हिंदी के मुख्य समाचार पत्र अमर उजाला में पिछले दिनों दलित मुद्दों को लेकर एक बहस चलाई गई थी. वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह का लखनऊ में आरक्षण के खिलाफ दिया बयान, प्रगतिशील लेखक संघ का काम आदि पर श्योराज सिंह बेचैन, मोहन दास नैमिशराय और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे दिग्गजों ने इस बहस में हिस्सा लिया था और अपना पक्ष रखा था. इसी कड़ी में जेएनयू के प्रो. तुलसी राम ने भी अमर उजाला की बहस में हिस्सा लिया था. तुलसी राम जी के लेख के बाद अखबार ने इस बहस को खत्म कर दिया और बात कुछ अधूरी सी रह गई. इसी बहस को हमने "दलित मत" पर आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है. इसी कड़ी में युवा लेखक, कवि और आलोचक कैलाश दहिया का लेख प्रस्तुत है. हम और लेखकों से भी इस बहस में हिस्सा लेने को आमंत्रित करते हैं.
संपादक
दलित मत
श्यौराज सिंह बेचैन जी का ‘मुर्दहिया’ से बेचैनी का तो पता नहीं, लेकिन राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह जरूर डॉ. धर्मवीर की महाग्रंथात्मक आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से आतंकित हैं, तभी तो वे अतार्किकता पर उतरे हुए हैं. वे इस बात से भी भयभीत हैं कि डॉ. धर्मवीर ने जारों की धर पकड़ क्यों की? तो क्या देश को गुलाम बनवाने वाले इन जारों को खुला ही छोड़ दिया जाता? वह सैनिक क्या लड़ेगा जिसे पता चले कि उसकी पत्नी जारकर्म में लिप्त है?
राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि विवाह संस्था की स्थापना के बाद ही जार अस्तित्व में आता है. वे जान लें कि विवाह ही नहीं राज्य, न्यायालय, मुद्रा और ऐसी ही ढ़ेरों संस्थाओं को इंसान ने ही बनाया है, और ये संस्थाएं विवाह संस्था के साथ-साथ ही अस्तित्व में आई हैं. वे इन्हें भी नकार दें. लेकिन नहीं, इन संस्थाओं का फायदा लेने को जार तत्पर रहता है, लेकिन विवाह संस्था को नहीं मानता. वह विवाह संस्था को तोड़ता है. राजेन्द्र जी की लेखनी की बात की जाए, क्या विवाह संस्था अभी पचास-सौ साल पहले ही अस्तित्व में आई है, जो वे अबोध बनकर ऐसी बातों पर उतरे हुए हैं? विवाह संस्था का इतिहास हजारों साल पुराना है, हां ‘जार’ को पहली बार व्यवस्थित रूप से डॉ. धर्मवीर ने पकड़ा है.
राजेन्द्र जी किन दलित महिलाओं की बात कर रहे हैं? वे महिलाएं जो जारकर्म की समर्थक हैं और जो कुछ भी कहने-सुनने की बजाय जूते-चप्पल चलाती हैं. उन्हें भी और सब जार सामर्थकों को बताया जा रहा है कि दलित चिन्तन में प्रेमचन्द की बुधिया को तलाक दे दिया है. वह ठाकुर के दरवाजे पर ‘जारकर्म की पैदाइश’ को लेकर खड़ी है. अब नामवर ही जाने की उसका क्या करना है. राजेन्द्र जी बार-बार कहते और लिखते हैं कि डॉ. धर्मवीर ने अनाप-शनाप लिखा है, लेकिन वह यह कभी नहीं बताते कि डॉ. धर्मवीर ने ऐसा क्या लिखा है? असल में राजेन्द्र जी ऐसा लिख कर पाठकों और श्रोताओं को भ्रमित करते हैं. जारों का पक्ष लेकर राजेन्द्र जी किसे बचाना चाह रहे हैं? इधर तुलसी राम जी ने स्वीकार कर लिया है कि वे जार समर्थक राजेन्द्र और नामवर के पक्ष में हैं. अब देखना दलितों को है कि वे डॉ. धर्मवीर की मोरेलिटी की परम्परा को मानते हैं या जारकर्म की तुलसी राम की? यही दलितों के अन्तर्विरोध हैं. वैसे अपनी आत्म कथा में तुलसी राम ‘जैविक खानदान’ की खोज में ही लगे हैं. हां, राजेन्द्र यादव जैसे लोग नहीं चाहते कि ऐसी खोज पूरी हो, क्योंकि फिर जार को अपनी अवैध सन्तान का भरण-पोशण करना पड़ेगा.
राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ. धर्मवीर को अपना गुरु मानते हैं इसलिए उनसे उनके मतभेद हैं. बेचैन जी अगर यादव जी को अपना गुरु मान लेंगे तो ये मतभेद खत्म! कैसी बालकों जैसी जिद कर रहे राजेन्द्र जी? फिर वे कैसे कह रहे हैं कि नामवर जी के बारे में बेचैन जी ने मनगढ़ंत बातें कही हैं? लगता है उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ जलसे में नामवर द्वारा दिए भाषण की खबरें नहीं पढ़ी. जहां तक तुलसी राम जी की आत्म कथा की बात है तो उस से डॉ. धर्मवीर और बेचैन जी की छोड़िए, कोई भी दलित क्यों आतंकित होगा? हां, मुर्दहिया की डॉ. धर्मवीर द्वारा ‘बहुरि नहिं आवना’, में लिखी समीक्षा से जरूर नामवर और राजेन्द्र आतंकित हैं. डॉ. धर्मवीर ने मुर्दहिया में ‘द्विज जार परम्परा’ को पकड़ लिया है. जहां तक प्रेमचंद की बात है तो गैर दलितों से आग्रह है कि वे डॉ. धर्मवीर की ‘प्रेमचंदः सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ पढ़ कर ही बात करें.
लखनऊ में नामवर सिंह ने दलितों के आरक्षण पर विरोध जताया, उन्होंने कहा कि ‘इसी तरह आरक्षण दिया जाता रहा तो ब्राह्मण-ठाकुर भीख मांगते नजर आएंगे.’ नामवर के इस वक्तव्य पर राजेन्द्र जी क्या कहेंगे? नामवर जी इस जिद पर भी अड़े हैं, कि गैर दलित भी दलित साहित्य लिख सकते हैं. दलितों द्वारा उनके आरक्षण विरोध की आलोचना पर उन्होंने यह कहकर अपनी ही बात को झुठलाया कि वे तो ‘साहित्य में आरक्षण के विरोध की बात कर रहे थे.’ उनके जैसे कद के आदमी से ऐसे पलटने की उम्मीद नहीं थी. वे अपनी बात स्वीकार कर लेते और माफी मांग लेते तो क्या हो जाता? नामवर जी बताएं कि गैर दलितों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य में किसका आरक्षण रहा है? दलित ने कभी नहीं कहा कि वह गैर दलित साहित्य लिखेगा, तब इनकी जिद क्यों है कि वे दलित साहित्य लिखेंगे? नामवर जी ये क्यों नहीं कह रहे कि वे अफ्रीकी या लातीनी साहित्य लिखेंगे. दलित लेखन की जिद क्यों? जैसे गैर दलित साहित्य की समझ नामवर जी को है, वैसे ही दलित साहित्य डॉ. धर्मवीर की कलम से निकलता है. दलित साहित्य लेखन की अनिवार्य शर्त है ‘जारकर्म का विरोध.’ दलित साहित्य की जिद कर रहे गैर दलित जारकर्म के विरोध में लिखें तो उन्हें दलितों का समर्थक माना जा सकता है, लेकिन वे ऐसी बात घर में ही छुपाने को कह रहे हैं, फिर वे कैसे दलित साहित्य लिखेंगे?
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लेखक युवा कवि, आलोचक एवं कला समीक्षक हैं. दलित मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं. उनसे संपर्क उनकी मेल आईडी kailash.dahiya@yahoo.com और उनके मोबाइल नंबर 9868214938 पर किया जा सकता है.