जिस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक वोट से सरकारें गिर जाती है, उसी संसद के द्वारा देश में पहली बार मजदूरों को दिये गये रोजगार के अधिकार कानून में 98 दलित मजदूर हार गये और 52 सवर्ण बाहुबली जीत गये है। सरकारी जॉच की रफ्तार कछुआ चाल से कुछ कदम भी नही चल पाई की गॉव के दबंग समूहों और जनप्रतिनिधियों ने दलित मजदूरों पर चाणक्य नीति के साम, दाम, दण्ड औरद भेद के सभी प्रयोग कर दिये गये। आखिर पहले से ही बमुश्किल अपने शोशण के खिलाफ आवाज उठाने कि हिम्मत जुटा पाये मजदूरों ने हार मान ली। वो बहुमत में होते हुये भी लोकतंत्र में हार गये।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून ´´नरेगा´´ के तहत दीवारों पर करोडों के खर्चो से लिखी गई इबारतें एक बार फिर शो पीस ही साबित हुई।
हर हाथ को काम मिलेगा,काम का पूरा दाम मिलेगा । कहीं न खाना पूर्ति होगी,पारदर्शिता पूरी होगी। नहीं चलेगी अब मनमानी,होगी चौतरफा निगरानी।
पूरी पूरी मिलै पगार,दूर हटाए ठेकेदार। उसको बोर्ड लगाना होगा,सब ब्यौरा बतलाना होगा। रोजगार गारंटी आई है,सब के घर खुशहाली लाई है।
दीवारों पर लिखे इन बड़े बड़े नारों से भरतपुर के बयाना में रहने वाले दलित गरीब मजदूर इत्तिफाक नहीं रखते है। ये पूरा बाकया राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून ´नरेगा´ के भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ था। 15 माह के बीच 20 शिकायतों से जूझ रहे राजस्थान में आईने की तरह साफ एक शिकायत में दलित मजदूरों ने आखिर चाणक्य नीति के सूत्रों के आगे समर्पण कर दिया है। जो ये बताने के लिए काफी है कि प्रदेश में काम के अधिकार में कितनी लचर व्यवस्थाऐं चल रही है । जिनके चलते सरकारी अमला और पंचायतीराज के नुमाइंदों ने नरेगा को किस हद तक भ्रश्टाचार के दलदल में धकेल अपनी जेबें भरने का काम किया जा रहा है।
राजस्थान के भरतपुर के बयाना में 98 दलित मजदूरों ने 13 जुलाई को एक शिकायत उपखंड अधिकारी को सौंपी। शिकायत में कहा गया था कि उनके गॉव में 1 से 15 जून तक चले नरेगा कार्य में सवर्ण जाति के मजदूरों ने उनके साथ रहकर कोई काम नहीं किया था। कार्यस्थल जिसके निर्धारण में भी उनके साथ भेदभाव हुआ उसपर काम करने केवल वो 98 मजदूर ही गये थे। उन्हें अपने पीने के पानी की व्यवस्था भी अपने साथ ले जाकर करनी पडी थी। मजदूरों के अनुसार पूरे मामले का खुलासा काम करने के पैसों के स्वीकृत होकर आने पर सामने आया। उनके प्रतिदिन के काम की दर केवल 62 रूप्ये प्रतिदिन की दर से स्वीकृत की गई। इस बात से दुखी मजदूरों ने जब जानकारी ली तो पता चला कि उनके साथ काम करने वालों की संख्या तो सूची में 150 दर्शायी गई है। जिससे पूरा मामला उनकी समझ में आ गया कि 98 मजदूरों के काम को 150 दर्शाने के कारण उनकी मजदूरी दर 62 रूपये आई है।
ये पूरा मामला ठीक उसी प्रकार से है जैसे फोटो में प्रकाशित बयाना पंचायत के मुख्य द्वार के पास लिखे नारे में लिखा है ´काम का पूरा दाम मिलेगा´ में से मिलेगा मिट सा गया है । ठीक ऐसा ही बाकया उन मजदूर के साथ हुआ है, जिसमें उन्हें काम तो मिला है मगर काम करने पर पूरे दाम नही मिले है। शिकायत करने की हिम्मत जुटा बमुश्किल मजदूर उपखंड अधिकारी के पास पहुंचे । उन्होंने पंचायत समिति के कार्यक्रम अधिकारी को जॉच सोंप औपचारिकता पूरी कर दी। 15 दिनों तक कोई कार्यवाही न होते देख इन मजदूरों ने एक बार फिर हिम्मत का प्रदर्शन कर संभागीय आयुक्त तक अपनी बात को पहुंचाया। उन्होंने उपखंड अधिकारी को जॉच के आदेश दे दिये। आज दिन तक मजदूरों की बात सरकारी कागजों में कही रेंग रही होगी। मजदूरों की मानें तो उनके पास उनकी बात सुनने उपखंड अधिकारी आज तक नहीं आये हैं।
वही दूसरी और गरीब दलित मजदूरों को अन्य प्रकारों से धमकाने की बाते भी मजदूर दबी जबान में स्वीकार कर रहे है । जिनमें खेत खलिहानों में न जाने देना,गॉव में रहते हुये अनेकों प्रकार से प्रताडित करने की बात भी उनके सामने रखी गई। जिसमें उनकी खडी फसल को उजाड देना, मारपीट करना आदि। सरकारी जॉच के भरोसे बैठे मजदूरों के सामने हर गुजरते दिन के साथ संकट खडे होने लग गये थे। ऐसे में गरीब दलित मजदूरों के पास भुगतान को लेने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बच पाया। मजदूर टूट गये और उन्होंने मजबूरन 62 रूप्ये प्रतिदिन की दर से ही अपना भुगतान ले लिया हैं। मजदूरों का कहना है कि अब कभी वो नरेगा के तहत काम नही करेगे, उधर कमिश्नर कार्यालय अभी मामले की जानकारी लेने की बात ही कर रहा है।
नरेगा के भ्रष्टाचार की ये तो एक दास्तान मात्र है। हॉल ही में राजधानी में आयोजित कलक्टरर्स कॉन्फ्रेंस में करौली कलक्टर ने मुख्यमंत्री की उपस्थिति में अपने जिले में 30 हजार फर्जी जॉब कार्ड होने की बात कहकर सबको चौंका दिया था। धौलपुर,भीलबाडा,अलवर,जोधपुर,जैसलमेर और अजमेर से ऐसे मामले प्रकाश में आये है जहॉ फर्जी मस्टरौलों में साधु संतों ,स्कूली छात्र छात्राओं और स्वर्गवासी हो चुके लोगों के नाम सामने आये है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों के नाम से भुगतान भी उठा लिया गया है।
नरेगा के भ्रश्टाचार को अब तो प्रदेश के पंचायतीराज और ग्रामीण विकास मंत्री भरतसिंह ने भी खुले मन से स्वीकार कर लिया है । उनके अनुसार ´´नरेगा की रोजाना सैकड़ों शिकायतें नहीं भारी गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार की जानकारी मिल रहीं है। जिसका जहॉ बस चल रहा है वह वहीं से चोरी करने में जुटा हुआ है।´´ इसके बाद ये कहा जा सकता है कि प्रदेश में 8000 हजार करोड़ रूपये के विशालकाय बजट वाली इस योजना में किस प्रकार लूट और धमाचौकडी का खुला खेल खेला जा रहा है । जो इसके मूल लक्ष्यों और भावनाओं के एक दम विपरीत है।
लेखक- राजीव शर्मा (विस्फोट.कॉम से साभार)
Wednesday, October 14, 2009
Saturday, October 10, 2009
दलित साहित्यकार बन गया राजमिस्त्री
बात थोड़ी पुरानी जरूर हो गयी है लेकिन हालात अभी भी बदले नहीं है. नागरिक अधिकार मंच और युवा संवाद के द्वारा मजदूर दिवस के अवसर पर शहर के मजदूर पीठों पर नुक्कड़ सभा का आयोजन किया गया । इसी दरमियान नेहरू नगर चौक पर मुलाकात हुई काम के इंतजार में खड़े राज मिस्त्री मूलचंद मेधोनिया से । इस मजदूर से मजदूर दिवस की बात करते - करते दलित साहित्यकार की उपेक्षा का नया ही अध्याय खुल गया ।
35 साल के मूलचंद ग्राम चीचली जिला नरसिंहपुर के रहने वाले है। अपने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लड़ने वाले दादा से प्रेरित होकर वे दलित समाज व साहित्य की सेवा में युवावस्था से ही जुट पड़े । संत रविदास , कबीर ,गुरू घासीदास के साहित्य और मानव सेवा को आधार बनाकर मूलचंद ने दलित व आदिवासी समाज के बीच चेतना जगाने और संगठित करने का काम किया । स्वयं दलित समाज से होने तथा क्षेत्र में दलित समाज की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने तमाम पत्र - पत्रिकाओं में काव्य , आलेख व बुंदेलखंड शैली के साहित्य का लेखन किया। नरसिंहपुर जिले में न सिर्फ दलित समाज को संगठित व जागरूक करने का पराक्रम किया साथ ही दलित साहित्य अकादमी व दलित समाज के राष्ट्रीय आयोजनों में हिस्सा लिया । स्वयं मूलचंद जी ने मध्यप्रदेश दलित साहित्यकार मंच की स्थापना कर उल्लेखनीय कार्य किया । साहित्य भूषण की मानद उपाधि प्राप्त यह साहित्यकार समाज सेवा व पत्रकारिता के लिए वर्ष 1994 में दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है । बात सम्मान की हो तो मेधोनिया के पास सम्मानपत्रों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन इन सम्मानपत्रों के ढेर से तो गुजारा नहीं किया जा सकता।
मध्यप्रदेश के शीर्षस्थ साहित्यकारों और नेताओं के साथ खिची फोटो और समाचार की कतरनें इसी ढ़ेर में दिखाई पड़तें है ।परिवार से बातचीत में मूलचंद की बूढ़ी माँ बताती है कि हमारे बेटे ने यही कमाई की है। युवा ऊर्जा से भरे मूलचंद ने जिला पंचायत के चुनाव में भी उतरने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय दलीय नेताओं के लिए वे मनमानी और भ्रष्टाचार के बीच रोड़ा बनने लग गये । अंतत: संगठित दलीय नेतृत्व ने उन्हें मारने पीटने से लेकर बदनाम करने तक के हर हथकंडे का प्रयोग किया ।मजबूर होकर मेधोनिया को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी ।
गत 5 वर्षों से मूलचंद मेधोनिया शेपाल शहर के झुग्गी बस्ती पंपापुर में 8x8 के किराये के मकान में रहता है। दलित साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र का यह सक्रिय रचनाधर्मी नेहरू नगर चौक के मजदूर पीठे पर तपती दोपहर में खड़ा रहने को मजबूर है। मूलचंद की अब पहचान राष्ट्रीय दलित साहित्यकार की न होकर राज मिस्त्री के रूप में होती है। वह बताते है कि मजदूरी मिलने के इंतजार में पीठे पर दोपहर तक भी खड़ा रहना पड़ता है कि शायद आधे दिन ही मजदूरी नसीब हो जाये । परिवार की गरीबी और सरकार की उपेक्षा से तंग आ चुके मूलचंद बताते है कि उन्होंने असंगठित मजदूरो और दलित साहित्यकारों को संगठित करने हेतु मंच भी बनाया किंतु मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी और संस्कृति विभाग से आज तक किसी प्रकार का पुरस्कार या आर्थिक सहयोग नहीं मिल सका ।
प्रदेश में राजनैतिक आधार पर साहित्यकारों को जहाँ सम्मान मिलता रहा वही वास्तविक हकदार की उपेक्षा की गईं । एक बार तो तंग आकर इस साहित्यकार ने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति तक मॉग ली लेकिन न वह मिली और न आज तक उसकी जिंदगी का , उसके अंदर बैठे साहित्यकर्म और सेवा के जज्बे का घुट घुट कर मरना खत्म हुआ। तो तपते पीठे पर अपनी मजदूरी की आस में खड़ा यह मजदूर अपने हक का इंतजार कर रहा है। तो कब खत्म होगा यह इंतजार? ..... प्रश्न तो हमारी तरफ भी है।
(विस्फोट.कॉम से साभार)
35 साल के मूलचंद ग्राम चीचली जिला नरसिंहपुर के रहने वाले है। अपने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लड़ने वाले दादा से प्रेरित होकर वे दलित समाज व साहित्य की सेवा में युवावस्था से ही जुट पड़े । संत रविदास , कबीर ,गुरू घासीदास के साहित्य और मानव सेवा को आधार बनाकर मूलचंद ने दलित व आदिवासी समाज के बीच चेतना जगाने और संगठित करने का काम किया । स्वयं दलित समाज से होने तथा क्षेत्र में दलित समाज की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने तमाम पत्र - पत्रिकाओं में काव्य , आलेख व बुंदेलखंड शैली के साहित्य का लेखन किया। नरसिंहपुर जिले में न सिर्फ दलित समाज को संगठित व जागरूक करने का पराक्रम किया साथ ही दलित साहित्य अकादमी व दलित समाज के राष्ट्रीय आयोजनों में हिस्सा लिया । स्वयं मूलचंद जी ने मध्यप्रदेश दलित साहित्यकार मंच की स्थापना कर उल्लेखनीय कार्य किया । साहित्य भूषण की मानद उपाधि प्राप्त यह साहित्यकार समाज सेवा व पत्रकारिता के लिए वर्ष 1994 में दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है । बात सम्मान की हो तो मेधोनिया के पास सम्मानपत्रों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन इन सम्मानपत्रों के ढेर से तो गुजारा नहीं किया जा सकता।
मध्यप्रदेश के शीर्षस्थ साहित्यकारों और नेताओं के साथ खिची फोटो और समाचार की कतरनें इसी ढ़ेर में दिखाई पड़तें है ।परिवार से बातचीत में मूलचंद की बूढ़ी माँ बताती है कि हमारे बेटे ने यही कमाई की है। युवा ऊर्जा से भरे मूलचंद ने जिला पंचायत के चुनाव में भी उतरने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय दलीय नेताओं के लिए वे मनमानी और भ्रष्टाचार के बीच रोड़ा बनने लग गये । अंतत: संगठित दलीय नेतृत्व ने उन्हें मारने पीटने से लेकर बदनाम करने तक के हर हथकंडे का प्रयोग किया ।मजबूर होकर मेधोनिया को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी ।
गत 5 वर्षों से मूलचंद मेधोनिया शेपाल शहर के झुग्गी बस्ती पंपापुर में 8x8 के किराये के मकान में रहता है। दलित साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र का यह सक्रिय रचनाधर्मी नेहरू नगर चौक के मजदूर पीठे पर तपती दोपहर में खड़ा रहने को मजबूर है। मूलचंद की अब पहचान राष्ट्रीय दलित साहित्यकार की न होकर राज मिस्त्री के रूप में होती है। वह बताते है कि मजदूरी मिलने के इंतजार में पीठे पर दोपहर तक भी खड़ा रहना पड़ता है कि शायद आधे दिन ही मजदूरी नसीब हो जाये । परिवार की गरीबी और सरकार की उपेक्षा से तंग आ चुके मूलचंद बताते है कि उन्होंने असंगठित मजदूरो और दलित साहित्यकारों को संगठित करने हेतु मंच भी बनाया किंतु मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी और संस्कृति विभाग से आज तक किसी प्रकार का पुरस्कार या आर्थिक सहयोग नहीं मिल सका ।
प्रदेश में राजनैतिक आधार पर साहित्यकारों को जहाँ सम्मान मिलता रहा वही वास्तविक हकदार की उपेक्षा की गईं । एक बार तो तंग आकर इस साहित्यकार ने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति तक मॉग ली लेकिन न वह मिली और न आज तक उसकी जिंदगी का , उसके अंदर बैठे साहित्यकर्म और सेवा के जज्बे का घुट घुट कर मरना खत्म हुआ। तो तपते पीठे पर अपनी मजदूरी की आस में खड़ा यह मजदूर अपने हक का इंतजार कर रहा है। तो कब खत्म होगा यह इंतजार? ..... प्रश्न तो हमारी तरफ भी है।
(विस्फोट.कॉम से साभार)
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