बात किसी अन्ना की नहीं है, न ही किसी केजरीवाल, भूषण और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ टाइप संस्था की है. बात भ्रष्टाचार की है जिसके विरुद्ध देश भर में उबाल है. एससी/एसटी सब प्लान के करोड़ों रुपये केंद्र सरकार दूसरे मद में खर्च कर देती है. कई जगह दलित छात्रों को छात्रवृति के पैसे नहीं मिलते. इंदिरा आवास बनवाने के लिए उन्हें पांच से दस हजार रुपये तक घूस देना पड़ता हैं. लालकार्ड धारी गरीबों को आधा राशन देकर भगा दिया जाता है. यहां तक की लाल कार्ड बनवाने के लिए भी उन्हें पैसे खर्चने पड़ते हैं. शायद इसे भ्रष्टाचार कहते हैं, जिससे दलित वर्ग भी हर कदम पर पीड़ित है.
किसी का ‘मत’ है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए कड़ा कानून है लेकिन वो लागू नहीं होता. यहां मैं अपने समाज के नेताओं की बात करुंगा. सवाल उठता है कि क्या किसी ने हमारे नेताओं को रोका है कि वो इसके खिलाफ आंदोलन न करें? वो क्यों नहीं एससी/एसटी कमिशन के खिलाफ मुहिम छेड़ देते. देश में कितनी जगहों पर दलितों के खिलाफ अत्याचार होने पर दलित पार्टियों के कार्यकर्ता पहुंच कर उनके लिए लड़ते हैं? क्यों नहीं लड़तें? अगर वो अपने आप को राजनीतिक कार्यकर्ता और दलितों का नेता कहते हैं तो क्या ये उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती. यह भी बात आ रही है कि सिविल सोसाइटी ने दलितों का मुद्दा क्यों नहीं उठाया. क्या यह एक अलग मुद्दा नहीं है. और फिर इतिहास गवाह रहा है कि हर समाज को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है. जातिवाद और दलित अत्याचार के खिलाफ भी लड़ाई हमें खुद लड़नी पड़ेगी. इसके लिए कोई अन्ना या केजरीवाल नहीं आएगा. हमें किसी अन्ना या केजरीवाल से अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए न ही हमें उनकी जरूरत है. मैं इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं कि जिस रालेगांव सिद्दी को अन्ना ने आदर्श गांव बना दिया, शायद वहां भी दलितों की स्थिति वही होगी जो देश भर में है. और आदर्श गांव बनाते हुए अन्ना उसे भूल गए होंगे. लेकिन यह हमारी लड़ाई है, हमें लड़नी होगी.
1857 की पहली क्रांति में लड़ने वाली झलकारी बाई (लक्ष्मीबाई के साथ) हों या फिर आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले उधम सिंह या फिर देश को संवारने के वक्त संविधान लिखकर अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले महान भारतरत्न डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर. देश को जब भी जरूरत हुई है हमने कदम आगे बढ़ाकर अपना योगदान दिया है. हम मूल निवासी हैं तो देश को बचाने, संभालने और संवारने की जिम्मेदारी हमारी अधिक है. फिर इस वक्त देश में हो रहे आंदोलन को आप चुपचाप कैसे देख सकते हैं? यह कौन तय करेगा कि इस समय देश भर में सड़कों पर उतरे लोगों में दलित नहीं हैं. क्या करना है यह आप खुद तय करिए लेकिन मेरा अपना ‘मत’ है कि हर बात को जाति के चश्मे से देखना शायद ठीक नहीं.
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