हिंदी के मुख्य समाचार पत्र अमर उजाला में पिछले दिनों दलित मुद्दों को लेकर एक बहस चलाई गई थी. वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह का लखनऊ में आरक्षण के खिलाफ दिया बयान, प्रगतिशील लेखक संघ का काम आदि पर श्योराज सिंह बेचैन, मोहन दास नैमिशराय और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे दिग्गजों ने इस बहस में हिस्सा लिया था और अपना पक्ष रखा था. इसी कड़ी में जेएनयू के प्रो. तुलसी राम ने भी अमर उजाला की बहस में हिस्सा लिया था. तुलसी राम जी के लेख के बाद अखबार ने इस बहस को खत्म कर दिया और बात कुछ अधूरी सी रह गई. इसी बहस को हमने "दलित मत" पर आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है. इसी कड़ी में युवा लेखक, कवि और आलोचक कैलाश दहिया का लेख प्रस्तुत है. हम और लेखकों से भी इस बहस में हिस्सा लेने को आमंत्रित करते हैं.
संपादक
दलित मत
श्यौराज सिंह बेचैन जी का ‘मुर्दहिया’ से बेचैनी का तो पता नहीं, लेकिन राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह जरूर डॉ. धर्मवीर की महाग्रंथात्मक आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से आतंकित हैं, तभी तो वे अतार्किकता पर उतरे हुए हैं. वे इस बात से भी भयभीत हैं कि डॉ. धर्मवीर ने जारों की धर पकड़ क्यों की? तो क्या देश को गुलाम बनवाने वाले इन जारों को खुला ही छोड़ दिया जाता? वह सैनिक क्या लड़ेगा जिसे पता चले कि उसकी पत्नी जारकर्म में लिप्त है?
राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि विवाह संस्था की स्थापना के बाद ही जार अस्तित्व में आता है. वे जान लें कि विवाह ही नहीं राज्य, न्यायालय, मुद्रा और ऐसी ही ढ़ेरों संस्थाओं को इंसान ने ही बनाया है, और ये संस्थाएं विवाह संस्था के साथ-साथ ही अस्तित्व में आई हैं. वे इन्हें भी नकार दें. लेकिन नहीं, इन संस्थाओं का फायदा लेने को जार तत्पर रहता है, लेकिन विवाह संस्था को नहीं मानता. वह विवाह संस्था को तोड़ता है. राजेन्द्र जी की लेखनी की बात की जाए, क्या विवाह संस्था अभी पचास-सौ साल पहले ही अस्तित्व में आई है, जो वे अबोध बनकर ऐसी बातों पर उतरे हुए हैं? विवाह संस्था का इतिहास हजारों साल पुराना है, हां ‘जार’ को पहली बार व्यवस्थित रूप से डॉ. धर्मवीर ने पकड़ा है.
राजेन्द्र जी किन दलित महिलाओं की बात कर रहे हैं? वे महिलाएं जो जारकर्म की समर्थक हैं और जो कुछ भी कहने-सुनने की बजाय जूते-चप्पल चलाती हैं. उन्हें भी और सब जार सामर्थकों को बताया जा रहा है कि दलित चिन्तन में प्रेमचन्द की बुधिया को तलाक दे दिया है. वह ठाकुर के दरवाजे पर ‘जारकर्म की पैदाइश’ को लेकर खड़ी है. अब नामवर ही जाने की उसका क्या करना है. राजेन्द्र जी बार-बार कहते और लिखते हैं कि डॉ. धर्मवीर ने अनाप-शनाप लिखा है, लेकिन वह यह कभी नहीं बताते कि डॉ. धर्मवीर ने ऐसा क्या लिखा है? असल में राजेन्द्र जी ऐसा लिख कर पाठकों और श्रोताओं को भ्रमित करते हैं. जारों का पक्ष लेकर राजेन्द्र जी किसे बचाना चाह रहे हैं? इधर तुलसी राम जी ने स्वीकार कर लिया है कि वे जार समर्थक राजेन्द्र और नामवर के पक्ष में हैं. अब देखना दलितों को है कि वे डॉ. धर्मवीर की मोरेलिटी की परम्परा को मानते हैं या जारकर्म की तुलसी राम की? यही दलितों के अन्तर्विरोध हैं. वैसे अपनी आत्म कथा में तुलसी राम ‘जैविक खानदान’ की खोज में ही लगे हैं. हां, राजेन्द्र यादव जैसे लोग नहीं चाहते कि ऐसी खोज पूरी हो, क्योंकि फिर जार को अपनी अवैध सन्तान का भरण-पोशण करना पड़ेगा.
राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ. धर्मवीर को अपना गुरु मानते हैं इसलिए उनसे उनके मतभेद हैं. बेचैन जी अगर यादव जी को अपना गुरु मान लेंगे तो ये मतभेद खत्म! कैसी बालकों जैसी जिद कर रहे राजेन्द्र जी? फिर वे कैसे कह रहे हैं कि नामवर जी के बारे में बेचैन जी ने मनगढ़ंत बातें कही हैं? लगता है उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ जलसे में नामवर द्वारा दिए भाषण की खबरें नहीं पढ़ी. जहां तक तुलसी राम जी की आत्म कथा की बात है तो उस से डॉ. धर्मवीर और बेचैन जी की छोड़िए, कोई भी दलित क्यों आतंकित होगा? हां, मुर्दहिया की डॉ. धर्मवीर द्वारा ‘बहुरि नहिं आवना’, में लिखी समीक्षा से जरूर नामवर और राजेन्द्र आतंकित हैं. डॉ. धर्मवीर ने मुर्दहिया में ‘द्विज जार परम्परा’ को पकड़ लिया है. जहां तक प्रेमचंद की बात है तो गैर दलितों से आग्रह है कि वे डॉ. धर्मवीर की ‘प्रेमचंदः सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ पढ़ कर ही बात करें.
लखनऊ में नामवर सिंह ने दलितों के आरक्षण पर विरोध जताया, उन्होंने कहा कि ‘इसी तरह आरक्षण दिया जाता रहा तो ब्राह्मण-ठाकुर भीख मांगते नजर आएंगे.’ नामवर के इस वक्तव्य पर राजेन्द्र जी क्या कहेंगे? नामवर जी इस जिद पर भी अड़े हैं, कि गैर दलित भी दलित साहित्य लिख सकते हैं. दलितों द्वारा उनके आरक्षण विरोध की आलोचना पर उन्होंने यह कहकर अपनी ही बात को झुठलाया कि वे तो ‘साहित्य में आरक्षण के विरोध की बात कर रहे थे.’ उनके जैसे कद के आदमी से ऐसे पलटने की उम्मीद नहीं थी. वे अपनी बात स्वीकार कर लेते और माफी मांग लेते तो क्या हो जाता? नामवर जी बताएं कि गैर दलितों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य में किसका आरक्षण रहा है? दलित ने कभी नहीं कहा कि वह गैर दलित साहित्य लिखेगा, तब इनकी जिद क्यों है कि वे दलित साहित्य लिखेंगे? नामवर जी ये क्यों नहीं कह रहे कि वे अफ्रीकी या लातीनी साहित्य लिखेंगे. दलित लेखन की जिद क्यों? जैसे गैर दलित साहित्य की समझ नामवर जी को है, वैसे ही दलित साहित्य डॉ. धर्मवीर की कलम से निकलता है. दलित साहित्य लेखन की अनिवार्य शर्त है ‘जारकर्म का विरोध.’ दलित साहित्य की जिद कर रहे गैर दलित जारकर्म के विरोध में लिखें तो उन्हें दलितों का समर्थक माना जा सकता है, लेकिन वे ऐसी बात घर में ही छुपाने को कह रहे हैं, फिर वे कैसे दलित साहित्य लिखेंगे?
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लेखक युवा कवि, आलोचक एवं कला समीक्षक हैं. दलित मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं. उनसे संपर्क उनकी मेल आईडी kailash.dahiya@yahoo.com और उनके मोबाइल नंबर 9868214938 पर किया जा सकता है.
Sunday, November 20, 2011
छत्तीसगढ़ः दलितों को सरकारी लाभ न देने की साजिश
छत्तीसगढ़ में दलित समाज को सरकारी योजनाओं और आरक्षण का लाभ न देने की साजिश चल रही है. प्रदेश सरकार द्वारा जाति प्रमाण पत्र जारी करने को लेकर बनाए कठिन शर्तों के कारण दलित समाज का बड़ा तबका प्रमाण पत्र नहीं बनवा पा रहा है. इन्हीं दिक्कतों को सामने रखते हुए पिछले दिनों दलित मूवमेंट एसोसिएशन के एक प्रतिनिधिमंडल ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकात की और प्रदेश में दलित जातियों को आने वाली दिक्कतों से अवगत कराया. प्रदेश में फिलहाल सबसे बड़ी समस्या दलित जातियों का प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली परेशानी को लेकर है. प्रतिनिधिमंडल ने इस बारे में भी मुख्यमंत्री को अवगत कराया.
फिलहाल प्रदेश में जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए आवेदक से 50-60 साल पुराना भूमि रिकार्ड मांगा जाता है. जबकि हकीकत यह है कि पांच दशक पहले ज्यादातर दलित समाज अनपढ़ और भूमिहीन था. उनके पास कुछ जमीने थी भी तो उस समय कागजों का चलन इतना अधिक नहीं था. इस कारण दलित समाज के लोग इतना पुराना रिकार्ड पेश नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में प्रशासन द्वारा उनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बनाया जा रहा है. इस कारण उन्हें आरक्षण की मूलभूत सुविधा नहीं मिल पा रही है. कुछ अति दलित जातियों को तो परेशानी का सामना ज्यादा करना पर रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि जो लोग सरकारी मानक को पूरा कर जाति प्रमाण पत्र बनवाते भी हैं तो एक ही उपजाति को कई नामों से जाति प्रमाण पत्र दिए जाते हैं उदाहरण के लिए डोमार जातियों का जाति प्रमाण पत्र कई नामों से जारी किया जाता है. सरकार द्वारा जारी जाति प्रमाण पत्रों में डोमार जाति के लिए डोमार, डोम, महार, भंगी, मेहतर, वाल्मीकि, मेहतर, खटिक और देवार आदि नाम से प्रमाण पत्र जारी किया जाता है. प्रदेश में दलितों में इसी उपजाति के दलित ज्यादा संख्या में हैं. मुख्यमंत्री से मुलाकात के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने इस समस्या को भी उठाया और विभिन्न नामों की बजाए डोमार नाम से ही प्रमाण पत्र देने की मांग की. इसके अलावा प्रतिनिधिमंडल ने एसोसिएशन के लिए कार्यालय भवन की मांग भी की. इन मांगों के संबंध में उन्होंने मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन सौंपा. प्रतिनिधिमंडल में शामिल सदस्यों में ललित कुंडे, मोतीलाल, धर्मकार, कैलाश खरे, हरीश कुंडे एवं संजीव आदि शामिल थे.
फिलहाल प्रदेश में जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए आवेदक से 50-60 साल पुराना भूमि रिकार्ड मांगा जाता है. जबकि हकीकत यह है कि पांच दशक पहले ज्यादातर दलित समाज अनपढ़ और भूमिहीन था. उनके पास कुछ जमीने थी भी तो उस समय कागजों का चलन इतना अधिक नहीं था. इस कारण दलित समाज के लोग इतना पुराना रिकार्ड पेश नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में प्रशासन द्वारा उनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बनाया जा रहा है. इस कारण उन्हें आरक्षण की मूलभूत सुविधा नहीं मिल पा रही है. कुछ अति दलित जातियों को तो परेशानी का सामना ज्यादा करना पर रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि जो लोग सरकारी मानक को पूरा कर जाति प्रमाण पत्र बनवाते भी हैं तो एक ही उपजाति को कई नामों से जाति प्रमाण पत्र दिए जाते हैं उदाहरण के लिए डोमार जातियों का जाति प्रमाण पत्र कई नामों से जारी किया जाता है. सरकार द्वारा जारी जाति प्रमाण पत्रों में डोमार जाति के लिए डोमार, डोम, महार, भंगी, मेहतर, वाल्मीकि, मेहतर, खटिक और देवार आदि नाम से प्रमाण पत्र जारी किया जाता है. प्रदेश में दलितों में इसी उपजाति के दलित ज्यादा संख्या में हैं. मुख्यमंत्री से मुलाकात के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने इस समस्या को भी उठाया और विभिन्न नामों की बजाए डोमार नाम से ही प्रमाण पत्र देने की मांग की. इसके अलावा प्रतिनिधिमंडल ने एसोसिएशन के लिए कार्यालय भवन की मांग भी की. इन मांगों के संबंध में उन्होंने मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन सौंपा. प्रतिनिधिमंडल में शामिल सदस्यों में ललित कुंडे, मोतीलाल, धर्मकार, कैलाश खरे, हरीश कुंडे एवं संजीव आदि शामिल थे.
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उत्पीड़न के खिलाफ धरने पर बैठा दलित शिक्षक
यह समाज के जागरूक होने का ही नतीजा है कि अब लोग अपने हक के लिए लड़ना सीख गए हैं. अब तक चुप बैठने वाले लोग लड़ना सीख रहे हैं. ताजा घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में एक प्रधानाध्यापक अपने उत्पीड़न की शिकायत पर पुलिस द्वारा कार्रवाई न करने के बाद अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए हैं. इन्हें डीआईओएस कार्यालय में पानी पीने पर जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल कर अपमानित किया गया था. गजरानी इंटर कॉलेज सिसौआ के प्रधानाध्यापक व पूर्व ग्राम प्रधान कमलेश चंद्र भारती के साथ डीआईओएस कार्यालय के कर्मचारियों ने पानी पीने पर अपमानित किया था.
इस भेदभाव के खिलाफ उन्होंने लिपिक दीपक दीक्षित व ड्राइवर अरविंद रस्तोगी के खिलाफ थाना सदर बाजार प्रभारी समेत एसपी को प्रार्थना पत्र दिया लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई. इसके बाद वह 14 नवंबर से धरने पर बैठ गए. प्रधानाध्यापक के साथ भेदभाव की शिकार एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला भी धरने पर बैठ गई है. इनका साथ देने के लिए कुछ स्थानीय नेता भी सामने आ गए हैं. जहां तक आंगनबाड़ी केन्द्र चांदा में कार्यरत आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी की बात है तो उसके साथ ग्राम कहेलिया के प्रधान पति अमित वर्मा ने मारपीट की और जाति सूचक शब्दों से अपमानित किया था. स्थानीय नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया है. महान दल के जिलाध्यक्ष सुरेश चन्द्र गौतम ने प्रशासन को चेतावनी दी है कि यदि मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हुई तो पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी का पुतला दहन किया जायेगा. धरने पर बैठे प्रधानाध्यापक भारती और आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी के साथ अन्य शिक्षक सुरेन्द्र कुमार, राजकिशोर, बृजलेश कुमार, कमलेश कुमार, मीना गौतम, दिनेश कुमार, खुशीराम, रामचन्द्र वर्मा, प्रधानाचार्य पब्लिक स्कूल कहेलिया, कौशल किशोर वाजपेई, सावित्री देवी, सुशील कुमार, वीरेन्द्र कुमार, छीतेपुर, अर्चना देवी, श्रवण कुमार, सर्वेश कुमार भी शामिल हैं.
इस भेदभाव के खिलाफ उन्होंने लिपिक दीपक दीक्षित व ड्राइवर अरविंद रस्तोगी के खिलाफ थाना सदर बाजार प्रभारी समेत एसपी को प्रार्थना पत्र दिया लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई. इसके बाद वह 14 नवंबर से धरने पर बैठ गए. प्रधानाध्यापक के साथ भेदभाव की शिकार एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला भी धरने पर बैठ गई है. इनका साथ देने के लिए कुछ स्थानीय नेता भी सामने आ गए हैं. जहां तक आंगनबाड़ी केन्द्र चांदा में कार्यरत आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी की बात है तो उसके साथ ग्राम कहेलिया के प्रधान पति अमित वर्मा ने मारपीट की और जाति सूचक शब्दों से अपमानित किया था. स्थानीय नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया है. महान दल के जिलाध्यक्ष सुरेश चन्द्र गौतम ने प्रशासन को चेतावनी दी है कि यदि मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हुई तो पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी का पुतला दहन किया जायेगा. धरने पर बैठे प्रधानाध्यापक भारती और आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी के साथ अन्य शिक्षक सुरेन्द्र कुमार, राजकिशोर, बृजलेश कुमार, कमलेश कुमार, मीना गौतम, दिनेश कुमार, खुशीराम, रामचन्द्र वर्मा, प्रधानाचार्य पब्लिक स्कूल कहेलिया, कौशल किशोर वाजपेई, सावित्री देवी, सुशील कुमार, वीरेन्द्र कुमार, छीतेपुर, अर्चना देवी, श्रवण कुमार, सर्वेश कुमार भी शामिल हैं.
दलितों को बलि का बकरा बनाने की एक और कोशिश
जितना पाक मकसद धर्म के अस्तित्व. के साथ जुड़ा है, उससे कहीं अधिक नापाक इरादे आज धर्म के ठेकेदारों की ओर से धर्म के नाम पर व्यक्ति व समाज पर थोपने के नजर आते हैं. आज ऐसा प्रतीत होता है जैसे धर्म व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि व्यक्ति धर्म के लिए है. और व्यक्ति को धार्मिक होने या धार्मिक दिखने के लिए किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए. दलितों का सदा से ही आक्षेप रहा कि उनकी वर्तमान दुर्दशा के लिए किसी न किसी रूप में हिन्दुईज्म जिम्मेदार है. यह समाज में गैर-बराबरी की वकालत करता है और दलितों की प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध करता है.
बाबा साहेब डा. अम्बेलडकर का यह भी मानना था कि आज किसी नए धर्म की आवश्यकता नहीं है. किसी भी समाज को धार्मिक विकृतियों को दूर करने के लिए मौजूदा धर्मों में से ही किसी एक को अंगीकार कर समकालीन धार्मिक जरूरतों की पूर्ति करने का उपक्रम करना चाहिए. इसलिए दलितों को हिन्दू धर्म की जातिगत दलदल से निकालने के लिए डा. अम्बेडकर ने बुद्ध धर्म का अंगीकार ही नहीं किया बल्कि दलितों को भी इसका अनुसरण करने के लिए आहृवान किया. इसमें संदेह की कोई वजह नहीं है कि दलित समाज बुद्ध धम्मं की मूल भावना को ठीक से अंगीकार नहीं कर पाया. परिणाम स्वरूप, कई मायने में अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त बुद्धिज्म पुरोहितिकरण का शिकार-सा होता नजर आता है.
यह डा. अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त एक विकल्प है जिसके साथ दलित समाज खड़ा नजर आता है. लेकिन इसके विपरीत डा. धर्मवीर हैं जो एक नए धर्म आजीवक की वकालत करते हैं. यह धर्म है या नहीं यह अभी तय होना बाकि है. दूसरे, अभी तक डा. धर्मवीर ने आजीवक को लेकर दूसरों पर आरोप ही लगाए हैं, इसके बारे में कुछ स्पष्ट करने का साहस नहीं किया है. यही नहीं, वे किसी न किसी रूप में अपने आपको इसका पैगम्बर बनाने की फिराक में नजर आते हैं. इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं कि डा. धर्मवीर किसी नए धर्म का अविष्कार करें और इसका पैगम्बर बनें. यह दलित समाज के लिए फख्र की बात होगी. लेकिन यहां स्थिति कुछ अलग व चिंताजनक है क्योंकि डा. धर्मवीर ने अपने नए धर्म के लिए स्पेश बनाने के लिए डा. अम्बेडकर, बुद्ध और इनके द्वारा प्रदत्त धम्मि पर मनोवांछित आरोपों का जैसे पिटारा ही खोल रखा है.
इस बार डा. धर्मवीर की तथाकथित धार्मिक मुहिम का हिस्सा बुद्धिज्म में पुनर्जन्म बना और इसके निशाने पर रहे डा. बी. आर. अम्बेडकर. यह सर्वविदित है कि बुद्धिज्म में पुनर्जन्म न कल था और न आज है. हां, यह बिल्कुल अलग बात है कि पुनर्जन्म के नाम पर बुद्धिज्म और डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करने की जोरदार कौशिश जरूर हो रही है. यहां रस्सी को सांप बनाने के दो कारण समझ आते हैं. एक, डा. अम्बेंडकर के कद को बौना करना. दूसरा, दलित समाज को बुद्धिज्मत से अलगाना. जैसा कि पहले कहा गया है कि इस मुहिम के पीछे बुद्धिज्मठ को रिप्लेकस कर डा. धर्मवीर द्वारा स्वपोषित आजीवक धर्म को स्था.पित करना है. ऐसे में डा. धर्मवीर के इस उद्देश्य पूर्ति में डा. अम्बेडकर सबसे बड़ी बाधा हैं क्योंकि डा. अम्बेडकर के कारण ही दलित समाज बुद्धिज्म की ओर आकर्षित हुआ है. डा. धर्मवीर की इस मुहिम को सफलता मिले न मिले लेकिन प्रयास जोरदार है, इतना तो मानना ही पड़ेगा. इस पुनर्जन्म की मौजूदा राजनीति में कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक, यह सवाल बे-मानी है. यहां मुद्दा डा. अम्बेडकर और बुद्ध पर पुनर्जन्म की अवधारणा को आरोपित करना हैं. इसको समझने के लिए हमें पहले यह समझना पड़ेगा कि डा. अम्बेडकर कोई धर्म प्रवर्तक नहीं हैं. उनके द्वारा बुद्धिज्म का अंगीकार करना समाज में व्याप्त जातीय व धार्मिक भेद-भाव और इनसे उपजे शोषण-उत्पीड़न व असमानता से अछूत समाज को मुक्ति कराना था. इसके लिए उन्होंने किसी नए धर्म की जरूरत को सिरे से नकार कर बुद्धिज्म को स्वीकार किया. इसलिए उनके लिए समाज में मौजूद आस्तिक-नास्तिक, भाग्य-भगवान, पाप-पुण्य, लोक-परलोक और पुनर्जन्मल जैसी गूढ़ और भ्रमित करने वाली अवधारणाओं को बुद्धिज्म के संदर्भ में स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है. लेकिन डा. धर्मवीर बाबा साहब के पुनर्जन्म संबंधी विचारों को सदर्भों से काटकर और तोड़-मरोड़कर अम्बेडकर-विरोधी मुहिम चला रहे हैं. इसलिए तथ्यों तक पहुंचने के लिए संदर्भ और विचार-श्रृंखला को समझना अति प्रासांगिक है.
एक- डा. अम्बेडकर पर डा. धर्मवीर पहला प्रहार करते हैं कि डा. अम्बेकडकर ने पुनर्जन्म् का उत्तर ‘हां’ में दिया और कहते हैं- “इसी जगह दलित चिंतन को जबर्दस्त् झटका लगता है. यहां बाबा साहब ने एक तरह से दलित चिंतन की जान ही निकाल दी है.”1 यह मुद्दा बुद्ध काल में प्रचलित दो मतों शाश्वहतवाद (आत्माल व इसकी शाश्वकतता को स्वीकारना) और उच्छेहदवाद (वस्तुह का सम्पूसर्ण विनाश) से जुड़ा है. बुद्ध अपने को न शाश्वतवादी कहते हैं और न ही उच्छे्दवादी मानते हैं. “इससे प्रश्न् पैदा होता है कि क्या बुद्ध पुनर्जन्म् मानते थे? ”
बुद्ध इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते हैं- “ चार भौतिक पदार्थ हैं, चार महाभूत हैं जिनसे शरीर बना है - (1) पृथ्वी्, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु. शरीर के मरने के बाद ये तत्व आकाश में जहां समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप में विद्यमान हैं, उनमें मिल जाते हैं. इस विद्यमान (तैरती हुई) राशि में जब इन चारों महाभूतों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है. इन पदार्थों के लिए ये आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हों जिसका मरण हो चुका है, वे नाना मृत शरीरों के भौतिक अंशों के हो सकते हैं. शरीर का मरण होता है लेकिन भौतिक पदार्थ बने रहते हैं. भगवान बुद्ध इसी प्रकार के पुनर्जन्मत मानते थे.” साफ है कि यहां बुद्ध भौतिक तत्वर जो विभिन्नन शरीरों के होते हैं, एक विशेष अनुपात और एक प्राकृतिक/वैज्ञानिक प्रक्रिया के चलते शरीर के रूप में अस्तित्व में आते हैं. यह तत्वों का पुनर्जन्म होता है, व्यक्ति विशेष का नहीं. इसको धार्मिक व आध्यानत्मिक पहलू से जोड़ना शरारतपूर्ण व पूर्वाग्रह का परिचायक है.
दो - डा. धर्मवीर बुद्ध की माता महामाया के गर्भधारण की रात के स्वमप्नत की बात करते हुए डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करते हुए उद्धृत करते हैं- ‘सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उस (महामाया) के पास आया और प्रश्नए किया, मैंने अंतिम जन्मे पृथ्वी पर धारण करने का निश्च‘य किया है, क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था- बड़ी प्रसन्नता से.’ उसी समय महामाया देवी की आंख खुल गईं.” इस पर धर्मवीर टिप्पणी करते हैं- महामाया की आंखें खुल गई हों, पर बाबा साहब की ऐसी लिखत-पढ़त से दलितों की आंख मिच गईं.’
यह घटना शाक्यि राज्य के असाढ़ के सात दिन के उत्सव से जुड़ी है. सात दिन के उत्सव के बाद शुद्धोदन और महामाया गर्भधारण की प्रबल कामना के साथ मिलन करते हैं. ऐसी अति-उत्सा ह की स्थिति में सपने आना स्वाभाविक है और सपनों की उड़ान की कोई सीमा नहीं होती. उस समय महामाया के चारों ओर के राजसी, सामाजिक-धार्मिक माहौल में इसे कौन क्या रंग देता है, यह अलग प्रश्न है, लेकिन अम्बेकडकर और बुद्ध इसे पुनर्जन्म के रूप में स्थापित करने की कोई सैद्धांतिकी पेश नहीं करते. दूसरे, पुनर्जन्म को सिरे से खारिज करने की स्थिति में यह संभव भी नहीं है. लेकिन डा. धर्मवीर हैं कि बाबा साहेब और उनकी लिखत-पढ़त पर प्रहार करने से नहीं चूकते और उन पर दलित समाज को अंधा बनाने का दोष मढ़ते हैं. वर्णवादियों की तर्ज पर डा. धर्मवीर की दलित समाज को गंवार और मूर्ख आंकने की मुहिम उन्हें कहां तक ले जाएगी, इसका फैसला तो समय ही करेगा, इसे जनता पर छोड़ना ही बेहतर रहेगा.
तीन- आरोपों की कड़ी में डा. धर्मवीर, डा. अम्बे्डकर पर बोधिसत्व ‘बुद्ध’ कैसे बनता है, के संबंध में गंभीर आरोप लगाते हैं-“बोधिसत्वो को लगातार दस जन्मों तक ‘बोधिसत्व’ रहना पड़ता है. इन दस जन्मों में उसे दस पारमिताओं तक पहुंचना पड़ता है. शर्त बड़ी कठिन है- एक जन्म में एक पारमिता की पूर्ति करनी होती है, और ऐसी नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी. यह उद्धृत करते हुए डा. धर्मवीर टिप्पणी करते हैं-‘लगता है हिन्दुओं के पुराण कम पड़ गए थे जो यहां हम ‘बुद्ध पुराण’ पढ़ रहे हैं.” यहां डा. धर्मवीर बुद्ध पर पुनर्जन्म के आरोप के साथ-साथ बुद्ध–साहित्य के इतर हिन्दुऑं के पुराणों का सीधे-सीधे समर्थन करते दिख रहे हैं. यहां ‘जन्मर’ शब्द- भ्रांति पैदा करता है. इसे समझने के लिए बाबा साहेब के अंग्रेजी संस्कररण को देखना पड़ेगा. इसके अनुसार-“A Bodhisatta must be a Budhisatta for ten lives in succession. What must be a Bodhisatta do in order to qualify himself to become a Buddha? ” “The Bodhisatta acquires these ten powers which are necessary for him when he becomes a Buddha.”
यहां, जहां दस जीवन (जन्म ) की बात की जा रही है, वह वास्तव में इंसानी जीवन की दस अवस्थाओं की बात हो रही है, न कि दस बार जन्म लेने की. यह स्थिति ठीक वैसी है जैसी हिन्दुईज्म में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वाणप्रस्थो व सन्यादस की है. बुद्धिज्म में ये अवस्थाएं दस हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं- मुदिता (Joy), विमला (Purity), प्रभाकारी (Brightness), अचिंष्मंति (intelligence of Fire), सुदुर्जया (Difficult to Conquer) आदि-आदि. ये दस गुण हैं, पावर हैं जिन्हें हासिल करके बोधिसत्व से बुद्धत्व प्राप्तn किया जा सकता है. यहां एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक पहुंचने के लिए एक जन्म् से दूसरे जन्मह से कुछ लेना-देना नहीं है, और इसे पुनर्जन्म, की भट्टी में झोंकना दुस्सासहस और दुराग्रह के अतिरिक्त कुछ नहीं है. सिद्धार्थ ऐसी ही स्थितियों से गुजर कर बुद्ध बने थे.
चार- डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहेब की पुस्तक से उद्धृत-‘अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें यहां चला आता है, और फिर इसमें उन्हें छोड़कर दूसरे में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्य़त्र चला जाता है, यही मानव-मात्र का हाल है.’ यहां डा. धर्मवीर, बाबा साहब पर पुनर्जन्मवादी होने का मिथ्या आरोप लगाते हैं और उनके मास्टलर माईंड होने को संदिग्धाता का जामा पहना कर व्यंग्य करते हैं कि यहां हम खुद को बचाएं या डा. अम्बे्डकर को बचाएं, या उनके बुद्ध को? वैसे डा. धर्मवीर ठीक ही कह रहे हैं. वही तो बचे हैं दलितों को, बाबा साहब को, बुद्ध को और समूचे भारतीय समाज को बचाने वाले. यदि डा. धर्मवीर जैसे बाबा साहेव के पांच-सात और हितैषी/शुभचिंतक हो जाएं तो सारे झगड़े ही मिट सकते हैं, क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.
यह घटनाक्रम उस समय का है जब सिद्धार्थ अपना घर छोड़कर जा रहे थे और शुद्धोदन द्वारा भेजे मंत्री और पुरोहित उन्हें वापस लौटा लाने के लिए अलग-अलग प्रकार के तर्क दे रहे थे. इस घटनाक्रम में भी डा. धर्मवीर संदर्भ से हटकर व तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं. डा. धर्मवीर द्वारा उद्धृत बाद के हिस्से को समझने के लिए उससे पूर्व के संदर्भ को देखना पड़ेगा जो इस प्रकार है- “जिस प्रकार दो राही सड़क पर इक्कट्ठे होते हैं वे आगे चलकर पृथक होते ही हैं, इसी प्रकार जब आज या कल सभी का परस्पर वियोग अनिवार्य है, तो कोई भी बुद्धिमान आदमी किसी भी स्वजन से पृथक होने पर दुखी क्यूं होगा, भले ही वह स्वकजन उसका कितना ही प्रिय क्यूं न हो? अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें चला आता है और इसमें इन्हें छोड़कर दूसरे लोक में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्यवत्र चला जाता है. यही मानव-मात्र का हाल है. एक मुक्त् पुरुष इस सबके लिए दुखी क्यों हो?” डा. अम्बेडकर की आलोचना के चक्कर में डा. धर्मवीर भूल जाते हैं कि यहां किसी अन्य लोक की नहीं बल्कि इसी लोक की बात हो रही है जिसमें कोई भी प्रगतिशील व्योक्ति देश में ही नहीं, परदेश में भी जीवन के अनेक उद्यमों के चलते आता-जाता रहता है. दूसरे, ‘एक मुक्ते पुरुष’ से जुड़े अंतिम वाक्य को जान बूझकर इसलिए छोड़ देते हैं, ताकि बाबा साहब को आसानी से कठघरे में खड़ा किया जा सके.
पांच- धर्मवीर के पूर्वाग्रह की अति तो तब जो जाती है, जब वे बाबा साहब द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाओं में से 21वीं प्रतिज्ञा को उद्धृत (मैं यह मानता हूं मेरा अब पुनर्जन्मो हो गया है.) करते हुए अंधविश्वास का दोषारोपण करते हैं- “वे धर्मांतरण में हिन्दू् धर्म से छूटे नहीं हैं बल्कि उसमें बुरी तरह फंसते गए हैं.” यह बात एक सामान्यअ बुद्धि वाले बच्चेद की समझ में आ सकती कि यहां धर्मांतरण के बाद बाबा साहव एक नई जीवन-शैली से शेष जीवन जीने की बात कर रहे हैं. लेकिन डा.धर्मवीर ने तो तय कर रखा है कि उन्हें तो बाबा साहब पर पत्थर फैंकने ही हैं चाहे हिन्दूवाद के नाम से फैंके या पुनर्जन्म वाद के नाम से. गौरतलब यह भी है कि उन्हें हिन्दूरवाद, तब याद नहीं आता जब वे कबीर को आजीवक के नाम से थोपने के चक्कार में दिन-रात ईश्वर की माला जपते हैं.
छह -डा. धर्मवीर बुद्ध द्वारा अव्याकृत रखे गए प्रश्नों मसलन-‘क्या तथागत मरणांतर रहते हैं? क्या तथागत मरणांतर नहीं रहते हैं? क्यों वे मरणांतर रहते भी हैं और नहीं भी रहते हैं? और क्यां मरणांतर न रहते भी हैं और न नहीं भी रहते हैं? पर अजीब तरह से रिएक्टह करते हैं. “बुद्ध ने व्य क्ते नहीं किया, पर बाबा साहब ने अपना मत व्यक्त क्यों नहीं किया? इस मामले में आम आदमी और तथागत में क्या फर्क है? तथागत ने क्याक सत्य जान लिया है जो वे यहां आकर आम आदमी से भिन्नं हो गए? इस जानने या न जानने से पुनर्जन्म? पर क्या फर्क पड़ता है? पुनर्जन्म होना है तो होना हैं और नहीं होना है तो नहीं होना है, बात दो टूक क्यों नहीं? ऐसा कैसे हो जाएगा कि बाकि के पुनर्जन्म होते रहेंगे और तथागत का पुनर्जन्म अव्याकृत के मौन में गुम हो जाएगा? ”
डा. धर्मवीर क्यों भूल जाते हैं कि यह मामला जवाबदेही का है और भविष्य में समाज पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का भी है, भ्रम फैलाने का नहीं. डा. धर्मवीर के उतावलेपन से लगता है कि जैसे पुनर्जन्म की गुत्थी सुलझाना उनके लिए गुड्डे-गुडियों का खेल है, जिससे जैसे चाहे खेला जा सकता है. यदि सारी चीजें इतनी ही आसान हैं तो पन्द्रह साल हो गए डा. धर्मवीर को आजीवक का राग अलापते हुए. क्या आजीवक के संबंध में सैंकड़ों/हजारों बिंदुओं में से किसी एक बिंदू पर भी वे अपनी कोई ठोस राय रख पाए? दूसरे, डा. अम्बेडकर सीधे-सीधे अपने किसी धर्म की सैद्धांतिकी नहीं तैयार कर रहे थे. वे जन-साधारण की सामान्य जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे, जिनसे प्रत्येक साधारणजन को अपने चारों ओर के धार्मिक माहौल में रोज जूझना पड़ता है. वे इसमें कितना सफल हो पाए कितना नहीं, यह अलग बात है. यदि डा. धर्मवीर को लगता है कि तथागत के मरणांतर रहने या न रहने के उत्तर मिलने से दलित समाज की सारी समस्याओं का चमत्कारी समाधान हो जाएगा और यदि उनके पास इसका कोई उत्तर है, तो दे दें इसका उत्तर और कर लें किला फतह.
सात- डा. धर्मवीर बाबा साहेब और अन्यउ किसी के कहने से बौद्ध धर्म ग्रहण न करने का कारण थेरी इसिदासी की ‘एक कांनी और लंगड़ी बकरी के पेट में मैंने जन्म पाया’ जैसी कथाएं बताते हैं. फिर बाल हठ जैसी प्रश्नों की झड़ी कुछ इस प्रकार लगाते हैं- “बस, लो हो ली, और हमने सुन ली, पूरी सुन ली. दुनिया कहे, मैं इस धर्मग्रथ पर विश्वास नहीं करूंगा. कुछ भी हो जाए, मैं अंधविश्वासी नहीं बनूंगा. इतने बड़े वकील थे, उनकी समझ में यह क्यूं नहीं आया कि वे ऐसे पकड़े जाएंगे. ” डा. धर्मवीर यह उदाहरण त्रिपिटक की थेरीगाथा से दे रहे हैं और दोष लगा रहे है बाबा साहब पर. यह आलोचना का कौन-सा तरीका है? डा. धर्मवीर आरोप लगाने के आवेश में यह क्यूं भूल जाते हैं कि बाबा साहब ने ‘बुद्धा एण्डन हिज धम्मा ’ नामक पुस्त्क अनावश्यक भटकाव से बचने के लिए लिखी है ताकि उनके अनुयायी अपनी राय इस पुस्तक के आधार पर बनाएं. दूसरे, उन्हों ने आगे स्पाष्ट कहा है- “बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वंयं अपने आप ही प्रयास करना होता है.” ऐसी स्थिति में डा. धर्मवीर को बताना चाहिए कि बाबा साहब कैसे उन्हें अंधविश्वासी बनने के लिए जबरदस्ती कर रहे हैं? कैसे वे उन्हें दस जन्मों में व पुनर्जन्म में भटकाने के लिए लट्ठ लिए उनके पीछे घूम रहे हैं?
आठ- आलेख के ‘खण्ड चार’ में डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहब को अपना कहने का स्या नापन एक्स्पोज हो जाता है. उनका असली चेहरा है- “हमारे धार्मिक और दार्शनिक पिमामह मक्खेलि गोसाल हैं. वे हमारे आदि गुरु हैं. उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी.”14 साफ है कि डा. धर्मवीर का धर्म ‘आजीवक’ है और मक्खुलि गोसाल उनके धार्मिक और दार्शनिक पितामह और आदि गुरु सिर्फ इसलिए हैं कि उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी. बाकि धर्म देने का जिम्मा डा. धर्मवीर का है. इसीलिए वे कहते हैं कि अगर बाबा साहब न होते, कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर कबीर न होते तो कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर मक्खुलि गोसाल नहीं हैं, तो काई बात नहीं, डा. धर्मवीर तो हैं. यानी डा. धर्मवीर ने अपने आपको पैगम्बसर/ईश्वर का पर्याय बना लिया है.
उक्त टिप्पणी में डा. धर्मवीर अपने को पैगम्बंर की तरह प्रस्तुत करते हैं और बार-बार दावा भी करते हैं कि मैं ही धर्म दूंगा और मैं ही ये करूंगा और मैं ही वो करूंगा. लेकिन बाबा साहब और बुद्ध डा. धर्मवीर के पैगम्बरवाद और ईश्वरवाद को ही नकारते नहीं बल्कि लोक-परलोक को भी नकारते हैं. बाबा साहब का सब कुछ इसी लोक और इसी जन्म पर आधारित है. वे इस विषय पर बुद्धिज्म की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने या तो अपने को ‘ईश्वरीय’ कहा है, या अपने ‘धर्म’ को. तथागत ने न अपने लिए और न अपने धर्म-शासन के लिए कोई ऐसा दावा किया. उनका दावा इतना ही था कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनका संदेश एक आदमी द्वारा दूसरे को दिया गया संदेश है.”15 यहां बुद्ध शुरु से अंत तक साधारण आदमी हैं लेकिन डा. धर्मवीर शुरु से अंत तक पैगम्बरी/ईश्वयरी अहंकार में लिप्त हैं.
जहां तक ‘नियति’ का सवाल है, डा. धर्मवीर इसे प्रकृति के नियमों व परिस्थितियों के आधार पर घटित होने वाली अनेक घटनाओं को सिर्फ जन्म तक सीमित बताते हैं- “नियति को जन्म् लेने की घटना से आगे बढ़ाना ही अनुचित है. अन्यथा यह वृद्धि-प्राप्त दोष के तर्क से ग्रस्त हो जाती है.”16 डा. अम्बेडकर के लिए तो नियति को जन्मन से आगे बढ़ना अनुचित है क्योंकि उनपर पुनर्जन्म का पक्षधर होने का जो दोष मढना है. लेकिन फिर आंए-बांए बघार वे बताते हैं-“मक्ख लि गोसाल के यहां ‘नियति’ कोई बंद अर्थ वाला शब्दन नहीं है. इसके अर्थ खुल सकते हैं.”17 तो फिर ये समझा जाए कि इस विषय पर बात करने का अधिकार डा. धर्मवीर ने पेटेंट करा लिया है? यदि सब कुछ डा. धर्मवीर को ही करना है तो डर किस बात का, खोल क्यूं नहीं देते डा. धर्मवीर अपने पत्ते और बन क्यूं नहीं जाते चमत्कारी बाबा, यानी आजीवक पैगम्बर?
नौ- आगे अहंकार की दीवनगी में बाबा साहब को जबरन कबीर तक सीमित करने की जिद ही नहीं करते बल्कि उनपर कबीर पर किताब न लिखने का दोषारोपण करते हैं. फिर बाबा साहब द्वारा बुद्ध के लिए प्रयोग किए गए विशेष नामों को भक्ति की संज्ञा देते हैं और अपना हिन्दुरवादी हिडन ऐजेंडा प्रस्तुत करते हैं-“जब आदमी के मन में भक्ति की भावना इतनी प्रबल है तो बुद्ध के बजाय सीधे ईश्वुर पर जाया जाएं. फिर, अपने जैसे आदमी की भक्ति क्या करनी, उसी की डोर पकड़ी जाए जो सारे जहां का मालिक है, जिसके हुकम में बुद्ध भी रहते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी पैदा होते हैं.”18 डा. धर्मवीर बाबा साहब पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें क्षत्रियों और ब्राह्मणों की पौराणिक स्पर्धा में नहीं पड़ना चाहिए था- वे तीन में न तेरह में. खुद धर्मवीर यहां हिन्दूवाद और ईश्वर के अवतारों की स्थांपना कर रहे हैं जो अलग-अलग अवतार लेकर पृथ्वी पर आ रहे हैं. वे किसी भी स्पर्धा में पड़ सकते हैं लेकिन अन्यक नहीं, आखिर पैगम्बरर जा ठहरे. क्या यह विश्वथ हिन्दू परिषद व आर. एस. एस. के ऐजेंडे का हिस्सा़ नहीं है, जो डा. धर्मवीर को असीम शक्तियां प्रदान करता है?
इसी ईश्वरवादी बजरंगी ऐजेंडे को आगे बढाते हुए डा. धर्मवीर टिप्पकणी करते हैं,“उसे भावनात्मवक बनाकर उससे रागात्मसक संबंध जोड़े जाएं कबीर के पास वही राम तो सजे-धजे दुल्हें के रूप में हैं. इस मामले में रैदास और कबीर के नामों के हमारे बजुर्गो ने कुछ भी गलत नहीं किया. उन्होंने जीवा को राजा नहीं कहा. वे बुद्ध वंदना नहीं कर सकते थे क्योंकि बुद्ध एक आदमी थे. भला रैदास और कबीर की संतान एक आदमी को ऐसे कैसे पूज लेंगी?”19 धर्मवीर पूजा की वकालत करते हैं हुए क्यों भूल जाते हैं कि पूजा तो पूजा होती है, राम की हो या रहीम की. इतना तय है कि इसके पीछे मानसिकता कमोबेश समपर्ण की ही रहती है, भले ही पद्धतियां कितनी ही भिन्नक क्यूं न हों. यही नहीं डा. धर्मवीर के यहां ईश्वीर भी है और जाति भी. उन्हें जाति से बहुत प्यार है और अच्छी लगती हैं, भले ही वे कितनी ही यातनाओं के तहत थोपी गई हैं. इसीलिए वे जाति मजबूत करने की बात भी करते हैं. असल में डा. धर्मवीर आदमी ही नहीं हैं, वे तो पैगम्ब्र/ईश्वजर हैं इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, और कुछ भी कर सकते हैं.
डा. धर्मवीर ने डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्मी के मात्र एक सकारात्महक पक्ष को नकारात्माकता के चश्मे से देखा है और डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्म के बारे में विष-वमन किया है. आमतौर पर साधारण पाठक ऐसे ही लेखन से अपनी राय बना लेता है और सच्चाई की तह तक जाने की जहमत नहीं उठाता. दूसरे, विरोधी व्यपक्ति ऐसे पूर्वाग्रही लेखन का लाभ उठाकर दुष्प्रचार करते हैं और समाज को भ्रमित करते हैं. सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में बाबा साहब की ही पुस्तक से कुछ उद्धृरण देखे जा सकते हैं, जो डा. धर्मवीर द्वारा लगाए सारे आरोपों के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने में सक्षम हैं.
बुद्धिज्म की विशेषता है कि यहां समानता हैं. यह अपने निर्णय स्वयं के विवेक से लेने के लिए स्वुतंत्रता प्रदान करता है और दूसरे लोगों पर निर्भरता के लिए कोई खास जगह नहीं छोड़ता. परिणामस्वरूप, व्यक्ति की शंकाओं का व्यवहारिक समाधान आसानी से संभव है. यह अन्य धर्मो से अलग है, जैसे-“ईसा ने ईसाइयत का पैगम्बर होने का दावा किया. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब का दावा था कि वे खुदा के भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे. भगवान बुद्ध ने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी. उन्होंने शुद्धोदन और महामाया का प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नहीं किया.”20 यहां परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं का समाधान भी बिना किसी आडंबर और टंटघंट के व्यूक्तियों द्वारा ही सांसारिक परिस्थितियों के अनुरूप मिल सकता है. इसके लिए न किसी पैगम्बंर की जरूरत है, न किसी ईश्वसर और न किसी मंन्दिर-मस्जिद व किसी पूजा पद्धति की. सभी कुछ इसी जन्म और मानव शरीर के द्वारा हल किया जा सकता है.
बुद्धिज्म में सब कुछ सहज भाव से चलता है. यहां न किसी मोक्ष की जरूरत है और न किसी स्वीर्ग-नरक की और न ही किसी कयामत के दिन के इंतजार की, जो ईश्वारीय व्यवस्था के अनिवार्य अंग माने जाते है. यहां व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य् निर्वाण है और इसमें व्यक्ति की भूमिका सर्वोच्च है. इसका श्रेय बुद्ध को जाता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को विशेष व कोई मुक्तिदाता नहीं माना. इसे बुद्धिज्म के माध्यम से इस प्रकार समझा जा सकता है-“बुद्ध ने ‘मोक्ष दाता’ को ‘मुक्ति दाता’ से सर्वथा अलग रखा है-एक तो मोक्ष देने वाला, दूसरा केवल उसका मार्ग बता देने वाला. बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वेयं अपने आप ही प्रयास करना होता है. ”21
बुद्धिज्म में मुक्ति का संबंध हिन्दूईज्म की तरह व्यक्ति के जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति से नहीं है. बुद्धिज्म में मुक्ति का अर्थ राग-द्वेष से मुक्ति है- “भगवान बुद्ध के लिए मुक्ति का मतलब है ‘निर्वाण’ और ‘निर्वाण’ का मतलब है राग-द्वेष की आग का बुझ जाना.”22
जिस “बुद्धिज्म” की बात बाबा साहब कर रहे हैं, वह पूरी दुनिया के धर्मों को तब पीछे जाता है जब इस धर्म के जनक, यानी बुद्ध को भी मानवीय कमजोरियों से मुक्ता नहीं माना जाता. उसे भी जवाबदेह बनाया जाता है और बुद्ध स्वबयं यह जवाबदेही स्वीकार करते हैं. बाबा साहब उल्लेख करते है-“उन्होंने कभी यह भी दावा नहीं किया कि उनकी बात गलत हो ही नहीं सकती. उनका दावा इतना ही था कि जहां तक उन्हों ने समझा है, उनका पथ मुक्ति का सत्यह मार्ग है. क्योंकि इसका आधार संसार भर के मनुष्यों के जीवन का व्यापक अनुभव है.”23
इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज बुद्धिज्म का पुरोहितिकरण हो रहा है, जिसने बुद्धिज्म की मूल भावना को क्षति पहुंच रही है. लेकिन यह बुद्धिज्म वह नहीं है जिसकी बात बाबा साहब कर रहे हैं. असली बुद्धिज्म में सभी कार्य परिस्थितियों के शूक्ष्म अवलोकन, विश्लेषण और अनुभवजन्य तथ्यों पर आधारित होते हैं. जीवन स्थितियों को समझने और तथ्यों तक पहुंचने की अनुभवजन्य पद्धति ही आजीवक चिंतन का मूलाधार है. आजीवक कोई धर्म नहीं है. आजीवक-चिंतन के केन्द्र् में प्रकृति है और अपने नए संदर्भ व तेवर के साथ नियति है, लेकिन कबीर और रैदास का राम, वह राम नहीं है, जिसकी पूजा की वकालत डा. धर्मवीर करते हैं. एक हकीकत और भी है कि आजीवक सभ्यता और संस्कृति के सूत्रधार भी मक्खीलि गोसाल नहीं हैं. इन विषयों पर बात करना विषयांतर होगा इसलिए अभी इस पर यहां बात नहीं की जा सकती.
खैर...डा. धर्मवीर आजकल जिस चिंतन पद्धति का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे डस्टबिन पद्धति कहा जा सकता है. क्योंकि वे किसी भी विषय-वस्तु में गंदगी ढूंढने की कोशिश करते हैं, भले ही उसमें हकीकत का मादा आज 1% प्रतिशत हों. लेकिन डा. धर्मवीर उसी एक प्रतिशत को शेष 99% पर थोपने की जद्दोजहद करते हैं. ऐसा नहीं है कि बुद्धिज्म में गड़बडि़यां नहीं आई. समय के साथ–साथ जब सब कुछ ही बदलता आया है इसलिए देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप बुद्ध–धम्म में भी कई प्रकार के बदलावों का आना स्वाभाविक है. किंतु वो बुद्ध व बाबा साहब के आचार-विचार व चिंतन-दर्शन के अनुरूप नहीं, अपितु उनके अनुयाइयों की कमजोरियों व परिस्थितियों को देखने के अपने नजरिए के कारण हैं. किंतु इन बदलावों को डा. धर्मवीर के कहीं पे निगाहें, कही पे निशाना वाले अंदाज से मुक्त होकर देखा जाना चाहिए. संभवत: तभी पाठक समकालीन परिस्थितियों को आसानी से समझ पाएंगे. यही नहीं, दलित किसी नए धर्म के नाम पर स्वयं को बलि का बकरा बनाने की किसी भी कोशिश को नाकाम कर पाएंगे.
बाबा साहेब डा. अम्बेलडकर का यह भी मानना था कि आज किसी नए धर्म की आवश्यकता नहीं है. किसी भी समाज को धार्मिक विकृतियों को दूर करने के लिए मौजूदा धर्मों में से ही किसी एक को अंगीकार कर समकालीन धार्मिक जरूरतों की पूर्ति करने का उपक्रम करना चाहिए. इसलिए दलितों को हिन्दू धर्म की जातिगत दलदल से निकालने के लिए डा. अम्बेडकर ने बुद्ध धर्म का अंगीकार ही नहीं किया बल्कि दलितों को भी इसका अनुसरण करने के लिए आहृवान किया. इसमें संदेह की कोई वजह नहीं है कि दलित समाज बुद्ध धम्मं की मूल भावना को ठीक से अंगीकार नहीं कर पाया. परिणाम स्वरूप, कई मायने में अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त बुद्धिज्म पुरोहितिकरण का शिकार-सा होता नजर आता है.
यह डा. अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त एक विकल्प है जिसके साथ दलित समाज खड़ा नजर आता है. लेकिन इसके विपरीत डा. धर्मवीर हैं जो एक नए धर्म आजीवक की वकालत करते हैं. यह धर्म है या नहीं यह अभी तय होना बाकि है. दूसरे, अभी तक डा. धर्मवीर ने आजीवक को लेकर दूसरों पर आरोप ही लगाए हैं, इसके बारे में कुछ स्पष्ट करने का साहस नहीं किया है. यही नहीं, वे किसी न किसी रूप में अपने आपको इसका पैगम्बर बनाने की फिराक में नजर आते हैं. इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं कि डा. धर्मवीर किसी नए धर्म का अविष्कार करें और इसका पैगम्बर बनें. यह दलित समाज के लिए फख्र की बात होगी. लेकिन यहां स्थिति कुछ अलग व चिंताजनक है क्योंकि डा. धर्मवीर ने अपने नए धर्म के लिए स्पेश बनाने के लिए डा. अम्बेडकर, बुद्ध और इनके द्वारा प्रदत्त धम्मि पर मनोवांछित आरोपों का जैसे पिटारा ही खोल रखा है.
इस बार डा. धर्मवीर की तथाकथित धार्मिक मुहिम का हिस्सा बुद्धिज्म में पुनर्जन्म बना और इसके निशाने पर रहे डा. बी. आर. अम्बेडकर. यह सर्वविदित है कि बुद्धिज्म में पुनर्जन्म न कल था और न आज है. हां, यह बिल्कुल अलग बात है कि पुनर्जन्म के नाम पर बुद्धिज्म और डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करने की जोरदार कौशिश जरूर हो रही है. यहां रस्सी को सांप बनाने के दो कारण समझ आते हैं. एक, डा. अम्बेंडकर के कद को बौना करना. दूसरा, दलित समाज को बुद्धिज्मत से अलगाना. जैसा कि पहले कहा गया है कि इस मुहिम के पीछे बुद्धिज्मठ को रिप्लेकस कर डा. धर्मवीर द्वारा स्वपोषित आजीवक धर्म को स्था.पित करना है. ऐसे में डा. धर्मवीर के इस उद्देश्य पूर्ति में डा. अम्बेडकर सबसे बड़ी बाधा हैं क्योंकि डा. अम्बेडकर के कारण ही दलित समाज बुद्धिज्म की ओर आकर्षित हुआ है. डा. धर्मवीर की इस मुहिम को सफलता मिले न मिले लेकिन प्रयास जोरदार है, इतना तो मानना ही पड़ेगा. इस पुनर्जन्म की मौजूदा राजनीति में कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक, यह सवाल बे-मानी है. यहां मुद्दा डा. अम्बेडकर और बुद्ध पर पुनर्जन्म की अवधारणा को आरोपित करना हैं. इसको समझने के लिए हमें पहले यह समझना पड़ेगा कि डा. अम्बेडकर कोई धर्म प्रवर्तक नहीं हैं. उनके द्वारा बुद्धिज्म का अंगीकार करना समाज में व्याप्त जातीय व धार्मिक भेद-भाव और इनसे उपजे शोषण-उत्पीड़न व असमानता से अछूत समाज को मुक्ति कराना था. इसके लिए उन्होंने किसी नए धर्म की जरूरत को सिरे से नकार कर बुद्धिज्म को स्वीकार किया. इसलिए उनके लिए समाज में मौजूद आस्तिक-नास्तिक, भाग्य-भगवान, पाप-पुण्य, लोक-परलोक और पुनर्जन्मल जैसी गूढ़ और भ्रमित करने वाली अवधारणाओं को बुद्धिज्म के संदर्भ में स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है. लेकिन डा. धर्मवीर बाबा साहब के पुनर्जन्म संबंधी विचारों को सदर्भों से काटकर और तोड़-मरोड़कर अम्बेडकर-विरोधी मुहिम चला रहे हैं. इसलिए तथ्यों तक पहुंचने के लिए संदर्भ और विचार-श्रृंखला को समझना अति प्रासांगिक है.
एक- डा. अम्बेडकर पर डा. धर्मवीर पहला प्रहार करते हैं कि डा. अम्बेकडकर ने पुनर्जन्म् का उत्तर ‘हां’ में दिया और कहते हैं- “इसी जगह दलित चिंतन को जबर्दस्त् झटका लगता है. यहां बाबा साहब ने एक तरह से दलित चिंतन की जान ही निकाल दी है.”1 यह मुद्दा बुद्ध काल में प्रचलित दो मतों शाश्वहतवाद (आत्माल व इसकी शाश्वकतता को स्वीकारना) और उच्छेहदवाद (वस्तुह का सम्पूसर्ण विनाश) से जुड़ा है. बुद्ध अपने को न शाश्वतवादी कहते हैं और न ही उच्छे्दवादी मानते हैं. “इससे प्रश्न् पैदा होता है कि क्या बुद्ध पुनर्जन्म् मानते थे? ”
बुद्ध इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते हैं- “ चार भौतिक पदार्थ हैं, चार महाभूत हैं जिनसे शरीर बना है - (1) पृथ्वी्, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु. शरीर के मरने के बाद ये तत्व आकाश में जहां समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप में विद्यमान हैं, उनमें मिल जाते हैं. इस विद्यमान (तैरती हुई) राशि में जब इन चारों महाभूतों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है. इन पदार्थों के लिए ये आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हों जिसका मरण हो चुका है, वे नाना मृत शरीरों के भौतिक अंशों के हो सकते हैं. शरीर का मरण होता है लेकिन भौतिक पदार्थ बने रहते हैं. भगवान बुद्ध इसी प्रकार के पुनर्जन्मत मानते थे.” साफ है कि यहां बुद्ध भौतिक तत्वर जो विभिन्नन शरीरों के होते हैं, एक विशेष अनुपात और एक प्राकृतिक/वैज्ञानिक प्रक्रिया के चलते शरीर के रूप में अस्तित्व में आते हैं. यह तत्वों का पुनर्जन्म होता है, व्यक्ति विशेष का नहीं. इसको धार्मिक व आध्यानत्मिक पहलू से जोड़ना शरारतपूर्ण व पूर्वाग्रह का परिचायक है.
दो - डा. धर्मवीर बुद्ध की माता महामाया के गर्भधारण की रात के स्वमप्नत की बात करते हुए डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करते हुए उद्धृत करते हैं- ‘सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उस (महामाया) के पास आया और प्रश्नए किया, मैंने अंतिम जन्मे पृथ्वी पर धारण करने का निश्च‘य किया है, क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था- बड़ी प्रसन्नता से.’ उसी समय महामाया देवी की आंख खुल गईं.” इस पर धर्मवीर टिप्पणी करते हैं- महामाया की आंखें खुल गई हों, पर बाबा साहब की ऐसी लिखत-पढ़त से दलितों की आंख मिच गईं.’
यह घटना शाक्यि राज्य के असाढ़ के सात दिन के उत्सव से जुड़ी है. सात दिन के उत्सव के बाद शुद्धोदन और महामाया गर्भधारण की प्रबल कामना के साथ मिलन करते हैं. ऐसी अति-उत्सा ह की स्थिति में सपने आना स्वाभाविक है और सपनों की उड़ान की कोई सीमा नहीं होती. उस समय महामाया के चारों ओर के राजसी, सामाजिक-धार्मिक माहौल में इसे कौन क्या रंग देता है, यह अलग प्रश्न है, लेकिन अम्बेकडकर और बुद्ध इसे पुनर्जन्म के रूप में स्थापित करने की कोई सैद्धांतिकी पेश नहीं करते. दूसरे, पुनर्जन्म को सिरे से खारिज करने की स्थिति में यह संभव भी नहीं है. लेकिन डा. धर्मवीर हैं कि बाबा साहेब और उनकी लिखत-पढ़त पर प्रहार करने से नहीं चूकते और उन पर दलित समाज को अंधा बनाने का दोष मढ़ते हैं. वर्णवादियों की तर्ज पर डा. धर्मवीर की दलित समाज को गंवार और मूर्ख आंकने की मुहिम उन्हें कहां तक ले जाएगी, इसका फैसला तो समय ही करेगा, इसे जनता पर छोड़ना ही बेहतर रहेगा.
तीन- आरोपों की कड़ी में डा. धर्मवीर, डा. अम्बे्डकर पर बोधिसत्व ‘बुद्ध’ कैसे बनता है, के संबंध में गंभीर आरोप लगाते हैं-“बोधिसत्वो को लगातार दस जन्मों तक ‘बोधिसत्व’ रहना पड़ता है. इन दस जन्मों में उसे दस पारमिताओं तक पहुंचना पड़ता है. शर्त बड़ी कठिन है- एक जन्म में एक पारमिता की पूर्ति करनी होती है, और ऐसी नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी. यह उद्धृत करते हुए डा. धर्मवीर टिप्पणी करते हैं-‘लगता है हिन्दुओं के पुराण कम पड़ गए थे जो यहां हम ‘बुद्ध पुराण’ पढ़ रहे हैं.” यहां डा. धर्मवीर बुद्ध पर पुनर्जन्म के आरोप के साथ-साथ बुद्ध–साहित्य के इतर हिन्दुऑं के पुराणों का सीधे-सीधे समर्थन करते दिख रहे हैं. यहां ‘जन्मर’ शब्द- भ्रांति पैदा करता है. इसे समझने के लिए बाबा साहेब के अंग्रेजी संस्कररण को देखना पड़ेगा. इसके अनुसार-“A Bodhisatta must be a Budhisatta for ten lives in succession. What must be a Bodhisatta do in order to qualify himself to become a Buddha? ” “The Bodhisatta acquires these ten powers which are necessary for him when he becomes a Buddha.”
यहां, जहां दस जीवन (जन्म ) की बात की जा रही है, वह वास्तव में इंसानी जीवन की दस अवस्थाओं की बात हो रही है, न कि दस बार जन्म लेने की. यह स्थिति ठीक वैसी है जैसी हिन्दुईज्म में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वाणप्रस्थो व सन्यादस की है. बुद्धिज्म में ये अवस्थाएं दस हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं- मुदिता (Joy), विमला (Purity), प्रभाकारी (Brightness), अचिंष्मंति (intelligence of Fire), सुदुर्जया (Difficult to Conquer) आदि-आदि. ये दस गुण हैं, पावर हैं जिन्हें हासिल करके बोधिसत्व से बुद्धत्व प्राप्तn किया जा सकता है. यहां एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक पहुंचने के लिए एक जन्म् से दूसरे जन्मह से कुछ लेना-देना नहीं है, और इसे पुनर्जन्म, की भट्टी में झोंकना दुस्सासहस और दुराग्रह के अतिरिक्त कुछ नहीं है. सिद्धार्थ ऐसी ही स्थितियों से गुजर कर बुद्ध बने थे.
चार- डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहेब की पुस्तक से उद्धृत-‘अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें यहां चला आता है, और फिर इसमें उन्हें छोड़कर दूसरे में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्य़त्र चला जाता है, यही मानव-मात्र का हाल है.’ यहां डा. धर्मवीर, बाबा साहब पर पुनर्जन्मवादी होने का मिथ्या आरोप लगाते हैं और उनके मास्टलर माईंड होने को संदिग्धाता का जामा पहना कर व्यंग्य करते हैं कि यहां हम खुद को बचाएं या डा. अम्बे्डकर को बचाएं, या उनके बुद्ध को? वैसे डा. धर्मवीर ठीक ही कह रहे हैं. वही तो बचे हैं दलितों को, बाबा साहब को, बुद्ध को और समूचे भारतीय समाज को बचाने वाले. यदि डा. धर्मवीर जैसे बाबा साहेव के पांच-सात और हितैषी/शुभचिंतक हो जाएं तो सारे झगड़े ही मिट सकते हैं, क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.
यह घटनाक्रम उस समय का है जब सिद्धार्थ अपना घर छोड़कर जा रहे थे और शुद्धोदन द्वारा भेजे मंत्री और पुरोहित उन्हें वापस लौटा लाने के लिए अलग-अलग प्रकार के तर्क दे रहे थे. इस घटनाक्रम में भी डा. धर्मवीर संदर्भ से हटकर व तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं. डा. धर्मवीर द्वारा उद्धृत बाद के हिस्से को समझने के लिए उससे पूर्व के संदर्भ को देखना पड़ेगा जो इस प्रकार है- “जिस प्रकार दो राही सड़क पर इक्कट्ठे होते हैं वे आगे चलकर पृथक होते ही हैं, इसी प्रकार जब आज या कल सभी का परस्पर वियोग अनिवार्य है, तो कोई भी बुद्धिमान आदमी किसी भी स्वजन से पृथक होने पर दुखी क्यूं होगा, भले ही वह स्वकजन उसका कितना ही प्रिय क्यूं न हो? अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें चला आता है और इसमें इन्हें छोड़कर दूसरे लोक में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्यवत्र चला जाता है. यही मानव-मात्र का हाल है. एक मुक्त् पुरुष इस सबके लिए दुखी क्यों हो?” डा. अम्बेडकर की आलोचना के चक्कर में डा. धर्मवीर भूल जाते हैं कि यहां किसी अन्य लोक की नहीं बल्कि इसी लोक की बात हो रही है जिसमें कोई भी प्रगतिशील व्योक्ति देश में ही नहीं, परदेश में भी जीवन के अनेक उद्यमों के चलते आता-जाता रहता है. दूसरे, ‘एक मुक्ते पुरुष’ से जुड़े अंतिम वाक्य को जान बूझकर इसलिए छोड़ देते हैं, ताकि बाबा साहब को आसानी से कठघरे में खड़ा किया जा सके.
पांच- धर्मवीर के पूर्वाग्रह की अति तो तब जो जाती है, जब वे बाबा साहब द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाओं में से 21वीं प्रतिज्ञा को उद्धृत (मैं यह मानता हूं मेरा अब पुनर्जन्मो हो गया है.) करते हुए अंधविश्वास का दोषारोपण करते हैं- “वे धर्मांतरण में हिन्दू् धर्म से छूटे नहीं हैं बल्कि उसमें बुरी तरह फंसते गए हैं.” यह बात एक सामान्यअ बुद्धि वाले बच्चेद की समझ में आ सकती कि यहां धर्मांतरण के बाद बाबा साहव एक नई जीवन-शैली से शेष जीवन जीने की बात कर रहे हैं. लेकिन डा.धर्मवीर ने तो तय कर रखा है कि उन्हें तो बाबा साहब पर पत्थर फैंकने ही हैं चाहे हिन्दूवाद के नाम से फैंके या पुनर्जन्म वाद के नाम से. गौरतलब यह भी है कि उन्हें हिन्दूरवाद, तब याद नहीं आता जब वे कबीर को आजीवक के नाम से थोपने के चक्कार में दिन-रात ईश्वर की माला जपते हैं.
छह -डा. धर्मवीर बुद्ध द्वारा अव्याकृत रखे गए प्रश्नों मसलन-‘क्या तथागत मरणांतर रहते हैं? क्या तथागत मरणांतर नहीं रहते हैं? क्यों वे मरणांतर रहते भी हैं और नहीं भी रहते हैं? और क्यां मरणांतर न रहते भी हैं और न नहीं भी रहते हैं? पर अजीब तरह से रिएक्टह करते हैं. “बुद्ध ने व्य क्ते नहीं किया, पर बाबा साहब ने अपना मत व्यक्त क्यों नहीं किया? इस मामले में आम आदमी और तथागत में क्या फर्क है? तथागत ने क्याक सत्य जान लिया है जो वे यहां आकर आम आदमी से भिन्नं हो गए? इस जानने या न जानने से पुनर्जन्म? पर क्या फर्क पड़ता है? पुनर्जन्म होना है तो होना हैं और नहीं होना है तो नहीं होना है, बात दो टूक क्यों नहीं? ऐसा कैसे हो जाएगा कि बाकि के पुनर्जन्म होते रहेंगे और तथागत का पुनर्जन्म अव्याकृत के मौन में गुम हो जाएगा? ”
डा. धर्मवीर क्यों भूल जाते हैं कि यह मामला जवाबदेही का है और भविष्य में समाज पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का भी है, भ्रम फैलाने का नहीं. डा. धर्मवीर के उतावलेपन से लगता है कि जैसे पुनर्जन्म की गुत्थी सुलझाना उनके लिए गुड्डे-गुडियों का खेल है, जिससे जैसे चाहे खेला जा सकता है. यदि सारी चीजें इतनी ही आसान हैं तो पन्द्रह साल हो गए डा. धर्मवीर को आजीवक का राग अलापते हुए. क्या आजीवक के संबंध में सैंकड़ों/हजारों बिंदुओं में से किसी एक बिंदू पर भी वे अपनी कोई ठोस राय रख पाए? दूसरे, डा. अम्बेडकर सीधे-सीधे अपने किसी धर्म की सैद्धांतिकी नहीं तैयार कर रहे थे. वे जन-साधारण की सामान्य जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे, जिनसे प्रत्येक साधारणजन को अपने चारों ओर के धार्मिक माहौल में रोज जूझना पड़ता है. वे इसमें कितना सफल हो पाए कितना नहीं, यह अलग बात है. यदि डा. धर्मवीर को लगता है कि तथागत के मरणांतर रहने या न रहने के उत्तर मिलने से दलित समाज की सारी समस्याओं का चमत्कारी समाधान हो जाएगा और यदि उनके पास इसका कोई उत्तर है, तो दे दें इसका उत्तर और कर लें किला फतह.
सात- डा. धर्मवीर बाबा साहेब और अन्यउ किसी के कहने से बौद्ध धर्म ग्रहण न करने का कारण थेरी इसिदासी की ‘एक कांनी और लंगड़ी बकरी के पेट में मैंने जन्म पाया’ जैसी कथाएं बताते हैं. फिर बाल हठ जैसी प्रश्नों की झड़ी कुछ इस प्रकार लगाते हैं- “बस, लो हो ली, और हमने सुन ली, पूरी सुन ली. दुनिया कहे, मैं इस धर्मग्रथ पर विश्वास नहीं करूंगा. कुछ भी हो जाए, मैं अंधविश्वासी नहीं बनूंगा. इतने बड़े वकील थे, उनकी समझ में यह क्यूं नहीं आया कि वे ऐसे पकड़े जाएंगे. ” डा. धर्मवीर यह उदाहरण त्रिपिटक की थेरीगाथा से दे रहे हैं और दोष लगा रहे है बाबा साहब पर. यह आलोचना का कौन-सा तरीका है? डा. धर्मवीर आरोप लगाने के आवेश में यह क्यूं भूल जाते हैं कि बाबा साहब ने ‘बुद्धा एण्डन हिज धम्मा ’ नामक पुस्त्क अनावश्यक भटकाव से बचने के लिए लिखी है ताकि उनके अनुयायी अपनी राय इस पुस्तक के आधार पर बनाएं. दूसरे, उन्हों ने आगे स्पाष्ट कहा है- “बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वंयं अपने आप ही प्रयास करना होता है.” ऐसी स्थिति में डा. धर्मवीर को बताना चाहिए कि बाबा साहब कैसे उन्हें अंधविश्वासी बनने के लिए जबरदस्ती कर रहे हैं? कैसे वे उन्हें दस जन्मों में व पुनर्जन्म में भटकाने के लिए लट्ठ लिए उनके पीछे घूम रहे हैं?
आठ- आलेख के ‘खण्ड चार’ में डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहब को अपना कहने का स्या नापन एक्स्पोज हो जाता है. उनका असली चेहरा है- “हमारे धार्मिक और दार्शनिक पिमामह मक्खेलि गोसाल हैं. वे हमारे आदि गुरु हैं. उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी.”14 साफ है कि डा. धर्मवीर का धर्म ‘आजीवक’ है और मक्खुलि गोसाल उनके धार्मिक और दार्शनिक पितामह और आदि गुरु सिर्फ इसलिए हैं कि उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी. बाकि धर्म देने का जिम्मा डा. धर्मवीर का है. इसीलिए वे कहते हैं कि अगर बाबा साहब न होते, कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर कबीर न होते तो कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर मक्खुलि गोसाल नहीं हैं, तो काई बात नहीं, डा. धर्मवीर तो हैं. यानी डा. धर्मवीर ने अपने आपको पैगम्बसर/ईश्वर का पर्याय बना लिया है.
उक्त टिप्पणी में डा. धर्मवीर अपने को पैगम्बंर की तरह प्रस्तुत करते हैं और बार-बार दावा भी करते हैं कि मैं ही धर्म दूंगा और मैं ही ये करूंगा और मैं ही वो करूंगा. लेकिन बाबा साहब और बुद्ध डा. धर्मवीर के पैगम्बरवाद और ईश्वरवाद को ही नकारते नहीं बल्कि लोक-परलोक को भी नकारते हैं. बाबा साहब का सब कुछ इसी लोक और इसी जन्म पर आधारित है. वे इस विषय पर बुद्धिज्म की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने या तो अपने को ‘ईश्वरीय’ कहा है, या अपने ‘धर्म’ को. तथागत ने न अपने लिए और न अपने धर्म-शासन के लिए कोई ऐसा दावा किया. उनका दावा इतना ही था कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनका संदेश एक आदमी द्वारा दूसरे को दिया गया संदेश है.”15 यहां बुद्ध शुरु से अंत तक साधारण आदमी हैं लेकिन डा. धर्मवीर शुरु से अंत तक पैगम्बरी/ईश्वयरी अहंकार में लिप्त हैं.
जहां तक ‘नियति’ का सवाल है, डा. धर्मवीर इसे प्रकृति के नियमों व परिस्थितियों के आधार पर घटित होने वाली अनेक घटनाओं को सिर्फ जन्म तक सीमित बताते हैं- “नियति को जन्म् लेने की घटना से आगे बढ़ाना ही अनुचित है. अन्यथा यह वृद्धि-प्राप्त दोष के तर्क से ग्रस्त हो जाती है.”16 डा. अम्बेडकर के लिए तो नियति को जन्मन से आगे बढ़ना अनुचित है क्योंकि उनपर पुनर्जन्म का पक्षधर होने का जो दोष मढना है. लेकिन फिर आंए-बांए बघार वे बताते हैं-“मक्ख लि गोसाल के यहां ‘नियति’ कोई बंद अर्थ वाला शब्दन नहीं है. इसके अर्थ खुल सकते हैं.”17 तो फिर ये समझा जाए कि इस विषय पर बात करने का अधिकार डा. धर्मवीर ने पेटेंट करा लिया है? यदि सब कुछ डा. धर्मवीर को ही करना है तो डर किस बात का, खोल क्यूं नहीं देते डा. धर्मवीर अपने पत्ते और बन क्यूं नहीं जाते चमत्कारी बाबा, यानी आजीवक पैगम्बर?
नौ- आगे अहंकार की दीवनगी में बाबा साहब को जबरन कबीर तक सीमित करने की जिद ही नहीं करते बल्कि उनपर कबीर पर किताब न लिखने का दोषारोपण करते हैं. फिर बाबा साहब द्वारा बुद्ध के लिए प्रयोग किए गए विशेष नामों को भक्ति की संज्ञा देते हैं और अपना हिन्दुरवादी हिडन ऐजेंडा प्रस्तुत करते हैं-“जब आदमी के मन में भक्ति की भावना इतनी प्रबल है तो बुद्ध के बजाय सीधे ईश्वुर पर जाया जाएं. फिर, अपने जैसे आदमी की भक्ति क्या करनी, उसी की डोर पकड़ी जाए जो सारे जहां का मालिक है, जिसके हुकम में बुद्ध भी रहते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी पैदा होते हैं.”18 डा. धर्मवीर बाबा साहब पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें क्षत्रियों और ब्राह्मणों की पौराणिक स्पर्धा में नहीं पड़ना चाहिए था- वे तीन में न तेरह में. खुद धर्मवीर यहां हिन्दूवाद और ईश्वर के अवतारों की स्थांपना कर रहे हैं जो अलग-अलग अवतार लेकर पृथ्वी पर आ रहे हैं. वे किसी भी स्पर्धा में पड़ सकते हैं लेकिन अन्यक नहीं, आखिर पैगम्बरर जा ठहरे. क्या यह विश्वथ हिन्दू परिषद व आर. एस. एस. के ऐजेंडे का हिस्सा़ नहीं है, जो डा. धर्मवीर को असीम शक्तियां प्रदान करता है?
इसी ईश्वरवादी बजरंगी ऐजेंडे को आगे बढाते हुए डा. धर्मवीर टिप्पकणी करते हैं,“उसे भावनात्मवक बनाकर उससे रागात्मसक संबंध जोड़े जाएं कबीर के पास वही राम तो सजे-धजे दुल्हें के रूप में हैं. इस मामले में रैदास और कबीर के नामों के हमारे बजुर्गो ने कुछ भी गलत नहीं किया. उन्होंने जीवा को राजा नहीं कहा. वे बुद्ध वंदना नहीं कर सकते थे क्योंकि बुद्ध एक आदमी थे. भला रैदास और कबीर की संतान एक आदमी को ऐसे कैसे पूज लेंगी?”19 धर्मवीर पूजा की वकालत करते हैं हुए क्यों भूल जाते हैं कि पूजा तो पूजा होती है, राम की हो या रहीम की. इतना तय है कि इसके पीछे मानसिकता कमोबेश समपर्ण की ही रहती है, भले ही पद्धतियां कितनी ही भिन्नक क्यूं न हों. यही नहीं डा. धर्मवीर के यहां ईश्वीर भी है और जाति भी. उन्हें जाति से बहुत प्यार है और अच्छी लगती हैं, भले ही वे कितनी ही यातनाओं के तहत थोपी गई हैं. इसीलिए वे जाति मजबूत करने की बात भी करते हैं. असल में डा. धर्मवीर आदमी ही नहीं हैं, वे तो पैगम्ब्र/ईश्वजर हैं इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, और कुछ भी कर सकते हैं.
डा. धर्मवीर ने डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्मी के मात्र एक सकारात्महक पक्ष को नकारात्माकता के चश्मे से देखा है और डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्म के बारे में विष-वमन किया है. आमतौर पर साधारण पाठक ऐसे ही लेखन से अपनी राय बना लेता है और सच्चाई की तह तक जाने की जहमत नहीं उठाता. दूसरे, विरोधी व्यपक्ति ऐसे पूर्वाग्रही लेखन का लाभ उठाकर दुष्प्रचार करते हैं और समाज को भ्रमित करते हैं. सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में बाबा साहब की ही पुस्तक से कुछ उद्धृरण देखे जा सकते हैं, जो डा. धर्मवीर द्वारा लगाए सारे आरोपों के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने में सक्षम हैं.
बुद्धिज्म की विशेषता है कि यहां समानता हैं. यह अपने निर्णय स्वयं के विवेक से लेने के लिए स्वुतंत्रता प्रदान करता है और दूसरे लोगों पर निर्भरता के लिए कोई खास जगह नहीं छोड़ता. परिणामस्वरूप, व्यक्ति की शंकाओं का व्यवहारिक समाधान आसानी से संभव है. यह अन्य धर्मो से अलग है, जैसे-“ईसा ने ईसाइयत का पैगम्बर होने का दावा किया. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब का दावा था कि वे खुदा के भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे. भगवान बुद्ध ने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी. उन्होंने शुद्धोदन और महामाया का प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नहीं किया.”20 यहां परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं का समाधान भी बिना किसी आडंबर और टंटघंट के व्यूक्तियों द्वारा ही सांसारिक परिस्थितियों के अनुरूप मिल सकता है. इसके लिए न किसी पैगम्बंर की जरूरत है, न किसी ईश्वसर और न किसी मंन्दिर-मस्जिद व किसी पूजा पद्धति की. सभी कुछ इसी जन्म और मानव शरीर के द्वारा हल किया जा सकता है.
बुद्धिज्म में सब कुछ सहज भाव से चलता है. यहां न किसी मोक्ष की जरूरत है और न किसी स्वीर्ग-नरक की और न ही किसी कयामत के दिन के इंतजार की, जो ईश्वारीय व्यवस्था के अनिवार्य अंग माने जाते है. यहां व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य् निर्वाण है और इसमें व्यक्ति की भूमिका सर्वोच्च है. इसका श्रेय बुद्ध को जाता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को विशेष व कोई मुक्तिदाता नहीं माना. इसे बुद्धिज्म के माध्यम से इस प्रकार समझा जा सकता है-“बुद्ध ने ‘मोक्ष दाता’ को ‘मुक्ति दाता’ से सर्वथा अलग रखा है-एक तो मोक्ष देने वाला, दूसरा केवल उसका मार्ग बता देने वाला. बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वेयं अपने आप ही प्रयास करना होता है. ”21
बुद्धिज्म में मुक्ति का संबंध हिन्दूईज्म की तरह व्यक्ति के जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति से नहीं है. बुद्धिज्म में मुक्ति का अर्थ राग-द्वेष से मुक्ति है- “भगवान बुद्ध के लिए मुक्ति का मतलब है ‘निर्वाण’ और ‘निर्वाण’ का मतलब है राग-द्वेष की आग का बुझ जाना.”22
जिस “बुद्धिज्म” की बात बाबा साहब कर रहे हैं, वह पूरी दुनिया के धर्मों को तब पीछे जाता है जब इस धर्म के जनक, यानी बुद्ध को भी मानवीय कमजोरियों से मुक्ता नहीं माना जाता. उसे भी जवाबदेह बनाया जाता है और बुद्ध स्वबयं यह जवाबदेही स्वीकार करते हैं. बाबा साहब उल्लेख करते है-“उन्होंने कभी यह भी दावा नहीं किया कि उनकी बात गलत हो ही नहीं सकती. उनका दावा इतना ही था कि जहां तक उन्हों ने समझा है, उनका पथ मुक्ति का सत्यह मार्ग है. क्योंकि इसका आधार संसार भर के मनुष्यों के जीवन का व्यापक अनुभव है.”23
इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज बुद्धिज्म का पुरोहितिकरण हो रहा है, जिसने बुद्धिज्म की मूल भावना को क्षति पहुंच रही है. लेकिन यह बुद्धिज्म वह नहीं है जिसकी बात बाबा साहब कर रहे हैं. असली बुद्धिज्म में सभी कार्य परिस्थितियों के शूक्ष्म अवलोकन, विश्लेषण और अनुभवजन्य तथ्यों पर आधारित होते हैं. जीवन स्थितियों को समझने और तथ्यों तक पहुंचने की अनुभवजन्य पद्धति ही आजीवक चिंतन का मूलाधार है. आजीवक कोई धर्म नहीं है. आजीवक-चिंतन के केन्द्र् में प्रकृति है और अपने नए संदर्भ व तेवर के साथ नियति है, लेकिन कबीर और रैदास का राम, वह राम नहीं है, जिसकी पूजा की वकालत डा. धर्मवीर करते हैं. एक हकीकत और भी है कि आजीवक सभ्यता और संस्कृति के सूत्रधार भी मक्खीलि गोसाल नहीं हैं. इन विषयों पर बात करना विषयांतर होगा इसलिए अभी इस पर यहां बात नहीं की जा सकती.
खैर...डा. धर्मवीर आजकल जिस चिंतन पद्धति का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे डस्टबिन पद्धति कहा जा सकता है. क्योंकि वे किसी भी विषय-वस्तु में गंदगी ढूंढने की कोशिश करते हैं, भले ही उसमें हकीकत का मादा आज 1% प्रतिशत हों. लेकिन डा. धर्मवीर उसी एक प्रतिशत को शेष 99% पर थोपने की जद्दोजहद करते हैं. ऐसा नहीं है कि बुद्धिज्म में गड़बडि़यां नहीं आई. समय के साथ–साथ जब सब कुछ ही बदलता आया है इसलिए देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप बुद्ध–धम्म में भी कई प्रकार के बदलावों का आना स्वाभाविक है. किंतु वो बुद्ध व बाबा साहब के आचार-विचार व चिंतन-दर्शन के अनुरूप नहीं, अपितु उनके अनुयाइयों की कमजोरियों व परिस्थितियों को देखने के अपने नजरिए के कारण हैं. किंतु इन बदलावों को डा. धर्मवीर के कहीं पे निगाहें, कही पे निशाना वाले अंदाज से मुक्त होकर देखा जाना चाहिए. संभवत: तभी पाठक समकालीन परिस्थितियों को आसानी से समझ पाएंगे. यही नहीं, दलित किसी नए धर्म के नाम पर स्वयं को बलि का बकरा बनाने की किसी भी कोशिश को नाकाम कर पाएंगे.
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मक्खिलाल गोसाल
Tuesday, October 18, 2011
बहुजन समाज का बहुजन धाम
सदियों से साजिश के तहत दबा कर रखा गया वंचित तबका जब अपने आत्मविश्वास को हासिल करता है तो वह क्षण बड़ा अद्भुत होता है. शुक्रवार को गौतम बुद्ध नगर के नोएडा में ऐसा ही पल था, जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 33 हेक्टेयर में बने राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल एवं ग्रीन गार्डेन का उद्घाटन किया. इस पल के गवाह बहुजन समाज के हजारों लोग बनें. लेकिन हजारों की भीड़ होने के बावजूद वहां एक अजब सी खामोशी थी. या शायद वह सकून था, जब लब खामोश थे और आंखे सारा माजरा अपने में समेट रही थी. जैसे इस समाज को यकीन ना हो रहा हो कि यह सचमुच में हो रहा है. राष्ट्रीय दलित स्मारक नाम के इस भवन में वंचित समाज के सभी मसीहा को सम्मान के साथ एक धरोहर की तरह रखा गया है. इस पार्क के तीन हिस्से हैं. पार्क के बीच में बड़ा सा स्तूप है. मुख्य बौद्धिक स्तूप के नीचे विशालकाय पत्थरों में मायावती की जीवनगाथा उकेरी गई है. मुख्य भवन के अंदर बहुज नायकों की प्रतिमाएं हैं.
जब से बहुजन समाज के इस ‘धाम’ के बनने की शुरुआत हुई, तभी से इसको लेकर क
ई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा. 700 करोड़ के इस स्थल को बनाने के लिए उत्तर प्रदेश की की मुख्यमंत्री की भी कम आलोचना नहीं हुई. लेकिन इन तमाम आलोचनाओं का जवाब भी वंचित तबके के एक सामान्य से युवा ने दे दिया. जब एक टीवी रिपोर्टर ने उससे इस पर खर्च हुए पैसों की बात पूछी तो उसने साफ कहा कि यह हमारे पूर्वजों का सम्मान है. अब तक इन्हेेरिडयन के बगल में जनपथ रोड पर पांच फ्लैट दे दिया और जिस पर भव्य पुस्तकालय बनाना था, वह अभी तक क्यों नहीं बन पाया है. जिस दिल्ली में देश के एक बड़े तबके के रहनुमा भारत रत्न बाबा साहब अंबेडकर ने अंतिम सांस ली, उन्हें कांग्रेस की सरकार या फिर भाजपा की सरकार ने क्या सम्मान दिया. आप दिल्ली के लुटियन जोन में जाइए, यहां ऐरे-गैरे नेताओं और अंग्रेजों के नाम तक पर सड़कें हैं लेकिन बाबा साहब या फिर फुले, नारायण गुरु और पेरियार के नाम पर आपको शायद ही कोई सड़क दिखे. एक सवाल और है, राजीव गांधी तक को भारत रत्न अवार्ड (हालांकि इस पर मेरा मतभेद नहीं है) दे देने वाली कांग्रेस बाबा साहेब जैसे कही कद्दावर व्यक्तित्व को भारत रत्न का अवार्ड देने से क्यों बचती रही? सवाल कई हैं जो उठेंगी. जहां तक पार्क पर खर्च हुए पैसों की बात है तो इस देश में सरकारें जो टैक्स लेती हैं, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुजन समाज भी देता है. इस बहुजन समाज को इस स्मारक पर कोई ऐतराज नहीं. जिन्हें ऐतराज है, वो हमारे ठेंगे पे. ऐसे पार्क और बनने चाहिए.
मराठवाड़ा आंदोलन के 31 साल
मराठवाड़ा विद्यापीठ के नामांतर के लिए किया गया लांग मार्च दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मार्च था. 31 साल बीत जाने के बावजूद उस ऐतिहासिक आंदोलन का अभी भी पूरी तरह से पटाक्षेप नहीं हो पाया है. आंदोलनकारियों का कानूनी संघर्ष का दौर जारी है. आंदोलन से जुड़े लोग अब भी उस काली रात को नहीं भूल पाए हैं, जब सोये हुए आंदोलनकारियों पर लाठियां भांजी गई थीं. औरंगाबाद में मराठवाड़ा विद्यापीठ को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम देने को लेकर विवाद था. मराठवाड़ा में उन दिनों दलितों को शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. उपाधि महाविद्यालय, हैदराबाद की विद्यापीठ से संलग्न थे. ऐसे में औरंगाबाद के नागसेनवन में पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी का शिक्षा क्षेत्र में सराहनीय कार्य था. सोसायटी के तहत कई महाविद्यालय चल रहे थे. उसी के प्रयास से औरंगाबाद में नई विद्यापीठ की नींव रखी गई थी.
27 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र विधानसभा ने औरंगाबाद की विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर विद्यापीठ रखने का प्रस्ताव मंजूर किया. उसी दिन मराठवाड़ा में असंतोष उमड़ पड़ा. कहा जाने लगा कि विद्यापीठ को समुदाय विशेष की विद्यापीठ बनाने का प्रयास किया गया है. इसे अन्य समाज वर्ग की प्रतिष्ठा का सवाल भी बनाया गया. गुस्सा व्यक्त करते हुए दलितों पर हमले किये गए. बस्तियां जलाई गईं. महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार हुआ. हिंसा में कुछ लोगों की जान गई. 11 दिनों तक असंतोष का बवंडर छाया रहा. उस पर काबू पाने में तत्कालीन शरद पवार सरकार भी हतबल साबित हो रही थी. देखते ही देखते वह मसला आम समाज की चिंता का विषय बन गया. समाजसेवी, जनप्रतिनिधि, विधि व पत्रकारिता क्षेत्र के लोगों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सब अनसुनी थीं. ऐसे में नागपुर में नामांतर आंदोलन ने करवट ली. सरकार के प्रस्ताव को अमल में लाने की मांग को लेकर लोग लामबंद हुए. रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन युवा नेता प्रा. जोगेंद्र कवाड़े ने आंदोलन की कमान संभाली.
डॉ. कवाड़े का परिवार रिपब्लिकन राजनीति से जुड़ा था. उनके दादा पंडित रेवाराम कवाड़े व पिता लक्ष्मणराव कवाड़े ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साथ सक्रिय राजनीति में काम किया था. रेवाराम कवाड़े, शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के विदर्भ के अध्यक्ष थे. लक्ष्मणराव नागपुर इकाई के कोषाध्यक्ष थे. प्रा. कवाड़े के साथ दलित आंदोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता आए. 4 अगस्त 1978 को आंदोलन का आगाज हुआ. प्रा. कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि से जिलाधिकारी कार्यालय तक मोर्चा निकाला गया. आकाशवाणी चौक में बड़ी सभा हुई. उसमें बड़ी संख्या में छात्र शामिल हुए. सभा के बाद लोग उत्साहपूर्ण अपने घरों की ओर लौट रहे थे, तभी उत्तर नागपुर के 10 नंबर पुलिया चौक पर अचानक हिंसा भड़क उठी. कुछ असामाजिक तत्वों ने सरकारी बसों पर पत्थर फेंके. हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. चंद मिनटों के फासले में वहां 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कइयों को गंभीर जख्मी अवस्था में मेयो, मेडिकल अस्पताल भिजवाया गया. नागपुर में कर्फ्यू लग गया. अखबारों में माध्यम से घटना की खबर फैली तो देश भर में दलित अत्याचार रोकने के स्वर गूंजने लगे. तब नागपुर से औरंगाबाद लांग मार्च ले जाने की घोषणा की गई. दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु से दलित आंदोलनों से जुड़े लोग यहां आने लगे.
उसी वर्ष दीक्षाभूमि पर धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह से लांग मार्च की शुरुआत हुई. बौद्ध पंडित भदंत आनंद कौशल्यायन ने आशीर्वाद दिया. दीक्षाभूमि की मिट्टी माथे से लगाकर आंदोलनकारी औरंगाबाद के लिए रवाना हुए. लांग मार्च को विदायी देने मेला सा लगा हुआ था. नागपुर की बाहरी सीमा तक वर्धा मार्ग पर हजारों लोग स्वागत मुद्रा में खड़े थे. हर उम्र के लोग उसमें शामिल थे. 30 किमी प्रतिदिन पैदल चलते हुए इस मार्च ने 18 दिनों में 470 किमी का सफर तय किया. पैदल मार्च की खबर अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी. गांव-गांव में स्वागत व विश्राम के स्थान तय किये गए थे. लोगों ने स्वागत कमेटियां बना रखी थीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. बावजूद इसके लांग मार्च में गांव के गांव शामिल होने से संख्या बल काफी बढ़ने लगा था. औरंगाबाद में संभावित स्थिति को लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई थी. माना जा रहा था कि लांग मार्च के पहुंचने से औरंगाबाद में वर्ग संघर्ष होगा. आंदोलन के विरोध में मुंबई से बयान आने लगे थे.
27 नवंबर की बात है. आंदोलनकारी खड़कपूर्णा नदी तक पहुंच गए. औरंगाबाद से 100 किमी पहले सिंधखेड़राजा तहसील के दूसरबीड़ राहेरी गांव के पास वह नदी है. नदी पर अर्धसैनिक बल के साथ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी. गृहमंत्रालय का आदेश था कि आंदोलनकारियों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया जाए. औरंगाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक नदी पर तैनात थे. दोपहर में ही आंदोलनकारियों को रोक लिया गया था. उन्हें वापस जाने के लिए कहा जा रहा था, लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े थे. संयोग से उस दिन बारिश भी हो रही थी. हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे. पुल पर ही धरना पर बैठ गए. रात 12 बजे के बाद लाठीचार्ज शुरू हुआ. पुल के खाईनुमा छोरों को लांघकर आंदोलनकारी झुड़पी क्षेत्र में भागे. कइयों ने गहरी नींद में लाठी खायी. प्रा. कवाड़े समेत सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के दौर में मासूम छात्र-छात्राओं को भी जेल जाना पड़ा. बड़ी संख्या में महिलाओं ने गिरफ्तारी दी. अमरावती, वाशिम, अकोला, औरंगाबाद व नागपुर की जेल भर गई.
मार्च में अग्रक्रम में रहे आंदोलनकारियों को विभिन्न जेलों में डाला गया. प्रा. कवाड़े पर राज्य के 22 जिले में जाने व भाषण देने पर पाबंदी लगायी गई. 2 माह तक उन्हें मुंबई प्रवेश पर भी पाबंदी लगायी गई. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रकरण दर्ज किये गए. आंदोलन धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी नजर आने लगा. आगरा, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद में मोर्चे निकाले गए. 16 वर्ष ताकत आंदोलन के समर्थन में सभाओं, मोर्चो का दौर चला. बार-बार गिरफ्तारियां हुईं. आखिरकार, नामांतर के लिए सकारात्मक पहल हुई. दोनों पक्षों की मांग को ध्यान में रखते हुए निर्णय आया कि विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विद्यापीठ रखा जाए. 14 जनवरी 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने विद्यापीठ का नामांतर किया. उसके साथ ही नांदेड में स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विद्यापीठ की स्थापना की गई. राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज प्रकरण वापस लेने की पहल की. अदालत में अर्जी भी की गई, लेकिन कानूनी तकनीकी पेंच के चलते अभी भी आंदोलनकारियों को पूरी तरह से राहत नहीं मिली है. उनके विरुद्ध दर्ज प्रकरण अभी भी चल रहे हैं. प्रा. कवाड़े मानते हंर कि अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध दलितों को तैयार करने की दिशा में यह आंदोलन कारगर साबित हुआ. आंदोलन के बहाने अलग-अलग समुदाय के लोग पास आये.
साभारः दैनिक भास्कर
27 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र विधानसभा ने औरंगाबाद की विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर विद्यापीठ रखने का प्रस्ताव मंजूर किया. उसी दिन मराठवाड़ा में असंतोष उमड़ पड़ा. कहा जाने लगा कि विद्यापीठ को समुदाय विशेष की विद्यापीठ बनाने का प्रयास किया गया है. इसे अन्य समाज वर्ग की प्रतिष्ठा का सवाल भी बनाया गया. गुस्सा व्यक्त करते हुए दलितों पर हमले किये गए. बस्तियां जलाई गईं. महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार हुआ. हिंसा में कुछ लोगों की जान गई. 11 दिनों तक असंतोष का बवंडर छाया रहा. उस पर काबू पाने में तत्कालीन शरद पवार सरकार भी हतबल साबित हो रही थी. देखते ही देखते वह मसला आम समाज की चिंता का विषय बन गया. समाजसेवी, जनप्रतिनिधि, विधि व पत्रकारिता क्षेत्र के लोगों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सब अनसुनी थीं. ऐसे में नागपुर में नामांतर आंदोलन ने करवट ली. सरकार के प्रस्ताव को अमल में लाने की मांग को लेकर लोग लामबंद हुए. रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन युवा नेता प्रा. जोगेंद्र कवाड़े ने आंदोलन की कमान संभाली.
डॉ. कवाड़े का परिवार रिपब्लिकन राजनीति से जुड़ा था. उनके दादा पंडित रेवाराम कवाड़े व पिता लक्ष्मणराव कवाड़े ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साथ सक्रिय राजनीति में काम किया था. रेवाराम कवाड़े, शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के विदर्भ के अध्यक्ष थे. लक्ष्मणराव नागपुर इकाई के कोषाध्यक्ष थे. प्रा. कवाड़े के साथ दलित आंदोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता आए. 4 अगस्त 1978 को आंदोलन का आगाज हुआ. प्रा. कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि से जिलाधिकारी कार्यालय तक मोर्चा निकाला गया. आकाशवाणी चौक में बड़ी सभा हुई. उसमें बड़ी संख्या में छात्र शामिल हुए. सभा के बाद लोग उत्साहपूर्ण अपने घरों की ओर लौट रहे थे, तभी उत्तर नागपुर के 10 नंबर पुलिया चौक पर अचानक हिंसा भड़क उठी. कुछ असामाजिक तत्वों ने सरकारी बसों पर पत्थर फेंके. हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. चंद मिनटों के फासले में वहां 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कइयों को गंभीर जख्मी अवस्था में मेयो, मेडिकल अस्पताल भिजवाया गया. नागपुर में कर्फ्यू लग गया. अखबारों में माध्यम से घटना की खबर फैली तो देश भर में दलित अत्याचार रोकने के स्वर गूंजने लगे. तब नागपुर से औरंगाबाद लांग मार्च ले जाने की घोषणा की गई. दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु से दलित आंदोलनों से जुड़े लोग यहां आने लगे.
उसी वर्ष दीक्षाभूमि पर धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह से लांग मार्च की शुरुआत हुई. बौद्ध पंडित भदंत आनंद कौशल्यायन ने आशीर्वाद दिया. दीक्षाभूमि की मिट्टी माथे से लगाकर आंदोलनकारी औरंगाबाद के लिए रवाना हुए. लांग मार्च को विदायी देने मेला सा लगा हुआ था. नागपुर की बाहरी सीमा तक वर्धा मार्ग पर हजारों लोग स्वागत मुद्रा में खड़े थे. हर उम्र के लोग उसमें शामिल थे. 30 किमी प्रतिदिन पैदल चलते हुए इस मार्च ने 18 दिनों में 470 किमी का सफर तय किया. पैदल मार्च की खबर अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी. गांव-गांव में स्वागत व विश्राम के स्थान तय किये गए थे. लोगों ने स्वागत कमेटियां बना रखी थीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. बावजूद इसके लांग मार्च में गांव के गांव शामिल होने से संख्या बल काफी बढ़ने लगा था. औरंगाबाद में संभावित स्थिति को लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई थी. माना जा रहा था कि लांग मार्च के पहुंचने से औरंगाबाद में वर्ग संघर्ष होगा. आंदोलन के विरोध में मुंबई से बयान आने लगे थे.
27 नवंबर की बात है. आंदोलनकारी खड़कपूर्णा नदी तक पहुंच गए. औरंगाबाद से 100 किमी पहले सिंधखेड़राजा तहसील के दूसरबीड़ राहेरी गांव के पास वह नदी है. नदी पर अर्धसैनिक बल के साथ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी. गृहमंत्रालय का आदेश था कि आंदोलनकारियों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया जाए. औरंगाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक नदी पर तैनात थे. दोपहर में ही आंदोलनकारियों को रोक लिया गया था. उन्हें वापस जाने के लिए कहा जा रहा था, लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े थे. संयोग से उस दिन बारिश भी हो रही थी. हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे. पुल पर ही धरना पर बैठ गए. रात 12 बजे के बाद लाठीचार्ज शुरू हुआ. पुल के खाईनुमा छोरों को लांघकर आंदोलनकारी झुड़पी क्षेत्र में भागे. कइयों ने गहरी नींद में लाठी खायी. प्रा. कवाड़े समेत सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के दौर में मासूम छात्र-छात्राओं को भी जेल जाना पड़ा. बड़ी संख्या में महिलाओं ने गिरफ्तारी दी. अमरावती, वाशिम, अकोला, औरंगाबाद व नागपुर की जेल भर गई.
मार्च में अग्रक्रम में रहे आंदोलनकारियों को विभिन्न जेलों में डाला गया. प्रा. कवाड़े पर राज्य के 22 जिले में जाने व भाषण देने पर पाबंदी लगायी गई. 2 माह तक उन्हें मुंबई प्रवेश पर भी पाबंदी लगायी गई. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रकरण दर्ज किये गए. आंदोलन धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी नजर आने लगा. आगरा, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद में मोर्चे निकाले गए. 16 वर्ष ताकत आंदोलन के समर्थन में सभाओं, मोर्चो का दौर चला. बार-बार गिरफ्तारियां हुईं. आखिरकार, नामांतर के लिए सकारात्मक पहल हुई. दोनों पक्षों की मांग को ध्यान में रखते हुए निर्णय आया कि विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विद्यापीठ रखा जाए. 14 जनवरी 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने विद्यापीठ का नामांतर किया. उसके साथ ही नांदेड में स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विद्यापीठ की स्थापना की गई. राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज प्रकरण वापस लेने की पहल की. अदालत में अर्जी भी की गई, लेकिन कानूनी तकनीकी पेंच के चलते अभी भी आंदोलनकारियों को पूरी तरह से राहत नहीं मिली है. उनके विरुद्ध दर्ज प्रकरण अभी भी चल रहे हैं. प्रा. कवाड़े मानते हंर कि अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध दलितों को तैयार करने की दिशा में यह आंदोलन कारगर साबित हुआ. आंदोलन के बहाने अलग-अलग समुदाय के लोग पास आये.
साभारः दैनिक भास्कर
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आज भी ठगे जा रहे हैं आदिवासी
आजादी के तत्काल बाद संविधान में संवैधानिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है. इसे संविधान में दलित वर्ग के समकक्ष खड़ा करते हुए ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था. इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है. इन सबके लिये निश्चय ही कुछ ऐसे कारक रहे हैं जिन पर ध्यान नहीं दिये जाने के कारण देश के मूल निवासी आज अपने ही देश में ही पराएपन, तिरस्कार और दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं. आदिवासी की मानवीय गरिमा को हर रोज तार-तार किया जा रहा है. आदिवासी की चुप्पी को नजर अंदाज करने वालों को आदिवासियों के अंतर्मन में सुलग रहा आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा है.
बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है. जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा. हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासियों की ये दुर्दशा हुई है. सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है. इसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है. एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं. दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं. यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती. जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!
एक अन्य समस्या आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके. आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता हुए हैं लेकिन वे आदिवासी नेता होने की बजाय कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं. ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है. इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है. देश में दलितों एवं आदिवासियों के जितने भी संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है. दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है. आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं.
आदिवासी पहाड़ों और नदियों के बीच जंगलों में रहता आया है. उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है. जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है. जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर उनके स्थान पर बड़े बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है. जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा से सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है. शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये गए. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है.
आज भी वास्तविक आदिवासियों का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है. इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं. जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं है. अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो तमाम दिक्कतें खड़ी की जाती हैं. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. वहीं उनके हाट बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है. इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है. इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है. लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है. इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है.
साभारः प्रेस नोट
बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है. जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा. हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासियों की ये दुर्दशा हुई है. सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है. इसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है. एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं. दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं. यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती. जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!
एक अन्य समस्या आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके. आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता हुए हैं लेकिन वे आदिवासी नेता होने की बजाय कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं. ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है. इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है. देश में दलितों एवं आदिवासियों के जितने भी संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है. दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है. आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं.
आदिवासी पहाड़ों और नदियों के बीच जंगलों में रहता आया है. उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है. जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है. जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर उनके स्थान पर बड़े बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है. जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा से सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है. शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये गए. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है.
आज भी वास्तविक आदिवासियों का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है. इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं. जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं है. अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो तमाम दिक्कतें खड़ी की जाती हैं. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. वहीं उनके हाट बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है. इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है. इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है. लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है. इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है.
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रोटी की तलाश में भटकती जनजातियां
हम तकनीकी सेवा में का़फी आगे निकल गए हैं. प्रगति के लिए भारत का नाम दुनिया के गिने चुने देशों में आता है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है. हमें अपने देश पर गर्व होता है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बेशक हमने तरक्क़ी कर ली है, लेकिन क्या हम देश के पिछड़े लोगों को उनका हक़ देने में कामयाब हुए है? क़तई नहीं, जबकि विश्व में भारत की लोकतंत्र के लिए एक अलग पहचान है. देश में आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हो रहा है. ऐसी कई जनजातियां हैं जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है, क्योंकि सरकार में उनका प्रभाव नहीं है. शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इन जातियों के लोगों में एकजुटता नहीं है.
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.
साभारः चौथी दुनिया
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.
साभारः चौथी दुनिया
Sunday, October 2, 2011
दलितों के हक का हिसाब लेने में जुटे हैं जाधव
जब कोई दमित समाज आगे बढ़ता है और दमन करने वालों को चुनौती देने लगता है तो कई तरह से उसके बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश की जाती है. उसे उसका हक नहीं दिया जाता, उसके साथ धोखा किया जाता है. ऐसे वक्त में समाज को अपने एक पहरुआ की जरूरत होती है, जो न सिर्फ उसके हितों को बताता है बल्कि उसे बचाता भी है. उसके लिए लड़ता है. नरेंद्र जाधव दलित समाज के ऐसे ही पहरुआ हैं, जो हर वक्त वंचित समाज को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे हैं. चाहे पुणे विश्वविद्यालय का कुलपति पद हो, रिजर्व बैंक में 31 साल तक पॉलिसी मेकर का काम हो, या फिर वर्तमान में योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य जैसी अहम जिम्मेदारी, शिक्षाविद एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जाधव जिस भूमिका में भी रहे दलितों के हित ढ़ूंढ़ते रहे.
1953 में महाराष्ट्र में जन्मे जाधव ने अपने बड़े भाई के मार्गदर्शन में शुरू में ही तय कर लिया था कि उन्हें पब्लिक सेक्टर में काम करना है. वजह था दलित समाज का उत्थान, जो सिस्टम में रहकर ही किया जा सकता था. इसी जुनून और जिद्द कि वजह से उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति का पद मिलने पर सालाना सवा करोड़ की नौकरी ठुकरा दी, ताकि दलितों से अमानवीय व्यवहार करने वाले पुणे शहर में समाजिक न्याय की मशाल जला सकें. तब उन्होंने जो किया वो इतिहास में दर्ज हो चुका है. फिलहाल वो सरकारी मंत्रालयों और राज्यों में दलित हित के फंसे हजारों करोड़ रुपयों को बाहर निकालने में लगे हैं. बीती उपलब्धियों और वर्तमान चुनौतियों पर ‘दलितमत.कॉम’ के संपादक अशोक दास ने उनसे विस्तार से बातचीत की. इस बातचीत के दौरान जाधव ने अपने परिवार के ऊपर लिखी किताब आमचा बाप आनू आम्ही के लिखे जाने की दिलचस्प कहानी का भी जिक्र किया. पेश है उनसे बातचीत ...... पूरा इंटरव्यूह पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
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Friday, September 30, 2011
यूपी को 'भीम' नगर और 'प्रबुद्ध' नगर का तोहफा
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कु. मायावती ने प्रदेश को तीन और जिलों का तोहफा दिया है. पहले की तरह ही इन जिलों को उन्होंने वंचित समाज का उत्थान करने वाले महापुरुषों को समर्पित किया है. 28 सितंबर को घोषित नए तीन जिलों में एक का नाम बाबा साहेब के नाम पर भीम नगर तो दूसरे का महात्मा बुद्ध के नाम पर प्रबुद्ध नगर रखा गया है. जबकि तीसरे का नाम पंचशील नगर रखा गया है. 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक मायावती ने पंद्रह से ज्यादा जिलों का गठन किया है. इनमें नए दोनों जिलों को मिलाकर कुल 15 जिलों के नाम वंचित समाज के महापुरुषों के नाम पर या फिर उनसे संबंधित स्थानों के नाम पर रखा गया है.
मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरुआत से ही मायावती वंचित समाज के महापुरुषों के नाम को अमर करने में जुटी हुई हैं. 1995 में मायावती ने पहली बार उधमसिंह नगर बनाकर जिलों के गठन की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने आंबेडकर नगर, गौतमबुद्ध नगर, कांशीराम नगर, संत रविदास नगर, महामाया नगर, सिद्धार्थ नगर, कौशांबी, श्रावस्ती, कुशीनगर, रमाबाई नगर, ज्योतिबा फुले नगर और संत कबीर नगर जिलों का गठन किया था. बुधवार को तीन नए जिलों की घोषणा के बाद इसी लिस्ट में अब भीम नगर और प्रबुद्ध नगर भी शामिल हो गया है. हालांकि दलित रहनुमाओं को आगे बढ़ाने की मायावती की यह कोशिश उनके विरोधी मुलायम सिंह यादव और भाजपा को कभी रास नहीं आई है. समय-समय पर वो इसका विरोध करते रहे हैं. एक बार फिर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आ गया है. भाजपा ने मायावती द्वारा प्रबुद्ध नगर नाम का नया जिला गठित करने का विरोध किया है. भाजपा इस जिले का नाम शामली रखने के पक्ष में है. भाजपा ने तो यहां तक घोषणा कर दी है कि विधानसभा चुनावों के बाद सत्ता में आने पर वह प्रबुद्ध नगर का नाम बदल कर शामली रख देंगे.
सिर्फ भाजपा नहीं बल्कि दलित महापुरुषों के नाम पर गठित जिलों को लेकर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह की खुन्नस भी छिपी नहीं है. मुलायम के दलित और पिछड़ा प्रेम के ढ़ोंग को इसी से समझा जा सकता है कि 2003 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने मायावती द्वारा बनाए गए सभी 11 जिलों को समाप्त कर दिया था. लेकिन हाई कोर्ट के आदेश के बाद इन जिलों को फिर से बहाल करना पड़ा.
Thursday, September 29, 2011
संजीव खुदशाह के ''तुष्टिकरण'' पर डी एम एम का जवाब
गत 17 सितंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ‘जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार’ विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया. इसके बाद कथाकार, लेखक एवं समीक्षक संजीव खुदशाह ने इस कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए आयोजक डी एम एम (दलित मुक्ति मोर्चा) पर कई सवाल उठाए थे. संजीव के सवालों के बाद काफी बवाल मचा था और इस पर कई प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थी. डी एम एम ने संजीव खुदशाह के आरोपों का जवाब देते हुए दलित मत को एक पत्र भेजा है, जिसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं. (संजीव खुदशाह का आरोप पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
संपादक
आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,
सादर जय भीम!
आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.
क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,
मधुकर गोरख विभीषण पात्रे
अध्यक्ष महासचिव
संपादक
आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,
सादर जय भीम!
आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.
क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,
मधुकर गोरख विभीषण पात्रे
अध्यक्ष महासचिव
Sunday, September 25, 2011
मिर्चपुर हत्याकांड में सिर्फ 15 दोषी, 82 बरी
दिल्ली की एक अदालत ने हरियाणा के मिर्चपुर गांव में पिछले साल 70 वर्षीय एक दलित और उसकी विकलांग बेटी को जिंदा जला देने के मामले में आरोपी बनाए गए 97 में से 15 लोगों को विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत दोषी करार दिया. जबकि अन्य 82 आरोपियों को निर्दोष बताया है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने जिन 15 आरोपियों को दोषी ठहराया है उन्हें हत्या के मामले में दोषी करार नहीं दिया है. कुलविंदर, रामफल और राजेन्दर को 21 अप्रैल को ताराचंद के घर को आग के हवाले करने को लेकर आईपीसी की धारा 304 के तहत दोषी करार दिया गया. गांव के प्रभावी जाटों और दलितों के बीच जातीय विवाद के बाद यह घटना हुई थी.
इन 15 आरोपियों में से 12 को आगजनी, दंगा करने और गैर कानूनी रूप से एकत्र होने के आरोप में दोषी करार दिया गया. अदालत ने अपने फैसले में इस मामले में हरियाणा पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा, ‘‘जिस तरह से पूरे मामले को निपटाया गया वह अनुचित है.’’ गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल नौ दिसंबर को इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया था. हरियाणा में निष्पक्ष सुनवाई नहीं होने की पीड़ितों की अर्जी पर ऐसा किया गया था. न्यायाधीश ने कहा कि राजनीतिक दबाव के चलते कई आरोपियों को फंसाए जाने की संभावना खारिज नहीं की जा सकती है. अदालत ने हिसार जिले के नारनौंद पुलिस थाना के प्रभारी विनोद के. काजल सहित 82 आरोपियों को निर्दोष करार दिया. गौरतलब है कि इस घटना के बाद आज तक मिर्चपुर गांव में दलितों की स्थिति सुधर नहीं पाई है. आज भी वहां के दलित दहशत में हैं. जाटों के डर से कई परिवार अभी भी गांव से बाहर शरण लिए हुए हैं, जहां उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. जो परिवार वापस गांव लौट गए हैं, वो भी हर पल डर के साये में जी रहे हैं. इस पूरे मामले में संसद के अंदर मौजूद 120 दलित सांसदों की भूमिका भी समाज के प्रति साकारात्मक नहीं रही थी. जिस स्तर पर विरोध प्रदर्शन होना चाहिए था, राजनीतिक स्तर पर वैसा कुछ नहीं हो पाया. यहां तक की विपक्षी दलों ने भी विरोध दर्ज करा कर महज खानापूर्ति कर ली थी. तो आरक्षित सीट से जीतने वाले उम्मीदवार भी पार्टी के दबाव में दलितों पर अत्याचार के मामले को जोरदार ढ़ंग से उठाने में नाकाम रहे थे.
मंदिर प्रांगण में दलित को काट डाला
उत्तर प्रदेश के महामाया नगर में दबंगों ने दलित जाति के राजन लाल को मंदिर कैंपस में ही तलवार से काट कर हत्या कर दी. 40 साल के राजन लाल को महज इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने दबंगों द्वारा जातिसूचक गाली देने का विरोध किया था. दंभ में चूर ठाकुर जाति के लोगों को यह नागवार गुजरा कि एक दलित व्यक्ति उन्हें रोक कैसे सकता है. घटना के बाद अपने सात बच्चों को बिलखता लेकर मृतक की विधवा न्याय की आस में दर-दर भटक रही है तो दूसरी ओर अपनी राजनीतिक पहुंच और पैसे के बूते दबंग मामले की लीपापोती में लग गए हैं, जिसमें जिले का पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोपियों को बचाने के मामले में राज्य के उर्जा मंत्री और बाहुबली बसपा नेता रामबीर उपाध्याय का नाम सामने आया है.
घटना महामाया नगर जिले के थाना सिकंदरा राउफ में बीते 22 अगस्त को जन्माष्टमी को घटी. मृतक की विधवा फूलवती के मुताबिक रात साढ़े नौ बजे सोनू, पिंटू और पल्लू नाम के तीन लोग उसके घर आएं और पूजा देखने के बहाने उसके पति को जबरन घर से बुलाकर पास के जानकी मंदिर ले गए. जानकी मंदिर में जेनरेटर की व्यवस्था में लगा दलित जाति का ही युवक देवेंद्र इस पूरे मामले का प्रत्यक्षदर्शी है. उसके मुताबिक, मंदिर में डीजे चल रहा था. राजन लाल को लेकर मंदिर परिसर पहुंचे लोगों ने राजन से भी नाचने के लिए कहा लेकिन उसने नाचने से इंकार कर दिया. बस दबंग इसी बात से भड़क गए. वो राजन लाल को जातिसूचक गालियां देने लगे. इस दौरान प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री होने का गुस्सा भी सामने आ गया. प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक दबंगों ने राजन को गाली देते हुए कहा कि तुमलोगों का दिमाग खराब हो गया है. राजन ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया. राजन के विरोध करने से दबंग और चिढ़ गए और सभी मिलकर उसे मारने-पीटने लगे. इससे भी उनका मन नहीं भरा तो दबंगों ने मंदिर में ही रखे तलवार से राजन को काट दिया और उसकी हत्या कर दी.
मामले पर बवाल मचने के बाद अब दबंग अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर बचने की जुगत में जुट गए हैं. यहां तक की मामले के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी देवेंद्र को भी जान से मारने की धमकी देकर उसे बयान बदलने को मजबूर कर दिया गया है. इसमें पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोप है कि पुलिस ने इंकाउंटर की धमकी देते हुए देवेंद्र को बयान बदलने को राजी कर लिया है. मृतक की पत्नी के मुताबिक देवेंद्र ने अपना बयान बदलने के लिए पूरे दलित समाज से माफी मांगा है और जान के डर के कारण ऐसा करने की बात स्वीकार की है. इसके बाद अब पुलिस मामले को नया मोड़ देने में जुट गई है. चश्मदीद देवेंद्र के बयान पर पुलिस ने पहले सोनू, पल्लू और चिंटू तीनो के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी लेकिन अब सारा दोष पल्लू नाम के व्यक्ति पर डाल कर दो लोगों को छोड़ दिया गया है.
मृतक की पत्नी इस मामले सभी दोषियों को सजा दिलाने की मांग पर अड़ी हुई है. पुलिसिया एफआईआर को उसने पुलिस और आरोपियों की मिली-भगत का नतीजा बताया है और पुलिस द्वारा जबरन अंगूठा लिए जाने का आरोप लगाया है. उसका आरोप है कि प्रदेश के ऊर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं. इधर, मृतक राजन को इंसाफ दिलाने की मुहिम को लेकर पूरा दलित समुदाय एक हो गया है. मामले पर चर्चा के लिए जाटव महापंचायत बुलाई गई है. इसमें 25 गांव से तकरीबन 50 हजार लोगों के शामिल होने की खबर है. मामले को लेकर मायावती सरकार और खुद मुख्यमंत्री मायावती पर भी पूरे दलित समाज की नजर टिकी हुई है.
साभारः शिल्पकार टाइम्स
घटना महामाया नगर जिले के थाना सिकंदरा राउफ में बीते 22 अगस्त को जन्माष्टमी को घटी. मृतक की विधवा फूलवती के मुताबिक रात साढ़े नौ बजे सोनू, पिंटू और पल्लू नाम के तीन लोग उसके घर आएं और पूजा देखने के बहाने उसके पति को जबरन घर से बुलाकर पास के जानकी मंदिर ले गए. जानकी मंदिर में जेनरेटर की व्यवस्था में लगा दलित जाति का ही युवक देवेंद्र इस पूरे मामले का प्रत्यक्षदर्शी है. उसके मुताबिक, मंदिर में डीजे चल रहा था. राजन लाल को लेकर मंदिर परिसर पहुंचे लोगों ने राजन से भी नाचने के लिए कहा लेकिन उसने नाचने से इंकार कर दिया. बस दबंग इसी बात से भड़क गए. वो राजन लाल को जातिसूचक गालियां देने लगे. इस दौरान प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री होने का गुस्सा भी सामने आ गया. प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक दबंगों ने राजन को गाली देते हुए कहा कि तुमलोगों का दिमाग खराब हो गया है. राजन ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया. राजन के विरोध करने से दबंग और चिढ़ गए और सभी मिलकर उसे मारने-पीटने लगे. इससे भी उनका मन नहीं भरा तो दबंगों ने मंदिर में ही रखे तलवार से राजन को काट दिया और उसकी हत्या कर दी.
मामले पर बवाल मचने के बाद अब दबंग अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर बचने की जुगत में जुट गए हैं. यहां तक की मामले के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी देवेंद्र को भी जान से मारने की धमकी देकर उसे बयान बदलने को मजबूर कर दिया गया है. इसमें पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोप है कि पुलिस ने इंकाउंटर की धमकी देते हुए देवेंद्र को बयान बदलने को राजी कर लिया है. मृतक की पत्नी के मुताबिक देवेंद्र ने अपना बयान बदलने के लिए पूरे दलित समाज से माफी मांगा है और जान के डर के कारण ऐसा करने की बात स्वीकार की है. इसके बाद अब पुलिस मामले को नया मोड़ देने में जुट गई है. चश्मदीद देवेंद्र के बयान पर पुलिस ने पहले सोनू, पल्लू और चिंटू तीनो के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी लेकिन अब सारा दोष पल्लू नाम के व्यक्ति पर डाल कर दो लोगों को छोड़ दिया गया है.
मृतक की पत्नी इस मामले सभी दोषियों को सजा दिलाने की मांग पर अड़ी हुई है. पुलिसिया एफआईआर को उसने पुलिस और आरोपियों की मिली-भगत का नतीजा बताया है और पुलिस द्वारा जबरन अंगूठा लिए जाने का आरोप लगाया है. उसका आरोप है कि प्रदेश के ऊर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं. इधर, मृतक राजन को इंसाफ दिलाने की मुहिम को लेकर पूरा दलित समुदाय एक हो गया है. मामले पर चर्चा के लिए जाटव महापंचायत बुलाई गई है. इसमें 25 गांव से तकरीबन 50 हजार लोगों के शामिल होने की खबर है. मामले को लेकर मायावती सरकार और खुद मुख्यमंत्री मायावती पर भी पूरे दलित समाज की नजर टिकी हुई है.
साभारः शिल्पकार टाइम्स
बांध बनाने में खर्च हो रहा है दलित कल्याण का पैसा
भाजपा के शासन वाले मध्यप्रदेश राज्य में दलित हितों की धज्जियां उड़ रही है. शिवराज सिंह चव्हाण की सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए मिले पैसे का प्रयोग धड़ल्ले से अन्य योजनाओं में कह रही है जबकि दलित हितों की अनदेखी अपने चरम पर है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के हालिया दौरे ने सारी पोल खोल दी है. आयोग के मुताबिक प्रदेश में अनुसूचित जाति (अजा) कल्याण की योजनाओं का धन बांध, पुलिया, सड़क आदि बनाने में खर्च किया जा रहा है. जबकि दूसरी ओर अनुसूचित जाति के मामलों पर कार्यवाही के लिए आठ पुलिस थानों में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं. इनमें से हर थाने में महिला पुलिसकर्मी भी तैनात नहीं हैं. अजा के फर्जी जाति प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी हासिल करने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा रही है. अजा पर अत्याचार की एफआईआर भी आसानी से दर्ज नहीं की जाती है.
दलितों पर अत्याचारे के मामले में भी मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है. राष्ट्रीय अजा आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया के मुताबिक अन्य राज्यों की तरह मप्र में भी अजा पर अत्याचार करने वाले लोगों के खिलाफ पुलिस थानों में रपट दर्ज न करने की काफी शिकायतें सही पाई गई हैं. आलम यह है कि 24 मामलों में तो न्यायालय के आदेश के बाद एफआईआर दर्ज की गई. जबकि भिंड के एक मामले में तो आयोग के निर्देश के बावजूद रपट दर्ज नहीं की गई. दलितों पर अत्याचार करने वाले 40 फीसदी मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिल पाती है. सन् 2006 से 2010 के बीच 72 लोगों ने फर्जी तरीके से अजा कोटे की नौकरियां हथिया लीं. इन शिकायतों को समिति द्वारा सही पाए जाने के बावजूद भी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है. ऐसे दोषी अब भी न केवल सरकारी सेवा में बने हुए हैं बल्कि पदोन्नति भी पा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर राज्य में आरक्षित पांच हजार पद लंबे समय से खाली पड़े हैं. सरकार द्वारा इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यही वजह है कि पिछले एक दशक से आरक्षित पद खाली पड़े हैं.
दलितों पर अत्याचारे के मामले में भी मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है. राष्ट्रीय अजा आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया के मुताबिक अन्य राज्यों की तरह मप्र में भी अजा पर अत्याचार करने वाले लोगों के खिलाफ पुलिस थानों में रपट दर्ज न करने की काफी शिकायतें सही पाई गई हैं. आलम यह है कि 24 मामलों में तो न्यायालय के आदेश के बाद एफआईआर दर्ज की गई. जबकि भिंड के एक मामले में तो आयोग के निर्देश के बावजूद रपट दर्ज नहीं की गई. दलितों पर अत्याचार करने वाले 40 फीसदी मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिल पाती है. सन् 2006 से 2010 के बीच 72 लोगों ने फर्जी तरीके से अजा कोटे की नौकरियां हथिया लीं. इन शिकायतों को समिति द्वारा सही पाए जाने के बावजूद भी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है. ऐसे दोषी अब भी न केवल सरकारी सेवा में बने हुए हैं बल्कि पदोन्नति भी पा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर राज्य में आरक्षित पांच हजार पद लंबे समय से खाली पड़े हैं. सरकार द्वारा इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यही वजह है कि पिछले एक दशक से आरक्षित पद खाली पड़े हैं.
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दलित मत
शिकायत लेकर पहुंचे व्यक्ति को डीएम ने आफिस से निकाला
तथाकथित ज्यादातर सवर्ण अधिकारियों में दलितों के हित के लिए दर्द नहीं होता, उत्तर प्रदेश में घटी एक घटना से यह बात फिर साबित हो गई है. प्रदेश के इटावा में एक आईएएस अधिकारी ने एक दलित व्यक्ति को अपने आफिस से धक्के देकर निकाल दिया. पीड़ित व्यक्ति अपनी शिकायत लेकर डीएम के पास पहुंचा था. लेकिन डीएम को यह नागवार गुजरा और उसने उस व्यक्ति को आफिस से बाहर निकाल दिया. घटना 22 सितंबर की है. शहरी दलितों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की कांशीराम आवास योजना है. इसके तहत जरुरतमंद लोगों को सरकार की तरफ से मकान दिया जाता है, पीड़ित व्यक्ति इसी मांग को लेकर अधिकारी से मिलने पहुंचा था. हैरत की बात यह है कि उस दौरान विशेष मुख्य सचिव आर पी सिंह भी इटावा के जिलाधिकारी के साथ मौजूद थे. लेकिन विशेष मुख्य सचिव ने डीएम को रोकने की बजाय उसका साथ दिया और उनकी मौजूदगी में डीएम ने दलित व्यक्ति को धक्के देते हुए बाहर निकाल दिया.
यह सारी स्थिति तब है जब यूपी में चुनाव होने हैं. मुख्यमंत्री मायावती जहां दलितों के कल्याण के लिए तमाम हितकारी योजनाएं चला रही हैं, तो वहीं उनके प्रदेश के अधिकारी ही उनके मंसूबों पर पानी फेरने में जुटे हुए हैं. पिछले दिनों में अपनी पार्टी के कई सवर्ण नेताओं और अधिकारियों की वजह से माया सरकार को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. उनकी प्रशासन पर ऊंगली उठती रही है. सवर्ण और बेलगाम अधिकारियों की करनी के कारण विपक्षी दलों को माया सरकार पर निशाना साधने का मौका मिलता रहा है. ऐसे में इस घटना से मायावती सरकार पर एक बार फिर ऊंगली उठने लगी है. मुख्यमंत्री को इस तरह दलितों के साथ बदसलूकी करने वाले अधिकारियों को तुरंत सस्पेंड कर देना चाहिए और कठोर कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अन्य अधिकारी भी चौकन्ने हो जाएं. चुनाव के नजदीक आते ही कांग्रेस और सपा, बसपा सरकार में घटित हुए छोटी-छोटी घटनाओं को तूल देने में जुटी है. कांग्रेस ने तो पीएल पुनिया को इसके लिए विशेष तौर पर नियुक्त कर दिया है, जो देश भर में घूम कर माया सरकार की बखिया उधेड़ते रहते हैं. बसपा सरकार के सामने बैकफुट पर पड़ी सभी पार्टियों का निशाना दलित वोट बैंक ही हैं. कांग्रेस पार्टी जहां इसमें सेंध लगाने में जुटी है तो वहीं सपा दलितों के साथ होने वाली घटनाओं को सामने रखकर दलितों को भड़काने का काम कर रही है. बसपा सरकार को संभलते हुए अब इटावा के डीएम पर तुरंत कार्रवाई कर के पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को वापस दिलाना चाहिए, साथ ही उसकी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिए.
यह सारी स्थिति तब है जब यूपी में चुनाव होने हैं. मुख्यमंत्री मायावती जहां दलितों के कल्याण के लिए तमाम हितकारी योजनाएं चला रही हैं, तो वहीं उनके प्रदेश के अधिकारी ही उनके मंसूबों पर पानी फेरने में जुटे हुए हैं. पिछले दिनों में अपनी पार्टी के कई सवर्ण नेताओं और अधिकारियों की वजह से माया सरकार को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. उनकी प्रशासन पर ऊंगली उठती रही है. सवर्ण और बेलगाम अधिकारियों की करनी के कारण विपक्षी दलों को माया सरकार पर निशाना साधने का मौका मिलता रहा है. ऐसे में इस घटना से मायावती सरकार पर एक बार फिर ऊंगली उठने लगी है. मुख्यमंत्री को इस तरह दलितों के साथ बदसलूकी करने वाले अधिकारियों को तुरंत सस्पेंड कर देना चाहिए और कठोर कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अन्य अधिकारी भी चौकन्ने हो जाएं. चुनाव के नजदीक आते ही कांग्रेस और सपा, बसपा सरकार में घटित हुए छोटी-छोटी घटनाओं को तूल देने में जुटी है. कांग्रेस ने तो पीएल पुनिया को इसके लिए विशेष तौर पर नियुक्त कर दिया है, जो देश भर में घूम कर माया सरकार की बखिया उधेड़ते रहते हैं. बसपा सरकार के सामने बैकफुट पर पड़ी सभी पार्टियों का निशाना दलित वोट बैंक ही हैं. कांग्रेस पार्टी जहां इसमें सेंध लगाने में जुटी है तो वहीं सपा दलितों के साथ होने वाली घटनाओं को सामने रखकर दलितों को भड़काने का काम कर रही है. बसपा सरकार को संभलते हुए अब इटावा के डीएम पर तुरंत कार्रवाई कर के पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को वापस दिलाना चाहिए, साथ ही उसकी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिए.
Monday, September 19, 2011
'Questions of caste: Including Dalits in Global Politics'
Vivek Kumar is author of ‘Questions of Caste: Including Dalits in Global Politics’
Vivek Kumar (Ph.D.) Associate Professor at the Centre for the Study of Social Systems, School of Social Sciences, Jawaharlal Nehru University, New Delhi he’s engaged in the study of the social movements of one of the most excluded sections in South-Asia (Dalits).
He has analyzed the process and mechanism involved in strengthening the democracy by the ‘Independent Dalits Movement’ in the largest populated State of India i.e. Uttar Pradesh. Kumar has also examined how Dalit movement has diversified its demands for inclusion in the modern institutions of governance and other spheres of day-to-day life after India became a democracy.
Now Kumar is studying internal differences within the Indian Diaspora and its relationship with Indian democracy. Author of three books he has contributed few dozens of academic articles in journals and books. He also writes in newspapers and participates in debates on television channels regularly.
When asked why he joined the Building Global Democracy Programme, Vivek replied:
"...it is a unique or perhaps only attempt which promises a new world order. Secondly, he believes that only a democratic order is open to dissent and undertakes piecemeal social-engineering rather holistic reforms. Last but not least experiences of the world prove that ‘marginalized’ and ‘excluded’ have hope only in a democratic world order."
International workshop in Rio de Janeiro
Watch video footage of Vivek Kumar introducing his paper on 'including Dalits in global politics' at our international workshop in Rio de Janeiro. The workshop brought together academics, activitists and policymakers from around the world and generated lively debates and new understanding on how to understand and overcome exclusion.
Click Here to See Video
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Tuesday, September 13, 2011
दिल्ली विश्वविद्यालय का दोगलापन
दिल्ली विश्वविद्यालय के एमए संस्कृत में ज्योतिष की कक्षाएं नहीं लग रहीं हैं. इसका कारण संस्कृत विभाग में प्राध्यापक नहीं होने के साथ-साथ अनुसूचित जाति की एक छात्रा भी बताई जा रही है. छात्रा ज्योतिष पढ़ने की जिद पर अड़ी है, जबकि उसकी शिकायत है कि विभागाध्यक्ष ने उसे स्पष्ट कह दिया है कि 'ज्योतिष तुम्हारी जाति के लोगों के लिए नहीं है.' छात्रा इसकी शिकायत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह से कर चुकी है लेकिन 15 दिन तक समस्या का समाधान न निकलने पर दिलेर छात्रा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग पहुंच गई है. अब आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन से मामले पर स्पष्टीकरण मांगा है.
विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में एमए अंतिम वर्ष की छात्रा सरिता ने बताया कि 21 जुलाई से तीसरे सेमेस्टर की पढ़ाई शुरू हो चुकी है. छात्रों को नौ ऑप्शनल विषयों में से एक विषय पढ़ना होता है. मैंने ऑप्शनल के रूप में ज्योतिष विषय चुना है. सरिता ने बताया कि कुछ दिन तक यह कहा गया कि विभाग में ज्योतिष के शिक्षक नहीं हैं. जबकि विश्वविद्यालय और उसके शिक्षकों को दोगलापन तुरंत सामने आ गया. छात्रा का कहना है कि संस्कृत के विभागाध्यक्ष डॉ. मिथलेश कुमार चतुर्वेदी के बुलावे पर अगस्त के दूसरे सप्ताह में उनके कार्यालय पहुंची. वहां विभागाध्यक्ष ने छात्रा से कहा कि ज्योतिष तुम्हारी जाति के लोगों के लिए नहीं है. इसलिए तुम इस विषय को नहीं पढ़ सकती. शिक्षक का यह कहना सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन भी है. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही विवाद पर सुनवाई करते हुए वर्ष 2004 के अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया था कि हर जाति के विद्यार्थी ज्योतिष पढ़ सकते है.
इधऱ विश्वविद्यालय के कुलपति भी मामले को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. छात्रा को ज्योतिष पढ़ाने से इंकार करने वाले शिक्षक पर कार्रवाई करने की बजाय कुलपति मामले पर ढ़ुलमुल रवैया अपना रहे हैं. कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह का कहना है कि संस्कृत विभाग से कुछ छात्रों की शिकायत तो आई थी, जिसमें उन्होंने ज्योतिष पढ़ाने के लिए प्राध्यापक नियुक्त करने की मांग की थी. मैंने विभाग को छात्रों की समस्या हल करने के निर्देश दिए थे. जहां तक अनुसूचित जाति की छात्रा को ज्योतिष न पढ़ाए जाने की बात है तो यह मामला मेरे संज्ञान में नहीं है. जबकि विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार आरके सिन्हा का कहना है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने छात्रा की शिकायत पर जो स्पष्टीकरण मांगा है, उसके लिए संस्कृत विभाग से पूछताछ की जाएगी. उसके बाद आयोग के हर सवाल का जवाब दिया जाएगा.
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पुलिस ने दलितों पर गोली चलाई, 6 की मौत
दक्षिण भारत के राज्य तामिलनाडु में पुलिसवालों ने गोली मारकर 6 दलितों की हत्या कर दी है. एक जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है तो दो दर्जन से ज्यादा लोग घायल हैं. रामानाथपुरम जिले में घटी इस घटना के बाद से ही इलाके में दहशत का माहौल है. घटना 11 सितंबर को तब घटी जब पुलिस ने दलित नेता जॉन पंडियन को गिरफ्तार कर लिया. पंडियन दलित नेता इमानुअल सेकरन की याद में चल रहे प्रोग्राम में हिस्सा लेने जा रहे थे. पुलिस जब पंडियन को गिरफ्तारी करके ले जा रही थी, उसी वक्त उनके समर्थकों ने पुलिस का भारी विरोध किया. इस दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प हो गई. पुलिस ने उत्तेजित लोगों को समझाने की बजाय उनपर गोली चला दी. गोली चलाने के बाद अफरा-तफऱी मच गई जिसमें पुलिसवालों सहित 50 लोग घायल हो गए. घटना के बाद पुलिस सफाई दे रही है. पुलिस का कहना है कि कानून व्यवस्था बरकरार रखने के लिए दलित नेता जॉन पंडियन को परामाकुड़ी इलाके में जाने से रोका था. दलितों पर हत्या के बाद अब राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी रोटियां सेकनी शुरू कर दी है. उन्होंने इस पुलिस फायरिंग की जांच कराने की मांग की है. इस बीच राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता ने मारे गए लोगों के परिवार वालों को 1 लाख रुपए देने का मुआवजा देने का ऐलान किया है.
कागजी योजनाओं की बांट जोह रहे हैं बिहार के महादलित
आजादी के बाद देश में दलितों के उत्थान के लिए कई कार्यक्रम और योजनाएं चलाई गईं तथा संविधान में विशेष आरक्षण की व्यवस्था भी की गई. लेकिन आजादी के छह दशक से अधिक गुजरने के बावजूद ये योजनाएं हमारे लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रही हैं. बिहार में एक कोशिश के तहत दलित वर्ग की कमजोर जातियों को एक साथ लाकर उन्हें लेकर महादलित संघ बनाया गया था. लेकिन इनकी लिए बनीं तमाम योजनाएं सरकारी कागजों तक पर सिमट कर रह गई है.
महादलित के गठन की मूल मंशा दलितों में भी अत्याधिक रूप से पिछड़ों की पहचान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है. राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम वास्तव में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं. इस वर्ग में मुसहर जाति को भी शामिल किया गया. लेकिन बिहार सरकार द्वारा संचालित महादलित उत्थान योजना से अब भी ये वर्ग पूर्ण रूप से लाभान्वित होता नजर नहीं आ रहा है. सुविधाओं का लाभ मिलना तो दूर, इस वर्ग में शामिल कई महादलितों तक योजनाओं की जानकारी भी नहीं पहुंची है. गौरा बौराम प्रखंड का मंसारा मुसहर ऐसा ही एक गांव है. दरभंगा से 75 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह इलाका कमला, कोसी और गेहूंआ नदियों के बीच टापू की तरह घिरा हुआ है. हैरत की बात यह है कि मुसहर समुदाय की अच्छी खासी आबादी होने के बावजूद यहां के लोगों के पास रहने के लिए अपनी जमीन तक उपलब्ध नहीं है. ये लोग नदियों पर बनाए गए बांध के आस-पास सरकारी जमीन पर अस्थाई आशियाना बनाकर रहने को मजबूर हैं, लेकिन इन्हें हर वक्त यह डर भी सताता रहता है कि न जाने कब सरकारी बाबू का फरमान आए और इनके घर-बार उजाड़ दिए जाएं. दूसरी तरफ बरसात के मौसम में जब नदियां उफान पर रहती हैं तो मंसारा मुसहरवासियों के जीवन में भी तूफान आ जाता है. अपने और परिवार की जान बचाने के लिए ये लोग बांध पर शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं. इस समुदाय के लोग मजदूरी कर बमुश्किल अपने परिवार का गुजारा भर कर पाते हैं जो बाढ़ के दौरान छिन जाता है. ऐसे में इन्हें पेट भरने के लिए किस तरह कठिनाईयों का सामना करना पड़ता होगा इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है. सरकारी महकमा न तो इनके पेट भरने का माध्यम बनता है और न ही इनकी समस्याओं का स्थाई हल ढूंढ़ पाता है.
आलम यह है कि इस समुदाय के लोगों को कई दिनों तक एक वक्त का ही खाना नसीब हो पाता है. स्थाई प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से इनके पास राशन कार्ड तक उपलब्ध नहीं है. जिससे सस्ते दर पर मिलने वाली सरकारी योजनाओं का ये लाभ उठा सकें. वहीं ग्रामीणों को इलाके में ही रोजगार मुहैया कराने की गारंटी देने वाला मनरेगा इनकी गरीबी को कम करने में असरदार साबित नहीं हो पा रहा है. इस स्कीम का हाल ये है कि ज्यादातर लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है जिनके पास है तो उन्हें कोई काम नहीं मिलता है. गुरबत की इस जिंदगी में कुदरत ने भी उनके साथ खूब मजाक किया है. गरीबी और कुपोषण के कारण इस समुदाय के बच्चे विकलांगता के भी शिकार हैं. सरकारी और गैर सरकारी सर्वे के अनुसार इलाके के पीने के पानी में अत्याधिक मात्रा में आर्गेनिक का मौजूद होना इसका प्रमुख कारण है.
राज्य सरकार ने 2008 में बिहार महादलित विकास मिशन के गठन के साथ ही उनके उत्थान के लिए 16 स्कीमों का भी ऐलान किया है. जिसमें उन्हें स्थाई घर दिलाने वाला हाउस साइट स्कीम भी शामिल है इसके तहत हर परिवार को तीन डिसीमल जमीन उपलब्ध कराना शामिल है. इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर भी खास जोर दिया गया है. इन योजनाओं के प्रचार और प्रसार के लिए प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही माध्यमों का जोर-शोर से सहारा लिया जा रहा है. लेकिन मंसारा मुसहर के लोग अब भी इस योजना की बांट जोह रहे हैं.
सौजन्यः चरखा
महादलित के गठन की मूल मंशा दलितों में भी अत्याधिक रूप से पिछड़ों की पहचान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है. राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम वास्तव में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं. इस वर्ग में मुसहर जाति को भी शामिल किया गया. लेकिन बिहार सरकार द्वारा संचालित महादलित उत्थान योजना से अब भी ये वर्ग पूर्ण रूप से लाभान्वित होता नजर नहीं आ रहा है. सुविधाओं का लाभ मिलना तो दूर, इस वर्ग में शामिल कई महादलितों तक योजनाओं की जानकारी भी नहीं पहुंची है. गौरा बौराम प्रखंड का मंसारा मुसहर ऐसा ही एक गांव है. दरभंगा से 75 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह इलाका कमला, कोसी और गेहूंआ नदियों के बीच टापू की तरह घिरा हुआ है. हैरत की बात यह है कि मुसहर समुदाय की अच्छी खासी आबादी होने के बावजूद यहां के लोगों के पास रहने के लिए अपनी जमीन तक उपलब्ध नहीं है. ये लोग नदियों पर बनाए गए बांध के आस-पास सरकारी जमीन पर अस्थाई आशियाना बनाकर रहने को मजबूर हैं, लेकिन इन्हें हर वक्त यह डर भी सताता रहता है कि न जाने कब सरकारी बाबू का फरमान आए और इनके घर-बार उजाड़ दिए जाएं. दूसरी तरफ बरसात के मौसम में जब नदियां उफान पर रहती हैं तो मंसारा मुसहरवासियों के जीवन में भी तूफान आ जाता है. अपने और परिवार की जान बचाने के लिए ये लोग बांध पर शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं. इस समुदाय के लोग मजदूरी कर बमुश्किल अपने परिवार का गुजारा भर कर पाते हैं जो बाढ़ के दौरान छिन जाता है. ऐसे में इन्हें पेट भरने के लिए किस तरह कठिनाईयों का सामना करना पड़ता होगा इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है. सरकारी महकमा न तो इनके पेट भरने का माध्यम बनता है और न ही इनकी समस्याओं का स्थाई हल ढूंढ़ पाता है.
आलम यह है कि इस समुदाय के लोगों को कई दिनों तक एक वक्त का ही खाना नसीब हो पाता है. स्थाई प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से इनके पास राशन कार्ड तक उपलब्ध नहीं है. जिससे सस्ते दर पर मिलने वाली सरकारी योजनाओं का ये लाभ उठा सकें. वहीं ग्रामीणों को इलाके में ही रोजगार मुहैया कराने की गारंटी देने वाला मनरेगा इनकी गरीबी को कम करने में असरदार साबित नहीं हो पा रहा है. इस स्कीम का हाल ये है कि ज्यादातर लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है जिनके पास है तो उन्हें कोई काम नहीं मिलता है. गुरबत की इस जिंदगी में कुदरत ने भी उनके साथ खूब मजाक किया है. गरीबी और कुपोषण के कारण इस समुदाय के बच्चे विकलांगता के भी शिकार हैं. सरकारी और गैर सरकारी सर्वे के अनुसार इलाके के पीने के पानी में अत्याधिक मात्रा में आर्गेनिक का मौजूद होना इसका प्रमुख कारण है.
राज्य सरकार ने 2008 में बिहार महादलित विकास मिशन के गठन के साथ ही उनके उत्थान के लिए 16 स्कीमों का भी ऐलान किया है. जिसमें उन्हें स्थाई घर दिलाने वाला हाउस साइट स्कीम भी शामिल है इसके तहत हर परिवार को तीन डिसीमल जमीन उपलब्ध कराना शामिल है. इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर भी खास जोर दिया गया है. इन योजनाओं के प्रचार और प्रसार के लिए प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही माध्यमों का जोर-शोर से सहारा लिया जा रहा है. लेकिन मंसारा मुसहर के लोग अब भी इस योजना की बांट जोह रहे हैं.
सौजन्यः चरखा
कानपुर मेडिकल कॉलेज में 29 छात्र फेल, 25 दलित
कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज में पिछले दिनों हुई परीक्षा में 29 छात्रों के फेल होने की खबर है. इनमें 25 छात्र दलित हैं. इस सच्चाई के बाहर आने के बाद हंगामा मच गया है. फेल हुए छात्रों ने अपनी कांपियां दुबारा जांचने की मांग की है. वहीं तीन छात्रों के आत्महत्या किए जाने की कोशिश को भी जातिवाद से ही जोर कर देखा जा रहा है. एमबीबीएस प्रथम वर्ष के इन छात्रों ने बायोकेमेस्ट्री विषय में फेल होने के कारण आत्महत्या का प्रयास किया था. जीएसवीएम के प्रिसिंपल आनंद स्वरूप ने भी माना कि एमबीबीएस प्रथम वर्ष के बायोकेमिस्ट्री के पेपर में कुल 29 छात्र फेल हुए हैं, जिनमें से 25 छात्र दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं. फेल छात्रों तथा उनके परिजनों ने कानपुर के छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलकर मांग की है कि उनकी बायोकेमिस्ट्री विषय की कॉपियों की जांच दोबारा करवाई जाए. गौरतलब है कि एमबीबीएस द्वितीय वर्ष के तीन छात्रों शोभित, संजीव कुमार और विवेक ने दो सितंबर को देर रात नींद की गोलियां खा लीं थी. तीनों छात्र ब्वायज हास्टल वन में रहते थे. देर रात जब हास्टल में उनके सहयोगी छात्रों को पता चला तो वे उनके कमरे का दरवाजा तोड़ कर अंदर घुसे और इन तीनों को बेहोश पाया. बाद में तीनों को अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां से उन्हें दो दिनों के बाद ठीक होने पर डिस्चार्ज कर दिया गया.
दलित परिवार ने राष्ट्रपति से मांगी इच्छा मृत्यु
दबंगों के जुल्म और पुलिस की उदासिनता से निराश होकर एक दलित परिवार ने राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु की मांग की है. इस परिवार की पीड़ा यह है कि दबंगों द्वारा इनका घर हड़प लिया गया है और उनकी बहू-बेटियों को परेशान किया जा रहा है. पुलिस से गुहार करने के बावजूद पुलिस ने उनकी कोई मदद नहीं की है. परिवार के मुखिया का कहना है कि जिस मकान में वे बचपन से रह रहे थे, उससे निकाले जाने के बाद उसकी बेटी व बहुओं की इज्जत बचाना मुश्किल पड़ रहा है. उनके साथ मारपीट की जा रही है.
इन हालातों में इस जिंदगी से बेहतर तो मौत ही है. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के नाम लिखे पत्र में 18 सदस्यों के बैरागी परिवार के मुखिया 70 वर्षीय श्यामलाल ने कहा है कि उसके पिता गांव बधवाड़ी स्थित पंचायती जमीन में मकान बनाकर रहते थे. दिल्ली से सटे गुड़गांव में एक जाति विशेष के दबंग परिवार ने 25 जून की रात उनके घर में घुसकर बहू बेटियों के साथ बदतमीजी करने की कोशिश की गई. विरोध करने पर परिवार के लोगों के साथ मारपीट किया गया. सुबह जब उसने गांव में कुछ लोगों को पीड़ा सुनाई तो दबंगों ने उसके घर में तोडफ़ोड़ की. गाली गलौज और परिवार की महिलाओं को परेशान करना दबंगों का नियम सा बन गया. असल में दबंगों की नियत उस जमीन को हथियाने में थी, जिस पर श्यामलाल जी अपने परिवार के साथ रहते थे. दबंगो का कहना था कि जिस जमीन पर श्यामलाल रहते हैं वो उनके पूर्वजों की जमीन है. पीड़ित परिवार की पैरवी करने वाले वकील दुर्गेश बोकन ने बताया कि इस बीच जब श्यामलाल ने डीएलएफ फेस वन में दबंगों के खिलाफ शिकायत किया तो पुलिस ने दबंगों से मिलकर उल्टे श्यामलाल के खिलाफ ही मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया. इसके बाद आरोपियों ने पीडि़त परिवार को घर से बेघर कर दिया. इस अत्याचार के खिलाफ श्यामलाल ने 19 जुलाई को उपायुक्त कार्यालय में शिकायत दी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. चारो ओर से निराश होने के बाद श्यामलाल ने राष्ट्रपति से पूरे परिवार सहिंत इच्छा मृत्यु की मांग की है.
इन हालातों में इस जिंदगी से बेहतर तो मौत ही है. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के नाम लिखे पत्र में 18 सदस्यों के बैरागी परिवार के मुखिया 70 वर्षीय श्यामलाल ने कहा है कि उसके पिता गांव बधवाड़ी स्थित पंचायती जमीन में मकान बनाकर रहते थे. दिल्ली से सटे गुड़गांव में एक जाति विशेष के दबंग परिवार ने 25 जून की रात उनके घर में घुसकर बहू बेटियों के साथ बदतमीजी करने की कोशिश की गई. विरोध करने पर परिवार के लोगों के साथ मारपीट किया गया. सुबह जब उसने गांव में कुछ लोगों को पीड़ा सुनाई तो दबंगों ने उसके घर में तोडफ़ोड़ की. गाली गलौज और परिवार की महिलाओं को परेशान करना दबंगों का नियम सा बन गया. असल में दबंगों की नियत उस जमीन को हथियाने में थी, जिस पर श्यामलाल जी अपने परिवार के साथ रहते थे. दबंगो का कहना था कि जिस जमीन पर श्यामलाल रहते हैं वो उनके पूर्वजों की जमीन है. पीड़ित परिवार की पैरवी करने वाले वकील दुर्गेश बोकन ने बताया कि इस बीच जब श्यामलाल ने डीएलएफ फेस वन में दबंगों के खिलाफ शिकायत किया तो पुलिस ने दबंगों से मिलकर उल्टे श्यामलाल के खिलाफ ही मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया. इसके बाद आरोपियों ने पीडि़त परिवार को घर से बेघर कर दिया. इस अत्याचार के खिलाफ श्यामलाल ने 19 जुलाई को उपायुक्त कार्यालय में शिकायत दी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. चारो ओर से निराश होने के बाद श्यामलाल ने राष्ट्रपति से पूरे परिवार सहिंत इच्छा मृत्यु की मांग की है.
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दिलीप अश्क स्मृति सम्मान के लिए 30 नवंबर तक जमा होंगे आवेदन
वंचित समाज से ताल्लुक रखने वाले हिन्दी के कवि श्री दिलीप अश्क की स्मृति में एक पुरस्कार शुरू किया जा रहा है. ‘आरोही और संज्ञान’ के माध्यम से दिया जाने वाला यह पुरस्कार हर वर्ष दिसंबर महीने में दिया जाएगा. इसके तहत 11,000 रुपये एवं सम्मान पत्र दिया जाएगा. यह सम्मान हिंदी में कविता लिखने वाले किसी भी दलित या गैर दलित युवा को उनके पहले कविता संग्रह या किसी विशिष्ठ कविता के लिए दिया जाएगा. आयोजकों के शर्त के मुताबिक कवि की उम्र 40 वर्ष से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. विशिष्ठ परिस्थितियों में आरोही और संज्ञान के सदस्यों द्वारा उम्र सीमा बढ़ाई जा सकती है. सर्वश्रेष्ठ कवि का चयन एक समिति करेगी. इसमें हिंदी के दो विशिष्ठ कवि और आरोही और संज्ञान के एक-एक सदस्य शामिल होंगे. युवा कवि अपनी विशिष्ट काव्य रचना या कविता संग्रह 30 नवम्बर 2011 तक भेज सकते हैं.
जिन दिलीप अश्क की स्मृति में यह पुरस्कार शुरू किया गया है उनके जीवन वृत पर नजर डालने पर साफ हो जाता है कि वह उन दिनों से कविता कर रहे थे जब दलित साहित्य अस्तित्व में भी नहीं आया था. हिन्दी के अनेक मूर्धन्य कवियों के साथ कविता पाठ कर चुके और उनके समकालीन रहे कवि दिलीप अश्क हिन्दी की मुख्य धारा में तो उपेक्षित रहे ही साथ ही दलित साहित्य आंदोलन भी उन्हें लगभग भुलाये हुए ही है. हिन्दी के युवा कवि मुकेश मानस के अथक प्रयासों से उनकी कविताओं का एक संग्रह “सच खड़ा है सामने” 2000 में प्रकाशित हो चुका है. उनके एक और संग्रह “मैंने झूठ नहीं बोला” को आरोही द्वारा प्रकाशित किए जाने की योजना है.
पुरस्कार के लिए युवा कवि अपनी रचना इस पते पर भेज सकते हैं-
आरोही/संज्ञान : ए-2/128, सेक्टर-11, रोहिणी, दिल्ली-110089
फोन : 09013292928, ईमेल : aarohibooks@gmail.com / hindimanchindia@gmail.com
जिन दिलीप अश्क की स्मृति में यह पुरस्कार शुरू किया गया है उनके जीवन वृत पर नजर डालने पर साफ हो जाता है कि वह उन दिनों से कविता कर रहे थे जब दलित साहित्य अस्तित्व में भी नहीं आया था. हिन्दी के अनेक मूर्धन्य कवियों के साथ कविता पाठ कर चुके और उनके समकालीन रहे कवि दिलीप अश्क हिन्दी की मुख्य धारा में तो उपेक्षित रहे ही साथ ही दलित साहित्य आंदोलन भी उन्हें लगभग भुलाये हुए ही है. हिन्दी के युवा कवि मुकेश मानस के अथक प्रयासों से उनकी कविताओं का एक संग्रह “सच खड़ा है सामने” 2000 में प्रकाशित हो चुका है. उनके एक और संग्रह “मैंने झूठ नहीं बोला” को आरोही द्वारा प्रकाशित किए जाने की योजना है.
पुरस्कार के लिए युवा कवि अपनी रचना इस पते पर भेज सकते हैं-
आरोही/संज्ञान : ए-2/128, सेक्टर-11, रोहिणी, दिल्ली-110089
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लोकपाल बिल में भागीदारी को लेकर सोशल जस्टिस फोरम का प्रदर्शन
लोकपाल में वंचित समाज की भागीदारी और हित सुरक्षित रखने की मांग को लेकर तकरीबन 40 संगठनों के समूह ‘सोशल जस्टिस फोरम’ द्वारा 5 सितंबर को एक विशाल रैली निकाली गई. सुबह तकरीबन 11 बजे अंबेडकर भवन से शुरू होकर यह रैली स्टेशन रोड और कनॉट प्लेस के कई हिस्सों में अपनी मांगों का उदघोष करती हुई जंतर-मंतर पहुंची. हाथों में मांगों की तख्तियां लिए और माथे पर दलित आंदोलन की पट्टी बांधे रैली में प्रबुद्ध वर्ग, तमाम अधिकारी, व्यवसायी और जेएनयू एवं डीयू के छात्र-छात्रा सहित समाज के हर तबके के लोग मौजूद थे. अपनी मांगों को लेकर उनके इरादों की मजबूती इसी से भांपी जा सकती है कि इस दौरान दो बार बारिश आने के बावजूद किसी के कदम नहीं डिगे. हर कोई मांग का झंडा थामे खड़ा रहा.
जंतर-मंतर पर आम सभा करने के बाद यह रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट की ओर कूच कर गई. इस दौरान पुलिसकर्मियों ने तीन जगह रैली को रोकने की कोशिश की लेकिन ‘भीम’ के बेटे और बेटियों के आगे पुलिस को हार मानना पड़ा. सभी पुलिसिया बैरिकेट्स को तोड़ते हुए रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट पर पहुंचीं, जहां जेएनयू के डा. विवेक कुमार ने सभा को संबोधित करते हुए पिछले दिनों जनलोकपाल को लेकर चले मुहिम को आंदोलन मानने से इंकार कर दिया. उन्होनें कहा कि आंदोलन विचारधारा से बनते हैं ना कि कुछ लोगों के बैठने से. अन्ना के अनशन को धिक्कारते हुए उन्होंने कहा कि वहां आरक्षण और बाबा साहेब के विरोध में नारे लग रहे थे. चेताया कि उसमें दलित समाज के भी युवा मौजूद थे और उन्हें अब चेत जाना चाहिए. चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि अगर ‘बाबा’ के बेटे जाग गए तो गांधी के बेटों को भागना पड़ेगा. साथ ही जोर दिया कि लोकपाल में सबकी आवाज शामिल होनी चाहिए. इस दौरान बेला ग्रुप ने शानदार नाटक किया.
फोरम द्वारा जिन पांच मुख्य मांगों को लोकपाल में शामिल करने की मांग की जा रही है, उनमें लोकपाल में दलितों के साथ जातीय, सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आधार पर भेदभाव को शामिल करने की मांग शामिल है. इसके अलावा मीडिया, कॉरपोरेट जगत, सरकारी अनुदान पर चल रहे स्वयं सेवी संगठनों (एनजीओ) सहित केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा वंचित समाज के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एससी/एसटी को उनकी संख्या के मुताबिक बजट न देने को भी लोकपाल बिल में भ्रष्टाचार मानने की सिफारिश की गई है. फोरम द्वारा सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा चलाने वाले लोगों को सामाजिक भ्रष्टाचार मानते हुए इस बिल में शामिल करने एवं न्यायपालिका, भूमि वितरण, पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों एवं अन्य स्वायतशासी संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे में लाने की मांग शामिल है.
फोरम ने इस बात को लेकर भी सरकार को साफ चेता दिया है कि बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान की मूल भावना के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए. ज्ञापन सौंपने गए लोगों में पॉल दिवाकर, आशा गौतम, महेंद्र जी, राजेंद्र गौतम और कमल सिंह शामिल थे. पूरे कार्यक्रम के दौरान मौजूद रहे मुख्य लोगों में जेएनयू के डा. विवेक कुमार, व्यवसायी एवं वरिष्ठ समाजसेवी जय भगवान जाटव, विमल थोरात, अशोक भारती (नैक्डोर), डा. एस.एन गौतम, जयप्रकाश कर्दम, सहित तमाम वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे. पिछले दिनों उदित राज के बहुजन लोकपाल बिल के बाद दलित वर्ग के संगठन का यह दूसरा बिल है.
जंतर-मंतर पर आम सभा करने के बाद यह रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट की ओर कूच कर गई. इस दौरान पुलिसकर्मियों ने तीन जगह रैली को रोकने की कोशिश की लेकिन ‘भीम’ के बेटे और बेटियों के आगे पुलिस को हार मानना पड़ा. सभी पुलिसिया बैरिकेट्स को तोड़ते हुए रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट पर पहुंचीं, जहां जेएनयू के डा. विवेक कुमार ने सभा को संबोधित करते हुए पिछले दिनों जनलोकपाल को लेकर चले मुहिम को आंदोलन मानने से इंकार कर दिया. उन्होनें कहा कि आंदोलन विचारधारा से बनते हैं ना कि कुछ लोगों के बैठने से. अन्ना के अनशन को धिक्कारते हुए उन्होंने कहा कि वहां आरक्षण और बाबा साहेब के विरोध में नारे लग रहे थे. चेताया कि उसमें दलित समाज के भी युवा मौजूद थे और उन्हें अब चेत जाना चाहिए. चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि अगर ‘बाबा’ के बेटे जाग गए तो गांधी के बेटों को भागना पड़ेगा. साथ ही जोर दिया कि लोकपाल में सबकी आवाज शामिल होनी चाहिए. इस दौरान बेला ग्रुप ने शानदार नाटक किया.
फोरम द्वारा जिन पांच मुख्य मांगों को लोकपाल में शामिल करने की मांग की जा रही है, उनमें लोकपाल में दलितों के साथ जातीय, सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आधार पर भेदभाव को शामिल करने की मांग शामिल है. इसके अलावा मीडिया, कॉरपोरेट जगत, सरकारी अनुदान पर चल रहे स्वयं सेवी संगठनों (एनजीओ) सहित केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा वंचित समाज के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एससी/एसटी को उनकी संख्या के मुताबिक बजट न देने को भी लोकपाल बिल में भ्रष्टाचार मानने की सिफारिश की गई है. फोरम द्वारा सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा चलाने वाले लोगों को सामाजिक भ्रष्टाचार मानते हुए इस बिल में शामिल करने एवं न्यायपालिका, भूमि वितरण, पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों एवं अन्य स्वायतशासी संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे में लाने की मांग शामिल है.
फोरम ने इस बात को लेकर भी सरकार को साफ चेता दिया है कि बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान की मूल भावना के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए. ज्ञापन सौंपने गए लोगों में पॉल दिवाकर, आशा गौतम, महेंद्र जी, राजेंद्र गौतम और कमल सिंह शामिल थे. पूरे कार्यक्रम के दौरान मौजूद रहे मुख्य लोगों में जेएनयू के डा. विवेक कुमार, व्यवसायी एवं वरिष्ठ समाजसेवी जय भगवान जाटव, विमल थोरात, अशोक भारती (नैक्डोर), डा. एस.एन गौतम, जयप्रकाश कर्दम, सहित तमाम वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे. पिछले दिनों उदित राज के बहुजन लोकपाल बिल के बाद दलित वर्ग के संगठन का यह दूसरा बिल है.
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