Tuesday, October 18, 2011

आज भी ठगे जा रहे हैं आदिवासी

आजादी के तत्काल बाद संविधान में संवैधानिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है. इसे संविधान में दलित वर्ग के समकक्ष खड़ा करते हुए ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था. इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है. इन सबके लिये निश्चय ही कुछ ऐसे कारक रहे हैं जिन पर ध्यान नहीं दिये जाने के कारण देश के मूल निवासी आज अपने ही देश में ही पराएपन, तिरस्कार और दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं. आदिवासी की मानवीय गरिमा को हर रोज तार-तार किया जा रहा है. आदिवासी की चुप्पी को नजर अंदाज करने वालों को आदिवासियों के अंतर्मन में सुलग रहा आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा है.
बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है. जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा. हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासियों की ये दुर्दशा हुई है. सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है. इसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है. एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं. दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं. यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती. जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!
एक अन्य समस्या आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके. आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता हुए हैं लेकिन वे आदिवासी नेता होने की बजाय कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं. ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है. इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है. देश में दलितों एवं आदिवासियों के जितने भी संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है. दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है. आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं.
आदिवासी पहाड़ों और नदियों के बीच जंगलों में रहता आया है. उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है. जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है. जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर उनके स्थान पर बड़े बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है. जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा से सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है. शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये गए. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है.
आज भी वास्तविक आदिवासियों का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है. इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं. जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं है. अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो तमाम दिक्कतें खड़ी की जाती हैं. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. वहीं उनके हाट बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है. इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है. इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है. लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है. इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है.

साभारः प्रेस नोट

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