Tuesday, August 9, 2011

कौन सुनेगा चकमा जनजाति का दर्द

मिजोरम के मुख्यमंत्री लालथनहॉला द्वारा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले स्थानीय चकमा समुदाय के लोगों को कहे गए अपशब्द के बाद अल्पसंख्यक चकमा और ब्रू समाज में आक्रोश साफ नजर आ रहा है. यह घटना उस समय की है, जब छात्र संगठन जिराइल पॉल द्वारा आइजॉल के वणप्पा हॉल में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मिजोरम के चकमा और ब्रू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मिजो में नॉकसक वाई छेहो और टूइकूक जैसे अपशब्दों का प्रयोग किया गया. नॉकशक का शाब्दिक अर्थ मूर्ख, वाई छेहो का अर्थ बिना काम के और टूइकूक का गंदी नाली का कीड़ा है. इस घटना के बाद लगभग एक दर्जन चकमा और ब्रू छात्र और सामाजिक संगठनों ने मुख्यमंत्री के इस वक्तव्य का जमकर विरोध किया है. सामाजिक संगठनों का कहना था कि समाज के पिछड़े, अल्पसंख्यक समाज के लोगों को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी सरकार की होती है. लेकिन सरकार के मुखिया ही इस तरह के गैर जिम्मेवार किस्म के वक्तव्य देंगे तो उनके मातहतों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
मिजोरम में चकमा और ब्रू जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव आम सी बात हो गई है. इसकी एक वजह यह है कि चकमा समाज के लोग अहिंसा प्रिय हैं. इस बात को मिजो समाज के लोग भी जानते हैं कि बौद्ध धर्म में विश्वास रखने वाले चकमा समाज के लोग हिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं. चकमा ऑटोनॉमस डेवलपमेन्ट काउंसिल में मिजोरम के तीन जिले आते हैं, लुंगलई, लुंगतलई और मामिट. ये तीनों जिले बोर्डर एरिया डेवलपमेन्ट प्रोग्राम के अंदर आते हैं. मामिट एवं लुगतलई मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेन्ट प्लान के अंतर्गत आते हैं. बैकवर्ड रिजन ग्राट फंड की योजना लुंगतलई का नाम है. विभिन्न योजनाओं से बहुत सारा पैसा चकमा ऑटोनॉमस डेवलपमेन्ट काउंसिल के नाम पर आता है. इन सबके बावजूद दिलचस्प यह है कि देश सबसे पिछड़े इलाकों में ऑटोनॉमस काउंसिल का क्षेत्र भी शामिल है. राज्य के मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘क्रिश्चिनियटी ना सिर्फ मिजोरम के समाज में परिवर्तन का द्योतक रहा है बल्कि हमारे बीच में प्रौढ़ शिक्षा की अवधारणा वहीं से आई है. हम तो सौ फीसदी साक्षरता की दर पाने की उम्मीद रखते हैं लेकिन दक्षिण मिजोरम के दो जिलों की वजह से हमारा यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा.’ उनका इशारा शायद बातों ही बातों में मारा (सिआहा) और लुंगलेई की तरफ था. यह दो जिले मारा और चकमा समुदायों के गढ़ माने जाते हैं. राज्य के इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों के अपना-अपना स्वायत जिला परिषद है. यदि राज्य में इन दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच शिक्षा की ये दुर्दशा है तो इसके लिए दोषी राज्य सरकार ही है. चूंकि जिलों के बीच में विकास के मद में पैसा बांटने में ही ऊपर से ही भेदभाव बरता जाएगा तो निश्चित तौर पर एक खास समाज पिछे छूट ही जाएगा. मिजोरम की स्थिति को देखकर लगता है कि योजना के साथ अल्पसंख्यक चकमा, ब्रू और मारा समाज के लोगों को पिछड़ेपन का शिकार बनाया गया है.
मिजोरम चकमा डेवलपमेन्ट फोरम से जुड़े पारितोष चकमा कहते हैं, मिजो समाज के लोगों को समझना चाहिए कि जिस तरह दिल्ली-मुम्बई में अपने साथ भेदभाव की बात वे लगातार उठाते रहे हैं, कम से कम इस आधार पर उन्हें हम अल्पसंख्यकों की तकलीफ को समझना चाहिए. यदि वे हमारी तकलीफ को नजरअंदाज करते हैं तो उन्हें क्या हक है कि दूसरे प्रदेशों में अपने साथ होने वाले भेदभाव की बात को वे विभिन्न मंचों से उठाएं?
परितोष अपनी बात में उडि़सा और गुजरात की घटना को जोड़ना नहीं भूलते, बकौल पारितोष कंधमाल (उडि़सा) में जिस तरह क्रिश्चियन अल्पसंख्यकों के साथ बूरा बर्ताव हुआ और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ जिस तरह का व्यवहार गोधरा (गुजरात) में हुआ, उसके बाद अल्पसंख्यक समाज के लोग चुप नहीं बैठे. उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई है. उसी तरह मिजोरम में चकमा समाज के लोगों के साथ भेदभाव किया जा रहा है तो समाज के लोगों को एक स्वर में विरोध के साथ सामने आना चाहिए.
देश की स्वतंत्रता की दुहाई हम लाख दे लें लेकिन आज भी इस तरह के साम्राज्यवादी सोच वाले मुख्यमंत्री हमारे देश में हैं. जो सार्वजनिक मंचों पर खड़े होकर इस तरह का विद्वेशपूर्ण भाषण दे सकते हैं. मिजोरम के मुख्यमंत्री का यह भाषण निन्दनीय है. दुख की बात यह है कि इस घटना को एक महीना गुजरने के बाद भी किसी केन्द्रिय स्तर के नेता ने इस बात को तवज्जों तक नहीं दिया. जबकि भारत के अंदर पूर्वोत्तर का क्षेत्र कितना संवेदनशील है यह किसी से छुपा नहीं है. लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों की बात जब भी दिल्ली में की जाती है लोगों के बीच कुछ इस तरह की प्रतिक्रिया होती है मानों किसी दूसरे देश की बात हो रही हो. यहां यह बात विश्वसनीय नहीं है कि इतनी बड़ी घटना की जानकारी देश के गृह मंत्रालय को नहीं होगी. लेकिन उनकी तरफ से इस घटना का संज्ञान लेकर कोई कार्यवाही की गई हो, इसकी जानकारी नहीं मिलती है. वैसे अब चकमा समाज की नई पीढ़ी अपने समाज के लोगों पर वर्षों से हो रहे भेदभाव के खिलाफ चुप रहने को तैयार नहीं है. वह सवाल उठाने लगी है. मिजोरम जो देश में पढ़े लिखे लोगों के राज्य तौर पर पहचाना जाता है, 2011 के गणना के अनुसार जहां शिक्षा 91.58 प्रतिशत है. देश का सबसे अधिक पढ़ा लिखा जिला सर्चिप (98.76 प्रतिशत) और दूसरा जिला आईजॉल (98.50 प्रतिशत) मिजोरम में ही हैं. उसके बावजूदर चकमा समाज के 72 प्रतिशत गांवों में कोई मध्य विद्यालय नहीं है और 96 प्रतिशत से भी अधिक ऐसे गांव हैं, जहां उच्च विद्यालय नहीं है.
मिजोरम सरकार में चकमा मंत्री निहार कान्ति चकमा अपने सरकार का बचाव करते हुए इस संबंध में सारा दोष चकमा समाज पर ही डाल देते हैं. मंत्री श्री चकमा के अनुसार हमारे चकमा समाज में शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं है. जिसकी वजह हमारे समाज में जागरुकता की कमी और सुविधाओं का अभाव है. मंत्रीजी सरकार के बचाव मे चाहें जो कहें लेकिन सच्चाई यह है कि बेहद चालाकी के साथ मिजोरम में विकास की बयार चकमा समाज के लोगों के बीच पहुंचने ही नहीं दी गई. आज बेहद समझदारी के साथ उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों से दूर किया जा रहा है. दूसरी तरफ उनकी जमीनों पर भी अलग-अलग बहाने से कब्जा किया जा रहा है. चकमा समाज के लोग सरकारी नौकरी में प्रवेश ना पा सकें इसलिए मिजो भाषा को सरकारी नौकरियों के लिए अनिवार्य किया गया. जबकि चकमा उसी समाज के नागरिक हैं. उनके पास अपनी भाषा और लिपी है फिर उनपर एक और भाषा का बोझ अनिवार्य करना कितना उचित है? उदाहरण के तौर पर पिछले साल छह दिसम्बर को मिजोरम में प्राथमिक और मध्य विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षकों की बहाली के लिए हुए परीक्षा में पचास फीसदी सवाल मिजो में पूछे गए. इसका अर्थ तो यही निकलता है कि मिजो छोड़कर दूसरे समाज के लोगों को परीक्षा से बाहर रखने का यह सरल रास्ता सरकार ने निकाला है. उन्हें जमीन से बेदखल करने के लिए भी सरकार के पास कई परियोजनाएं हैं. ममिट में डम्पा टाइगर रिजर्व के विस्तार में 227 चकमा परिवार प्रभावित हो रहे हैं.
गौरतलब है कि इस टाइगर रिजर्व में वर्तमान में कुल जमा छह शेर ही हैं. स्वास्थ सेवा की बात करें तो चकमा बहुल गांवों में उसकी हालत बेहद खराब है. लुंगलेई जिले में मलेरिया जैसे रोग की वजह से आधा दर्जन बच्चों की मौत हो जाने के बाद चिकित्सा सेवा वहां पहुंचती है. उस वक्त उस छोटे से गांव में लगभग पांच दर्जन लोग थे, जिन्हें स्वास्थ सेवाओं की जरुरत थी. चकमा समाज के लोग अब इस बात को जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें लगातार सिर्फ अत्याचार के खिलाफ अहिंसा के साथ खड़े होने की सजा मिल रही है. मिजोरम में शांति व्यवस्था बनाए रखने की सजा मिल रही है. यदि नहीं तो उनके विकास के लिए मिजोरम सरकार के पास क्या योजनाएं हैं?

सरोकार.नेट से साभार
लेखक- आशीष कुमार अंशु

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