चुनावी समर में उतरने के लिए सभी तैयार हैं। नेता भी, जनता भी। नेता अपने जातीय समीकरण बैठा रहे हैं तो जनता भी इसी गणित में लगी है कि कौन उम्मीदवार अपना है। किसे वोट देना है। हर किसी की अपनी पार्टी है। सवर्णों की कांग्रेस, बनियों की बीजेपी, पिछड़ों की सपा, जनता दल यूनाइटेड और राजद। दलितों की भी अपनी पार्टी है, जिसकी अगुवाई बिहार में रामविलास और उत्तरप्रदेश में मायावती करती हैं। पिछले सालों में लालू करते थे मगर पासवान ने उनसे दलितों को लगभग छिन लिया है। सिर्फ बिहार और उत्तरप्रदेश की बात इसलिए क्योंकि इन दोनों राज्यों के बिना कोई सरकार नहीं बनने वाली। गठबंधन के दौर में सत्ता की चाबी इन्हीं दोनों राज्यों के बीच ही रही है। चूकि मैं दलित हूं इसलिए यहां सिर्फ दलितों और उनकी पार्टियों की बात।
हम दलित किसे वोट दें, यह समझ नहीं आ रहा। हालांकि ज्यादातर लोगों के सामने मायावती और रामविलास का ही आप्सन है। लेकिन सच कहें तो इनकी कार्यप्रणाली क्षुब्ध करने वाली है। पहले मायावती और उत्तरप्रदेश। ठीक है कि मायावती के शासन में महत्वपूर्ण पदों पर वो तमाम दलित अधिकारी पहुंच जाते हैं जो उनके नहीं होने पर आम तौर पर सचिवालय की फाइलों से धूल झाड़ते रहते हैं। पहले की अपेक्षा दलितों की आवाज भी सुनी जाती है। पुलिस उनकी रपट भी लिख लेती है। हो सकता है कि गांव का भोला-भाला दलित मतदाता इससे खुश भी हो कि मुख्यमंत्री एक दलित हैं। हो सकता है वह उन्हें ही वोट दें। मगर, मध्यम वर्ग का मतदाता, जो सब देख रहा है वह विचलित है।
मायावती की लंबी-लंबी मूर्तियां देखकर उसे खिन्नता होती है। हाथियों के लंबे काफिले उसे परेशान करते हैं। उनकी शानों-शौकत देखकर वह खुन्नस खाता है, क्योंकि यह उसकी गाढ़ी कमाई होती है। मंत्रियों से पैसे लेने वाली मायावती में उन्हें एक लालची औरत की छवि नजर आती है। हमारे यहां कई ऐसे नेता हुए हैं जो अविवाहित रहे हैं और अपने राजनीतिक जीवन को पारदर्शी रखा है। मायावती भी अविवाहित हैं। वह चाहती तो मोह-माया से मुक्त होकर दलित हितों के लिए ऐसा कर सकती थी जो उन्हें अंबेडकर के बाद का स्थान दे सकता था। अंबेडकर के बाद वही एक ऐसी नेता हैं जिन्हें इतने अधिकार मिल पाए हैं और ऐसा कभी-कभी ही होता है। दुर्भाग्य से मायावती इसमें अब तक नाकाम रही हैं।
अब बिहार और रामविलास पासवान की बात। जितनी तेजी से रामविलास बिहार में दलित हितचिंतक के रूप में उभरे थे, वह करिश्माई था। अब वो अपनी उस छवि को खुद से ही तोड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों जब उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था तो उन्होंने उसे ठुकरा कर जैसे अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली थी। तब आम दलित भी निराश हुए थे, हताश हुए थे। उन्होंने जिस तरह से लोगों को दोबारा चुनाव में झोंका उससे उनकी साख गिरी ही। बिहार मे वो जिन लोगों को लोकसभा का टिकट देकर चुनाव जीतते आएं हैं और संसद मे अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं, गौर करें तो अगर उन्हें लोजपा टिकट न भी देती तब भी वो जीत ही जाते। इस मामले में रामविलास भ्रम में हैं। पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन ने उन्हें आइना भी दिखा दिया है।
पिछले दिनों एक रैली में उन्होंने सूरभान सिंह नाम के अपने सांसद को समाज सेवक कह डाला। वह चौंकाने वाला था। सारा देश जानता है कि सूरजभान छंटा हुआ बदमाश हैं। उस पर दर्जनों मुकदमें चल रहे हैं। उसे समाज सेवक कह कर पासवान ने अपने चरित्र पर भी सवाल उठाने का मौका दिया है। रामविलास से बिहार की जनता को जो उम्मीदें थी उस पर उनकी खुद की कारिश्तानियों से धुंध पड़ती जा रही है।
पिछले सालों में लालू यादव के साथ भी यही हुआ। लालू जब सत्ता में आएं तो उन्होंने अपने भाषणों में हर बार दलित वर्ग का जिक्र कर उसको खुश कर दिया। जब वो किसी के साथ बैठकर ताड़ी पी लेते, मंच पर किसी गरीब को बुलाकर उससे यह पूछते कि बताओ, कौन अधिकारी तुम्हें परेशान करता है। तो लाखों दलित गदगद हो जाते। लगा, आ गया दलितों का मसीहा। लालू कहते हैं कि उनके शासन में दलित सीना चौड़ा कर के घूमते थे। उन्होंने दलितों को सामाजिक न्याय दिलाया। सही है। मगर वह भूल गए कि सीना चौ़ड़ा कर घूमने वाले दलित को पेट भरने के लिए रोटी भी चाहिए होती है। गांव का दलित इस रोटी के लिए बाबुओं और बाबाओं पर ही निर्भर है। भाषण सुनकर वह सीना तो चौड़ा कर लेता था मगर भूख लगते ही उन्हीं के सामने गिड़गिड़ाना उसकी मजबूरी होती थी। सारा का सारा सामाजिक न्याय भूख के आगे दम तोड़ देता। लालू ने उनकी रोटी का इंतजाम नहीं किया। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा।
दलितों का हितचिंतक कौन है, दलित खुद नहीं समझ पा रहे हैं। बल्कि सच तो यह है कि दलितों का हितचिंतक कोई हो ही नहीं सकता। हमलोगों को दांव पर लगा कर अपना राजनीतिक कैरियर चमकाने वाले ये दलित और पिछड़े नेता जब खुद ऊपर उठ जाते हैं तो टीकाधारी इन्हें लपक लेते हैं। उस समय ये उस जमात में शामिल हो खुद उच्च हो जाते हैं। हम दलितों को भूल जाते हैं। छोड़ देते हैं। यूं ही भूखे-नंगे, रोज की रोटी की खातिर लड़ने के लिए।
वोट उसे ही दें जो आपके विचार में आपके प्रदेश का ध्यान रखे, और देश की प्रगति में हाथ बढ़ाये। अपराधियों को वोट कतई न दें। वोट और जाति को जितनी दूर रखा जाये, उतना अच्छा।
ReplyDeleteAApki 23 March ki POST par :-
ReplyDeleteहमारे यहां भी कुछ लोगों के बर्तन अलग रखे जाते थे। हांलांकि माता-पिता स्वभाव से दूसरों की तरह क्रूर नहीं थे। पर सालों से चला आ रहा, भीड़ का दुष्प्रभाव तो था ही।
फिर भी, आज सोचता हंू, तो शर्मिंदगी होती है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने पिछले चुनावों में जीत के बाद सिखों से माफी मांग ली थी। अमेरिका ने बराक ओबामा को लाकर प्रायश्चित किया। मगर हमारे मुल्क के सवर्ण बजाय माफी मांगने के, आज भी उल्टे-सीधे तर्क देकर वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने की तरकीबें करते रहते हैं। सच कहूं तो बहुत शर्म आती है।
आपके ब्लाग का लिंक अपने ब्लाग पर लगा रहा हंू, उम्मीद है अनुमति देंगे।
vote jati aur dharm ke aadhar par to bilkul mat dein.
ReplyDeleteबिल्कुल संजय जी। अनुमति की कोई जरूरत नहीं है।
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्त !
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