Thursday, March 31, 2011

खेल में दलित जीता तो दंबगों ने की मारपीट

जब सारा देश भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे सेमीफाइनल मुकाबले के खुमार में डूबा हुआ था, उसी वक्त एक दलित खिलाड़ी राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था. गांव के ही एक दबंग समुदाय के पहलवान को पटक देने के कारण दलित पहलवान और उसके पूरे परिवार के साथ मारपीट की गई थी. पुलिस की शरण में जाने पर अब परिवार पर समझौता के लिए दबाव बनाया जा रहा है, साथ ही समझौता नहीं करने पर अंजाम भुगतने और मिर्चपुर जैसा दूसरा कांड करने की धमकियां मिल रही है.

घटना रोहतक जिले के बोरम गांव की है. आयोग पहुंचे लोगों ने बताया कि 19 मार्च को गांव में कुश्ती थी. एक कुश्ती वाल्मीकी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले अमित और गुर्जर समुदाय के पैना पहलवान के बीच हुई. इसमें अमित पहलवान ने पैना पहलवान को पटक दिया. गांव के गुर्जरों और जाटों को यह बात हजम नहीं हुई कि वाल्मीकी जाति के एक पहलवान ने गुर्जर को हरा दिया. कुश्ती के तुरंत बाद मारपीट की नौबत आ गई लेकिन गांव वालों की मौजूदगी में तब मामला टल गया. लेकिन जाट और गुर्जर इस हार को पचा नहीं पाए. दूसरे दिन 20 मार्च को जब अमित अपने कुछ दोस्तों के साथ बाइक से जा रहा था तो गुर्जर और जाटों ने रास्ते में घेरकर उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया. घरवाले घायलों को करनौल के सरकारी अस्पताल ले गए लेकिन इनकी स्थिति देखकर उन्हें पीजीआई रोहतक में रेफर कर दिया गया. उधर उसी दिन शाम को जाटो और गुर्जरों ने हथियारों से लैस होकर एक बार फिर वाल्मीकी बस्ती पर हमला कर दिया और महिलाओं और घर पर मौजूद अन्य लोगों से मारपीट की. वो उन्हें तब तक मारते रहे, जब तक की वो बेहोश न हो गए.

अपने साथ दुबारा हुई मारपीट के बाद वाल्मीकी समुदाय के लोगों ने कलानौर के थानाध्यक्ष से मिलकर इसकी शिकायत की. लेकिन उसने मामला दर्ज करने से मना कर दिया. पीड़ित वाल्मीकियों ने इस संबंध में रोहतक के एसपी और आईजी से भी मुलाकात की लेकिन दबंगों के संरक्षक बनकर बैठे पुलिस वालों ने कोई कार्रवाई नहीं की गई. यहां तक की उन्होंने देर शाम को वाल्मीकी बस्ती में गुर्जरों और जाटों द्वारा किए जाने वाले मारपीट की एफआईआर तक लिखने से मना कर दिया. और तो और अमित पहलवान के साथ मारपीट की जो पहली रिपोर्ट लिखी गई है, उसमें पुलिस ने मुख्य अभियुक्त का नाम नहीं लिखा है. इधर, मामले को बढ़ता देख दबंगों ने अब वाल्मीकी समुदाय के लोगों को धमकाना शुरू कर दिया है. इन लोगों को मामले में समझौता करने के लिए हर रोज धमकियां मिल रही हैं. ऐसा नहीं करने की स्थिति में उनसे अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा जा रहा है. आयोग पहुंचे वाल्मीकी समुदाय के लोगों ने बताया कि जाट और गुर्जर समुदाय के लोग वाल्मीकी बस्ती में आकर मिर्चपुर जैसा दूसरा कांड करने की धमकी दे रहे हैं. इससे समुदाय के लोग बहुत डरे हुए हैं और उन्होंने आयोग के वाइस चेयरमैन राजकुमार वीरका से मिलकर न्याय की गुहार लगाई है.

Wednesday, March 30, 2011

जब सारा देश क्रिकेट के खुमार में डूबा था, एक दलित खिलाड़ी अपनी फरियाद लेकर राष्ट्रीय दलित आयोग में पहुंचा था. रोहतक से आए इस खिलाड़ी और उसके समूचे परिवार को महज इसलिए पीटा गया क्योंकि उसने अपने गांव में कुश्ती की एक प्रतियोगिता में दबंग समुदाय के एक पहलवान को पटक दिया. क्या दलितों को जीतने का हक भी नहीं है?

कितना उचित है 'दलित ईसाई' को आरक्षण का लाभ

मार्च के दूसरे हफ्ते में मुंबई स्थित एक ईसाई संगठन कैथोलिक सेक्युलर फोरम (सीएसएफ) ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से मुलाकात कर अनुसूचित जाति को मिलने वाला लाभ दलित ईसाईयों और मुसलमानों को भी देने की मांग की है. इस प्रतिनिधिमंडल में दिल्ली के आर्कबिशप विंसेंट कोनसिसानो, न्यायाधीश मिशेल सैदाना, सीएसएफ महासचिव जोसेफ डियाज और ट्रूथ सीकर्स इंटरनेशनल के अध्यक्ष सुनील सरदार शामिल थे. खबर है कि प्रधानमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल से कहा कि इस बारे में गंभीरता से विचार किया जा रहा है.

प्रधानमंत्री के साथ ईसाई संगठन की इस बैठक और उसके बाद प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया ने कई सवाल उठा दिए हैं. दलित समुदाय को अपने आरक्षण के बंटवारे का डर सताने लगा है. असल में ईसाई संगठन सरकार को ब्लैकमेल करने की नीति अपना रहा है. प्रधानमंत्री से मुलाकात में आर्कबिशप विंसेंट का कहना था कि दलित ईसाईयों और मुसलमानों को अनुसूचति जाति का दर्जा दिए जाने पर तुरंत काम करने की आवश्यकता है. इसे लेकर दुविधा की स्थिति में होने से अल्पसंख्यकों में नकारात्मक संदेश जा रहा है. कांग्रेस पार्टी शुरू से ही अल्पसंख्यकों की राजनीति करती रहती है. ऐसे में मुसलमान हो या फिर ईसाई, दोनों उसके लिए ठोस वोट बैंक हैं. कुछ राज्यों में इस वोट बैंक के अपने से अलग होने के बाद कांग्रेस पार्टी इसे साधने की कोशिश में ईसाई संगठन की मांग को अमलीजामा पहना सकती है. कांग्रेस की सरकार पहले भी इस संबंध में अपनी बात कहती रही है. पहले हुई सुनवाई में केंद्र ने कहा था कि आयोग की उस रिपोर्ट का अध्ययन किया जाएगा, जिसने आरक्षण का लाभ देने के लिए दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर विचार किया था. केंद्र ने कहा था कि अपनी राय देने के पूर्व वह राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट का अध्ययन करेगा.

इधर, इस पूरे मामले में दलित वर्ग को अब अपने आरक्षण में सेंधमारी की चिंता सताने लगी है. दलित होने के दाग से पीछा छुड़ाने की कोशिश में धर्म परिवर्तन करने वाले लोग अब वापस आकर दलितों के हक को छिनना चाहते हैं. कथित तौर पर सामाजिक रूप से संपन्न होने के बाद अब ये लोग आरक्षण के जरिए आर्थिक संपन्नता को पाने की जुगत में जुट गए हैं, जिस पर वास्तव में सिर्फ दलित समुदाय का हक है, जो तमाम सामाजिक उपेक्षाओं के बावजूद भी धर्म परिवर्तन करने की बजाए उससे लड़ता रहा. बिना किसी विदेशी बैसाखी के सहारे के उसने अपने बूते शिक्षा हासिल की और कहीं खुद के बूते तो कहीं आरक्षण के माध्यम से नौकरी हासिल कर अपनी स्थिति को लगातार सुधारा और अपनी प्रतिभा और योग्यता को साबित किया है. वास्तव में आरक्षण पर दलित समाज का हक है, जिस पर काफी पहले से ही ईसाई धर्म अपना कर भगोड़ा साबित हो चुके लोगों की नजर पड़ने लगी थी.

यह मामला अदालत में भी है. तमाम पक्षों ने इसे अदालत में उठाया हैं. इस संबंध में आई कई याचिकाओं में हिंदू धर्म से अन्य पंथों में धर्मांतरण करने वाले दलितों को आरक्षण का लाभ दिए जाने के कदम का विरोध किया गया है. जनवरी में उच्चतम न्यायालय आरक्षण का लाभ मुहैया कराने के लिए दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के मुद्दे को ‘संवदेनशील और महत्वपूर्ण’ करार दे चुकी है. शीर्ष न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने खुद जरूरत पड़ने पर इस मामले पर विचार के लिए मामले को बड़ी पीठ को सौंपने की बात भी कही थी. साथ ही इस मुद्दे को संवेदनशील बताया था. अब तक इस मुद्दे पर अदालत की भूमिका काफी सराहनीय और गंभीर रही है. अदालत ने धर्म परिवर्तन के कारण और स्थिति पर गौर करने पर भी खासा जोर दिया है. अदालत ने यह भी कहा है कि इस मुद्दे को देखते हुए जाति के अर्थ को उचित तरीके से समझने की जरूरत है.

अदालत का यह कहना अपने आप में बिल्कुल सही है. अगर हम धर्म परिवर्तन के सिद्धांत को समझने की कोशिश करें तो आरक्षण में हिस्सेदारी का दावा कर रहे लोगों की हकीकत खुद ब खुद उजागर हो जाएगी. असल में ईसाई धर्म और इस्लाम में जाति की कोई अवधारणा नहीं है. हालांकि भारतीय समाज में इस्लाम इससे अछूता नहीं है, लेकिन सार्वजनिक रूप से वह जाति की अवधारणा का विरोध करता है और मुसलमान को एक बताता है. ईसाई धर्म तो जाति के सिद्धांत से बिल्कुल अछूता है. ऐसे में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके लोगों द्वारा खुद को दलित बताना कई सवाल खड़े करता है. जनवरी में इस मामले में हुई सुनवाई में केरल के एक जनजातीय समुदाय की ओर से पेश वरिष्ठ वकील पिंकी आनंद ने समुदाय की ओर से आरक्षण का विरोध किया था. पिंकी का कहना था कि ईसाई धर्म में जाति की कोई अवधारणा नहीं है. ऐसे में साफ सवाल उठता है कि जब ईसाई धर्म में जाति की कोई अवधारणा ही नहीं है तो फिर इस धर्म को अपना चुका कोई व्यक्ति खुद को दलित कैसे कह सकता है. असल में यह दोमुही बात है और सारा बखेड़ा आरक्षण लेने का है.

Monday, March 21, 2011

Why is DICCI needed

Before understanding as to why Dalits needed a DICCI (Dalit Indian Chambers of Commerce and Industry), let’s ask why the mainstream India businesses needed a FICCI (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry).
Founded in 1927, one of the largest business bodies of the mainstream Indian business, by its own admission, FICCI is “the voice of India’s business and industry”. With about a hundred thousand member companies, FICCI is connected with about 79 business councils globally. According to a source, Gandhiji had inspired GD Birla to establish this premier body. Apart from promoting businesses and intervening in Government’s policies, FICCI’s history is ‘closely interwoven with India’s struggle for independence’.
FICCI apart, there are so many other bodies that Indian businesses have created. The most prominent and less conservative is Confederation of Indian Industry (CII). Founded in 1895, CII is the oldest business body. In 1895, it was named as Engineering and Iron Trade Association. With a membership of 9,000, CII has 64 offices in India and seven abroad. Like FICCI, the CII too plays a role in shaping India’s economic policies.
The FICCI and CII apart, there are a host of other business organisations too representing Indian businesses. The Associated Chambers of Commerce and Industry of India (ASSOCHAM) is another premier business body representing Indian businesses. Founded in 1920, the ASSOCHAM with its 2,00,000 member companies plays a critical role in promoting Indian businesses and impacting economic policies of the State.
The FICCI, CII, ASSOCHAM apart, there are thousands of regional and local trade bodies working on similar lines.
If the mainstream Indian businesses need business organisations, why should not Dalits have their own business bodies? But the question is: Why shouldn’t Dalit businesses too become part of bodies such as FICCI, CII, and ASSOCHAM? Sounds good, but the answer to the question as to why Dalits should have their own business body like DICCI lies somewhere else. Let us take the case of the US and its Black-owned businesses.
As the hub of global capitalism, the US is home to the world’s biggest business organisations. Yet, the Blacks had to create their own business bodies. As early as 1900, the National Negro Business League had come into being. Still in operation and renamed in 1966 as the National Business League, the organisation is a platform of Blacks’ business renaissance. It is interesting to note that the Negro Business League predates the United States Chambers of Commerce by 12 years. This thriller movie like situation — of the Blacks forming a business body before the Whites — did deserves a separate column.
With a 100,000 members, the National Black Chamber of Commerce is the premier Blacks’ run business body. Do a Web search, and one will find hundreds of Black business associations. Almost in every city, each State, and in each area, there are a number of Black trade and business bodies. In fact, there is a Black Bankers Association as well.
Trying searching Black manufacturers, and there will be endless results — Black Automobile Manufacturer Association, Black Apparel Manufacture Association, Black Builders Association, to name a few.
Try searching Black Women Business Association, and one is led to a host of websites detailing how Black Women entrepreneurs have their own organisation. Blacks are that ahead of us.
In India, DICCI is just half a decade young. In such a short span of time, DICCI has begun making impact. The leading mainstream business bodies like FICCI and CII now recognise DICCI as a credible body of Dalit businesses. Dalit entrepreneurs from all over India are approaching DICCI’s headquarters in Pune. There are requests from several States with offers of launching DICCI chapters.
But, another question is: Why did Dalits take so much time in launching their business organisation? With multiple layers of discriminatory regimes, social issues have dominated Dalit movements. Economic issues should have been the next. But politics preceded economics. Maybe, it is logical as political empowerment is equally critical.
The way India’s mainstream society needed FICCI and CII, Dalits needed DICCI. Pune’s Milind Kamble took that call and launched a new slogan — “From job seekers, let us turn into job givers”. For good, with DICCI, a new chapter has opened in the history of Dalit movement — extension of Ambedkarism to the 21st Century.

March 21,2011
Chandrabhan Prasad
coutsy: the pioneer

Sunday, March 13, 2011

‘चौराहे पर आ रहे हैं चमरौटी के लोग’

जेएनयू आने के पहले विवेक कुमार ने सोचा भी नहीं था कि वह दलित चिंतक के तौर पर जाने जाएंगे. मन में समाज के प्रति काम करने का जज्बा और इच्छा इतनी थी कि सरकारी अधिकारी की नौकरी भी रास न आई. सब छोड़-छाड़ कर दुबारा जेएनयू पहुंचे तो गुरु नंदू राम का साथ मिला. उन्होंने प्रेरित किया तो विवेक कुमार की कलम चलने लगी. बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार होता गया और कलम की गति और ताकत बढ़ती गई.
तब से अबतक 20 साल हो गए, जब वो न सिर्फ अपने लेखन से दलित मुद्दों को उठा रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी दलित समाज की आवाज को बुलंद रखे हुए हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डा. विवेक कुमार से दलितमत.कॉम ने विभिन्न विषयों पर बात की, पेश है उसके अंश...

आपका जन्म किस शहर में हुआ, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ?
- जन्म लखनऊ में हुआ, शहर में. वहीं छोटे स्कूल में पढ़ाई शुरू की. शाहनगर रोड पर मिला-जिला स्कूल था. बहन वहीं जाती थी. पांच साल बाद पिताजी का ट्रांसफर बिजनौर के अफजलगढ़ में हो गया. तीन साल वहां टाट की पट्टियों पर बैठकर पढ़ाई की. सेठे का कलम, खड़िया वाली रोशनाई से पढ़ना शुरू किया. एक टीचर थी, निर्मला मिश्रा. वो बहुतमारती थीं. क्यों मारती थी, पता नहीं. आस-पास के बच्चे भी जाति जानते थे, सो उसी तरह का व्यवहार हुआ. पिताजी ने देखा की बहुत ज्यादती हो रही है तो फिर लखनऊ भेज दिया. यहां बीए तक पढ़ा. फिर एमए में जेएनयू आ गए. एमफिल, पीएचडी की. एक साल तक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में पढ़ाया. बीच में सरकारी नौकरी कर ली. यूपी सरकार की प्रशासनिक सुधार में शोध अधिकारी था. नौकरी यूपीएससी से मिली थी. मन नहीं लगा तो नौकरी से रिजाइन करके फिर से जेएनयू आ गया.

रिजाइन करने की वजह क्या थी?
- क्योंकि जेएनयू से पीएचडी था और मन बड़ा व्यथित रहता था. सरकारी नौकरी में माहौल बड़ा अजीब था. ज्ञान की कोई खपत नहीं थी. काम के नाम पर केवल फाइल आगे बढ़ानी थी. तब नौकरी मजबूरी थी, क्योंकि पिताजी रिटायर होने के बाद डिप्रेशन में थे. मैं बड़ा लड़का था तो जिम्मेदारी निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ी. लेकिन एक ललक थी कि पीएचडी जरूर करूंगा.

दलित चिंतन की ओर कब रुख किया?
- इसमें जेएनयू ने बहुत बड़ा रोल प्ले किया. जब यहां पहुंचे तो पता चला कि किसी दिशा में नहीं सोच पा रहे हैं. दलितों के प्रति रुझान बहुत था लेकिन एक दलित चिंतक के तौर पर सोचूंगा, इसका पता नहीं था. लेकिन जेएनयू आने के बाद यहां का जो माहौल मिला, उसमें सरोकार नजर आने लगे. तब मंडल कमिशन के कारण रेखाएं साफ खिंच गई थी कि कौन किस पाले में है. हमलोगों को कोई संरक्षण नहीं था. तब एमए में था. उसी दौरान बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार हुआ. उनके वाल्यूम आने लगे थे. गौतम बुक स्टॉल वाले तब अपने कंधे पर किताब पहुंचाने आते थे. मैं उनकी इज्जत इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने तब बाबा साहेब के साहित्य को लोगों तक पहुंचाया था. थोड़ा रुक कर जोड़ते हैं... (हालांकि आज बड़े धनाढ़्य हो गए हैं और सबको गलियाते हैं.) तो.. वहां से लेखन शुरू हुआ. फिर एमफिल करने के दौरान गुरु श्री नंदू राम जी के संपर्क में आने से पढ़ने-लिखने का माहौल बना. अखबारों में लेख लिखने लगा. लोगों से मिलना-जुलना, बातें करनी शुरू की. इस तरह से शुरुआत हुई.

आपने जब दलित मुद्दों पर लिखना-सोचना शुरू किया, तब से अब तक 20 साल हो गए हैं. यह सफर आज कहां तक पहुंचा है?
- देखिए, शुरुआत मैने एक छोटे से प्रश्न से की थी. मैने देखा था कि आंदोलन में लीडरशिप निर्णायक भूमिका अदा करता है. इसके लिए मैने दलित लीडरशिप का अध्ययन किया कि यह कैसे दलितों के उत्थान और पतन के लिए उत्तरदायी है. यहां देखा कि लीडरशिप में क्राइसेस (संकट) है. बाबा साहब को पढ़ने से लीडरशिप की क्राइसेस नजर आने लगी. बाबा साहब का वह कथन बार-बार उद्वेलित करता था कि ‘बड़ी मुश्किल से मैं कारवां यहां तक लाया हूं, मेरे अनुयायी अगर इसे आगे न ले जा पाएं तो उसे वहीं छोड़ दें, लेकिन किसी हालत में यह पीछे नहीं जाना चाहिए.’ तब मैने लीडरशिप की तीन क्राइसेस चिन्हित की. सबसे पहला अस्मिता का संकट था. दलित समाज की अस्मिता एकबद्ध नहीं हो पा रही थी. दूसरा संकट विचारधारा का था. बहुत भटकाव था. तीसरा संकट गठबंधन का था कि किस तरह गठबंधन करें. उसी वक्त देखा कि मान्यवर कांशीराम का उदय हो रहा होता है. तभी आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी और लगा कि लीडरशिप अब सही हाथों में पहुंच गई है.

आज के लोकतंत्र में दलित कहां खड़ा है?
- अगर जनतंत्र यानि डिमोक्रेसी की बात करें तो मैं इसे उत्तर प्रदेश में लागू होते हुए देखता हूं. वहां पाता हूं कि यूपी में डिमोक्रेसी दलितों के लिए दोधारी तलवार है. एक तरफ जहां वह दलितो को अधिकार देती है, वहीं दूसरी ओर उनके आंदोलन में अवरोध भी खड़े करती है. जैसे बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन में बार-बार अवरोध खड़ा किया गया. उसे तोड़ा गया, खरीदा-बेचा गया. पीएचडी करने के दौरान देखा था कि दलित आंदोलन के राजनैतिक पक्ष ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत किया है. इतने बड़े विशालकाय समूह, जिसको अधिकारों से वंचित किया गया, उसके अपने आत्मनिर्भर दल बनें और यह भारतीय जनतंत्र में रच-बस गया. आज हम सिर्फ वोट बैंक की राजनीति में नहीं हैं, बल्कि हम अपने लीडर खुद बनने लगे हैं. हम स्वआत्मनिर्भर प्रतिनिधित्व की तरफ बढ़ चुके हैं. आज दलित आंदोलन केवल एकपक्षीय नहीं रह गया है. वह केवल राजनीति या फिर आरक्षण की बात नहीं कर रहा है. उसके सात आयाम दिखाई पड़ने लगे हैं. सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्य, कर्मचारियों का आंदोलन, दलितों के स्वयंसेवी संगठनों का आंदोलन, दलित महिलाओं का आंदोलन और सातवां अप्रवासी भारतीय आंदोलन. ये सात छटाएं दिखाई देने लगी है. दलित आंदोलन आगे बढ़ा है और यह परिपक्व और मजबूत हुआ है.

बीएसपी की राजनीति को आप बहुत पास से देखते रहे हैं. दलित हित में यह अन्य दूसरी पार्टियों से अलग कैसे हैं?
- दलित राजनीतिक आंदोलन को सीधे-सीधे दो फाड़ों में बांट कर देखा जा सकता है. एक है निर्भर दलित आंदोलन, और दूसरा है आत्म-निर्भर दलित आंदोलन. निर्भर आंदोलन सवर्ण समाज द्वारा पल्लवति होता है और यह यहां दलित मुख्य पार्टियों के एससी, एसटी सेल में पाएं जाते हैं. जैसे ही सेल की बात आती है, यह साफ हो जाता है कि वह मुख्यधारा में नहीं हैं. उनकी भाषा, विचारधारा सब परतंत्र हो जाती है. वो अपने लिडरों के कहने पर चलते हैं. लिडर कहते हैं- बैठ जाओ तो बैठ जाते हैं, कहते हैं-खड़े हो जाओ, तो खड़े हो जाते हैं. वह निर्भर राजनैतिक दलित आंदोलन है. लेकिन इसके विपरीत एक आत्म निर्भर राजनैतिक आंदोलन है, जिसकी नींव बाबा साहेब ने इंडिपेंडेंटन लेबर पार्टी से डाली. बाद में शिड्यूल कॉस्ट फेडरेशन बनाया और आरपीआई की नींव डाली. इस आंदोलन की विशिष्ट प्रवृति है. इसके लीडर अपने स्वतंत्र एजेंटा और विचारधारा के साथ अपनी पार्टी बनाते हैं और उसमें अपनी भाषा, अपने नारे सब रखते हैं. इस रूप में आप देखेंगे कि स्वप्रतिनिधित्व गणतंत्र की जान होती है. ‘जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई-उसकी अगुवाई’ यह जनतंत्र का मूलमंत्र होना चाहिए और यही बाबा साहब चाहते थे. इसका मतलब यह हुआ कि हम भी कानून बना सकते हैं. क्योंकि भारत वर्ष में समाज की चेतना का नितांत अभाव है और यहां के लोग जातीय चेतना से जीते हैं. इसलिए दलितों की चेतना, पिछड़ों की चेतना, अक्लियतों की चेतना स्वयं अपना प्रतिनिधित्व चाहती है.

कुछ लोगों का आरोप है कि बसपा पर सवर्णों का कब्जा हो गया है. सरकारी आंकड़ों का जिक्र करें तो कहा जा सकता है कि सबसे अधिक दलित उत्पीड़न यूपी में ही होता है. पिछले दिनों अलीगढ़ में एक इंजीनियर की हत्या हो गई. परिवार के लोग इसमें एक सवर्ण मंत्री का नाम ले रहे हैं, बावजूद इसके मंत्री के ऊपर कार्रवाई नहीं हो रही है. क्या इससे लोगों का विश्वास टूटता नहीं है?
- देखिए, नंबरों पर मत जाइये. यहां हमकों अत्याचारों की संख्या को दूसरे तरीके से समझना होगा. इस बारे में सूक्ष्मता से अध्यन करने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश कि जनसंख्या 16 करोड़ की है. इसमें दो करोड़ दलित हैं. एक तो जनसंख्या ज्यादा, दूसरी इसमें दलित समाज की संख्या ज्यादा. इसलिए नंबरो के हिसाब से अत्याचारों की संख्या ज्यादा होगी ही. दूसरे राज्यों की बात करें तो वहां कि जनसंख्या इतनी अधिक नहीं है, जिससे उनकी संख्या बढ़ जाए. लेकिन 2010 के आंकड़ों को देखें तो अनुपात के आधार पर सबसे ज्यादा अत्याचार मध्यप्रदेश में हुए हैं. (लेकिन अलीगढ़ जैसी घटना, मैं उनकी बात बीच में काटते हुए पूछता हूं.) विवेक जी कहते हैं ‘ देर सबेर न्याय हुआ है. लोग पकड़े गए हैं. चाहे अंगद यादव हों या फिर द्विवेदी सब पकड़े गए हैं. देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं है.’ जब भी हम बहुजन समाज पार्टी के राज-काज को देखते हैं तो हमें एतिहासिकता भी देखनी चाहिए. भारतीय समाज ढ़ाई हजार वर्ष पुराना है, उसके अंदर जो विकृतियां हैं, वो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी है. लेकिन बसपा सरकार केवल छह वर्ष की है और वह भी अलग-अलग चार-पांच हिस्सों में. तो आप यह चाहते हैं कि जो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी एतिहासिकता है, जिसकी विकृतियां मानसिकता में भर गई हैं, वह पांच वर्ष की सरकार में पूरा हो जाएगा तो यह ज्यादती है. लेकिन हमको व्यक्ति की मंशा दिखेनी चाहिए कि क्या वह दिखाई दे रही है. अंबेडकर ग्राम से लेकर महामाया योजना तक जैसी बातें बताती हैं कि दलित उत्थान की प्रकृति हर योजना में समायोजित है. कोई यह नहीं कह सकता है कि सवर्णों के पक्ष में ज्यादा फैसले हो गए. जो भी फैसले हुए, चाहे वो कांशीराम गरीबी उन्मूलन हो, अंबेडकर ग्राम योजना हो या फिर महामाया योजना सबके सब गरीबों के पक्ष में जाते हैं.

आपने बीएसपी के पक्ष में तमाम बातें गिनाई, लेकिन यूपी छोड़कर बसपा अन्य राज्यों में सफल क्यों नहीं हो पाई. यहां तक कि विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बसपा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई?
- सबसे बड़ी बात है कि आंदोलनों की अपनी एक पृष्ठिभूमि होती है. इसमें अगर हम महाराष्ट्र का उदाहरण ले लें, तो हमें लगता है कि बाबा साहेब के आंदोलन से लोग इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो अन्य नेताओं को जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे. वहां के जो अपने लीडर हैं, लोग उनको भी स्वीकार नहीं करते. यही वजह है कि महाराष्ट्र में अलग-अलग जाति के लोग अलग-अलग जगहों से जाकर राजनीति करते हैं. बाबा साहेब के जो पौत्र हैं प्रकाश आंबेडकर, उनसे लोग अभी भी इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो दूसरे नेता की ओर प्रभावित नहीं हो पातें. एक बात और, महाराष्ट्र जैसे जगहों पर चुनाव बहुत तरीके से मैनेज भी किए जाते हैं.

लेकिन वह भी कोई बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पातें?
- क्योंकि वहां पर कांग्रेस का अपना आंदोलन है, जो दलित आंदोलन को स्वच्छंद रूप से खड़ा नहीं होने देना चाहते है. रामदास अठावले, योगेंद्र कवाडे, सुशील शिदें जैसे लोग आत्मनिर्भर दलित राजनीति को छोड़कर निर्भर दलित राजनीति की ओर आ रहे हैं. लोग अपने तात्कालिक फायदे को देखने लगते हैं और लौंग टर्म इंट्रेस्ट को नहीं समझते हैं. फिर इन्हें यूजीसी का चेयरमैन बना दिया जाता है या फिर राज्यसभा में भेज दिया जाता है. वहां उभरते हुए दलित लीडर- दलित दिमाग खत्म हो जाते हैं. कांग्रेसी नेताओं में इन्हें ‘कोऑप्ट’ करने की क्षमता होती है.

फिर क्या यह मान लिया जाए कि दलित नेताओं में समाज के लिए जूझने की प्रवृति कम हुई है?
- राजनेताओं की तो जरूर कम हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन महाराष्ट्र का जो सामाजिक आंदोलन है वो ज्यादा परिपक्व हुआ है. वहां आज भी छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे हैं. इसलिए सामाजिक आंदोलनों की जड़ें वहां बहुत गहरी हैं, लेकिन राजनीतिक आंदोलन क्षीण हो गया है-बंट गया है, क्योंकि लोग अपने तात्कालिक फायदे के लिए काम करने लगे हैं.

क्या यह समाज के समाज धोखा नहीं है?
- बहुत बड़ा धोखा है. लेकिन कभी-कभी लोग ऐसा सोचते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार लें, बाकि पीढ़ियां चाहे जो सोचे, कोई दिक्कत नहीं है.

दलित नेताओं पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि अपने समाज का विश्वास जीतने के बाद वह अपने फायदे के लिए मुख्यधारा की अन्य पार्टियों से इस विश्वास को बेच देते हैं, यह आरोप कितना सही है.
- देखिए, हमें दोनों तरफ देखना चाहिए. यह समझना चाहिए कि दलित समाज के अंदर बहुत गुरबत है. अशिक्षा है, गरीबी है. लेकिन हमारा समाज बहुत समझदार भी है. क्योंकि हम मेहनतकश इंसान है, इसलिए वास्तविक राजनीति की समझ नहीं है. लोग भावनावश अपना अधिकार सामने वाले को दे देते हैं, लेकिन ये है कि जैसे-जैसे समाज में पढ़े-लिखे लोग आ रहे हैं, बात अब दूसरी ओर जा रही है. अब जल्दी बेचने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. आज 4-5 आत्मनिर्भर दलित आंदोलन चल रहे हैं. आप देखेंगे कि इतने वर्षों बाद अब रामविलास पासवान अपने आत्मनिर्भर आंदोलन पर आ गए हैं. अब ठीक है कि बाद में वह जोड़ें या घटाएं. इधर लोग जस्टिस पार्टी को भी चलाने का प्रयास कर रहे हैं. तो मेरे कहने का मतलब यह है कि समाज राजनैतिक रूप से परिपक्व होगा. क्योंकि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसे किए बिना नहीं समझा जा सकता. दलित समाज राजनीति से दूर रहा है, तो राजनीति नहीं जानता है. इसलिए जब भी कोई कुठाराधात होता है तो वो समझता है कि उसका नेता खराब है. लेकिन उसे संयम रखना चाहिए. अपने नेता पर भरोसा रखना चाहिए. यह बड़ी बात है.

दलित राजनीति के भविष्य को आप कैसे देखते हैं?
- आने वाले समय में आत्मनिर्भर दलित आंदोलन और परिपक्व होगा. जब लोगों को यह यकींन होगा कि आत्मनिर्भर दलित आंदोलन से हम बहुत कुछ पा सकते हैं, तो लोग खुद आगे आएंगे. जैसे एक बार महाराष्ट्र में एक यूनिवर्सिटी का नाम बाबा साहेब के नाम पर करने के लिए बहुत आंदोलन हुआ था, कईयों को शहादत देनी पड़ी थी, तो वहीं आज उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब के नाम पर कई कॉलेज हैं. आत्मनिर्भरता का यही फायदा है और इसे समझना होगा.

दलित राजनीति के संदर्भ में पहले की और वर्तमान की चुनौतियों में क्या अंतर है?
- पहले दलितों को मानव समझाने की चुनौती थी. बाबा साहेब जब आंदोलन कर रहे थे तो दलितों को इंसान नहीं समझा जाता था. जब इंसान नहीं समझा जाता था तो उनके कोई अधिकार नहीं थे. बाबा साहेब ने पहली बार उन्हें नागरिक बनाने के लिए संघर्ष किया कि ये भी नागरिक हैं. जब नागरिक बन गए तो नागरिकों के मौलिक अधिकार होते हैं, उन अधिकारों को उन्होंने संविधान में प्रदत कराया. आज सबसे बड़ी चुनौती बाबा साहेब द्वारा संविधान में दिलाए गए अधिकारों को, ‘लैटर ऑफ स्पिरीट’ में लागू करवाना है. क्योंकि इसके लागू नहीं होने की स्थिति में आंदोलन ठहर जाएगा. आज हमारे पास बकायदा बिछी हुई बिसात है. केवल चाल चलनी है.
दूसरी बात, बाबा साहेब ने नंबर की ताकत यानि वन मैन-वन वोट-वन वैल्यू समझा दिया था, जिसे मान्यवर कांशीराम ने समझा और कहा कि 100 में से 85 प्रतिशन वोट हमारा है. वो 85 फीसदी वोट जोड़ते रहे. इससे अभी थोड़ी ही जातियां जुड़ी हैं और देखिए कि सरकार बन गई. दलितों को यह समझना पड़ेगा कि संगठन में शक्ति होती है और बिना सभी के जुड़े एक बड़ा समाज नहीं बनेगा. अंतरजातीय स्वभाव को भूल करके अपने संघर्ष को बड़े आयाम में कैसे परिवर्तित किया जाए, यह सोचना होगा. हम सब कास्टीज्म भूल करके अपने बड़े युग्म की तरफ बढ़ें. इसको लेकर बहुत बड़ी चुनौती है. राजनीति में जब तक हमारे नंबर नहीं बढ़ेंगे तब तक सत्ता नहीं आएगी.

आप समाज शास्त्र के शिक्षक हैं. सामाजिक रूप से जो पिछड़ापन है, वह कैसे दूर होगा?
- हां, यह दूसरी चुनौती है. पहले तो लग रहा था कि सारा दलित समाज गरीब है, अशिक्षित है, बेरोजगार है. लेकिन कालांतर में आजादी के 63 वर्ष के बाद एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो शहरों में रह रहा है और जिसके पास नौकरियां है. इसलिए दलितों के दो फाड़ साफ दिखाई दे रहे हैं. एक शहर में रहने वाला दलित तो दूसरा गांवों में रहने वाला वर्ग. दोनों के मसले अलग हो गए हैं. जो शहर में रह रहा है, उसको अच्छी नौकरी, अच्छा घर और आरक्षण चाहिए. जो वर्ग गांवों में रह रहा है, गरीबी में रह रहा है वह अभी दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगा है. ऐसे में इस आंदोलन की चुनौती यह होगी कि उस अंतिम पायदान पर खड़े दलित साथी कि मुश्किलों को समझ कर उन्हें साथ में लाएं और उनके लिए संघर्ष करे. दूसरी तरफ न्यायपालिका, अफसरशाही और विश्वविद्यालयों में जारी पक्षपातपूर्ण रवैये से भी जूझने की चुनौती होगी. लड़ाई कई मोर्चों पर है, इसलिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सबको किस तरह एक धागे में पिरो करके आंदोलित किया जाए. ये चुनौती सबसे बड़ी होगी.

मायावती की जो अब तक की राजनीति है और उन्होंने यूपी की सरकार में आने के बाद जो काम किया है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
- एक समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से इसमें वो गधे और उसके बेटे वाली कहावत लागू होती है. (किस्सा सुनाते हैं) ‘एक गधे को लेकर बाप-बेटे जा रहे थे. रास्ते में लोगों ने हंसना शुरू कर दिया कि गधा रहने के बावजूद दोनों पैदल चल रहे हैं. बाप ने गधे पर बेटे को बैठा दिया तो लोग ताने देने लगें कि बाप पैदल चल रहा है, बेटा गधे पर है. अब बेटे ने बाप को बैठा दिया तो लोग बाप की निंदा करने लगे कि बेटे को पैदल चला रहा है और खुद आराम कर रहा है. अब दोनों गधे पर बैठ गए तो लोग बाप-बेटे को निर्दयी कहने लगे कि एक गधे पर दोनों बैठ गए हैं. जब दोनों लोग उतर गए तो लोग फिर हंसने लगे.’ इस समाज के साथ भी ऐसा ही हैं. इस समाज द्वारा कुछ भी किया जाएगा वह ग्राह्य नहीं होगा. इसलिए संतोष की बात करना एक अतिश्योक्ति है. न कोई संतोष कर रहा, न ही कोई संतुष्ट है लेकिन अच्छा इसलिए लग रहा है कि एक प्रयास है और इसे सभी को सराहना चाहिए. तभी जाकर एक साकारात्मक छवि बन पाएगी.

आज राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व के नाम पर एक शून्य उभर आया है. जगजीवन राम आखिरी नेता थे, जिससे देश भर के दलित जुड़े. मायावती हैं तो वह कुछ राज्यों तक सीमित है. यह शून्य कैसे भर पाएगा?
- राष्ट्रीय स्तर पर एकांगी नेतृत्व पुरानी बात हो गई है क्योंकि समाज अब आगे निकल गया है. जब तक राष्ट्रीय स्तर पर शून्य की बात है तो, जब तक समाज से अखिल भारतीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं उभरेगा, लोग उसको राष्ट्रीय नेता नहीं मानेंगे. इसलिए समाज को यह लगता है कि अखिल भारतीय स्तर पर कोई लीडर नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति को भी देखें और उसमें एक खास परिवार को छोड़ दें तो यहां भी किसी भी पार्टी में अखिल भारतीय लीडर नहीं है. अगर यह पैदा करना है तो जन आधार पैदा करना पड़ेगा. यह बात दिखाई नहीं पर रही.

रामविलास पासवान और उदित राज जैसे लोगों की राजनीति का भविष्य क्या है?
- इन लोगों की शुरुआती दौर की राजनीति एंटी बसपा रही है. अब तक इन लोगों ने कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं दिया है. अब तक इन लोगों ने लुभावने वादों पर राजनीति की हैं. जब तक ये कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं देंगे और अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत नहीं करेंगे, तब तक मुझे नहीं लगता कि इनका कोई भविष्य है. अपनी पार्टी की संरचना में इनको संगठनात्मक ढाचे को मजबूत कर उसमें कैडर बनाने होंगे. अगर ये लोग इसके लिए समय देने को तैयार है. तो कुछ संभव है.

क्या यह संभव है कि सभी दलित नेता एक मंच पर आ सकते हैं?
- कतई नहीं. यह हो ही नहीं सकता क्योंकि जो बड़े लीडर हैं उन्हें लगता है कि उनकी राजनीति सुरक्षित है. वैसे ही जो पुराने नेता हैं वो क्यों किसी के साथ काम करेंगे. जैसे संघप्रिय गौतम हैं, उन्होंने बाबा साहेब के साथ काम किया है. दूसरे उनके सामने बच्चे हैं. रामविलास पासवान वगैरह खुद को स्थापित लीडर समझते हैं, वो किसी के साथ क्यों आएंगे. बहन मायावती की तो अपनी राष्ट्रीय पार्टी है, तो क्यूं किसी के साथ जाएंगी. जहां तक छोटे लीडरों की बात है, उनकी अपनी इतनी छोटी-छोटी डिमांड है कि वो पनप नहीं पा रहे हैं तो इसलिए साथ आना मुश्किल है.

आज की राजनीति में चारो ओर यूथ की बात हो रही है. कांग्रेस-भाजपा और तमाम पार्टियां उनको लुभाने में जुटी है. लेकिन जो दलित युवा है, वह कहां जाए?
- सबसे बड़ी बात है कि दलित युवा एकांगी नहीं है. उसमें भी कई फाड़ हैं. सबसे बड़ा तबका ग्रामीण इलाकों में है. वह अनपढ़ और डेली वेज पर काम करके जी रहा है. उसके सामने सबसे बड़ा अंधकार है. उसके लिए प्रोग्राम, पॉलिसी और न्याय जुटाना दलित आंदोलन के लिए एक चैलेंज होगा. जो दूसरा यूथ है वह पहली पीढ़ी का है और शहरों में है. वह डाक्टर, इंजीनियर बनने में लगा है. एक पीढ़ी ऐसी है, जिसकी पहली जेनेरेशन विश्वविद्यालयों में आ गई है. वह टीचर हो गया है तो उसकी कोई बिसात नहीं है, उसको कोई सुनता नहीं है. तो ये जो तीन प्रकार के यूथ हैं इनके अपने-अपने एजेंडे हैं. दलित समाज की जो पार्टियां हैं उनकी खुद के इतने मसायल हैं कि वो यूथ विंग नहीं संभाल सकते. कांशीराम जी से यह प्रश्न किया गया था कि आप यूथ विंग क्यो नहीं बनाते. उनका जवाब था कि विंग कि जरूरत प्लेन को पड़ती है. जब प्लेन टेक ऑफ कर लेता है तो उसकी बॉडी संभालने के लिए विंग चाहिए होता है. लेकिन हमारी बॉडी ही नहीं संभल रही. इसलिए हमारे यूथ को अपने आप आत्मनिर्भर संगठन के संदर्भ में सोचना चाहिए कि किस तरह सत्यनिष्ठा के साथ आंदोलन चलेगा. क्योंकि यह तबका बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाता है और बहुत जल्दी बहक भी जाता है. इसलिए हमारे जो यूथ हैं उन्हें और भी परिपक्वता और विचारधारा के आधार पर जोड़ना पड़ेगा ताकि कोई उसे बरगला न कर सके.

क्या आप निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन करते हैं?
- बिल्कुल, सौ फीसदी. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि क्यों होना चाहिए? देखिए, पब्लिक सेक्टर दलितों को केवल सात फीसदी जॉब देता है. जबकि 97 फीसदी लोग प्राइवेटसेक्टर में बिना रिजर्वेशन के जीते हैं. भारत में अगर इंडियन लेबर कमिशन का जॉब का आंकड़ा लें तो तकरीबन दो करोड़ जॉब आते हैं. इन दो करोड़ लोगों में शिड्यूल कास्ट का आरक्षण प्रतिशत गिन लिया जाए तो वो तकरीबन तीस लाख होगा. एक परिवार में पांच लोगों को मान लिया जाए तो डेढ़ करोड़ लोग दलितों को आरक्षण के तहत मिलने वाली नौकरियों से लाभान्वित होते है. दलितों की आबादी है 18 करोड़. अब 16 करोड़ 50 लाख लोग बिना रिजर्वेशन के ही जी रहे हैं. ऐसे में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की जवाबदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. हमारे लोगों को अब नौकरियों के अलावा संसाधन में भी आरक्षण मांगना चाहिए. जमीन के बंटवारे में भी हमें हमारा हक मिलना चाहिए. हमें सप्लाई में भी रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मेरा मानना है कि अगर एक अस्पताल में किसी दवा की 100 गोलियां बिकती है, तो इसमें से 16 गोलियां हमारे लोगों से खरीदी जानी चाहिए. सरकार चाहे तो क्वालिटी जांच ले. जूते बनाने का धंधा तो हमारे लोगों का है. स्पोर्ट्स हॉस्टल में हमसे भी 100 में 16 जूते लो. यह चीज गाड़ियों, डीलरशिप जैसी हर छोटी-बड़ी चीज की सप्लाई में होनी चाहिए. ऐसा करके सरकार किसी का हक नहीं मार रही है. बल्कि दलितों में नए इंटरप्येनोरशिप डेवलप कर रही है. इसके लिए सरकार को केवल एक आर्डर निकालना है. केवल नौकरियों में आरक्षण मांगकर हमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. क्योंकि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां कम हो रही है.

यह तर्क भी सुनने में आता है कि दलितों में योग्यता नहीं है?
- जहां तक निजी क्षेत्रों में योग्यता की बात है तो इसकी कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं है. योग्यता की परिभाषा वो लोग बनाते हैं जो सत्ता में होते हैं. और सत्ता में बैठने वाले लोग योग्यता का निर्धारण हमेशा अपने पक्ष में, अपनी सांस्कृतिक विरासत के आधार पर करते हैं. तीसरी बात यह है कि योग्यता का निर्धारण आजकल परीक्षा में आने वाले अंकों से निर्धारित होता है. अंग्रेजी बोलने को ही योग्यता का आधार माना जाता है. यह भी उन्हीं के द्वारा किया गया निर्धारण है. जबकि भाषा ज्ञान की निशानी नहीं है, बल्कि सोशल बैकग्राउंड की निशानी है. इसलिए व्यक्तियों के सामाजिक परिवेश को देखकर योग्यता का पैमाना बने और उसके आधार पर परीक्षा हो. तब कहीं जाकर हम एक समाज की कल्पना कर सकते हैं.

फिर से मायावती की बात करते हैं. उन्होंने अपनी राजनीति बहुजन समाज के नारे के साथ शुरू की थी. आज वह सर्वजन समाज के नारे पर आ गई हैं. क्या यूपी में बहुजनों की समस्याएं खत्म हो गई हैं?
बहुजन समाज पार्टी को दो तरीके से समझना चाहिए. एक तो वो राजनैतिक आंदोलन है, दूसरा सामाजिक आंदोलन भी है. राजनीतिक आंदोलन के तहत जो नारे दिए गए हैं वो राजनीति तक ही सीमित रह सकते हैं. एक बात और है. आपके जितने वोट हैं, उससे आप आत्मनिर्भर सरकार नहीं बना सकते हैं और इसलिए आपको दूसरे समाज का सहारा लेना पड़ेगा. इसलिए राजनैतिक तौर पर तो यह नारा सही हो सकता है लेकिन सामाजिक तौर पर जब हम काम देखते हैं, जैसे बुद्ध के नाम पर प्रतिमा बनती है, महामाया के नाम से शहर बनता है, कांशीराम के नाम से योजनाएं बन रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि सामाजिक तौर पर आंदोलन आज भी जारी हैं. बाकी सत्ता में आने के बाद सबको संरक्षण देना होता है. सबको साथ लेकर चलना पड़ता है. तो जो भी परिवर्तन है, वह सत्ता में आने के बाद का परिवर्तन है.

आपने मूर्तियों की और महामाया नगर की बात की. इसको लेकर भी बसपा और मायावती की काफी आलोचना हुई है.
- मैं इन मूर्तियों और पार्क को रिएक्सनरी एजेंटे से नहीं देखता हूं. यह बसपा के विचारात्मक सोच का नतीजा है क्योंकि अपना दल बनाते समय ही उन्होंने इंगित कर दिया था कि जब हम सत्ता में आएंगे तो हम आपको वो सब देंगे जिसका वादा किया था. उन्होंने यह किया भी. इसलिए मुझे लगता है कि वो साकारात्म एजेंडा था. पूर्ववर्ती सरकारों में बहुजन समाज के लीडरों को न्याय नहीं दिया, इज्जत नहीं दी. कल तक जिन जगहों पर केवल सवर्णों का एकाधिकार था और जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी, उस एकाधिकार को तोड़कर वहां दलितों की मूर्तियां लगाना जनतांत्रिकरण की निशानी है. इससे कल तक जो लोग चमरौटी में सीमित कर दिए गए थे, वो चौराहे पर आ रहे हैं. इसमें लोगों को मूर्तियों से कोई परहेज नहीं है बल्कि उन्हें एकाधिकार टूटने का डर सता रहा है. वास्तविकता में वही लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, जिनकों इन महापुरुषों के योगदान के बारे में कुछ नहीं पता. उनको भी दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि उनकी कक्षाओं में, उनके विश्वविद्यालयों में कभी इन महापुरुषों की चर्चा होने ही नहीं दी गई. इसकी वजह से वो चेतना शून्य हैं. इसलिए उनको दोषी ठहराना गलत होगा.

आपने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दलितों की आवाज उठाई है. वहां किस तरह की दिक्कतें होती हैं?
- अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकारों की बातें होती हैं, व्यक्तियों की नहीं. इसलिए वो सुनना नहीं चाहतें क्योंकि दो देशों के रिश्ते प्रभावित होते हैं. उनको भारतीय समाज की जो वास्तविकता है, वह भी नहीं पता. उनको लगता है कि भारतीय लोग बड़ी शांति से, भक्ति से जैसे पहले रह रहे थे, आज भी वैसे ही रह रहे हैं. उनके मुताबिक भारत में कोई शोषण नहीं है. हमारे देश का एक तबका भी यह प्रचारित करता हैं कि हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है. कुछ था तो संविधान ने उसका संज्ञान ले लिया है. लेकिन अब संयुक्त राष्ट संघ ने इसका संज्ञान ले लिया है.

आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
- मेरी कोशिश दलित समाज की साकारात्मक छवि स्थापित करने की है. अब तक जो छवि बनी है, उसके मुताबिक हम गंदे, दारूबाज और अयोग्य हैं. मैं इस छवि को बदलना चाहता हूं. हमें बताना होगा कि हमारा समाज लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला है. चाहे वह किसी बच्चे को सबसे पहली बार छूने वाली दाई हो या अन्य कार्य करने वाले लोग, हमारे ही श्रम से देश चलता है और देश में आर्थिक बदलाव आता है. मेरी कोशिश समाज के नायक-नायिकाओं को उभारने की है. बाबा साहेब को दलित नेता के रूप में सीमित कर दिया गया था, जबकि वो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेता थे. आज कई चिंतक इसे दिशा दे रहे हैं. भारतीय समाज में जो दलित समाज है, उसके अपने मूल्य है. उसे वापस लाना होगा. चूंकि शिक्षा के क्षेत्र में हूं इसलिए सोचता हूं कि भारतीय समाज के प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक हर पाठ्यक्रम में दलित समाज की सकारात्मक छवि को किस तरह समायोजित किया जाए.

वंचित समाज के हित में अगर आपको एक फार्मूला बनाने को कहा जाए, तो इस समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात ठीक करने के लिए आप क्या करेंगे?
- यह कहना तो जरा मुश्किल है लेकिन एक फार्मूला यह हो सकता है कि वास्तविकता में दिक्कत कहां है, उसकी प्रकृति क्या है, उस दिक्कत को समझा जाए, तब जाकर उसका हल मिल सकता है. इसे चिन्हित करना होगा. बाबा साहेब ने 60 साल पहले जिन मुश्किलों को समझा था, वह आज भी बहुत दूर नहीं हो पाई हैं. आज के कंप्यूटर युग में बाबा साहेब के दिए मूलमंत्र के साथ 21 सदी के कालखंड को समझना होगा. आज अदालत, ब्यूरोक्रेसी, राजनीति और मीडिया जैसी सत्ता को चलाने वाली संस्थाओं में अनुपातिक जनसंख्या के आधार पर दलितों की भागीदारी जरूरी है. जमीन और संसाधन में भागीदारी सुनिश्चित करने की भी जरूरत है.

विवेक जी, आपने इतना अधिक वक्त दिया और विस्तार से बातें की, धन्यवाद
- धन्यवाद अशोक जी।

डा. विवेक कुमार से संपर्क करने के लिए आप उन्हें vivekkumar@mail.jnu.ac.in पर मेल कर सकते हैं. दलितमत.कॉम से संपर्क करने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.
www.dalitmat.com से साभार

Friday, March 11, 2011

यहां सूरज नहीं निकलता

विशाखा का असली नाम कम ही लोग जानते हैं. नहीं, यह बुद्ध की शिष्या विशाखा नहीं है, जिसने श्रावस्तीह में उस जमाने में 20 करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च कर के बौद्ध विहार बनाया था. वह नक्षत्र भी नहीं, जो आकाशगंगा में है. विशाखा से पूछें तो वह कहती हैं- 'मैं एक यौनकर्मी हूं, यौनकर्म मेरा पेशा है.'
दो जून की रोटी के लिये अपना देह बेचने वाली विशाखा की जिंदगी में तो सूरज कभी उगा ही नहीं. दुनिया को समझने की उम्र होती, उससे पहले ही उसे एक ऐसी काली कोठरी में धकेल दिया गया, जहां आज तक कोई रोशनी पहुंची ही नहीं. लगभग 24 साल पहले एक मुंहबोली मौसी ने विशाखा को मात्र छह हजार रुपए में सोनागाछी में एक यौनकर्मी के हाथों बेच दिया था. उस वक्त विशाखा की उम्र महज चौदह साल थी. दक्षिण 24 परगना के सुंदरवन गांव की रहने वाली विशाखा कोलकाता में क्या काम करती है, यह बात उसका परिवार जानता है. इस पेशे में होने की वजह से विशाखा के घरवालों को गांव वालों ने दस साल तक अलग-थलग रखा. जब दस साल के बाद वह पहली बार घर गई तो गांव वालों ने उसका सामूहिक बहिष्कार किया. उसे गांव से बाहर निकल जाने के लिए कहा. विशाखा ने उन्हीं गांव वालों से पूछा- “अगर मैं गांव मैं रुक जाती हूं तो क्या तुममें से कोई मुझे खाने के लिए देगा?' जाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था.
विशाखा से बातचीत करते समय किसी का फोन आया. विशाखा ने बातचीत के बाद बताया कि उसके चाचाजी का फोन था- 'किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं. बिस्तर से उठ नहीं सकते. मुझे देखना चाहते हैं.'
विशाखा बहुत साफगोई से बात करती हैं, बिना कुछ छिपाने की कोशिश किये. सिलीगुड़ी की वेश्याबस्ती खालपाड़ा में रहने वाली महिलाओं के साथ लंबे समय तक काम कर चुकी सामाजिक कार्यकर्ता सुष्मिता घोष कहती हैं- “ कोई पचास-सत्तर रुपए लेकर वे आपके सामने अपने को पूरी तरह उघाड़ कर रख देंगी. निश्चित तौर पर इस काम को करने के पीछे उनकी कोई बड़ी मजबूरी होगी. आप ही सोचिए क्या कोई खुशी से इस काम को कर सकता है?'सिलीगुड़ी सोयायटी फॉर सोशल चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक खालपाड़ा में काम करने वाली साठ फीसदी यौनकर्मियों की उम्र बीस साल से कम है.
मीता मंडल उत्तर 24 परगना के बोसीहाट की रहने वाली है. वह रविन्द्र संगीत सीखना चाहती थी. लेकिन इसके लिए उसके पिता और उसकी नई मां जो पिता की दूसरी शादी के बाद घर आई थीं, तैयार नहीं हुए. नई मां चाहती थी कि मीता दूसरों के घर में चूल्हा चौका करे और जो भी कमाई हो, वह लाकर उनके हाथ में रख दे.
मीता को लगा कि अपना रास्ता खुद ही तय करना होगा. एक दिन वह संगीत सीखने के लिए अकेली कोलकाता निकल गई. यहीं मीता की मुलाकात एक आदमी से हुई, जिसने संगीत सीखाने और नौकरी दिलाने का वादा किया. लेकिन मीता को कहां मालूम था कि संगीत के नाम पर उसे एक ऐसे नरक में धकेल दिया जायेगा, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस आदमी ने उसे एशिया के सबसे बड़े वेश्याबस्ती सोनागाछी पहुंचा दिया.
हालांकि मीता इस बस्ती में पहले से रह रही दूसरी लड़कियों से अधिक खुशकिस्मत थीं. एक गैर सरकारी संस्था दुर्वार महिला समन्वय समिति की कार्यकर्ताओं ने उस नरक से उन्हें छुड़ा लिया. लेकिन उस बस्ती में रह रही सैकड़ों, हजारों लड़कियां अब भी उसी नरक को भोग रही हैं. अब अंजली को ही ले लीजिए.उनके माता-पिता छोटी उम्र में उसे छोड़कर चले गए. एक पड़ोसी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे घर का काम करने के लिए सिलीगुड़ी के एक घर में रखवा दिया. यहां अंजली ने बंधुआ मजदूर की तरह दो वक्त की रोटी खाकर आठ साल तक काम किया.यहां से वह बहुत मुश्किल से निकली और जिसके सहारे निकली, उसी ने एक दिन उसे खालपाड़ा पहुंचा दिया. लेकिन इस नरक का अंत यहीं नहीं हुआ. एक दुर्घटना में उसने अपना एक पांव गंवा दिया. अब अंजली अपना एक पांव कटने के बाद भी खालपाड़ा में बतौर यौनकर्मी सक्रिय है. इसके अलावा वह कुछ घरों में झाड़ू पोछा भी करती है. अंजली कहती हैं- 'दो ही काम सीख पाई इस जिन्दगी में, एक झाड़ू पोछा और दूसरा यौनकर्म, वही कर रही हूं.'
कंचनजंघा उद्धार केन्द्र से जुड़े संजय विश्वकर्मा बताते हैं कि इस इलाके में सक्रिय यौनकर्मियों में से अधिकांश को उनके गांवों से काम करने के बहाना लाया गया. उन्हें प्लेसमेंट एजेंसियों ने अच्छा खाना, कपड़ा और वेतन का लालच देकर यहां बुलाया और फिर उन्हें यौनकर्म के पेशे में डाल दिया.
संजय कहते हैं- 'यहां काम करने वाली नब्बे फीसदी प्लेसमेंट एजेंसियों का कोई पंजीकरण नहीं है. यहां प्लेसमेंट के नाम पर मानव तस्करी का धंधा जोरो पर है.'विश्वकर्मा बताते हैं, किस तरह नेपाल के मोरम जिले का रहने वाला रॉयल नेपाल आर्मी का एक पूर्व जवान लड़कियों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार हुआ. शर्मनाक बात यह थी कि इस तस्करी में उसकी पत्नी और बेटी भी उसकी सहयोगी की भूमिका में थीं. खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में सक्रिय कुछ दलाल पिछड़े और गरीब जिलों में जाकर तीन से पांच हजार रुपए में युवा लड़कियों को खरीदकर दस से बारह हजार रुपए में वेश्या बस्तियों में बेचने का काम करते हैं. कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां लड़कियां मजबूरी में जरुर वेश्या बस्तियों तक लाई गईं लेकिन यहां लाने के लिए उनके साथ कोई धोखा नहीं किया गया. उन्होंने तय करके इस पेशे को अपनाया क्योंकि उनकी मजबूरी ही कुछ ऐसी थी. शिवानी कर्मकार का मामला ऐसा ही है, जो अपनी इच्छा से यौनकर्मी बनीं. उनके पति दमा के मरीज हैं. बेटे को थैलीसीमिया है. इनके ईलाज के लिए इन्हें हर महीने एक निश्चित रकम की जरुरत होती है. कोई सरकारी-गैर सरकारी संस्था उनके मदद के लिए आगे नहीं आई. सरकार की मदद इतनी भर है कि एक सरकारी अस्पताल में उनके पति और बेटे का ईलाज चलता है. उसके बावजूद दवा और समय-समय पर होने वाले जांच का पैसा उन्हें देना ही होता है. इसके साथ अपना और अपने बेटे का परिवार चलाना, आसान काम नहीं था. ऐसे में शिवानी को इस पेशे में उतरना पड़ा.
शिवानी के परिवार में उनकी तीन बेटिया भी थीं, जिनकी शादी शिवानी ने कर दी लेकिन अपने होने वाले दामादों से यह बिल्कुल नहीं छुपाया कि वे काम क्या करती हैं ? चूंकि वे नहीं चाहती थीं कि कल को इस भेद के खुलने से उनके बेटियों को किसी प्रकार के मुश्किलों का सामना करना पड़े. आज शिवानी कर्मकार के चारों बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पर किसी प्रकार की आंच ना आए, इसके लिए उनकी मां ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया.
सीता लोहार की कहानी शिवानी से अलग नहीं है. ग्यारह साल की उम्र में भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकलने के बाद वे चार साल तक बाल सुधार गृह में रहीं. कोई काम आता नहीं था. पढ़ाई-लिखाई कर नहीं पाईं. वहीं एक लड़की से दोस्ती हो ग. उसी ने लोहार का पहला परिचय रेड लाईट एरिया से कराया. दिल माने ना माने, पेट कहां मानने वाला था. सो उन्होंने इस काम को स्वीकार लिया. इस नरक में आने के बाद भी उन्होंने अपनी दोनों लड़कियों को इस दुनिया से दूर ही रखा. आज लोहार की दोनों लड़कियां अंग्रेजी माध्यम के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं.
स्वतंत्र पत्रकार रुपक मुखर्जी के अनुसार इस पेशे में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अपनी और अपने परिजनों की मर्जी से यह सब कुछ कर रहे हैं. मुखर्जी के अनुसार अनुसार- “ बड़ी संख्या में ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिसे मानव तस्करी का नाम दिया गया, जबकि मामला ऐसा नहीं था. भेजने वालों को भी पता है कि वह जिसे भेज रहा है, उसे कहां ले जाया जाएगा और जाने वाले को भी पता है कि उसे जो ले जा रहा है, वह कहां लेकर जाएगा ?'
मुखर्जी आगे कहते हैं- “बड़ी संख्या में सिलीगुड़ी से लड़कियां दुबई जा रहीं हैं. यहां ऐसे मां बाप हैं, जिनकी आंख उस वक्त खुलती हैं, जब लड़की को ले जाने वाला लड़की के बदले हर महीना पैसा भेजना बंद कर देता है.'
मुखर्जी की बातों की पुष्टि सिलीगुड़ी के पूर्व एएसपी केबी दोरजी ने किया. उनकी जानकारी में ऐसे कई मामले हुए, जिसमें लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने घर वाले लड़की की गुमशुदगी के छह महीने या एक साल के बाद आए. इस देरी की कोई वजह भी उनके पास नहीं थी. दोरजी के अनुसार- 'इस समस्या की जड़ इस क्षेत्र की गरीबी, अशिक्षा और जागरुकता की कमी है. शादी और नौकरी दिलाने के नाम पर अधिकांश लड़कियों को यहां से ले जाया गया. नौकरी के नाम पर बाहर जाने वाली लड़कियों के परिजन अगर प्लेसमेंट एजेंसी या नाम-पता के बारे में पुलिस थाने में पहले से सूचना दे दें तो ऐसी घटनाओं पर रोकथाम कर पाना संभव होगा.' हालांकि इस संबंध में जिला पुलिस, एसडीओ ऑफिस, सीआईडी, गैर सरकारी संस्थाएं और पंचायत की तरफ से जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन उनका असर कम ही है. पश्चिम बंगाल में लगभग 65 हज़ार और देश भर में सक्रिय लगभग 6 लाख यौनकर्मियों की संख्या में लगातार होता इजाफा तो कम से कम यही बताता है. ये वो आंकड़े हैं, जिनमें फ्लांइग सेक्स वर्कर्स और कॉल गर्ल्स की संख्या शामिल नहीं है. हां, यह ज़रुर है कि सरकारी आंकड़ों में यौनकर्मी मनुष्य से कहीं अधिक आंकड़े के रुप में ही जानी जाती हैं, जिसकी चिंता सभ्य समाज को भी नहीं है और सरकार को भी नहीं.
आशीष कुमार ‘अंशु’ सिलीगुड़ी से लौटकर

दोहरा भेदभाव झेलती दलित महिलाएं

भारत में अनेक महिलाएँ आज भी बराबरी के हक से वंचित हैं. फिर दोहरे भेदभाव के झेलती दलित महिलाओ की हालत तो और भी बदतर है. लेकिन अब वे संगठित हो रही हैं.
शास्त्र और विधि-विधान उन्हें देवी का दर्जा देते हैं पर असल जीवन का यथार्थ यह नहीं है.
दलित महिलाओ के बीच काम करने वाली जयपुर की अनीता वर्मा दुख के साथ कहती हैं, "दलित औरतों और तथाकथित ऊँची जाति की महिलाओं में बहुत फ़र्क है. आज अन्य जातियों की महिलाओ में एक आत्मविश्वास दिखता है लेकिन दलित महिलाएँ अहसासे कमतरी का शिकार होती हैं.अनीता कहती हैं कि रिवाज़ और समाज का रुख़ अनेक दलित महिलाओं का मनोबल तोड़ कर रख देता है.
सवाई माधोपुर की पूनम वर्मा वो लम्हा नहीं भूल सकतीं जब वो शादी के बाद अपने ससुराल इटावा खातोली पहुँची और तथाकथित ऊँची जात वालों के कुँए से पानी का मटका भर लिया.
पूनम का मटका फोड़ दिया गया. उन्हें पहली बार लगा तरल पानी को भी उंच नीच की दीवार से बांटा जा सकता है. वे कहती हैं, "मेरा मटका फोड़ा गया तो मुझे बड़ा झटका लगा. पहली बार यह एहसास हुआ कि भारत में दलित होने के मायने क्या हैं. तब से मैं इन विषयों पर जन-जागरण में जुट गई."
धर्म शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु के बाद देह मिटटी में मिल जाती है. मगर राजसमन्द की राम जाव्दिया मानती हैं कि सामाजिक भेदभाव तो दलित का शमशान तक पीछा करते हैं.वे बताती हैं, "हमारे राजसमन्द ज़िले में स्वर्ण जाति के शमशान पक्के बने होते हैं, उनकी छत्त पक्की होती है. हमारे शमशान खुले होते हैं. लेकिन जब बारिश नहीं होती तो उसके लिए भी दलित को दोषी ठहराया जाता है और एक टोटके के अनुसार हमारे शमशान पर हल चला दिया जाता है."
बाड़मेर की सरिता मौर्य कहती हैं कि थोडा परिवर्तन तो आया है.वे कहती हैं, "अम्बेडकर के नारे ने हमें बहुत शक्ति दी है पर दलित पंचों-सरपंचों को अब भी कठपुतली समझा जाता है.
लेखक- नारायण बारेठ, जयपुर (बीबीसी हिंदी से साभार)