Tuesday, December 8, 2009

हर 18वें मिनट में होता है दलित के साथ अत्याचार

कभी-कभी यह मानने को विवश हो जाना पड़ता है कि हम दलित शायद तमाम अत्याचार, पीड़ा, अपमान और ज्यादतियां सहने के लिए ही इस धरती पर आएं हैं. यकीं नहीं आता तो इस आंकड़े को देखिए. हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है. हर हफ्ते पांच दलितों के घर जलाए जाते हैं. छह का अपहरण होता है. 11 दलितों की पिटाई होती है और हर सप्ताह 13 दलितों की हत्या होती है. यानि कुल मिलाकर हर 18वें मिनट में किसी न किसी दलित भाई के साथ अत्याचार हो रहा होता है. यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र का है. देश के 11 राज्यों के 565 गांवों में कराए गए सर्वे से यह बात सामने आई है. यह भी तय है कि अन्य गांवों या राज्यों की स्थिति इससे बेहतर नहीं होगी. यह आंकड़े पिछले पांच साल के हैं.
यह आंकड़े उस स्थिति के हैं जब आज भी तमाम थाने में दलितों पर अत्याचार की रिपोर्ट नहीं लिखी जाती. कई तो खुद ही रिपोर्ट नहीं लखवाते हैं. समाजिक बदलाव के दावों के बीच ये आंकड़े बता रहे हैं कि सभी दावे बस कागजी भर हैं. इसी अध्ययन में जारी कई अन्य आंकड़ों को देखें तो वह भी दलितों पर अत्याचार की बानगी ही पेश करते हैं. आंकड़ों के मुताबिक 33 फीसदी गांवों में स्वास्थकर्मी दलितों के घर जाकर उनका इलाज करने से मना कर देते हैं. करीब 38 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को दोपहर का भोजन अलग बैठा कर कराया जाता है. 23.5 फीसदी गांवों में दलितों को उनके घरवालों की चिठ्ठी नहीं मिलती. यानि दलित समाज के सौ में से लगभग 25 लोगों को डाकिया उनकी चिठ्ठी नहीं देता है. वहीं लगभग 50 फीसदी (48.4) गांवों में दलितों को सावर्जनिक जल स्रोतों से पानी नहीं लेने दिया जाता है. वहीं उच्च समुदाय के लोगों से दलित कितने प्रताड़ित हैं, इसका लेखा भी इस अध्ययन में है. इसके मुताबिक 27.6 फीसदी गांवों में दलितों को थाने तक नहीं पहुंचने दिया जाता है.

Monday, December 7, 2009

दलित युवक कुर्सी पर बैठ गया तो गोली मार दी

घटना चार दिसंबर, 09 की है. बिहार के छपरा जिले में एक युवक की गोली मार कर हत्या कर दी गई. उस युवक की दो गलतियां थी. पहला वह दलित था और दूसरा दलित होने के बावजूद वह कुर्सी पर बैठ गया. घटना छपरा जिले के सलेमपुर गांव की है. गांव में राजपूत जाति के एक व्यक्ति के यहां बारात आई थी. द्वारपूजा का वक्त था. वहीं पर गांव का एक दलित युवक कुर्सी पर बैठा था. यह बात दूल्हे के पिता को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने उसे गोली मार दी. मौके पर ही दलित युवक की मौत हो गई.

Wednesday, October 14, 2009

अब नरेगा में भी दबंगों से हार गए दलित

जिस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक वोट से सरकारें गिर जाती है, उसी संसद के द्वारा देश में पहली बार मजदूरों को दिये गये रोजगार के अधिकार कानून में 98 दलित मजदूर हार गये और 52 सवर्ण बाहुबली जीत गये है। सरकारी जॉच की रफ्तार कछुआ चाल से कुछ कदम भी नही चल पाई की गॉव के दबंग समूहों और जनप्रतिनिधियों ने दलित मजदूरों पर चाणक्य नीति के साम, दाम, दण्ड औरद भेद के सभी प्रयोग कर दिये गये। आखिर पहले से ही बमुश्किल अपने शोशण के खिलाफ आवाज उठाने कि हिम्मत जुटा पाये मजदूरों ने हार मान ली। वो बहुमत में होते हुये भी लोकतंत्र में हार गये।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून ´´नरेगा´´ के तहत दीवारों पर करोडों के खर्चो से लिखी गई इबारतें एक बार फिर शो पीस ही साबित हुई।
हर हाथ को काम मिलेगा,काम का पूरा दाम मिलेगा । कहीं न खाना पूर्ति होगी,पारदर्शिता पूरी होगी। नहीं चलेगी अब मनमानी,होगी चौतरफा निगरानी।
पूरी पूरी मिलै पगार,दूर हटाए ठेकेदार। उसको बोर्ड लगाना होगा,सब ब्यौरा बतलाना होगा। रोजगार गारंटी आई है,सब के घर खुशहाली लाई है।
दीवारों पर लिखे इन बड़े बड़े नारों से भरतपुर के बयाना में रहने वाले दलित गरीब मजदूर इत्तिफाक नहीं रखते है। ये पूरा बाकया राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून ´नरेगा´ के भ्रष्टाचार से जुड़ा हुआ था। 15 माह के बीच 20 शिकायतों से जूझ रहे राजस्थान में आईने की तरह साफ एक शिकायत में दलित मजदूरों ने आखिर चाणक्य नीति के सूत्रों के आगे समर्पण कर दिया है। जो ये बताने के लिए काफी है कि प्रदेश में काम के अधिकार में कितनी लचर व्यवस्थाऐं चल रही है । जिनके चलते सरकारी अमला और पंचायतीराज के नुमाइंदों ने नरेगा को किस हद तक भ्रश्टाचार के दलदल में धकेल अपनी जेबें भरने का काम किया जा रहा है।
राजस्थान के भरतपुर के बयाना में 98 दलित मजदूरों ने 13 जुलाई को एक शिकायत उपखंड अधिकारी को सौंपी। शिकायत में कहा गया था कि उनके गॉव में 1 से 15 जून तक चले नरेगा कार्य में सवर्ण जाति के मजदूरों ने उनके साथ रहकर कोई काम नहीं किया था। कार्यस्थल जिसके निर्धारण में भी उनके साथ भेदभाव हुआ उसपर काम करने केवल वो 98 मजदूर ही गये थे। उन्हें अपने पीने के पानी की व्यवस्था भी अपने साथ ले जाकर करनी पडी थी। मजदूरों के अनुसार पूरे मामले का खुलासा काम करने के पैसों के स्वीकृत होकर आने पर सामने आया। उनके प्रतिदिन के काम की दर केवल 62 रूप्ये प्रतिदिन की दर से स्वीकृत की गई। इस बात से दुखी मजदूरों ने जब जानकारी ली तो पता चला कि उनके साथ काम करने वालों की संख्या तो सूची में 150 दर्शायी गई है। जिससे पूरा मामला उनकी समझ में आ गया कि 98 मजदूरों के काम को 150 दर्शाने के कारण उनकी मजदूरी दर 62 रूपये आई है।
ये पूरा मामला ठीक उसी प्रकार से है जैसे फोटो में प्रकाशित बयाना पंचायत के मुख्य द्वार के पास लिखे नारे में लिखा है ´काम का पूरा दाम मिलेगा´ में से मिलेगा मिट सा गया है । ठीक ऐसा ही बाकया उन मजदूर के साथ हुआ है, जिसमें उन्हें काम तो मिला है मगर काम करने पर पूरे दाम नही मिले है। शिकायत करने की हिम्मत जुटा बमुश्किल मजदूर उपखंड अधिकारी के पास पहुंचे । उन्होंने पंचायत समिति के कार्यक्रम अधिकारी को जॉच सोंप औपचारिकता पूरी कर दी। 15 दिनों तक कोई कार्यवाही न होते देख इन मजदूरों ने एक बार फिर हिम्मत का प्रदर्शन कर संभागीय आयुक्त तक अपनी बात को पहुंचाया। उन्होंने उपखंड अधिकारी को जॉच के आदेश दे दिये। आज दिन तक मजदूरों की बात सरकारी कागजों में कही रेंग रही होगी। मजदूरों की मानें तो उनके पास उनकी बात सुनने उपखंड अधिकारी आज तक नहीं आये हैं।
वही दूसरी और गरीब दलित मजदूरों को अन्य प्रकारों से धमकाने की बाते भी मजदूर दबी जबान में स्वीकार कर रहे है । जिनमें खेत खलिहानों में न जाने देना,गॉव में रहते हुये अनेकों प्रकार से प्रताडित करने की बात भी उनके सामने रखी गई। जिसमें उनकी खडी फसल को उजाड देना, मारपीट करना आदि। सरकारी जॉच के भरोसे बैठे मजदूरों के सामने हर गुजरते दिन के साथ संकट खडे होने लग गये थे। ऐसे में गरीब दलित मजदूरों के पास भुगतान को लेने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बच पाया। मजदूर टूट गये और उन्होंने मजबूरन 62 रूप्ये प्रतिदिन की दर से ही अपना भुगतान ले लिया हैं। मजदूरों का कहना है कि अब कभी वो नरेगा के तहत काम नही करेगे, उधर कमिश्नर कार्यालय अभी मामले की जानकारी लेने की बात ही कर रहा है।
नरेगा के भ्रष्टाचार की ये तो एक दास्तान मात्र है। हॉल ही में राजधानी में आयोजित कलक्टरर्स कॉन्फ्रेंस में करौली कलक्टर ने मुख्यमंत्री की उपस्थिति में अपने जिले में 30 हजार फर्जी जॉब कार्ड होने की बात कहकर सबको चौंका दिया था। धौलपुर,भीलबाडा,अलवर,जोधपुर,जैसलमेर और अजमेर से ऐसे मामले प्रकाश में आये है जहॉ फर्जी मस्टरौलों में साधु संतों ,स्कूली छात्र छात्राओं और स्वर्गवासी हो चुके लोगों के नाम सामने आये है। इतना ही नहीं ऐसे लोगों के नाम से भुगतान भी उठा लिया गया है।
नरेगा के भ्रश्टाचार को अब तो प्रदेश के पंचायतीराज और ग्रामीण विकास मंत्री भरतसिंह ने भी खुले मन से स्वीकार कर लिया है । उनके अनुसार ´´नरेगा की रोजाना सैकड़ों शिकायतें नहीं भारी गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार की जानकारी मिल रहीं है। जिसका जहॉ बस चल रहा है वह वहीं से चोरी करने में जुटा हुआ है।´´ इसके बाद ये कहा जा सकता है कि प्रदेश में 8000 हजार करोड़ रूपये के विशालकाय बजट वाली इस योजना में किस प्रकार लूट और धमाचौकडी का खुला खेल खेला जा रहा है । जो इसके मूल लक्ष्यों और भावनाओं के एक दम विपरीत है।
लेखक- राजीव शर्मा (विस्फोट.कॉम से साभार)

Saturday, October 10, 2009

दलित साहित्यकार बन गया राजमिस्त्री

बात थोड़ी पुरानी जरूर हो गयी है लेकिन हालात अभी भी बदले नहीं है. नागरिक अधिकार मंच और युवा संवाद के द्वारा मजदूर दिवस के अवसर पर शहर के मजदूर पीठों पर नुक्कड़ सभा का आयोजन किया गया । इसी दरमियान नेहरू नगर चौक पर मुलाकात हुई काम के इंतजार में खड़े राज मिस्त्री मूलचंद मेधोनिया से । इस मजदूर से मजदूर दिवस की बात करते - करते दलित साहित्यकार की उपेक्षा का नया ही अध्याय खुल गया ।
35 साल के मूलचंद ग्राम चीचली जिला नरसिंहपुर के रहने वाले है। अपने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लड़ने वाले दादा से प्रेरित होकर वे दलित समाज व साहित्य की सेवा में युवावस्था से ही जुट पड़े । संत रविदास , कबीर ,गुरू घासीदास के साहित्य और मानव सेवा को आधार बनाकर मूलचंद ने दलित व आदिवासी समाज के बीच चेतना जगाने और संगठित करने का काम किया । स्वयं दलित समाज से होने तथा क्षेत्र में दलित समाज की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने तमाम पत्र - पत्रिकाओं में काव्य , आलेख व बुंदेलखंड शैली के साहित्य का लेखन किया। नरसिंहपुर जिले में न सिर्फ दलित समाज को संगठित व जागरूक करने का पराक्रम किया साथ ही दलित साहित्य अकादमी व दलित समाज के राष्ट्रीय आयोजनों में हिस्सा लिया । स्वयं मूलचंद जी ने मध्यप्रदेश दलित साहित्यकार मंच की स्थापना कर उल्लेखनीय कार्य किया । साहित्य भूषण की मानद उपाधि प्राप्त यह साहित्यकार समाज सेवा व पत्रकारिता के लिए वर्ष 1994 में दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है । बात सम्मान की हो तो मेधोनिया के पास सम्मानपत्रों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन इन सम्मानपत्रों के ढेर से तो गुजारा नहीं किया जा सकता।
मध्यप्रदेश के शीर्षस्थ साहित्यकारों और नेताओं के साथ खिची फोटो और समाचार की कतरनें इसी ढ़ेर में दिखाई पड़तें है ।परिवार से बातचीत में मूलचंद की बूढ़ी माँ बताती है कि हमारे बेटे ने यही कमाई की है। युवा ऊर्जा से भरे मूलचंद ने जिला पंचायत के चुनाव में भी उतरने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय दलीय नेताओं के लिए वे मनमानी और भ्रष्टाचार के बीच रोड़ा बनने लग गये । अंतत: संगठित दलीय नेतृत्व ने उन्हें मारने पीटने से लेकर बदनाम करने तक के हर हथकंडे का प्रयोग किया ।मजबूर होकर मेधोनिया को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी ।
गत 5 वर्षों से मूलचंद मेधोनिया शेपाल शहर के झुग्गी बस्ती पंपापुर में 8x8 के किराये के मकान में रहता है। दलित साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र का यह सक्रिय रचनाधर्मी नेहरू नगर चौक के मजदूर पीठे पर तपती दोपहर में खड़ा रहने को मजबूर है। मूलचंद की अब पहचान राष्ट्रीय दलित साहित्यकार की न होकर राज मिस्त्री के रूप में होती है। वह बताते है कि मजदूरी मिलने के इंतजार में पीठे पर दोपहर तक भी खड़ा रहना पड़ता है कि शायद आधे दिन ही मजदूरी नसीब हो जाये । परिवार की गरीबी और सरकार की उपेक्षा से तंग आ चुके मूलचंद बताते है कि उन्होंने असंगठित मजदूरो और दलित साहित्यकारों को संगठित करने हेतु मंच भी बनाया किंतु मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी और संस्कृति विभाग से आज तक किसी प्रकार का पुरस्कार या आर्थिक सहयोग नहीं मिल सका ।
प्रदेश में राजनैतिक आधार पर साहित्यकारों को जहाँ सम्मान मिलता रहा वही वास्तविक हकदार की उपेक्षा की गईं । एक बार तो तंग आकर इस साहित्यकार ने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति तक मॉग ली लेकिन न वह मिली और न आज तक उसकी जिंदगी का , उसके अंदर बैठे साहित्यकर्म और सेवा के जज्बे का घुट घुट कर मरना खत्म हुआ। तो तपते पीठे पर अपनी मजदूरी की आस में खड़ा यह मजदूर अपने हक का इंतजार कर रहा है। तो कब खत्म होगा यह इंतजार? ..... प्रश्न तो हमारी तरफ भी है।
(विस्फोट.कॉम से साभार)

Thursday, May 14, 2009

देश को जरूरत दलित थेरपी की

उत्तर भारत में एक परंपरा है। परंपरा के अनुसार शादियों के अवसर पर सवर्ण परिवार सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं। परिवार के सदस्य की मृत्यु के अवसर पर भी सामूहिक भोज का आयोजन होता है, जहां गांव के हर परिवार से कम से कम एक व्यक्ति भोजन के लिए आमंत्रित होता है। दलित भी इस निमंत्रण में शामिल किए जाते हैं।
अभी हाल में अमेरिका स्थित विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया से संबद्ध सेंटर फॉर द एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया ने यूपी के 20 हजार दलित परिवारों का सर्वे करवाया। सर्वे का फोकस था : 1990-2007 के दौरान दलितों की खानपान की आदतों, लाइफ स्टाइल और नौकरीपेशा में क्या परिवर्तन आया। इसमें दलित परिवारों से 80 सवाल पूछे गए। एक सवाल यह था कि 'क्या सवर्णों द्वारा आयोजित सामूहिक भोजों में आपको अलग पंक्ति में बिठा कर खाना खिलाया जाता था? कुल 75.2 प्रतिशत परिवारों ने कहा 'हां'। यानी, ग्रामीण यूपी में पैदा हुए 40 वर्ष के दलितों के तीन-चौथाई हिस्से ने अपने जीवनकाल में कभी न कभी अलग पंक्ति में बैठकर भोजन किया होगा।
यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक सवाल यह भी पूछा कि 1990 के आसपास सवर्णों के मृत जानवरों को कौन उठाता था? 39.9 प्रतिशत दलितों ने कहा कि 'केवल दलित'। दस वर्ष और पीछे जाकर यह सवाल पूछा गया होता, तो उत्तर शायद यह होता- 'केवल दलित'। यानी तब यह प्रतिशत सौ फीसदी होता। ग्रामीण भारत से संबंध रखने वाले पाठक यह जानते ही होंगे कि मृत जानवरों को उठाने के एवज में दलितों को कोई मजदूरी नहीं मिलती थी। दलितों का यह सामाजिक दायित्व था। अतीत में भी जाने की जरूरत नहीं है और न ही दिल्ली से बहुत दूर। भारत की राजधानी के 50 किलोमीटर के दायरे में ही हर साल दर्जनों ऐसी घटनाएं होती हैं जहां दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार दिया जाता है और दलितों की शादियों में बारातियों पर हिंसक हमले होते हैं। मात्र जूते पहनने, धूप का चश्मा लगाने या छाता तान कर चलने पर भी दलितों पर हमले हो चुके हैं।
मनुष्य के चेतना निर्माण में उसके जीवन-अनुभवों की बड़ी भूमिका होती है। दलित चेतना पर कोई एकतरफा राय बनाने से पूर्व कृपया दलित जीवन पर थोपे गए अपमानों पर भी एक बार ध्यान दें। जीवन के अनुभव से रचित दलित चेतना में मुख्य धारा के समाज के प्रति घोर अविश्वास है। जब तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को टीवी पर कैश लेते हुए दिखाया गया तो इस लेखक के संपर्क के सारे दलितों ने इसे एक 'साजिश' करार दिया था। दलितों की राय आज भी नहीं बदली है।
भारत का राजनीतिक ढांचा तब तक अच्छा नहीं बन पाएगा, जब तक देश का सामाजिक ढांचा अच्छा नहीं बन जाता। पर किसी सामाजिक ढांचे को कभी भी नियम, कानून, न्यायपालिका, पुलिस या सैन्य शक्ति की ताकत से नहीं बदला जा सकता है। सामाजिक ढांचे के पुनर्निमाण में 'सोशल थेरपी' की जरूरत पड़ती है। अब तो मेडिकल साइंस भी यह मान चुकी है कई बीमारियों का इलाज थेरपी से ही संभव है। भारत के जाति-समाज को अब जरूरत दलित थेरपी की है।
इस संदर्भ में वर्तमान लोकसभा चुनाव भारतीयों को एक बड़ा अवसर प्रदान कर रहा है। यदि इन चुनावों के जरिए दलित प्रधानमंत्री चुना जाता है, तो यह भारतवासियों का सौभाग्य होगा। दलित प्रधानमंत्री से हमें कुछ भी नया नहीं चाहिए। बस एक दलित प्रधानमंत्री चाहिए। दलित प्रधानमंत्री का अर्थ और महत्व कुछ और ही है। पांच वर्ष के अपने कार्यकाल में दलित प्रधानमंत्री दलितों को कुछ दिए बगैर ही, एक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात कर सकता है। दलित प्रधानमंत्री अनजाने और अनचाहे सोशल पॉइंट ऑफ रेफरेंस बदल सकता है। दलित प्रधानमंत्री मात्र दिल्ली की गद्दी पर नहीं बैठेगा, भारतवासियों के दिमाग में बैठेगा। दिमाग में पैठे दलित प्रधानमंत्री के कारण दलित यह नहीं कह पाएंगे कि 'यह समाज हमें स्वीकार नहीं करता।' इससे दलितों का व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा। दूसरी ओर, दलित प्रधानमंत्री के कारण गैर-दलित समाज भी दलितों को परंपरागत ढंग से परिभाषित नहीं कर सकेगा।
दलित प्रधानमंत्री बड़ी तेजी से दलित संबंधी सोशल पॉइंट ऑफ रेफेरेंस बदलना शुरू कर सकता है। दलित जब देश का प्रधानमंत्री होगा तो गैर-दलित समाज में दलित दूल्हों की भी स्वीकार्यता बढ़ सकेगी। गैर दलितों से रिश्तेदारी बना कर दलित समाज भी गैर-दलित समाज को अपना ही समझना शुरू कर सकेगा।
अमेरिका के ब्लैक बुद्धिजीवी बराक ओबामा को इसी तरह देख और समझ रहे हैं। उनकी दृष्टि में ओबामा के प्रेजिडेंट चुने जाने के कारण आम ब्लैक समाज की सेल्फ इस्टीम बढ़ रही है तथा अमेरिकी समाज के प्रति अविश्वास के भाव में कमी आ रही है। यदि ब्लैक थेरपी अमेरिका में कार्य कर सकती है तो दलित थेरपी भारत में भी कार्य कर सकती है।
मायावती के रूप में दलित प्रधानमंत्री की प्रबल संभावना देश के समक्ष मौजूद है। गठबंधन सरकारों के इस दौर में यह जरूरी नहीं है कि कोई पार्टी अकेले ही 272 सीटों के साथ सरकार बना ले। चरण सिंह, चंद्रशेखर देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल कुछ ही सांसदों के साथ प्रधानमंत्री बन चुके हैं। इनमें से कोई भी नेता ऐसा नहीं था, जिसकी अखिल भारतीय स्तर की अपील हो। मायावती को दार्जिलिंग से लेकर अंडमान-निकोबार तक वोट मिलते हैं। यदि मायावती को देश प्रधानमंत्री के तौर पर अपनाता है, तो इससे मायावती के अंदर से भी बहुत सारी कटुताओं का खात्मा हो सकता है। अवसर मिलने से व्यक्ति सीखता है, जिम्मेदारी मिलने पर व्यक्ति जिम्मेदार हो जाता है।
मायावती को प्रधानमंत्री चुनकर देश की राजनीति को भी एक नई दिशा दी जा सकेगी। आजादी को 60 वर्ष हो गए, पर हम राजनीति के अर्थ को ठीक से नहीं समझ पाए हैं। इसी कारण आज चुनाव आयोग में रजिस्टर होने वाली हर पार्टी की एक जातीय पहचान है। तमाम ज्ञानी नेताओं एवं राजनीतिक शास्त्रियों के बावजूद हमने राजनीति को मात्र सत्ता संचालन का औजार समझा। राजनीति को समाज बदलने का औजार इस देश ने माना ही नहीं। परिणाम सबके सामने है। जहां हम आईटी के क्षेत्र में विश्व पटल पर सम्मान पा रहे हैं, वहीं राजनीति के क्षेत्र में नैतिक रूप से पतित होते जा रहे हैं।
== नवभारत टाइम्स के 14 मई के अंक के संपादकीय से साभार (लेखकः चंद्रभान प्रसाद)==

Friday, April 10, 2009

आखिर किसे वोट दें हम दलित?

चुनावी समर में उतरने के लिए सभी तैयार हैं। नेता भी, जनता भी। नेता अपने जातीय समीकरण बैठा रहे हैं तो जनता भी इसी गणित में लगी है कि कौन उम्मीदवार अपना है। किसे वोट देना है। हर किसी की अपनी पार्टी है। सवर्णों की कांग्रेस, बनियों की बीजेपी, पिछड़ों की सपा, जनता दल यूनाइटेड और राजद। दलितों की भी अपनी पार्टी है, जिसकी अगुवाई बिहार में रामविलास और उत्तरप्रदेश में मायावती करती हैं। पिछले सालों में लालू करते थे मगर पासवान ने उनसे दलितों को लगभग छिन लिया है। सिर्फ बिहार और उत्तरप्रदेश की बात इसलिए क्योंकि इन दोनों राज्यों के बिना कोई सरकार नहीं बनने वाली। गठबंधन के दौर में सत्ता की चाबी इन्हीं दोनों राज्यों के बीच ही रही है। चूकि मैं दलित हूं इसलिए यहां सिर्फ दलितों और उनकी पार्टियों की बात।
हम दलित किसे वोट दें, यह समझ नहीं आ रहा। हालांकि ज्यादातर लोगों के सामने मायावती और रामविलास का ही आप्सन है। लेकिन सच कहें तो इनकी कार्यप्रणाली क्षुब्ध करने वाली है। पहले मायावती और उत्तरप्रदेश। ठीक है कि मायावती के शासन में महत्वपूर्ण पदों पर वो तमाम दलित अधिकारी पहुंच जाते हैं जो उनके नहीं होने पर आम तौर पर सचिवालय की फाइलों से धूल झाड़ते रहते हैं। पहले की अपेक्षा दलितों की आवाज भी सुनी जाती है। पुलिस उनकी रपट भी लिख लेती है। हो सकता है कि गांव का भोला-भाला दलित मतदाता इससे खुश भी हो कि मुख्यमंत्री एक दलित हैं। हो सकता है वह उन्हें ही वोट दें। मगर, मध्यम वर्ग का मतदाता, जो सब देख रहा है वह विचलित है।
मायावती की लंबी-लंबी मूर्तियां देखकर उसे खिन्नता होती है। हाथियों के लंबे काफिले उसे परेशान करते हैं। उनकी शानों-शौकत देखकर वह खुन्नस खाता है, क्योंकि यह उसकी गाढ़ी कमाई होती है। मंत्रियों से पैसे लेने वाली मायावती में उन्हें एक लालची औरत की छवि नजर आती है। हमारे यहां कई ऐसे नेता हुए हैं जो अविवाहित रहे हैं और अपने राजनीतिक जीवन को पारदर्शी रखा है। मायावती भी अविवाहित हैं। वह चाहती तो मोह-माया से मुक्त होकर दलित हितों के लिए ऐसा कर सकती थी जो उन्हें अंबेडकर के बाद का स्थान दे सकता था। अंबेडकर के बाद वही एक ऐसी नेता हैं जिन्हें इतने अधिकार मिल पाए हैं और ऐसा कभी-कभी ही होता है। दुर्भाग्य से मायावती इसमें अब तक नाकाम रही हैं।
अब बिहार और रामविलास पासवान की बात। जितनी तेजी से रामविलास बिहार में दलित हितचिंतक के रूप में उभरे थे, वह करिश्माई था। अब वो अपनी उस छवि को खुद से ही तोड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों जब उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था तो उन्होंने उसे ठुकरा कर जैसे अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली थी। तब आम दलित भी निराश हुए थे, हताश हुए थे। उन्होंने जिस तरह से लोगों को दोबारा चुनाव में झोंका उससे उनकी साख गिरी ही। बिहार मे वो जिन लोगों को लोकसभा का टिकट देकर चुनाव जीतते आएं हैं और संसद मे अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं, गौर करें तो अगर उन्हें लोजपा टिकट न भी देती तब भी वो जीत ही जाते। इस मामले में रामविलास भ्रम में हैं। पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन ने उन्हें आइना भी दिखा दिया है।
पिछले दिनों एक रैली में उन्होंने सूरभान सिंह नाम के अपने सांसद को समाज सेवक कह डाला। वह चौंकाने वाला था। सारा देश जानता है कि सूरजभान छंटा हुआ बदमाश हैं। उस पर दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं। उसे समाज सेवक कह कर पासवान ने अपने चरित्र पर भी सवाल उठाने का मौका दिया है। रामविलास से बिहार की जनता को जो उम्मीदें थी उस पर उनकी खुद की कारिश्तानियों से धुंध पड़ती जा रही है।
पिछले सालों में लालू यादव के साथ भी यही हुआ। लालू जब सत्ता में आएं तो उन्होंने अपने भाषणों में हर बार दलित वर्ग का जिक्र कर उसको खुश कर दिया। जब वो किसी के साथ बैठकर ताड़ी पी लेते, मंच पर किसी गरीब को बुलाकर उससे यह पूछते कि बताओ, कौन अधिकारी तुम्हें परेशान करता है। तो लाखों दलित गदगद हो जाते। लगा, आ गया दलितों का मसीहा। लालू कहते हैं कि उनके शासन में दलित सीना चौड़ा कर के घूमते थे। उन्होंने दलितों को सामाजिक न्याय दिलाया। सही है। मगर वह भूल गए कि सीना चौ़ड़ा कर घूमने वाले दलित को पेट भरने के लिए रोटी भी चाहिए होती है। गांव का दलित इस रोटी के लिए बाबुओं और बाबाओं पर ही निर्भर है। भाषण सुनकर वह सीना तो चौड़ा कर लेता था मगर भूख लगते ही उन्हीं के सामने गिड़गिड़ाना उसकी मजबूरी होती थी। सारा का सारा सामाजिक न्याय भूख के आगे दम तोड़ देता। लालू ने उनकी रोटी का इंतजाम नहीं किया। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
दलितों का हितचिंतक कौन है, दलित खुद नहीं समझ पा रहे हैं। बल्कि सच तो यह है कि दलितों का हितचिंतक कोई हो ही नहीं सकता। हमलोगों को दांव पर लगा कर अपना राजनीतिक कैरियर चमकाने वाले ये दलित और पिछड़े नेता जब खुद ऊपर उठ जाते हैं तो टीकाधारी इन्हें लपक लेते हैं। उस समय ये उस जमात में शामिल हो खुद उच्च हो जाते हैं। हम दलितों को भूल जाते हैं। छोड़ देते हैं। यूं ही भूखे-नंगे, रोज की रोटी की खातिर लड़ने के लिए।

Tuesday, March 31, 2009

"दीन दलित" के सहारे जारी है गौरीशंकर की जंग

आजादी के 60 साल बाद भी हम आम दलितों में आत्मविश्वास कम ही आ पाया है। अमूमन अगर कोई हमें डराता है तो हम डर जाते हैं। कोई झिड़क देता है तो चुप हो जाते है। कोई ऐसी चीज जिस पर हमारा हक है, अगर न मिले तो भी चुपचाप सह लेते हैं। झारखंड के दुमका शहर के गौरीशंकर जब सामाजिक सुरक्षा योजना में अपना नाम जुड़वाने के लिए कुछ लोगों के साथ अधिकारियों के पास गए तो उनका भी अपमान किया गया। मगर, एक सामान्य दलित की तरह गौरीशंकर खामोश नहीं रहें। उन्होंने लड़ने की ठान ली। इसके बाद सामने आया 'दीन दलित' नाम का साप्ताहिक अखबार, जिसके बूते गौरीशंकर आमलोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं।
वह हाथ से लिखे जाने वाले इस अखबार के संपादक हैं। या यूं कहें कि रिपोर्टर, डेस्क प्रभारी, पेजमेकर, हॉकर और मालिक सबकुछ वही हैं। दीन दलित का पहला संस्करण अक्टूबर, 1986 में निकला था। तब से आज इक्कीस साल हो गए, सफर बदस्तूर जारी है। खास यह कि वह कभी स्कूल नहीं गए। और आज भी जातिगत पेशे के तहत धोबी का काम करते हैं। गौरीशंकर की आमदनी बहुत कम है लेकिन जज्बा अथाह, जिसके बलबूते वह डटे हुए हैं। लगातार। बिना थके। बिना डरे। बिना रुके।
लेकिन सब इतना आसान नहीं था। गौरीशंकर को शुरुआत में ही मुसीबत का सामना पड़ा। अखबार शुरु करने के लिए उन्हें इसको रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़पेपर्स फॉर इंडिया (आरएनआई) में पंजीकृत कराना था। मगर एक दलित, वो भी बिना पढ़ा-लिखा, ऊपर से जेब से करक, के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया सहज नही थी। इस काम के लिए उन्हें कई बार चक्कर काटना पड़ा। आखिर में देश के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के सहयोग के बाद जाकर अख़बार पंजीकृत हो सका।
हर हफ्ते अखबार निकालने की प्रक्रिया भी आसान नहीं है। चार पेज के इस हिन्दी अखबार को गौरीशंकर खुद अपने हाथ से लिखते हैं। तब जाकर यह पाठकों के पास पहुंचता है। गुजर-बसर के लिए पूरे ह़फ्ते कपड़े धोने के बाद रविवार की सुबह अख़बार की 100 प्रतियां तैयार की जाती है। लगभग 50 प्रतियां नियमित ग्राहकों को बांटी जाती है, 25 सरकारी विभागों में जाती है और बाकी प्रतियों को दुमका की प्रमुख जगहों की दीवारों पर चिपका दिया जाता है। इस नेक काम में उनका पूरा परिवार उनके साथ खड़ा रहता है। उनकी पत्नी और चार बच्चे हर प्रक्रिया में उनकी मदद करते हैं। हालांकि कुछ समय पहले ही ‘दीन दलित’ को उसका पहला रिपोर्टर मिल गया है। किराने की दुकान पर काम करने वाले 45 वर्षीय रविशंकर गुप्ता अब अखबार के लिए खबरें जुटाते हैं। अखबार में स्थानीय स्तर पर हो रहे अन्याय और भ्रष्टाचार से संबंधित खबरें होती है। अब तक इसने कई बार सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टाचार के बारे में लिखा और उसका असर भी हुआ। कई बार ऐसा हुआ जब अख़बार में ख़बर छपने के बाद प्रशासन की आंख खुली और लोगों को न्याय मिला।
हालांकि मैं इस खबर को लिख रहा हूं। पर मुझे पता है कि इसे गौरीशंकर रजक नहीं पढ़ पाएंगें। मगर, जज्बे से भरा यह इंसान हर दलित के लिए प्रेरणा लेने लायक है। जैसे गौरीशंकर दुष्यंत कुमार की लाइनें गुनगुना रहे हों ...."कौन कहता है आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।"

Thursday, March 26, 2009

दलित हित के कानून कितने कारगर

दलितों के हित में कई कानून बनाए गए हैं, यही सोचकर कि हमेशा से शोषित समाज को उनका हक मिल सके, कानून के भय से ही सही, उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थिति मिल सके। लेकिन कानून किताबों में होता है और उसे लागू करवाने वाली संस्थाएं, पुलिस, वकील एवं न्यायाधीश अभी इसकी आत्मा से रूबरू नहीं हैं। वे मानसिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि दलित वास्तविक जीवन में बराबरी के अधिकारी हैं।

मुकदमे हो जाते हैं खारिज

दलितों पर सवर्णो के अत्याचारों के बाबत मुकदमे दर्ज तो हो जाते हैं, पर अदालतों में सवर्ण वकीलों के दांव-पेंच और अनिच्छा के आगे वे मामले दम तोड देते हैं। ज्यादातर मुकदमे वे हार जाते हैं टेक्निकल गडबडियों के कारण। जबकि सर्वोच्च न्यायालय दूसरे मुकदमों में कहता रहता है कि टेक्निकल नुक्तों पर मुकदमे खारिज न करें, न्याय की दृष्टि से फैसला दें।

अन्याय को साबित कैसे करें

प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट, 1989 (अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून 1989) की धारा 3 (1)(एक्स) का लगातार ऐसा मतलब अदालतों द्वारा निकाला जा रहा है कि दलितों के मुकदमों में सजा हो ही नहीं पाती। धारा 3 (1)(एक्स) कहती है, दलित कानून के अंतर्गत मुकदमा तभी चलेगा जब किसी दलित का अपमान या प्रताडना इस इरादे से किया जाए कि प्रताडना देने वाला खुद ऊंची जाति से है और पीडित दलित है। यानी इस अपराध के पीछे अपमानित या प्रताडित करने वाले की मंशा क्या थी यह साबित करना जरूरी होगा। जाहिर है कि प्रताडना देने वाला ऊंची जाति की मानसिकता के चलते ऐसा कर रहा है, इसे साबित करना मुश्किल कार्य है। दलित यह साबित कर दे कि अभियुक्त की मंशा यही है तो भी अदालतें कहती हैं कि इस अपराध का संज्ञान विशेष अदालत ने खुद क्यों लिया या इस घटना की छानबीन डीएसपी से नीचे रैंक वाले पुलिस ऑिफसर ने क्यों की। अंत में यहां तक भी कहा जा सकता है कि तमाम गवाह झूठे हैं।

नायनार बनाम कुटप्पन का केस

उदाहरण के लिए एक मुकदमा देखें। एक दलित व्यक्ति डॉ. कुटप्पन ने शिकायत दर्ज की कि ई.के. नायनार ने एक राजनीतिक जनसभा में अपने भाषण में इस बात पर बार-बार जोर दिया कि डॉ. कुटप्पन दलित वर्ग से आते हैं। उनके बारे में असम्मानजनक शब्दों का इस्तेमाल भी किया गया और ऐसा समूची भीड के सामने किया गया। मुकदमे का ट्रायल विशेष जज थलसरी के समक्ष हुआ। ट्रायल के बाद मुकदमा जब केरल उच्च न्यायालय के सामने आया तो उच्च न्यायालय ने स्थापना दी कि धारा 3 (1)(एक्स) यहां लागू नहीं होती। धारा कहती है-जनता की आंखों के सामने, न कि आम स्थान पर।

अदालत के अनुसार धारा का अर्थ है आम आदमी शिकायतकर्ता को अपनी आंखों के सामने बेइज्जत होता देखे। इसके लिए आवश्यक है कि बेइज्जत होने वाला व्यक्ति वहां मौजूद भीड एवं बोलने वाले के सामने उपस्थित रहे। चूंकि इस मायने में डॉ. कुटप्पन जनता एवं वक्ता के सामने उपस्थित ही नहीं थे, लिहाजा इस घटना को कानून की धारा 3 (1)(एक्स) का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।

सर्वोच्च न्यायालय में भी हार

अदालत ने यह भी माना कि प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट की धारा 7 (1) (डी) के अंतर्गत किसी को हरिजन कह कर बुलाना छूतछात की प्रवृत्ति को बढावा देना या इसे जारी रखना नहीं है। ई. कृष्णन नायनार बनाम डॉ. एम.ए. कुटप्पन-1977 क्रिमिनल लॉ जर्नल, 2036 का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश संतोष हेगडे एवं बीपी सिंह के सामने पहुंचा। लेकिन यहां भी डॉ. कुटप्पन को हार का मुंह देखना पडा। (2004) 4 एस.सी.सी. 231 इन फैसलों से जाहिर है कि अदालतों में दलित हित में बने कानूनों के अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है। ऐसा अनजाने में हो रहा है या जानबूझकर, कहा नहीं जा सकता, लेकिन सच तो है कि ऐसा हो रहा है।

कमलेश जैन
(दैनिक जागरण से साभार)

Wednesday, March 25, 2009

मीडिया में दलित, ढ़ूंढ़ते रह जाओगे।

........मीडिया जगत में 10 से 50 हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता से की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती हैं। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च जाति के लोग आते हैं। वजह है मीडिया में फैसले लेने वाले जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी का 71 प्रतिशत के करीब होना जबकि उनकी देश में कुल आबादी मात्र आठ प्रतिशत ही है। उनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे, इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता........''
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आजादी के दौरान दलितों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रयास विभिन्न आयामों पर शुरू हुए थे। ज्योतिबा फुले से लेकर डा. भीम राव अम्बेदकर तक ने दलित चेतना को नई दिशा दी। ब्राह्मणवादी संस्कृति को चुनौती देते हुए दलितों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास से दलित समाज में नई चेतना का संचार हुआ। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को गोलबंद कर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को धकेलने के प्रयास शुरू हुए। दलित-पिछड़ों ने सामाजिक व्यवस्था में समानता को लेकर अपने को गोलबंद किया। हालांकि आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी समाज के कई क्षेत्रों में आज भी असमानता का राज कायम है। आरक्षण के सहारे कार्यपालिका, न्यायापालिका, विधायिका आदि में दलित आए, लेकिन आज भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के चौथे खम्भे पर काबिज होने में दलित पीछे ही नहीं बल्कि बहुत पीछे हैं। आकड़े इस बात के गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में वर्षों बाद आज भी दलित-पिछड़े हाशिए पर हैं। उनकी स्थिति सबसे खराब है। कहा जा सकता है कि ढूंढते रह जाओगे, लेकिन मीडिया में दलित नहीं मिलेंगे। गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं हैं।
‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ के तहत हाल ही में आए एक सर्वे ने मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ा दी थी। आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला। किसी ने समर्थन में दलित-पिछड़ों को आगे लाने की पुरजोर वकालत की। तो किसी ने यहां तक कह दिया कि भला किसने उन्हें मीडिया में आने से रोका है। मीडिया के दिग्गजों ने जातीय असमानता को दरकिनार करते हुए योग्यता का ढोल पीटा और अपना गिरेबान बचाने का प्रयास किया। दलित-पिछड़े केवल राष्ट्रीय मीडिया से ही दूर नहीं हैं बल्कि राज्य स्तरीय मीडिया में भी उनकी भागीदारी नहीं के बराबर है। वहीं उंची जातियों का कब्जा स्थानीय स्तर पर भी देखने को मिलता है। समाचार माध्यमों में उंची जातियों के कब्जे से इनकार नहीं किया जा सकता है।
मीडिया स्टडी ग्रुप के सर्वे ने जो तथ्य सामने लाए हालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोवेश वही हाल स्थानीय समाचार जगत का है। जहां दलित-पिछडे़ खोजने से न मिलेंगे। आजादी के वर्षों बाद भी मीडिया में दलित-पिछड़े हाशिए पर हैं। मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैं जहां अब भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों को नहीं देखा जा सकता है, खासकर दलितों को। आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का मीडिया हाउसों में 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है। जहां तक मीडिया में जातीय व समुदायगत होने का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि कुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, सात-सात प्रतिशत वैश्य/जैन व राजपूत, नौ प्रतिशत खत्री, दो प्रतिशत गैर-द्विज उच्च जाति और चार प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियां हैं। इसमें दलित कहीं नहीं आते।
वहीं पर जब देश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर विरोध और समर्थन का दौर चल रहा था तभी पांडिचेरी के प्रकाशन संस्थान ‘नवयान पब्लिशिंग’ ने अपनी वेबसाइट पर दिए गए विज्ञापन में 'बुक एडिटर' पद के लिए स्नातकोत्तर छात्रों से आवेदन मांगा और शर्त रख दी कि 'सिर्फ दलित ही आवेदन करें।' इस तरह के विज्ञापन ने मीडिया में खलबली मचा दी। आलोचनाएं होने लगीं। मीडिया के ठेकेदारों ने इसे संविधान के अंतर्गत जोड़ कर देखा। यह सही है या गलत, इस पर राष्ट्रीय बहस की जमीन तलाशी गई। दिल्ली के एक समाचार पत्र ने इस पर स्टोरी छापी और इसके सही गलत को लेकर जानकारों से सवाल दागे। प्रतिक्रिया स्वरूप संविधान के जानकारों ने इसे असंवैधानिक नहीं माना।
सवाल यह उठता है कि अगर ‘‘नवयान पब्लिशिंग’’ ने खुलेआम विज्ञापन निकाल कर अपनी मंशा जाहिर कर दी तो उस पर आपत्ति क्यों? वहीं गुपचुप ढंग से मीडिया हाउसों में उंची जाति के लोगों की नियुक्ति हो जाती है तो कोई समाचार पत्र उस पर बवाल नहीं करता है और न ही सवाल उठाते हुए स्टोरी छापता है? कुछ वर्ष पहले बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ने जब अपने कुछ पत्रकारों को निकाला था तब एक पत्रिका ने अखबार के जाति प्रेम को उजागर किया था। पत्रिका ने साफ-साफ लिखा था कि निकाले गए पत्रकारों में सबसे ज्यादा पिछड़ी जाति के पत्रकारों का होना अखबार का जाति प्रेम दर्शाता है। जबकि निकाले गये सभी पत्रकार किसी मायने में सवर्ण जाति के रखे गये पत्रकारों के काबिलियत के मामले में कम नहीं थे।
जरूरी काबिलियत के बावजूद मीडिया में अभी तक सामाजिक स्वरूप के मद्देनजर दलित-पिछड़े का प्रवेश नहीं हुआ है। जाहिर है, कहा जायेगा कि किसने आपको मीडिया में आने से रोका? तो हमें इसके लिए कई पहलुओं को खंगालना होगा। सबसे पहले मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर जाना होगा। मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए चर्चित मीडियाकर्मी राजकिशोर का मानना है कि दुनिया भर को उपदेश देने वाले टीवी चैनलों में, जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं, नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह सोर्स चल रहा है। वे मानते हैं कि मीडिया जगत में दस से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती हैं। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च जाति के ही लोग आते हैं। इसकी खास वजह यह है कि मीडिया चाहे वह प्रिन्ट (अंग्रेजी-हिन्दी) हो या इलेक्ट्रानिक, फैसले लेने वाले सभी जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है जबकि उनकी कुल आबादी मात्र आठ प्रतिशत ही है। उनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे, इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
वहीं दूसरे पहलू के तहत जातिगत आधार सामने आता है। प्रख्यात पत्रकार अनिल चमड़िया कास्ट कंसीडरेशन को सबसे बड़ा कारण मानते हैं। चमड़िया ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए बताया है कि मीडिया में फैसले लेने वालों में दलित और आदिवासी एक भी नहीं है। जहां तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो वहां एकाध दलित-पिछड़े नजर आ जाते हैं। चमड़िया कहते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत उंची जाति की हिस्सेदारी है और मीडिया हाउसों में फैसले लेने वाले 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर उनका कब्जा बना हुआ है। यह बात स्थापित हो चुकी है और कई लोगों ने अपने निजी अनुभवों के आधार पर माना है कि कैसे कास्ट कंसीडरेशन होता है। यही वजह है कि दलितों को मीडिया में जगह नहीं मिली। जो भी दलित आए, वे आरक्षण के कारण ही सरकारी मीडिया में आये। रेडियो-टेलीविजन में दलित दिख जाते हैं, दूसरी जगहों पर कहीं नहीं दिखते। जहां तक मीडिया में दलितों के आने का सवाल है तो उनको आने का मौका ही नहीं दिया जाता है।
चमड़िया का मानना है कि मामला अवसर का है। हम लोगों का निजी अनुभव यह रहा है कि किसी दलित को अवसर देते हैं तो वह बेहतर कर सकता है। यह हम लोगों ने कई प्रोफेशन में देख लिया है। दलित डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर आदि को अवसर मिला तो उन्होंने बेहतर काम किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में बेहतर अंग्रेजी पढ़ाने वाले लेक्चररों में दलितों की संख्या बहुत अच्छी है, यह वहां के छात्र कहते हैं। बात अवसर का है और दलितों को पत्रकारिता में अवसर नहीं मिलता है। पत्रकारिता में अवसर कठिन हो गया है। उसको अब केवल डिग्री नहीं चाहिये। उसे एक तरह की सूरत, पहनावा, बोली चाहिये। मीडिया प्रोफेशन में मान लीजिये कोई दलित लड़का पढ़कर, सर्टिफिकेट ले भी ले और वह काबिल हो भी जाय, तकनीक उसको आ भी जाए, तो भी उसकी जाति भर्ती में रुकावट बन जाती है।
पत्रकारिता में दलितों की हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई। तभी तो हिन्दी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का भी आरोप लगता रहा है। हंस के संपादक और चर्चित कथाकार-आलोचक राजेन्द्र यादव ने एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में माना है कि हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्रही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ने भी अपनी पत्रकारिता के दौरान वर्ण-व्यवस्था के प्रश्न पर कभी कोई बात नहीं की। इसका कारण बताते हुए यादव कहते हैं कि ये पत्रकार जातिभेद से दुष्प्रभावित भारतीय जीवन की वेदना कितनी असह्य है, इसकी कल्पना नहीं कर पाये। सच भी है, इसका जीवंत उदाहरण आरक्षण के समय दिखा। मंडल मुद्दे पर मीडिया का एक पक्ष सामने आया। वह भी आरक्षण के सवाल पर बंटा दिखा। दूसरी ओर महादलित आयोग, बिहार के सदस्य और लेखक बबन रावत मीडिया में दलितों के नहीं होने की सबसे बड़ी वजह देश में व्याप्त जाति व वर्ण व्यवस्था को मानते हैं। रावत कहते है कि हमारे यहां की व्यवस्था जाति और वर्ण पर आधारित है जो एक पिरामिड की तरह है। जहां ब्राह्मण सबसे उपर और चण्डाल सबसे नीचे हैं और यही मीडिया के साथ भी लागू है। जो भी दलित मीडिया में आते हैं पहले वे अपनी जात छुपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ज्योंही उनकी जाति के बारे में पता चलता है, उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार शुरू हो जाता है। वह दलित कितना भी पढ़ा लिखा हो, उसकी मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित पत्रकार हाशिये पर चला जाता है।
वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे मीडिया में दलितों की भागीदारी के सवाल पर एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में मानते हैं कि पत्रकारिता के लिए लिखाई-पढ़ाई चाहिए और ऐसी लिखाई पढ़ाई चाहिए जो सरकारी नौकरी के उद्देश्य से प्रेरित न हो। पत्रकारिता तो सोशल इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। दलितों में सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ यह है कि उनमें शिक्षा-दीक्षा का अभाव है। दूसरे, आजकल उनकी शिक्षा दीक्षा आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरी प्राप्त करने की ओर निर्देशित होती है। इससे पत्रकारिता में उनका प्रवेश नहीं हो पाता। दलित और पिछड़े वर्ग के डीएम, एसपी, बीडीओ और थानेदार बनने के लिए अपने समाज को प्रेरित करते हैं पर पत्रकार बनने के लिए नहीं। जहां तक प्रतिभा का सवाल है, वह सभी में समान होती है और दलित समाज एक के बाद एक प्रतिभा पेश करेगा तो उसे पत्रकार बनने के अवसरों से वंचित रखना असंभव हो जाएगा।
मीडिया पर काबिज सवर्ण व्यवस्था में केवल दलित ही नहीं, पिछड़ों के साथ भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है, चाहे वो कितना भी काबिल या मीडिया का जानकार हो? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। इन दिनों दिल्ली में एक बडे़ मीडिया हाउस में कार्यरत पिछड़ी जाति के एक पत्रकार को उस वक्त ताना दिया गया जब वे पटना में कार्यरत थे। उनके सर नाम के साथ जाति बोध लगा था। मंडल के दौरान उनके सवर्ण कलिगों का व्यवहार एकदम बदल सा गया था जबकि उस हाउस में गिने-चुने ही पिछड़ी जाति के पत्रकार थे। यही नहीं, मीडिया में उस समय कार्यरत पत्रकारों के बारे में जब सवर्ण पत्रकारों को पता चलता तो वे छींटाकशी से नहीं चूकते थे। यह भेदभाव का रवैया सरकारी मीडिया में दलित-पिछडे पत्रकारों के साथ अप्रत्यक्ष रूप से दिखता है। जातिगत लाबी यहां भी सक्रिय है लेकिन सरकारी नियमों के तहत वह प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आता। उनका केवल तरीका बदल जाता है और आरक्षण से आये को ताना सुनने को मिलता ही है। सरकारी मीडिया में भले ही दलित-पिछड़े आ गये हों लेकिन वहां भी कमोवेश निजी मीडिया वाली ही स्थिति है। अभी भी सरकारी मीडिया में उच्च पदों पर, खासकर फैसले लेने वाले पदों पर दलितों-पिछड़ों की संख्या उच्च जाति/वर्ण से बहुत पीछे है।
जो भी हो समाज में व्याप्त वर्ण/जाति व्यवस्था की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक मजबूत आंदोलन की जरूरत है, जिसके लिए मीडिया और मीडियाकर्मियों को आगे आना होगा। जब तक यह नहीं होता, दलितों को मीडिया में जगह मिलनी मुश्किल होती रहेगी।
(नंबर वन हिंदी मीडिया न्यूज पोर्टल भड़ास4मीडिया से साभार)

Monday, March 23, 2009

मैं दलित हूं।

पूजा खतम होने के बाद मैं चौबे को प्रसाद देता। वो चुपचाप ले लेता, मगर सुबह वही प्रसाद किसी खिड़की के कोने में पड़ा हुआ दिखता। मैं पापा से कहता ‘मैं उसे प्रसाद नहीं दूंगा। वो नहीं खाता है।’ पापा समझाते, कहते, प्रसाद भगवान का है। इसे सभी को देना चाहिए। तब मैं सोचता कि चौबे जैसे ‘शैतान’ को तो नहीं ही देना चाहिए। छूआछूत की ‘हरामी परंपरा’ से यह मेरा पहला सामना था। तब मैं चौदह साल का था।
हम जिस मुहल्ले में रहते थे, उसका मकान मालिक ‘मिश्रा’ था। एक बड़ा सा गेट था जिसके अंदर करीब पंद्रह घर थे। दलित होने के बावजूद भी हमें मकान इसलिए मिल गया था क्योंकि पापा कोर्ट में अच्छे पद पर थे और मिश्रा को उनसे काम रहता था। सुबह आठ बजे ‘बीबीसी’ समाचार सुनने के लिए सभी लोग मकान मालिक के दरवाजे पर इकठ्ठा होते थे। तब अक्सर चाय का दौर चलता था। सबके लिए चाय आता, पापा के लिए भी। फर्क बस यह होता कि उनका कप पुराना सा, सबसे अलग होता था। मकान मालिक के यहां आने वाले बढ़ई, धोबी आदि भी इसी कप में चाय पीते थे। मैं पापा से झगड़ पड़ता कि अपमानित होकर चाय पीने की क्या जरूरत है। वो टाल जाते। पापा गांव में अपने टोले में सरकारी नौकरी पाने वाले पहले ‘दलित’ थे। काफी वक्त उन्होंने गांव में ही गुजारा था और शायद उन्हें वह अपमान सहने की थोड़ी बहुत आदत थी।
यही हाल मां का था। मुहल्ले के सभी मर्द आफिस चले जाते तो औरतें एक जगह इकठ्ठा होती थीं। चाय वगैरह बनता तो मां पीने से मना कर देती। वह चाय की जगह अपमान पीने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती थी। उसे पता था जो सुबह उनके पति (मेरे पापा) के साथ होता था दोपहर में वह उसके साथ दोहराया जाएगा। वहां से घर आते ही वो सबसे पहले चाय बना कर पीती थीं। एक नहीं, दो कप। मेरा अंतर पीड़ा से भर जाता, मैं रो पड़ता। कहता कि क्या जरूरत है उनके साथ बैठने की। मां कहती कि आखिर हम इंसान हैं, अकेले कैसे रह सकते हैं। हम इंसान ही थे। ऐसे इंसान, जिनसे सब हंस कर बातें करतें, हमारे साथ घूमने जाते मगर जैसे ही बात खाने-पीने की आती वो अपना दोगलापन दिखाने से बाज नहीं आते। वक्त वदल गया था और छूआछूत का तरीका भी।
ग्रेजुएशन करने के बाद 2005 में भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में दाखिला मिल गया था। यहां से पत्रकारिता की डिग्री ली। पहली नौकरी लोकमत समाचार, औरंगाबाद में लगी। यहां जातिवाद चरम पर था। लोगों ने नाम पूछा। मैने कहा अशोक। आगे क्या? अब मैं नौकरी में आ गया था और हर जगह ‘आगे क्या’ पूछा जाने लगा था। हालांकि मैने औरंगाबाद में झूठ बोल दिया था। मैं वहां सिर्फ दो महिने ही रहा।
दूसरी नौकरी अमर-उजाला, अलीगढ़ में मिली। नई यूनिट शुरू होनी थी सो दस नए लोग आए थे। सभी लगभग हमउम्र थे। फिलहाल काम कम था। सभी को एक साथ ही छुट्टी मिल जाया करती थी। एक को छोड़ सभी ब्राह्मण थे। एक दिन छुट्टी के बाद रात में हम सभी होटल में खाना खा रहे थे। संदीप त्रिपाठी ने नाम पूछा। अशोक, मैने कहा। आगे क्या? मैने तय किया था कि मैं अब जाति को लेकर झूठ नहीं बोलूंगा। "मैं दलित हूं।" मैने सीधे कहा। सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे थे। दूसरे दिन से चर्चा शुरू हो गई थी। अपने पिछार में शुक्ला, मिश्रा, ओझा, द्विवेद्वी, और पांडे लगाए घूमते ये लोग मुझे अपने साथ देखने के लिए अंदर से तैयार नहीं हो पा रहे थे। दलित वर्ग का आत्म सम्मान सवर्णों की नजरों में नाग के फन की तरह चुभ रहा था। चौदह साल की उम्र में चौबे द्वारा कराए गए छूआछूत से साक्षात्कार का सिलसिला अब गहरा रहा था।
नौकरी करते डेढ़ साल से अधिक हो गए थे। प्रोमोशन होना था। संदीप त्रिपाठी, कौशल ओझा और मैं नंबर में थे। प्रोमोशन हुआ, मगर सिर्फ त्रिपाठी और ओझा का। मेरी स्थिति आग में फेंके उस आदमी की तरह थी जो भीतर से भी जलता है और बाहर से भी झुलसता है। मैं चुप था और अपने दलित होने का एक बड़ा खामियाजा भुगत रहा था। संपादक गितेश्वर ने एक घंटे में एक विज्ञप्ति बनाने वाले ओझा, जो उसी की जाति का था, सब एडिटर बना दिया था। मैं समझ गया था कि हम किसी भी सदी में भले ही चले जाएं न सवर्णों की फितरत बदलेगी न दलित उत्पीड़न थमेगा।
कुछ दिनों बाद ऊपर वाले ने न्याय किया। गितेश्वर का पैर टूट गया। लेकिन मुझे दुख हुआ। मैं उसका बुरा नहीं चाहता था। फिर मैने वहां से नौकरी छोड़ दी थी।