मराठवाड़ा विद्यापीठ के नामांतर के लिए किया गया लांग मार्च दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मार्च था. 31 साल बीत जाने के बावजूद उस ऐतिहासिक आंदोलन का अभी भी पूरी तरह से पटाक्षेप नहीं हो पाया है. आंदोलनकारियों का कानूनी संघर्ष का दौर जारी है. आंदोलन से जुड़े लोग अब भी उस काली रात को नहीं भूल पाए हैं, जब सोये हुए आंदोलनकारियों पर लाठियां भांजी गई थीं. औरंगाबाद में मराठवाड़ा विद्यापीठ को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम देने को लेकर विवाद था. मराठवाड़ा में उन दिनों दलितों को शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. उपाधि महाविद्यालय, हैदराबाद की विद्यापीठ से संलग्न थे. ऐसे में औरंगाबाद के नागसेनवन में पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी का शिक्षा क्षेत्र में सराहनीय कार्य था. सोसायटी के तहत कई महाविद्यालय चल रहे थे. उसी के प्रयास से औरंगाबाद में नई विद्यापीठ की नींव रखी गई थी.
27 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र विधानसभा ने औरंगाबाद की विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर विद्यापीठ रखने का प्रस्ताव मंजूर किया. उसी दिन मराठवाड़ा में असंतोष उमड़ पड़ा. कहा जाने लगा कि विद्यापीठ को समुदाय विशेष की विद्यापीठ बनाने का प्रयास किया गया है. इसे अन्य समाज वर्ग की प्रतिष्ठा का सवाल भी बनाया गया. गुस्सा व्यक्त करते हुए दलितों पर हमले किये गए. बस्तियां जलाई गईं. महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार हुआ. हिंसा में कुछ लोगों की जान गई. 11 दिनों तक असंतोष का बवंडर छाया रहा. उस पर काबू पाने में तत्कालीन शरद पवार सरकार भी हतबल साबित हो रही थी. देखते ही देखते वह मसला आम समाज की चिंता का विषय बन गया. समाजसेवी, जनप्रतिनिधि, विधि व पत्रकारिता क्षेत्र के लोगों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सब अनसुनी थीं. ऐसे में नागपुर में नामांतर आंदोलन ने करवट ली. सरकार के प्रस्ताव को अमल में लाने की मांग को लेकर लोग लामबंद हुए. रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन युवा नेता प्रा. जोगेंद्र कवाड़े ने आंदोलन की कमान संभाली.
डॉ. कवाड़े का परिवार रिपब्लिकन राजनीति से जुड़ा था. उनके दादा पंडित रेवाराम कवाड़े व पिता लक्ष्मणराव कवाड़े ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साथ सक्रिय राजनीति में काम किया था. रेवाराम कवाड़े, शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के विदर्भ के अध्यक्ष थे. लक्ष्मणराव नागपुर इकाई के कोषाध्यक्ष थे. प्रा. कवाड़े के साथ दलित आंदोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता आए. 4 अगस्त 1978 को आंदोलन का आगाज हुआ. प्रा. कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि से जिलाधिकारी कार्यालय तक मोर्चा निकाला गया. आकाशवाणी चौक में बड़ी सभा हुई. उसमें बड़ी संख्या में छात्र शामिल हुए. सभा के बाद लोग उत्साहपूर्ण अपने घरों की ओर लौट रहे थे, तभी उत्तर नागपुर के 10 नंबर पुलिया चौक पर अचानक हिंसा भड़क उठी. कुछ असामाजिक तत्वों ने सरकारी बसों पर पत्थर फेंके. हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. चंद मिनटों के फासले में वहां 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कइयों को गंभीर जख्मी अवस्था में मेयो, मेडिकल अस्पताल भिजवाया गया. नागपुर में कर्फ्यू लग गया. अखबारों में माध्यम से घटना की खबर फैली तो देश भर में दलित अत्याचार रोकने के स्वर गूंजने लगे. तब नागपुर से औरंगाबाद लांग मार्च ले जाने की घोषणा की गई. दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु से दलित आंदोलनों से जुड़े लोग यहां आने लगे.
उसी वर्ष दीक्षाभूमि पर धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह से लांग मार्च की शुरुआत हुई. बौद्ध पंडित भदंत आनंद कौशल्यायन ने आशीर्वाद दिया. दीक्षाभूमि की मिट्टी माथे से लगाकर आंदोलनकारी औरंगाबाद के लिए रवाना हुए. लांग मार्च को विदायी देने मेला सा लगा हुआ था. नागपुर की बाहरी सीमा तक वर्धा मार्ग पर हजारों लोग स्वागत मुद्रा में खड़े थे. हर उम्र के लोग उसमें शामिल थे. 30 किमी प्रतिदिन पैदल चलते हुए इस मार्च ने 18 दिनों में 470 किमी का सफर तय किया. पैदल मार्च की खबर अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी. गांव-गांव में स्वागत व विश्राम के स्थान तय किये गए थे. लोगों ने स्वागत कमेटियां बना रखी थीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. बावजूद इसके लांग मार्च में गांव के गांव शामिल होने से संख्या बल काफी बढ़ने लगा था. औरंगाबाद में संभावित स्थिति को लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई थी. माना जा रहा था कि लांग मार्च के पहुंचने से औरंगाबाद में वर्ग संघर्ष होगा. आंदोलन के विरोध में मुंबई से बयान आने लगे थे.
27 नवंबर की बात है. आंदोलनकारी खड़कपूर्णा नदी तक पहुंच गए. औरंगाबाद से 100 किमी पहले सिंधखेड़राजा तहसील के दूसरबीड़ राहेरी गांव के पास वह नदी है. नदी पर अर्धसैनिक बल के साथ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी. गृहमंत्रालय का आदेश था कि आंदोलनकारियों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया जाए. औरंगाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक नदी पर तैनात थे. दोपहर में ही आंदोलनकारियों को रोक लिया गया था. उन्हें वापस जाने के लिए कहा जा रहा था, लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े थे. संयोग से उस दिन बारिश भी हो रही थी. हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे. पुल पर ही धरना पर बैठ गए. रात 12 बजे के बाद लाठीचार्ज शुरू हुआ. पुल के खाईनुमा छोरों को लांघकर आंदोलनकारी झुड़पी क्षेत्र में भागे. कइयों ने गहरी नींद में लाठी खायी. प्रा. कवाड़े समेत सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के दौर में मासूम छात्र-छात्राओं को भी जेल जाना पड़ा. बड़ी संख्या में महिलाओं ने गिरफ्तारी दी. अमरावती, वाशिम, अकोला, औरंगाबाद व नागपुर की जेल भर गई.
मार्च में अग्रक्रम में रहे आंदोलनकारियों को विभिन्न जेलों में डाला गया. प्रा. कवाड़े पर राज्य के 22 जिले में जाने व भाषण देने पर पाबंदी लगायी गई. 2 माह तक उन्हें मुंबई प्रवेश पर भी पाबंदी लगायी गई. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रकरण दर्ज किये गए. आंदोलन धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी नजर आने लगा. आगरा, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद में मोर्चे निकाले गए. 16 वर्ष ताकत आंदोलन के समर्थन में सभाओं, मोर्चो का दौर चला. बार-बार गिरफ्तारियां हुईं. आखिरकार, नामांतर के लिए सकारात्मक पहल हुई. दोनों पक्षों की मांग को ध्यान में रखते हुए निर्णय आया कि विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विद्यापीठ रखा जाए. 14 जनवरी 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने विद्यापीठ का नामांतर किया. उसके साथ ही नांदेड में स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विद्यापीठ की स्थापना की गई. राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज प्रकरण वापस लेने की पहल की. अदालत में अर्जी भी की गई, लेकिन कानूनी तकनीकी पेंच के चलते अभी भी आंदोलनकारियों को पूरी तरह से राहत नहीं मिली है. उनके विरुद्ध दर्ज प्रकरण अभी भी चल रहे हैं. प्रा. कवाड़े मानते हंर कि अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध दलितों को तैयार करने की दिशा में यह आंदोलन कारगर साबित हुआ. आंदोलन के बहाने अलग-अलग समुदाय के लोग पास आये.
साभारः दैनिक भास्कर
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