एकसूत्रीय बिंदु पर आधारित अन्ना हजारे के अनशन ने बहुत से लोगों को अनेक कारणों से प्रभावित किया है. कुछ इसे आंदोलन कहते हैं, कुछ दूसरी आजादी की लड़ाई का नाम देते हैं तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति से करते हैं. अन्ना के अनशन को दिल्ली और देश के दूसरे भागों में जबर्दस्त समर्थन मिला है. अनशन को असल दुनिया के साथ-साथ इंटरनेट में भी जमकर समर्थन मिला है.वेबसाइटें, फेसबुक, ट्विटर, एसएमएस आदि में अन्ना छाए रहे. इतिहास के निर्माण की ताकत वाले मीडिया ने इसे राष्ट्रव्यापी अवधारणा के रूप में पेश किया है. टीवी मीडिया देश के कोने-कोने से इस अनशन के बारे में दिन-रात सीधा प्रसारण कर रहा है. हालांकि मीडिया ने इससे असहमति और असंतोष के स्वर को बहुत कम स्थान दिया है.
सबसे पहले तो इस अनशन को आंदोलन नहीं कहा जा सकता. एक आंदोलन ऐसे लोगों के बड़े समूह का संगठित प्रयास होता है जो किसी विचारधारा और संगठन से जुड़े हों, जिनके नेतृत्व का उन पर अधिकार हो और जो एक व्यवस्था को बदलने के लिए एकजुट हुए हों. अन्ना का प्रदर्शन संगठित लोगों का प्रयास नहीं है. यह स्वत: प्रेरित लोगों का जमावड़ा है, जिन पर अन्ना हजारे का कोई नियंत्रण नहीं है. यह इस तथ्य से साबित हो जाता है कि अनशन में लोग अपनी-अपनी विचारधारा के नारे लगा रहे हैं. उदाहरण के लिए 'यूथ फार इक्वेलिटी' के कार्यकर्ता आरक्षण के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं. जब इस संबंध में अन्ना टीम के सबसे अहम सदस्य से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इन समूहों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है.
इसी प्रकार इस अनशन को जेपी आंदोलन के समान नहीं माना जा सकता. जेपी का अनशन नहीं, बल्कि एक विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन था. यह आंदोलन ऐसी सरकार के खिलाफ था, जो लोगों को गिरफ्तार कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कर रही थी. इस लंबे राजनीतिक आंदोलन की आंच में तपकर अनेक नेता कुंदन बने. हालांकि इस अनशन में सरकार मात्र एक गिरफ्तारी के बाद ही धरने के लिए स्थान और अनुमति दे रही है. दूसरे, इस बात की कोई संभावना नहीं है कि अनशन में जीत हासिल करने के बाद एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया जाएगा. यह दावा भी एक धोखा है कि इस अनशन का राष्ट्रीय चरित्र है. देश में अनेक सामाजिक और पंथिक समूह हैं, जिनका प्रतिनिधित्व इस अनशन में नहीं है. शुरू में टीम अन्ना के पांच सदस्यों में सभी पुरुष थे. इनमें एक भी महिला, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व नहीं था. अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को योग्यता के आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस समय इन वर्गो से अनेक योग्य व्यक्ति मौजूद हैं. इसका मतलब है कि टीम हजारे की कोर कमेटी स्वनियुक्त है. न ही इनका लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचन हुआ है और न ही इन्हें लोगों ने चयनित किया है. यही नहीं, ये सिविल सोसाइटी का भी प्रतिनिधित्व नहीं करते. एक टीवी बहस में अरविंद केजरीवाल ने मुझे बताया कि वे सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधित्व नहीं करते. बेहूदगी की हद तो तब हुई जब इसी शो में किरण बेदी ने कहा कि सिविल सोसाइटी का मतलब सभ्य समाज से है, जैसे कि राजनीतिक तबका असभ्य है. अनशन के नेताओं की समझदारी का यह स्तर है.
कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि जब यह एक आंदोलन नहीं है तो इतनी बड़ी संख्या में लोग इससे क्यों जुड़ रहे हैं? इसका उत्तर यह है कि भ्रष्टाचार एक चेहराविहीन शत्रु है. कोई भी एक भ्रष्ट व्यक्ति की पहचान नहीं जानता है. यहां तक कि जो लोग भ्रष्टाचार में गहरे संलिप्त रहे हैं वे आगे की पंक्तियों में बैठकर विरोध कर रहे हैं. लेकिन यदि आप इसी भीड़ को सामाजिक न्याय, दलितों के खिलाफ अत्याचार, समाज में संसाधनों के बंटवारे आदि के खिलाफ आवाज दें तो वे सभी भाग जाएंगे. इसलिए, क्योंकि तब दुश्मन का एक चेहरा या एक पहचान होगी. स्पष्ट है कि संख्या से यह अनिवार्य रूप से स्पष्ट नहीं होता कि कोई आंदोलन वैधानिक है या नहीं? क्या हम एक बड़ी भीड़ द्वारा विवादित ढांचे के ध्वंस को सही ठहरा सकते हैं? क्या ईडन गार्डन में पाकिस्तान के खिलाफ भारत का मैच देख रहे लाखों दर्शकों को देशभक्त कहा जा सकता है? फिर हम इस अनशन को सिर्फ इस आधार पर उचित कैसे कह सकते हैं कि इसमें लाखों लोग भाग ले रहे हैं?
हजारे और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार की बड़ी संकीर्ण व्याख्या की है. वे केवल सरकारी भ्रष्टाचार को ही भ्रष्टाचार मान रहे हैं. हजारे और उनके साथी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का संज्ञान लेने के लिए तैयार नहीं. यह भ्रष्टाचार एक बड़ी संख्या में लोगों को संस्थानों और सरकारी नौकरियों में जाने से रोकने के साथ आरंभ हो जाता है. फिर कारपोरेट सेक्टर, मीडिया और सबसे ऊपर अंतरराष्ट्रीय और गैर-सरकारी संगठनों के भ्रष्टाचार को लोकपाल बिल में लाने की बात नहीं की जा रही है. इससे गंभीर बहस पैदा होती है. वंचित वर्ग इस पर जोर दे रहा है कि मौजूदा अनशन जानबूझकर उन संस्थानों को निशाना बना रहा है जहां थोड़ी-बहुत जातीय और धार्मिक विभिन्नता परिलक्षित होती है.
इस अनशन की विडंबना यह है कि यह अविश्वास पर आधारित है. अविश्वास संसद पर, सरकार पर और न्यायपालिका पर. हम कैसे पांच स्वयंभू नेताओं पर भरोसा कर सकते हैं, जबकि वे खुद लोकसभा के 545 और राज्यसभा के 242 निर्वाचित लोगों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं? अगर निर्वाचित प्रतिनिधि अपना काम नहीं कर पाते हैं तो हम उन्हें हर पांच वर्ष बाद बदल सकते हैं, लेकिन हम अन्ना हजारे, केजरीवाल, शांति भूषण और प्रशांत भूषण जैसे लोगों को कैसे बदल सकते हैं?
साभारः दैनिक जागरण
(लेखक डा. विवेक कुमार, जेएनयू में प्राध्यापक हैं और उभरते हुए चिंतक हैं)
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