जब कोई दमित समाज आगे बढ़ता है और दमन करने वालों को चुनौती देने लगता है तो कई तरह से उसके बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश की जाती है. उसे उसका हक नहीं दिया जाता, उसके साथ धोखा किया जाता है. ऐसे वक्त में समाज को अपने एक पहरुआ की जरूरत होती है, जो न सिर्फ उसके हितों को बताता है बल्कि उसे बचाता भी है. उसके लिए लड़ता है. नरेंद्र जाधव दलित समाज के ऐसे ही पहरुआ हैं, जो हर वक्त वंचित समाज को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे हैं. चाहे पुणे विश्वविद्यालय का कुलपति पद हो, रिजर्व बैंक में 31 साल तक पॉलिसी मेकर का काम हो, या फिर वर्तमान में योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य जैसी अहम जिम्मेदारी, शिक्षाविद एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जाधव जिस भूमिका में भी रहे दलितों के हित ढ़ूंढ़ते रहे.
1953 में महाराष्ट्र में जन्मे जाधव ने अपने बड़े भाई के मार्गदर्शन में शुरू में ही तय कर लिया था कि उन्हें पब्लिक सेक्टर में काम करना है. वजह था दलित समाज का उत्थान, जो सिस्टम में रहकर ही किया जा सकता था. इसी जुनून और जिद्द कि वजह से उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति का पद मिलने पर सालाना सवा करोड़ की नौकरी ठुकरा दी, ताकि दलितों से अमानवीय व्यवहार करने वाले पुणे शहर में समाजिक न्याय की मशाल जला सकें. तब उन्होंने जो किया वो इतिहास में दर्ज हो चुका है. फिलहाल वो सरकारी मंत्रालयों और राज्यों में दलित हित के फंसे हजारों करोड़ रुपयों को बाहर निकालने में लगे हैं. बीती उपलब्धियों और वर्तमान चुनौतियों पर ‘दलितमत.कॉम’ के संपादक अशोक दास ने उनसे विस्तार से बातचीत की. इस बातचीत के दौरान जाधव ने अपने परिवार के ऊपर लिखी किताब आमचा बाप आनू आम्ही के लिखे जाने की दिलचस्प कहानी का भी जिक्र किया. पेश है उनसे बातचीत ...... पूरा इंटरव्यूह पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
sir aap aage badho hum aap ke sath hai
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