Tuesday, October 18, 2011

रोटी की तलाश में भटकती जनजातियां

हम तकनीकी सेवा में का़फी आगे निकल गए हैं. प्रगति के लिए भारत का नाम दुनिया के गिने चुने देशों में आता है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है. हमें अपने देश पर गर्व होता है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बेशक हमने तरक्क़ी कर ली है, लेकिन क्या हम देश के पिछड़े लोगों को उनका हक़ देने में कामयाब हुए है? क़तई नहीं, जबकि विश्व में भारत की लोकतंत्र के लिए एक अलग पहचान है. देश में आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हो रहा है. ऐसी कई जनजातियां हैं जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है, क्योंकि सरकार में उनका प्रभाव नहीं है. शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इन जातियों के लोगों में एकजुटता नहीं है.
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.

साभारः चौथी दुनिया

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