Friday, September 2, 2011

और...बाबा साहब की किताब ने बदल दी जिंदगी

वो तेरह रुपए की किताब बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर की थी. इस किताब ने मुझे एक नई राह दी. मुझे यकीन दिलाया कि जिंदगी में कुछ भी करना नामुमकिन नहीं है. मुझे भरोसा हो गया कि मैं भले ही निम्नवर्ग में पैदा हुआ हूं, मैं डाक्टर बन सकता हूं. वह किताब मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. और आखिरकार एक ऐसा वक्त आया जब मैने अपने सपनों को पा लिया.’ ये शब्द डा. एस.एम श्यामलाल का है. यह उस साहसी इंसान के शब्द हैं, जिसने यह दिखाया कि अपने सपने कैसे पूरे करते हैं.
हरियाणा के सोहना के खेड़ा खलीलपुर गांव में एक किसान पिता के घर जन्में श्यामलाल ने डाक्टर बनने का सपना संजोया था. और अपनी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास के बूते वो ना सिर्फ मशहूर डाक्टर हैं बल्कि हरियाणा के गुड़गांव में सौ बेड वाला Multi Specialty Hospital के मालिक हैं. करोड़पतियों की लिस्ट में उनके नाम की एक धाक है. लेकिन जाहिर है, यह इतना आसान नहीं रहा. जिंदगी के पन्ने को पलटते हुए डॉ श्यामलाल कहते है कि हरियाणा में दलित किसान परिवार में जन्म लेना और सात भाई-बहनों का पालन-पोषण ही मां-बाप के लिए मुश्किल साबित हो रहा था. पिता की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने की वजह से मुझे सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. जातिवादी समाज में दलित बच्चों के लिए पढ़ना पहले इतना आसान नहीं था. स्कूल की एक घटना का जिक्र कर बताते हैं कि कैसे सवर्ण मानसिकता वाले शिक्षक पूछते थे कि इतना पढ़कर क्या करोगे? ऐसे मुश्किल हालातों का उन्होंने डटकर सामना किया और गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाई जारी रखी. आखिर एक दिन उनका सपना पूरा हुआ और उनके नाम के आगे डॉक्टर लग गया.
संघर्ष के दिन भी रोज नई परेशानी खड़ी कर रहे थे. कहते हैं ‘मेडिकल की डिग्री लेने के बाद एक क्लीनिक में नौकरी तो मिल गई, ठीक-ठाक कमा भी रहा था. लेकिन काम करने के दौरान ऐसा लगा कि जानबूझ कर नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है.’ इस दरम्यान उन्होंने जब दूसरी जगह नौकरी पाने के लिए प्रमाण-पत्र, एक्सपीरियंस लेटर की मांग की तो टालमटोल का रवैया अपनाया गया. यह उनकी जिंदगी का दूसरा टर्निंग प्वाइंट था. उन्होंने नौकरी दी और खुद का क्लीनिक खोलने का फैसला किया. उस वक्त उन्होंने सोचा कि दूसरे की नौकरी से अच्छा है अपना क्लीनिक खोला जाए. उन्होंने फैसला तो कर लिया, लेकिन जेब में मात्रा 300 रुपए ही थे. वे जिस जगह क्लीनिक खोलना चाहते थे उसका किराया उनकी जमा पूंजी से भी ज्यादा था. क्लीनिक का किराया 500 रुपए था, और वो भी एडवांस में देना था. लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उन्होंने मकान मालिक से किराए को लेकर बात की. किराया एडवांस की बजाए मरीजों के इलाज के दौरान कमाई राशि से महीने के आखिर में देने को राजी कर लिया. इस तरह से उस तीन सौ रुपए की जमा पूंजी के भरोसे क्लीनिक खुल गया.
भविष्य को लेकर थोड़ी आशंका तो थी, लेकिन खुद पर यकीन था. ये भरोसा काम आया और देखते ही देखते डॉ श्यामलाल के क्लीनिक में मरीजों की भीड़ लगने लगी. डॉ श्याम बताते है कि उन्होंने मरीजों के इलाज के दौरान सामाजिक सोच बनाए रखी. उन्होंने दवाई कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने के बजाए मरीजों की सेहत के साथ-साथ उनकी आर्थिक स्थिति का ज्यादा ख्याल रखा. इस मूलमंत्र के सहारे दिन-ब-दिन सफलता की उड़ान भरते रहे. फिर वो समय आ गया, जिसका सपना उन्होंने बचपन में देखा था. डॉ श्यामलाल का कहना है कि 1995-96 में हॉस्पिटल की नींव रखी गई, जिसे 2009-10 में 100 बेड वाले मल्टी स्पेश्यलिटी हॉस्पिटल में बदल दिया गया. उनके अस्पताल में दो दर्जन से ज्यादा प्रशिक्षित डॉक्टर, सौ से ज्यादा कर्मचारी अपनी सेवा दे रहे हैं. हॉस्पिटल की खासियत के बारे में बताते हुए डॉ श्यामलाल कहते हैं कि यहां हर जरूरतमंद और गरीब मरीजों का ख्याल रखा जाता हैं. समाज के एक तबके ने भले ही उनके साथ भेदभाव किया लेकिन उनके लिए मानव हित सबसे पहले हैं. यही वजह है कि दिल्ली से सटे गुड़गांव में गरीब लोगों के लिए इन्होंने अलग से जनरल वार्ड बना रखा है. यहां सिर्फ 500 रुपये देकर गरीब व्यक्ति अपना इलाज करा सकता है.
डा. श्यामलाल की सफलता में एक वक्त ट्विस्ट भी आया. तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी मेहनत और ईमानदारी से भले ही उन्होंने हास्पिटल को खड़ा किया, कई लोगों से उनकी सफलता हजम नहीं हुई. सफल होने के बाद भी जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. वो बताते है कि कुछ सवर्ण मानसिकता के लोगों ने उनके हॉस्पिटल के विस्तार के बारे में बड़े-बड़े वायदे और दावे किए, लेकिन उन्हें जब पता कि वो जिनके यहां काम कर रहे हैं वो दलित हैं तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी. वो दुःख के साथ बताते हैं कि उनलोगों में कुछ दलित भी शामिल रहे. लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उनका कहना है कि ये अभी तो मंजिल का पड़ाव भर है.

साभारः शिल्पकार टाइम्स

2 comments:

  1. वो तेरह रुपए की किताब बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर की थी. इस किताब ने मुझे एक नई राह दी. मुझे यकीन दिलाया कि जिंदगी में कुछ भी करना मुमकिन नहीं है. मुझे भरोसा हो गया कि मैं भले ही निम्नवर्ग में पैदा हुआ हूं, मैं डाक्टर बन सकता हूं....आप यहाँ मुमकिन की जगह नामुमकिन शब्द लिखें...धन्यवाद !

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  2. गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए आपका धन्यवाद।। मैं अभी ठीक करता हूं।।

    आभार

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