शामिल करना चाहिए. उसे दलितों से बात करनी चाहिए. अगर अन्ना की टीम दलितों और बहुजनो को शामिल नहीं करना चाहती तो सरकार को यह साफ कर देना चाहिए कि दलितों की भागीदारी के बिना वो इस प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाएगी.
प्रकाश आंबेडकर (अध्यक्ष, आरपीआई)
देश की पोलिटिकल लिडरशिप बहुत वीक है. पढ़े लिखे जरूर हैं लेकिन प्रशासन चलाना जानते नहीं हैं. दूसरा यह है कि सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं है. जहां तक लोकपाल बिल की बात है तो वो सुपर पावर बनाना चाहते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. लोकपाल बिल के कुछ मुद्दों का विरोध कर रहे हैं. पूरे मुद्दे पर समर्थन नहीं है. सुपर पार्लियामेंट बनाने का जो मुद्दा है, हमारा उससे विरोध है. जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इस पर हमारा पूरा समर्थन है. क्योंकि भ्रष्टाचार हो रहा है तो आम आदमी का ही पैसा जा रहा है. अमीर और अमीर हो रहा है, गरीब और गरीब हो रहा है.
सिविल सोसाइटी का कहना है कि राजनीतिक करप्शन कर रहे हैं. लेकिन यह भी है कि आम आदमी भी करप्शन कर रहा है. करप्शन कई प्रकार के हैं. फाइनेंनसियल करप्शन तो दिखाई देता है लेकिन इंटलेक्चुअल करप्शन कहां दिखाई देता है. बाबा साहब ने जो सबसे बड़ी बात कही थी कि यहां पर इंटलेक्चुअल ओनेस्टी नहीं है. जब ऑनेस्टी नहीं है तो करप्शन तो होगा ही. सिविल सोसाइटी वाले ऑनेस्टी की बात तो करते नहीं हैं. समाजिक व्यवस्था में ऑनेस्टी कैसे लाई जाए इसका विकल्प न तो सिविल सोसाइटी के पास है और ना ही सरकार के पास है. जो आम आदमी आंदोलन में आ रहा है क्या वो शपथ लेगा कि वो घूसखोरी नहीं करेगा. क्या वो इंटलेक्चुअल करप्शन हो, पैसे की हो, शिक्षा की हो या एडमिनिस्ट्रेशन की हो. वो सिर्फ पॉलिटिकल करप्शन को टारगेट कर के चल रहे हैं. ये एक मुद्दा है. असल में देश का चरित्र निर्माण करने की बात है, जिसके लिए किसी के पास कोई विकल्प नहीं है. जहां तक ये लोग देश की पूरी जनता के साथ होने की बात कर रहे हैं तो मान लिया जाए कि करप्शन के मुद्दे पर इनके साथ 90 फीसदी जनता है. लेकिन ये सभी जन लोकपाल बिल के साथ हैं ऐसा नहीं है. जनता जन लोकपाल के विरोध में काफी है लेकिन वो सामने इसलिए नहीं आ रही है क्योंकि इसके साथ करप्शन का मुद्दा जुड़ा है. अगर इसका विरोध करेंगे तो वो कहेंगे की हम भ्रष्टाचार की लड़ाई कमजोर कर रहे हैं.
जहां तक यह कहा जा रहा है कि इस आंदोलन में दलित और बहुजन समाज नहीं है तो यह समाज अपना आंदोलन क्यों नहीं करता. वह क्यों इनके पास भीख मांगने जा रहा है. इनको किसने रोका है. अब अगर ये कहते है कि राजा दलित है इसलिए उसको पकड़ा है तो और लोगों को टारगेट करने के लिए किसने रोका है. राजा अकेला थोड़े ही चोर है. मैं सारे दलित संगठनों से पूछना चाहता हूं कि तुमको पूछा नहीं जा रहा है तो तुम क्यों उनके रिकागनाइजेशन के लिए भाग रहे हो. बाबा साहब ने तो आंदोलन के लिए एक अलग आइडेंटिटी बनाई थी, आप उस आइडेंटिटी के साथ चलो. सभी अपने रिकागनाइजेशन के पीछे लगे हैं. दलित बुद्धिजीवी असल में रीढ़वीहीन हैं. कोई भी कमाता है तो उसके पीछे लग जाता है कि मैं दलित हूं हमें अपने साथ ले लो. असल में ये लोग मेहनत करने के लिए तैयार नहीं हैं.
(दलित मत.कॉम के संपादक अशोक दास से बातचीत पर आधारित )
दलित मुद्दों पर आधारित देश के पहले हिंदी न्यूज पोर्टल www.dalitmat.com से साभार
शायद प्रकश आंबेडकर जी भूल गए है की जितनी मेहनत हम दलितों ने की है शायद ही किसी और वर्ग ने किया हो.....
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