Thursday, September 29, 2011

संजीव खुदशाह के ''तुष्टिकरण'' पर डी एम एम का जवाब

गत 17 सितंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ‘जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार’ विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया. इसके बाद कथाकार, लेखक एवं समीक्षक संजीव खुदशाह ने इस कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए आयोजक डी एम एम (दलित मुक्ति मोर्चा) पर कई सवाल उठाए थे. संजीव के सवालों के बाद काफी बवाल मचा था और इस पर कई प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थी. डी एम एम ने संजीव खुदशाह के आरोपों का जवाब देते हुए दलित मत को एक पत्र भेजा है, जिसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं. (संजीव खुदशाह का आरोप पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

संपादक

आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,

सादर जय भीम!

आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.

क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,


मधुकर गोरख विभीषण पात्रे

अध्यक्ष महासचिव

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