Tuesday, October 18, 2011

बहुजन समाज का बहुजन धाम


सदियों से साजिश के तहत दबा कर रखा गया वंचित तबका जब अपने आत्मविश्वास को हासिल करता है तो वह क्षण बड़ा अद्भुत होता है. शुक्रवार को गौतम बुद्ध नगर के नोएडा में ऐसा ही पल था, जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 33 हेक्टेयर में बने राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल एवं ग्रीन गार्डेन का उद्घाटन किया. इस पल के गवाह बहुजन समाज के हजारों लोग बनें. लेकिन हजारों की भीड़ होने के बावजूद वहां एक अजब सी खामोशी थी. या शायद वह सकून था, जब लब खामोश थे और आंखे सारा माजरा अपने में समेट रही थी. जैसे इस समाज को यकीन ना हो रहा हो कि यह सचमुच में हो रहा है. राष्ट्रीय दलित स्मारक नाम के इस भवन में वंचित समाज के सभी मसीहा को सम्मान के साथ एक धरोहर की तरह रखा गया है. इस पार्क के तीन हिस्से हैं. पार्क के बीच में बड़ा सा स्तूप है. मुख्य बौद्धिक स्तूप के नीचे विशालकाय पत्थरों में मायावती की जीवनगाथा उकेरी गई है. मुख्य भवन के अंदर बहुज नायकों की प्रतिमाएं हैं.
जब से बहुजन समाज के इस ‘धाम’ के बनने की शुरुआत हुई, तभी से इसको लेकर क
ई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा. 700 करोड़ के इस स्थल को बनाने के लिए उत्तर प्रदेश की की मुख्यमंत्री की भी कम आलोचना नहीं हुई. लेकिन इन तमाम आलोचनाओं का जवाब भी वंचित तबके के एक सामान्य से युवा ने दे दिया. जब एक टीवी रिपोर्टर ने उससे इस पर खर्च हुए पैसों की बात पूछी तो उसने साफ कहा कि यह हमारे पूर्वजों का सम्मान है. अब तक इन्हेेरिडयन के बगल में जनपथ रोड पर पांच फ्लैट दे दिया और जिस पर भव्य पुस्तकालय बनाना था, वह अभी तक क्यों नहीं बन पाया है. जिस दिल्ली में देश के एक बड़े तबके के रहनुमा भारत रत्न बाबा साहब अंबेडकर ने अंतिम सांस ली, उन्हें कांग्रेस की सरकार या फिर भाजपा की सरकार ने क्या सम्मान दिया. आप दिल्ली के लुटियन जोन में जाइए, यहां ऐरे-गैरे नेताओं और अंग्रेजों के नाम तक पर सड़कें हैं लेकिन बाबा साहब या फिर फुले, नारायण गुरु और पेरियार के नाम पर आपको शायद ही कोई सड़क दिखे. एक सवाल और है, राजीव गांधी तक को भारत रत्न अवार्ड (हालांकि इस पर मेरा मतभेद नहीं है) दे देने वाली कांग्रेस बाबा साहेब जैसे कही कद्दावर व्यक्तित्व को भारत रत्न का अवार्ड देने से क्यों बचती रही? सवाल कई हैं जो उठेंगी. जहां तक पार्क पर खर्च हुए पैसों की बात है तो इस देश में सरकारें जो टैक्स लेती हैं, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुजन समाज भी देता है. इस बहुजन समाज को इस स्मारक पर कोई ऐतराज नहीं. जिन्हें ऐतराज है, वो हमारे ठेंगे पे. ऐसे पार्क और बनने चाहिए.

मराठवाड़ा आंदोलन के 31 साल

मराठवाड़ा विद्यापीठ के नामांतर के लिए किया गया लांग मार्च दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मार्च था. 31 साल बीत जाने के बावजूद उस ऐतिहासिक आंदोलन का अभी भी पूरी तरह से पटाक्षेप नहीं हो पाया है. आंदोलनकारियों का कानूनी संघर्ष का दौर जारी है. आंदोलन से जुड़े लोग अब भी उस काली रात को नहीं भूल पाए हैं, जब सोये हुए आंदोलनकारियों पर लाठियां भांजी गई थीं. औरंगाबाद में मराठवाड़ा विद्यापीठ को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम देने को लेकर विवाद था. मराठवाड़ा में उन दिनों दलितों को शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. उपाधि महाविद्यालय, हैदराबाद की विद्यापीठ से संलग्न थे. ऐसे में औरंगाबाद के नागसेनवन में पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी का शिक्षा क्षेत्र में सराहनीय कार्य था. सोसायटी के तहत कई महाविद्यालय चल रहे थे. उसी के प्रयास से औरंगाबाद में नई विद्यापीठ की नींव रखी गई थी.
27 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र विधानसभा ने औरंगाबाद की विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर विद्यापीठ रखने का प्रस्ताव मंजूर किया. उसी दिन मराठवाड़ा में असंतोष उमड़ पड़ा. कहा जाने लगा कि विद्यापीठ को समुदाय विशेष की विद्यापीठ बनाने का प्रयास किया गया है. इसे अन्य समाज वर्ग की प्रतिष्ठा का सवाल भी बनाया गया. गुस्सा व्यक्त करते हुए दलितों पर हमले किये गए. बस्तियां जलाई गईं. महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार हुआ. हिंसा में कुछ लोगों की जान गई. 11 दिनों तक असंतोष का बवंडर छाया रहा. उस पर काबू पाने में तत्कालीन शरद पवार सरकार भी हतबल साबित हो रही थी. देखते ही देखते वह मसला आम समाज की चिंता का विषय बन गया. समाजसेवी, जनप्रतिनिधि, विधि व पत्रकारिता क्षेत्र के लोगों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सब अनसुनी थीं. ऐसे में नागपुर में नामांतर आंदोलन ने करवट ली. सरकार के प्रस्ताव को अमल में लाने की मांग को लेकर लोग लामबंद हुए. रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन युवा नेता प्रा. जोगेंद्र कवाड़े ने आंदोलन की कमान संभाली.
डॉ. कवाड़े का परिवार रिपब्लिकन राजनीति से जुड़ा था. उनके दादा पंडित रेवाराम कवाड़े व पिता लक्ष्मणराव कवाड़े ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साथ सक्रिय राजनीति में काम किया था. रेवाराम कवाड़े, शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के विदर्भ के अध्यक्ष थे. लक्ष्मणराव नागपुर इकाई के कोषाध्यक्ष थे. प्रा. कवाड़े के साथ दलित आंदोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता आए. 4 अगस्त 1978 को आंदोलन का आगाज हुआ. प्रा. कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि से जिलाधिकारी कार्यालय तक मोर्चा निकाला गया. आकाशवाणी चौक में बड़ी सभा हुई. उसमें बड़ी संख्या में छात्र शामिल हुए. सभा के बाद लोग उत्साहपूर्ण अपने घरों की ओर लौट रहे थे, तभी उत्तर नागपुर के 10 नंबर पुलिया चौक पर अचानक हिंसा भड़क उठी. कुछ असामाजिक तत्वों ने सरकारी बसों पर पत्थर फेंके. हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. चंद मिनटों के फासले में वहां 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कइयों को गंभीर जख्मी अवस्था में मेयो, मेडिकल अस्पताल भिजवाया गया. नागपुर में कर्फ्यू लग गया. अखबारों में माध्यम से घटना की खबर फैली तो देश भर में दलित अत्याचार रोकने के स्वर गूंजने लगे. तब नागपुर से औरंगाबाद लांग मार्च ले जाने की घोषणा की गई. दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु से दलित आंदोलनों से जुड़े लोग यहां आने लगे.
उसी वर्ष दीक्षाभूमि पर धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह से लांग मार्च की शुरुआत हुई. बौद्ध पंडित भदंत आनंद कौशल्यायन ने आशीर्वाद दिया. दीक्षाभूमि की मिट्टी माथे से लगाकर आंदोलनकारी औरंगाबाद के लिए रवाना हुए. लांग मार्च को विदायी देने मेला सा लगा हुआ था. नागपुर की बाहरी सीमा तक वर्धा मार्ग पर हजारों लोग स्वागत मुद्रा में खड़े थे. हर उम्र के लोग उसमें शामिल थे. 30 किमी प्रतिदिन पैदल चलते हुए इस मार्च ने 18 दिनों में 470 किमी का सफर तय किया. पैदल मार्च की खबर अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी. गांव-गांव में स्वागत व विश्राम के स्थान तय किये गए थे. लोगों ने स्वागत कमेटियां बना रखी थीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. बावजूद इसके लांग मार्च में गांव के गांव शामिल होने से संख्या बल काफी बढ़ने लगा था. औरंगाबाद में संभावित स्थिति को लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई थी. माना जा रहा था कि लांग मार्च के पहुंचने से औरंगाबाद में वर्ग संघर्ष होगा. आंदोलन के विरोध में मुंबई से बयान आने लगे थे.
27 नवंबर की बात है. आंदोलनकारी खड़कपूर्णा नदी तक पहुंच गए. औरंगाबाद से 100 किमी पहले सिंधखेड़राजा तहसील के दूसरबीड़ राहेरी गांव के पास वह नदी है. नदी पर अर्धसैनिक बल के साथ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी. गृहमंत्रालय का आदेश था कि आंदोलनकारियों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया जाए. औरंगाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक नदी पर तैनात थे. दोपहर में ही आंदोलनकारियों को रोक लिया गया था. उन्हें वापस जाने के लिए कहा जा रहा था, लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े थे. संयोग से उस दिन बारिश भी हो रही थी. हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे. पुल पर ही धरना पर बैठ गए. रात 12 बजे के बाद लाठीचार्ज शुरू हुआ. पुल के खाईनुमा छोरों को लांघकर आंदोलनकारी झुड़पी क्षेत्र में भागे. कइयों ने गहरी नींद में लाठी खायी. प्रा. कवाड़े समेत सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के दौर में मासूम छात्र-छात्राओं को भी जेल जाना पड़ा. बड़ी संख्या में महिलाओं ने गिरफ्तारी दी. अमरावती, वाशिम, अकोला, औरंगाबाद व नागपुर की जेल भर गई.
मार्च में अग्रक्रम में रहे आंदोलनकारियों को विभिन्न जेलों में डाला गया. प्रा. कवाड़े पर राज्य के 22 जिले में जाने व भाषण देने पर पाबंदी लगायी गई. 2 माह तक उन्हें मुंबई प्रवेश पर भी पाबंदी लगायी गई. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रकरण दर्ज किये गए. आंदोलन धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी नजर आने लगा. आगरा, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद में मोर्चे निकाले गए. 16 वर्ष ताकत आंदोलन के समर्थन में सभाओं, मोर्चो का दौर चला. बार-बार गिरफ्तारियां हुईं. आखिरकार, नामांतर के लिए सकारात्मक पहल हुई. दोनों पक्षों की मांग को ध्यान में रखते हुए निर्णय आया कि विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विद्यापीठ रखा जाए. 14 जनवरी 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने विद्यापीठ का नामांतर किया. उसके साथ ही नांदेड में स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विद्यापीठ की स्थापना की गई. राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज प्रकरण वापस लेने की पहल की. अदालत में अर्जी भी की गई, लेकिन कानूनी तकनीकी पेंच के चलते अभी भी आंदोलनकारियों को पूरी तरह से राहत नहीं मिली है. उनके विरुद्ध दर्ज प्रकरण अभी भी चल रहे हैं. प्रा. कवाड़े मानते हंर कि अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध दलितों को तैयार करने की दिशा में यह आंदोलन कारगर साबित हुआ. आंदोलन के बहाने अलग-अलग समुदाय के लोग पास आये.

साभारः दैनिक भास्कर

आज भी ठगे जा रहे हैं आदिवासी

आजादी के तत्काल बाद संविधान में संवैधानिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है. इसे संविधान में दलित वर्ग के समकक्ष खड़ा करते हुए ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था. इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है. इन सबके लिये निश्चय ही कुछ ऐसे कारक रहे हैं जिन पर ध्यान नहीं दिये जाने के कारण देश के मूल निवासी आज अपने ही देश में ही पराएपन, तिरस्कार और दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं. आदिवासी की मानवीय गरिमा को हर रोज तार-तार किया जा रहा है. आदिवासी की चुप्पी को नजर अंदाज करने वालों को आदिवासियों के अंतर्मन में सुलग रहा आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा है.
बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है. जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा. हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासियों की ये दुर्दशा हुई है. सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है. इसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है. एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं. दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं. यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती. जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!
एक अन्य समस्या आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके. आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता हुए हैं लेकिन वे आदिवासी नेता होने की बजाय कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं. ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है. इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है. देश में दलितों एवं आदिवासियों के जितने भी संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है. दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है. आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं.
आदिवासी पहाड़ों और नदियों के बीच जंगलों में रहता आया है. उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है. जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है. जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर उनके स्थान पर बड़े बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है. जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा से सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है. शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये गए. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है.
आज भी वास्तविक आदिवासियों का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है. इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं. जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं है. अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो तमाम दिक्कतें खड़ी की जाती हैं. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. वहीं उनके हाट बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है. इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है. इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है. लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है. इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है.

साभारः प्रेस नोट

रोटी की तलाश में भटकती जनजातियां

हम तकनीकी सेवा में का़फी आगे निकल गए हैं. प्रगति के लिए भारत का नाम दुनिया के गिने चुने देशों में आता है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है. हमें अपने देश पर गर्व होता है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बेशक हमने तरक्क़ी कर ली है, लेकिन क्या हम देश के पिछड़े लोगों को उनका हक़ देने में कामयाब हुए है? क़तई नहीं, जबकि विश्व में भारत की लोकतंत्र के लिए एक अलग पहचान है. देश में आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हो रहा है. ऐसी कई जनजातियां हैं जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है, क्योंकि सरकार में उनका प्रभाव नहीं है. शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इन जातियों के लोगों में एकजुटता नहीं है.
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.

साभारः चौथी दुनिया

Sunday, October 2, 2011

दलितों के हक का हिसाब लेने में जुटे हैं जाधव


जब कोई दमित समाज आगे बढ़ता है और दमन करने वालों को चुनौती देने लगता है तो कई तरह से उसके बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश की जाती है. उसे उसका हक नहीं दिया जाता, उसके साथ धोखा किया जाता है. ऐसे वक्त में समाज को अपने एक पहरुआ की जरूरत होती है, जो न सिर्फ उसके हितों को बताता है बल्कि उसे बचाता भी है. उसके लिए लड़ता है. नरेंद्र जाधव दलित समाज के ऐसे ही पहरुआ हैं, जो हर वक्त वंचित समाज को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे हैं. चाहे पुणे विश्वविद्यालय का कुलपति पद हो, रिजर्व बैंक में 31 साल तक पॉलिसी मेकर का काम हो, या फिर वर्तमान में योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य जैसी अहम जिम्मेदारी, शिक्षाविद एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जाधव जिस भूमिका में भी रहे दलितों के हित ढ़ूंढ़ते रहे.
1953 में महाराष्ट्र में जन्मे जाधव ने अपने बड़े भाई के मार्गदर्शन में शुरू में ही तय कर लिया था कि उन्हें पब्लिक सेक्टर में काम करना है. वजह था दलित समाज का उत्थान, जो सिस्टम में रहकर ही किया जा सकता था. इसी जुनून और जिद्द कि वजह से उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति का पद मिलने पर सालाना सवा करोड़ की नौकरी ठुकरा दी, ताकि दलितों से अमानवीय व्यवहार करने वाले पुणे शहर में समाजिक न्याय की मशाल जला सकें. तब उन्होंने जो किया वो इतिहास में दर्ज हो चुका है. फिलहाल वो सरकारी मंत्रालयों और राज्यों में दलित हित के फंसे हजारों करोड़ रुपयों को बाहर निकालने में लगे हैं. बीती उपलब्धियों और वर्तमान चुनौतियों पर ‘दलितमत.कॉम’ के संपादक अशोक दास ने उनसे विस्तार से बातचीत की. इस बातचीत के दौरान जाधव ने अपने परिवार के ऊपर लिखी किताब आमचा बाप आनू आम्ही के लिखे जाने की दिलचस्प कहानी का भी जिक्र किया. पेश है उनसे बातचीत ...... पूरा इंटरव्यूह पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.