Sunday, April 22, 2012

दलित मुद्दों पर मासिक पत्रिका "दलित दस्तक" 27 मई से आपके बीच

बहुत सहा, कुछ ना कहा; अब कहने की बारी है! दुनिया में अब ‘दलित दस्तक’ की हुई तैयारी है!! मित्रों, दरकिनार कर दिए गए लोगों के लिए अब फटकार कर सच बोलने का वक्त आ गया है। किनारे टिका दिए गए लोगों की आवाज अब फिर से गूंजेगी। हाशिये पर डाल दिए गए लोगों के लिए दस्तक देने का मौका है... क्योंकि... अब ना दबेगी आवाज, ना छिनेगा हक बस आने को है... दलित दस्तक दलित और दरकिनार कर दिए गए समाज के मुद्दों को उठाने वाली एक संपूर्ण पत्रिका पत्रिका की कॉपी सब्सक्राइब करने के लिए आप हमसे 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. हमारा पता है-- दलित दस्तक c/o- sushil kumar A-26/A, First Floor Pandav Nagar Delhi- 92

Sunday, November 20, 2011

‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से आतंकित हैं नामवर और राजेन्द्र

हिंदी के मुख्य समाचार पत्र अमर उजाला में पिछले दिनों दलित मुद्दों को लेकर एक बहस चलाई गई थी. वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह का लखनऊ में आरक्षण के खिलाफ दिया बयान, प्रगतिशील लेखक संघ का काम आदि पर श्योराज सिंह बेचैन, मोहन दास नैमिशराय और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे दिग्गजों ने इस बहस में हिस्सा लिया था और अपना पक्ष रखा था. इसी कड़ी में जेएनयू के प्रो. तुलसी राम ने भी अमर उजाला की बहस में हिस्सा लिया था. तुलसी राम जी के लेख के बाद अखबार ने इस बहस को खत्म कर दिया और बात कुछ अधूरी सी रह गई. इसी बहस को हमने "दलित मत" पर आगे बढ़ाने का निर्णय लिया है. इसी कड़ी में युवा लेखक, कवि और आलोचक कैलाश दहिया का लेख प्रस्तुत है. हम और लेखकों से भी इस बहस में हिस्सा लेने को आमंत्रित करते हैं.

संपादक
दलित मत

श्यौराज सिंह बेचैन जी का ‘मुर्दहिया’ से बेचैनी का तो पता नहीं, लेकिन राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह जरूर डॉ. धर्मवीर की महाग्रंथात्मक आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से आतंकित हैं, तभी तो वे अतार्किकता पर उतरे हुए हैं. वे इस बात से भी भयभीत हैं कि डॉ. धर्मवीर ने जारों की धर पकड़ क्यों की? तो क्या देश को गुलाम बनवाने वाले इन जारों को खुला ही छोड़ दिया जाता? वह सैनिक क्या लड़ेगा जिसे पता चले कि उसकी पत्नी जारकर्म में लिप्त है?

राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि विवाह संस्था की स्थापना के बाद ही जार अस्तित्व में आता है. वे जान लें कि विवाह ही नहीं राज्य, न्यायालय, मुद्रा और ऐसी ही ढ़ेरों संस्थाओं को इंसान ने ही बनाया है, और ये संस्थाएं विवाह संस्था के साथ-साथ ही अस्तित्व में आई हैं. वे इन्हें भी नकार दें. लेकिन नहीं, इन संस्थाओं का फायदा लेने को जार तत्पर रहता है, लेकिन विवाह संस्था को नहीं मानता. वह विवाह संस्था को तोड़ता है. राजेन्द्र जी की लेखनी की बात की जाए, क्या विवाह संस्था अभी पचास-सौ साल पहले ही अस्तित्व में आई है, जो वे अबोध बनकर ऐसी बातों पर उतरे हुए हैं? विवाह संस्था का इतिहास हजारों साल पुराना है, हां ‘जार’ को पहली बार व्यवस्थित रूप से डॉ. धर्मवीर ने पकड़ा है.

राजेन्द्र जी किन दलित महिलाओं की बात कर रहे हैं? वे महिलाएं जो जारकर्म की समर्थक हैं और जो कुछ भी कहने-सुनने की बजाय जूते-चप्पल चलाती हैं. उन्हें भी और सब जार सामर्थकों को बताया जा रहा है कि दलित चिन्तन में प्रेमचन्द की बुधिया को तलाक दे दिया है. वह ठाकुर के दरवाजे पर ‘जारकर्म की पैदाइश’ को लेकर खड़ी है. अब नामवर ही जाने की उसका क्या करना है. राजेन्द्र जी बार-बार कहते और लिखते हैं कि डॉ. धर्मवीर ने अनाप-शनाप लिखा है, लेकिन वह यह कभी नहीं बताते कि डॉ. धर्मवीर ने ऐसा क्या लिखा है? असल में राजेन्द्र जी ऐसा लिख कर पाठकों और श्रोताओं को भ्रमित करते हैं. जारों का पक्ष लेकर राजेन्द्र जी किसे बचाना चाह रहे हैं? इधर तुलसी राम जी ने स्वीकार कर लिया है कि वे जार समर्थक राजेन्द्र और नामवर के पक्ष में हैं. अब देखना दलितों को है कि वे डॉ. धर्मवीर की मोरेलिटी की परम्परा को मानते हैं या जारकर्म की तुलसी राम की? यही दलितों के अन्तर्विरोध हैं. वैसे अपनी आत्म कथा में तुलसी राम ‘जैविक खानदान’ की खोज में ही लगे हैं. हां, राजेन्द्र यादव जैसे लोग नहीं चाहते कि ऐसी खोज पूरी हो, क्योंकि फिर जार को अपनी अवैध सन्तान का भरण-पोशण करना पड़ेगा.

राजेन्द्र यादव कह रहे हैं कि श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ. धर्मवीर को अपना गुरु मानते हैं इसलिए उनसे उनके मतभेद हैं. बेचैन जी अगर यादव जी को अपना गुरु मान लेंगे तो ये मतभेद खत्म! कैसी बालकों जैसी जिद कर रहे राजेन्द्र जी? फिर वे कैसे कह रहे हैं कि नामवर जी के बारे में बेचैन जी ने मनगढ़ंत बातें कही हैं? लगता है उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ जलसे में नामवर द्वारा दिए भाषण की खबरें नहीं पढ़ी. जहां तक तुलसी राम जी की आत्म कथा की बात है तो उस से डॉ. धर्मवीर और बेचैन जी की छोड़िए, कोई भी दलित क्यों आतंकित होगा? हां, मुर्दहिया की डॉ. धर्मवीर द्वारा ‘बहुरि नहिं आवना’, में लिखी समीक्षा से जरूर नामवर और राजेन्द्र आतंकित हैं. डॉ. धर्मवीर ने मुर्दहिया में ‘द्विज जार परम्परा’ को पकड़ लिया है. जहां तक प्रेमचंद की बात है तो गैर दलितों से आग्रह है कि वे डॉ. धर्मवीर की ‘प्रेमचंदः सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ पढ़ कर ही बात करें.

लखनऊ में नामवर सिंह ने दलितों के आरक्षण पर विरोध जताया, उन्होंने कहा कि ‘इसी तरह आरक्षण दिया जाता रहा तो ब्राह्मण-ठाकुर भीख मांगते नजर आएंगे.’ नामवर के इस वक्तव्य पर राजेन्द्र जी क्या कहेंगे? नामवर जी इस जिद पर भी अड़े हैं, कि गैर दलित भी दलित साहित्य लिख सकते हैं. दलितों द्वारा उनके आरक्षण विरोध की आलोचना पर उन्होंने यह कहकर अपनी ही बात को झुठलाया कि वे तो ‘साहित्य में आरक्षण के विरोध की बात कर रहे थे.’ उनके जैसे कद के आदमी से ऐसे पलटने की उम्मीद नहीं थी. वे अपनी बात स्वीकार कर लेते और माफी मांग लेते तो क्या हो जाता? नामवर जी बताएं कि गैर दलितों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य में किसका आरक्षण रहा है? दलित ने कभी नहीं कहा कि वह गैर दलित साहित्य लिखेगा, तब इनकी जिद क्यों है कि वे दलित साहित्य लिखेंगे? नामवर जी ये क्यों नहीं कह रहे कि वे अफ्रीकी या लातीनी साहित्य लिखेंगे. दलित लेखन की जिद क्यों? जैसे गैर दलित साहित्य की समझ नामवर जी को है, वैसे ही दलित साहित्य डॉ. धर्मवीर की कलम से निकलता है. दलित साहित्य लेखन की अनिवार्य शर्त है ‘जारकर्म का विरोध.’ दलित साहित्य की जिद कर रहे गैर दलित जारकर्म के विरोध में लिखें तो उन्हें दलितों का समर्थक माना जा सकता है, लेकिन वे ऐसी बात घर में ही छुपाने को कह रहे हैं, फिर वे कैसे दलित साहित्य लिखेंगे?

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लेखक युवा कवि, आलोचक एवं कला समीक्षक हैं. दलित मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं. उनसे संपर्क उनकी मेल आईडी kailash.dahiya@yahoo.com और उनके मोबाइल नंबर 9868214938 पर किया जा सकता है.

छत्तीसगढ़ः दलितों को सरकारी लाभ न देने की साजिश

छत्तीसगढ़ में दलित समाज को सरकारी योजनाओं और आरक्षण का लाभ न देने की साजिश चल रही है. प्रदेश सरकार द्वारा जाति प्रमाण पत्र जारी करने को लेकर बनाए कठिन शर्तों के कारण दलित समाज का बड़ा तबका प्रमाण पत्र नहीं बनवा पा रहा है. इन्हीं दिक्कतों को सामने रखते हुए पिछले दिनों दलित मूवमेंट एसोसिएशन के एक प्रतिनिधिमंडल ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकात की और प्रदेश में दलित जातियों को आने वाली दिक्कतों से अवगत कराया. प्रदेश में फिलहाल सबसे बड़ी समस्या दलित जातियों का प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली परेशानी को लेकर है. प्रतिनिधिमंडल ने इस बारे में भी मुख्यमंत्री को अवगत कराया.
फिलहाल प्रदेश में जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए आवेदक से 50-60 साल पुराना भूमि रिकार्ड मांगा जाता है. जबकि हकीकत यह है कि पांच दशक पहले ज्यादातर दलित समाज अनपढ़ और भूमिहीन था. उनके पास कुछ जमीने थी भी तो उस समय कागजों का चलन इतना अधिक नहीं था. इस कारण दलित समाज के लोग इतना पुराना रिकार्ड पेश नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में प्रशासन द्वारा उनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बनाया जा रहा है. इस कारण उन्हें आरक्षण की मूलभूत सुविधा नहीं मिल पा रही है. कुछ अति दलित जातियों को तो परेशानी का सामना ज्यादा करना पर रहा है. दूसरी समस्या यह भी है कि जो लोग सरकारी मानक को पूरा कर जाति प्रमाण पत्र बनवाते भी हैं तो एक ही उपजाति को कई नामों से जाति प्रमाण पत्र दिए जाते हैं उदाहरण के लिए डोमार जातियों का जाति प्रमाण पत्र कई नामों से जारी किया जाता है. सरकार द्वारा जारी जाति प्रमाण पत्रों में डोमार जाति के लिए डोमार, डोम, महार, भंगी, मेहतर, वाल्मीकि, मेहतर, खटिक और देवार आदि नाम से प्रमाण पत्र जारी किया जाता है. प्रदेश में दलितों में इसी उपजाति के दलित ज्यादा संख्या में हैं. मुख्यमंत्री से मुलाकात के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने इस समस्या को भी उठाया और विभिन्न नामों की बजाए डोमार नाम से ही प्रमाण पत्र देने की मांग की. इसके अलावा प्रतिनिधिमंडल ने एसोसिएशन के लिए कार्यालय भवन की मांग भी की. इन मांगों के संबंध में उन्होंने मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन सौंपा. प्रतिनिधिमंडल में शामिल सदस्यों में ललित कुंडे, मोतीलाल, धर्मकार, कैलाश खरे, हरीश कुंडे एवं संजीव आदि शामिल थे.

उत्पीड़न के खिलाफ धरने पर बैठा दलित शिक्षक

यह समाज के जागरूक होने का ही नतीजा है कि अब लोग अपने हक के लिए लड़ना सीख गए हैं. अब तक चुप बैठने वाले लोग लड़ना सीख रहे हैं. ताजा घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में एक प्रधानाध्यापक अपने उत्पीड़न की शिकायत पर पुलिस द्वारा कार्रवाई न करने के बाद अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए हैं. इन्हें डीआईओएस कार्यालय में पानी पीने पर जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल कर अपमानित किया गया था. गजरानी इंटर कॉलेज सिसौआ के प्रधानाध्यापक व पूर्व ग्राम प्रधान कमलेश चंद्र भारती के साथ डीआईओएस कार्यालय के कर्मचारियों ने पानी पीने पर अपमानित किया था.
इस भेदभाव के खिलाफ उन्होंने लिपिक दीपक दीक्षित व ड्राइवर अरविंद रस्तोगी के खिलाफ थाना सदर बाजार प्रभारी समेत एसपी को प्रार्थना पत्र दिया लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई. इसके बाद वह 14 नवंबर से धरने पर बैठ गए. प्रधानाध्यापक के साथ भेदभाव की शिकार एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला भी धरने पर बैठ गई है. इनका साथ देने के लिए कुछ स्थानीय नेता भी सामने आ गए हैं. जहां तक आंगनबाड़ी केन्द्र चांदा में कार्यरत आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी की बात है तो उसके साथ ग्राम कहेलिया के प्रधान पति अमित वर्मा ने मारपीट की और जाति सूचक शब्दों से अपमानित किया था. स्थानीय नेताओं ने इस मुद्दे को उठाया है. महान दल के जिलाध्यक्ष सुरेश चन्द्र गौतम ने प्रशासन को चेतावनी दी है कि यदि मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हुई तो पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी का पुतला दहन किया जायेगा. धरने पर बैठे प्रधानाध्यापक भारती और आंगनबाड़ी कार्यकत्री विमला देवी के साथ अन्य शिक्षक सुरेन्द्र कुमार, राजकिशोर, बृजलेश कुमार, कमलेश कुमार, मीना गौतम, दिनेश कुमार, खुशीराम, रामचन्द्र वर्मा, प्रधानाचार्य पब्लिक स्कूल कहेलिया, कौशल किशोर वाजपेई, सावित्री देवी, सुशील कुमार, वीरेन्द्र कुमार, छीतेपुर, अर्चना देवी, श्रवण कुमार, सर्वेश कुमार भी शामिल हैं.

दलितों को बलि का बकरा बनाने की एक और कोशिश

जितना पाक मकसद धर्म के अस्तित्व. के साथ जुड़ा है, उससे कहीं अधिक नापाक इरादे आज धर्म के ठेकेदारों की ओर से धर्म के नाम पर व्यक्ति व समाज पर थोपने के नजर आते हैं. आज ऐसा प्रतीत होता है जैसे धर्म व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि व्यक्ति धर्म के लिए है. और व्यक्ति को धार्मिक होने या धार्मिक दिखने के लिए किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए. दलितों का सदा से ही आक्षेप रहा कि उनकी वर्तमान दुर्दशा के लिए किसी न किसी रूप में हिन्दुईज्म जिम्मेदार है. यह समाज में गैर-बराबरी की वकालत करता है और दलितों की प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध करता है.
बाबा साहेब डा. अम्बेलडकर का यह भी मानना था कि आज किसी नए धर्म की आवश्यकता नहीं है. किसी भी समाज को धार्मिक विकृतियों को दूर करने के लिए मौजूदा धर्मों में से ही किसी एक को अंगीकार कर समकालीन धार्मिक जरूरतों की पूर्ति करने का उपक्रम करना चाहिए. इसलिए दलितों को हिन्दू धर्म की जातिगत दलदल से निकालने के लिए डा. अम्बेडकर ने बुद्ध धर्म का अंगीकार ही नहीं किया बल्कि दलितों को भी इसका अनुसरण करने के लिए आहृवान किया. इसमें संदेह की कोई वजह नहीं है कि दलित समाज बुद्ध धम्मं की मूल भावना को ठीक से अंगीकार नहीं कर पाया. परिणाम स्वरूप, कई मायने में अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त बुद्धिज्म पुरोहितिकरण का शिकार-सा होता नजर आता है.
यह डा. अम्बेडकर द्वारा प्रदत्त एक विकल्प है जिसके साथ दलित समाज खड़ा नजर आता है. लेकिन इसके विपरीत डा. धर्मवीर हैं जो एक नए धर्म आजीवक की वकालत करते हैं. यह धर्म है या नहीं यह अभी तय होना बाकि है. दूसरे, अभी तक डा. धर्मवीर ने आजीवक को लेकर दूसरों पर आरोप ही लगाए हैं, इसके बारे में कुछ स्पष्ट करने का साहस नहीं किया है. यही नहीं, वे किसी न किसी रूप में अपने आपको इसका पैगम्बर बनाने की फिराक में नजर आते हैं. इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं कि डा. धर्मवीर किसी नए धर्म का अविष्कार करें और इसका पैगम्बर बनें. यह दलित समाज के लिए फख्र की बात होगी. लेकिन यहां स्थिति कुछ अलग व चिंताजनक है क्योंकि डा. धर्मवीर ने अपने नए धर्म के लिए स्पेश बनाने के लिए डा. अम्बेडकर, बुद्ध और इनके द्वारा प्रदत्त धम्मि पर मनोवांछित आरोपों का जैसे पिटारा ही खोल रखा है.
इस बार डा. धर्मवीर की तथाकथित धार्मिक मुहिम का हिस्सा बुद्धिज्म में पुनर्जन्म बना और इसके निशाने पर रहे डा. बी. आर. अम्बेडकर. यह सर्वविदित है कि बुद्धिज्म में पुनर्जन्म न कल था और न आज है. हां, यह बिल्कुल अलग बात है कि पुनर्जन्म के नाम पर बुद्धिज्म और डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करने की जोरदार कौशिश जरूर हो रही है. यहां रस्सी को सांप बनाने के दो कारण समझ आते हैं. एक, डा. अम्बेंडकर के कद को बौना करना. दूसरा, दलित समाज को बुद्धिज्मत से अलगाना. जैसा कि पहले कहा गया है कि इस मुहिम के पीछे बुद्धिज्मठ को रिप्लेकस कर डा. धर्मवीर द्वारा स्वपोषित आजीवक धर्म को स्था.पित करना है. ऐसे में डा. धर्मवीर के इस उद्देश्य पूर्ति में डा. अम्बेडकर सबसे बड़ी बाधा हैं क्योंकि डा. अम्बेडकर के कारण ही दलित समाज बुद्धिज्म की ओर आकर्षित हुआ है. डा. धर्मवीर की इस मुहिम को सफलता मिले न मिले लेकिन प्रयास जोरदार है, इतना तो मानना ही पड़ेगा. इस पुनर्जन्म की मौजूदा राजनीति में कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक, यह सवाल बे-मानी है. यहां मुद्दा डा. अम्बेडकर और बुद्ध पर पुनर्जन्म की अवधारणा को आरोपित करना हैं. इसको समझने के लिए हमें पहले यह समझना पड़ेगा कि डा. अम्बेडकर कोई धर्म प्रवर्तक नहीं हैं. उनके द्वारा बुद्धिज्म का अंगीकार करना समाज में व्याप्त जातीय व धार्मिक भेद-भाव और इनसे उपजे शोषण-उत्पीड़न व असमानता से अछूत समाज को मुक्ति कराना था. इसके लिए उन्होंने किसी नए धर्म की जरूरत को सिरे से नकार कर बुद्धिज्म को स्वीकार किया. इसलिए उनके लिए समाज में मौजूद आस्तिक-नास्तिक, भाग्य-भगवान, पाप-पुण्य, लोक-परलोक और पुनर्जन्मल जैसी गूढ़ और भ्रमित करने वाली अवधारणाओं को बुद्धिज्म के संदर्भ में स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है. लेकिन डा. धर्मवीर बाबा साहब के पुनर्जन्म संबंधी विचारों को सदर्भों से काटकर और तोड़-मरोड़कर अम्बेडकर-विरोधी मुहिम चला रहे हैं. इसलिए तथ्यों तक पहुंचने के लिए संदर्भ और विचार-श्रृंखला को समझना अति प्रासांगिक है.

एक- डा. अम्बेडकर पर डा. धर्मवीर पहला प्रहार करते हैं कि डा. अम्बेकडकर ने पुनर्जन्म् का उत्तर ‘हां’ में दिया और कहते हैं- “इसी जगह दलित चिंतन को जबर्दस्त् झटका लगता है. यहां बाबा साहब ने एक तरह से दलित चिंतन की जान ही निकाल दी है.”1 यह मुद्दा बुद्ध काल में प्रचलित दो मतों शाश्वहतवाद (आत्माल व इसकी शाश्वकतता को स्वीकारना) और उच्छेहदवाद (वस्तुह का सम्पूसर्ण विनाश) से जुड़ा है. बुद्ध अपने को न शाश्वतवादी कहते हैं और न ही उच्छे्दवादी मानते हैं. “इससे प्रश्न् पैदा होता है कि क्या बुद्ध पुनर्जन्म् मानते थे? ”

बुद्ध इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते हैं- “ चार भौतिक पदार्थ हैं, चार महाभूत हैं जिनसे शरीर बना है - (1) पृथ्वी्, (2) जल, (3) अग्नि, (4) वायु. शरीर के मरने के बाद ये तत्व आकाश में जहां समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप में विद्यमान हैं, उनमें मिल जाते हैं. इस विद्यमान (तैरती हुई) राशि में जब इन चारों महाभूतों का पुनर्मि‍लन होता है, तो पुनर्जन्म होता है. इन पदार्थों के लिए ये आवश्यक नहीं है कि वे उसी शरीर के हों जिसका मरण हो चुका है, वे नाना मृत शरीरों के भौतिक अंशों के हो सकते हैं. शरीर का मरण होता है लेकिन भौतिक पदार्थ बने रहते हैं. भगवान बुद्ध इसी प्रकार के पुनर्जन्मत मानते थे.” साफ है कि यहां बुद्ध भौतिक तत्वर जो विभिन्नन शरीरों के होते हैं, एक विशेष अनुपात और एक प्राकृतिक/वैज्ञानिक प्रक्रिया के चलते शरीर के रूप में अस्तित्व में आते हैं. यह तत्वों का पुनर्जन्म होता है, व्यक्ति विशेष का नहीं. इसको धार्मिक व आध्यानत्मिक पहलू से जोड़ना शरारतपूर्ण व पूर्वाग्रह का परिचायक है.

दो - डा. धर्मवीर बुद्ध की माता महामाया के गर्भधारण की रात के स्वमप्नत की बात करते हुए डा. अम्बेडकर को कठघरे में खड़ा करते हुए उद्धृत करते हैं- ‘सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उस (महामाया) के पास आया और प्रश्नए किया, मैंने अंतिम जन्मे पृथ्वी पर धारण करने का निश्च‘य किया है, क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था- बड़ी प्रसन्नता से.’ उसी समय महामाया देवी की आंख खुल गईं.” इस पर धर्मवीर टिप्पणी करते हैं- महामाया की आंखें खुल गई हों, पर बाबा साहब की ऐसी लिखत-पढ़त से दलितों की आंख मिच गईं.’
यह घटना शाक्यि राज्य के असाढ़ के सात दिन के उत्सव से जुड़ी है. सात दिन के उत्सव के बाद शुद्धोदन और महामाया गर्भधारण की प्रबल कामना के साथ मिलन करते हैं. ऐसी अति-उत्सा ह की स्थिति में सपने आना स्वा‍भाविक है और सपनों की उड़ान की कोई सीमा नहीं होती. उस समय महामाया के चारों ओर के राजसी, सामाजिक-धार्मिक माहौल में इसे कौन क्या रंग देता है, यह अलग प्रश्न है, लेकिन अम्बेकडकर और बुद्ध इसे पुनर्जन्म के रूप में स्थापित करने की कोई सैद्धांतिकी पेश नहीं करते. दूसरे, पुनर्जन्म को सिरे से खारिज करने की स्थिति में यह संभव भी नहीं है. लेकिन डा. धर्मवीर हैं कि बाबा साहेब और उनकी लिखत-पढ़त पर प्रहार करने से नहीं चूकते और उन पर दलित समाज को अंधा बनाने का दोष मढ़ते हैं. वर्णवादियों की तर्ज पर डा. धर्मवीर की दलित समाज को गंवार और मूर्ख आंकने की मुहिम उन्हें कहां तक ले जाएगी, इसका फैसला तो समय ही करेगा, इसे जनता पर छोड़ना ही बेहतर रहेगा.

तीन- आरोपों की कड़ी में डा. धर्मवीर, डा. अम्बे्डकर पर बोधिसत्व ‘बुद्ध’ कैसे बनता है, के संबंध में गंभीर आरोप लगाते हैं-“बोधिसत्वो को लगातार दस जन्मों तक ‘बोधिसत्व’ रहना पड़ता है. इन दस जन्मों में उसे दस पारमिताओं तक पहुंचना पड़ता है. शर्त बड़ी कठिन है- एक जन्म में एक पारमिता की पूर्ति करनी होती है, और ऐसी नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी. यह उद्धृत करते हुए डा. धर्मवीर टिप्पणी करते हैं-‘लगता है हिन्दुओं के पुराण कम पड़ गए थे जो यहां हम ‘बुद्ध पुराण’ पढ़ रहे हैं.” यहां डा. धर्मवीर बुद्ध पर पुनर्जन्म के आरोप के साथ-साथ बुद्ध–साहित्य के इतर हिन्दुऑं के पुराणों का सीधे-सीधे समर्थन करते दिख रहे हैं. यहां ‘जन्मर’ शब्द- भ्रांति पैदा करता है. इसे समझने के लिए बाबा साहेब के अंग्रेजी संस्कररण को देखना पड़ेगा. इसके अनुसार-“A Bodhisatta must be a Budhisatta for ten lives in succession. What must be a Bodhisatta do in order to qualify himself to become a Buddha? ” “The Bodhisatta acquires these ten powers which are necessary for him when he becomes a Buddha.”
यहां, जहां दस जीवन (जन्म ) की बात की जा रही है, वह वास्तव में इंसानी जीवन की दस अवस्थाओं की बात हो रही है, न कि दस बार जन्म लेने की. यह स्थिति ठीक वैसी है जैसी हिन्दुईज्म में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वाणप्रस्थो व सन्यादस की है. बुद्धिज्म में ये अवस्थाएं दस हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं- मुदिता (Joy), विमला (Purity), प्रभाकारी (Brightness), अचिंष्मंति (intelligence of Fire), सुदुर्जया (Difficult to Conquer) आदि-आदि. ये दस गुण हैं, पावर हैं जिन्हें हासिल करके बोधिसत्व से बुद्धत्व‍ प्राप्तn किया जा सकता है. यहां एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक पहुंचने के लिए एक जन्म् से दूसरे जन्मह से कुछ लेना-देना नहीं है, और इसे पुनर्जन्म, की भट्टी में झोंकना दुस्सासहस और दुराग्रह के अतिरिक्त‍ कुछ नहीं है. सिद्धार्थ ऐसी ही स्थितियों से गुजर कर बुद्ध बने थे.

चार- डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहेब की पुस्तक से उद्धृत-‘अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें यहां चला आता है, और फिर इसमें उन्हें छोड़कर दूसरे में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्य़त्र चला जाता है, यही मानव-मात्र का हाल है.’ यहां डा. धर्मवीर, बाबा साहब पर पुनर्जन्मवादी होने का मिथ्या आरोप लगाते हैं और उनके मास्टलर माईंड होने को संदिग्धाता का जामा पहना कर व्यं‍ग्य करते हैं कि यहां हम खुद को बचाएं या डा. अम्बे्डकर को बचाएं, या उनके बुद्ध को? वैसे डा. धर्मवीर ठीक ही कह रहे हैं. वही तो बचे हैं दलितों को, बाबा साहब को, बुद्ध को और समूचे भारतीय समाज को बचाने वाले. यदि डा. धर्मवीर जैसे बाबा साहेव के पांच-सात और हितैषी/शुभचिंतक हो जाएं तो सारे झगड़े ही मिट सकते हैं, क्योंकि न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.
यह घटनाक्रम उस समय का है जब सिद्धार्थ अपना घर छोड़कर जा रहे थे और शुद्धोदन द्वारा भेजे मंत्री और पुरोहित उन्हें वापस लौटा लाने के लिए अलग-अलग प्रकार के तर्क दे रहे थे. इस घटनाक्रम में भी डा. धर्मवीर संदर्भ से हटकर व तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं. डा. धर्मवीर द्वारा उद्धृत बाद के हिस्से को समझने के लिए उससे पूर्व के संदर्भ को देखना पड़ेगा जो इस प्रकार है- “जिस प्रकार दो राही सड़क पर इक्कट्ठे होते हैं वे आगे चलकर पृथक होते ही हैं, इसी प्रकार जब आज या कल सभी का परस्पर वियोग अनिवार्य है, तो कोई भी बुद्धिमान आदमी किसी भी स्वजन से पृथक होने पर दुखी क्यूं होगा, भले ही वह स्वकजन उसका कितना ही प्रिय क्यूं न हो? अपने संबंधियों को दूसरे लोक में छोड़कर आदमी यहां इसमें चला आता है और इसमें इन्हें छोड़कर दूसरे लोक में चला जाता है और वहां जाकर, वहां से भी अन्यवत्र चला जाता है. यही मानव-मात्र का हाल है. एक मुक्त् पुरुष इस सबके लिए दुखी क्यों हो?” डा. अम्बेडकर की आलोचना के चक्कर में डा. धर्मवीर भूल जाते हैं कि यहां किसी अन्य लोक की नहीं बल्कि इसी लोक की बात हो रही है जिसमें कोई भी प्रगतिशील व्योक्ति देश में ही नहीं, परदेश में भी जीवन के अनेक उद्यमों के चलते आता-जाता रहता है. दूसरे, ‘एक मुक्ते पुरुष’ से जुड़े अंतिम वाक्य को जान बूझकर इसलिए छोड़ देते हैं, ताकि बाबा साहब को आसानी से कठघरे में खड़ा किया जा सके.

पांच- धर्मवीर के पूर्वाग्रह की अति तो तब जो जाती है, जब वे बाबा साहब द्वारा प्रदत्त 22 प्रतिज्ञाओं में से 21वीं प्रतिज्ञा को उद्धृत (मैं यह मानता हूं मेरा अब पुनर्जन्मो हो गया है.) करते हुए अंधविश्वास का दोषारोपण करते हैं- “वे धर्मांतरण में हिन्दू् धर्म से छूटे नहीं हैं बल्कि उसमें बुरी तरह फंसते गए हैं.” यह बात एक सामान्यअ बुद्धि वाले बच्चेद की समझ में आ सकती कि यहां धर्मांतरण के बाद बाबा साहव एक नई जीवन-शैली से शेष जीवन जीने की बात कर रहे हैं. लेकिन डा.धर्मवीर ने तो तय कर रखा है कि उन्हें तो बाबा साहब पर पत्थर फैंकने ही हैं चाहे हिन्दूवाद के नाम से फैंके या पुनर्जन्म वाद के नाम से. गौरतलब यह भी है कि उन्हें हिन्दूरवाद, तब याद नहीं आता जब वे कबीर को आजीवक के नाम से थोपने के चक्कार में दिन-रात ईश्वर की माला जपते हैं.

छह -डा. धर्मवीर बुद्ध द्वारा अव्याकृत रखे गए प्रश्नों मसलन-‘क्या तथागत मरणांतर रहते हैं? क्‍या तथागत मरणांतर नहीं रहते हैं? क्यों वे मरणांतर रहते भी हैं और नहीं भी रहते हैं? और क्यां मरणांतर न रहते भी हैं और न नहीं भी रहते हैं? पर अजीब तरह से रिएक्टह करते हैं. “बुद्ध ने व्य क्ते नहीं किया, पर बाबा साहब ने अपना मत व्यक्त क्यों नहीं किया? इस मामले में आम आदमी और तथागत में क्या फर्क है? तथागत ने क्याक सत्य जान लिया है जो वे यहां आकर आम आदमी से भिन्नं हो गए? इस जानने या न जानने से पुनर्जन्म? पर क्या फर्क पड़ता है? पुनर्जन्म होना है तो होना हैं और नहीं होना है तो नहीं होना है, बात दो टूक क्यों नहीं? ऐसा कैसे हो जाएगा कि बाकि के पुनर्जन्म होते रहेंगे और तथागत का पुनर्जन्म अव्याकृत के मौन में गुम हो जाएगा? ”
डा. धर्मवीर क्यों भूल जाते हैं कि यह मामला जवाबदेही का है और भविष्य में समाज पर पड़ने वाले इसके प्रभाव का भी है, भ्रम फैलाने का नहीं. डा. धर्मवीर के उतावलेपन से लगता है कि जैसे पुनर्जन्म की गुत्थी सुलझाना उनके लिए गुड्डे-गुडियों का खेल है, जिससे जैसे चाहे खेला जा सकता है. यदि सारी चीजें इतनी ही आसान हैं तो पन्द्रह साल हो गए डा. धर्मवीर को आजीवक का राग अलापते हुए. क्या आजीवक के संबंध में सैंकड़ों/हजारों बिंदुओं में से किसी एक बिंदू पर भी वे अपनी कोई ठोस राय रख पाए? दूसरे, डा. अम्बेडकर सीधे-सीधे अपने किसी धर्म की सैद्धांतिकी नहीं तैयार कर रहे थे. वे जन-साधारण की सामान्‍य जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे, जिनसे प्रत्येक साधारणजन को अपने चारों ओर के धार्मिक माहौल में रोज जूझना पड़ता है. वे इसमें कितना सफल हो पाए कितना नहीं, यह अलग बात है. यदि डा. धर्मवीर को लगता है कि तथागत के मरणांतर रहने या न रहने के उत्तर मिलने से दलित समाज की सारी समस्याओं का चमत्कारी समाधान हो जाएगा और यदि उनके पास इसका कोई उत्तर है, तो दे दें इसका उत्तर और कर लें किला फतह.
सात- डा. धर्मवीर बाबा साहेब और अन्यउ किसी के कहने से बौद्ध धर्म ग्रहण न करने का कारण थेरी इसिदासी की ‘एक कांनी और लंगड़ी बकरी के पेट में मैंने जन्म पाया’ जैसी कथाएं बताते हैं. फिर बाल हठ जैसी प्रश्नों की झड़ी कुछ इस प्रकार लगाते हैं- “बस, लो हो ली, और हमने सुन ली, पूरी सुन ली. दुनिया कहे, मैं इस धर्मग्रथ पर विश्वास नहीं करूंगा. कुछ भी हो जाए, मैं अंधविश्वासी नहीं बनूंगा. इतने बड़े वकील थे, उनकी समझ में यह क्यूं नहीं आया कि वे ऐसे पकड़े जाएंगे. ” डा. धर्मवीर यह उदाहरण त्रिपिटक की थेरीगाथा से दे रहे हैं और दोष लगा रहे है बाबा साहब पर. यह आलोचना का कौन-सा तरीका है? डा. धर्मवीर आरोप लगाने के आवेश में यह क्यूं भूल जाते हैं कि बाबा साहब ने ‘बुद्धा एण्डन हिज धम्मा ’ नामक पुस्त्क अनावश्यक भटकाव से बचने के लिए लिखी है ताकि उनके अनुयायी अपनी राय इस पुस्तक के आधार पर बनाएं. दूसरे, उन्हों ने आगे स्पाष्ट कहा है- “बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वंयं अपने आप ही प्रयास करना होता है.” ऐसी स्थिति में डा. धर्मवीर को बताना चाहिए कि बाबा साहब कैसे उन्हें अंधविश्वासी बनने के लिए जबरदस्ती कर रहे हैं? कैसे वे उन्हें दस जन्मों में व पुनर्जन्म में भटकाने के लिए लट्ठ लिए उनके पीछे घूम रहे हैं?

आठ- आलेख के ‘खण्ड चार’ में डा. धर्मवीर द्वारा बाबा साहब को अपना कहने का स्या नापन एक्स्पोज हो जाता है. उनका असली चेहरा है- “हमारे धार्मिक और दार्शनिक पिमामह मक्खेलि गोसाल हैं. वे हमारे आदि गुरु हैं. उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी.”14 साफ है कि डा. धर्मवीर का धर्म ‘आजीवक’ है और मक्खुलि गोसाल उनके धार्मिक और दार्शनिक पितामह और आदि गुरु सिर्फ इसलिए हैं कि उन्होंने आजीवक धर्म की नींव डाली थी. बाकि धर्म देने का जिम्मा‍ डा. धर्मवीर का है. इसीलिए वे कहते हैं कि अगर बाबा साहब न होते, कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर कबीर न होते तो कोई बात नहीं, मैं तो हूं. अगर मक्खुलि गोसाल नहीं हैं, तो काई बात नहीं, डा. धर्मवीर तो हैं. यानी डा. धर्मवीर ने अपने आपको पैगम्बसर/ईश्वर का पर्याय बना लिया है.
उक्त टिप्पणी में डा. धर्मवीर अपने को पैगम्बंर की तरह प्रस्तुत करते हैं और बार-बार दावा भी करते हैं कि मैं ही धर्म दूंगा और मैं ही ये करूंगा और मैं ही वो करूंगा. लेकिन बाबा साहब और बुद्ध डा. धर्मवीर के पैगम्बरवाद और ईश्वरवाद को ही नकारते नहीं बल्कि लोक-परलोक को भी नकारते हैं. बाबा साहब का सब कुछ इसी लोक और इसी जन्म पर आधारित है. वे इस विषय पर बुद्धिज्म की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहते हैं- “प्रत्येक धर्म के संस्थापक ने या तो अपने को ‘ईश्वरीय’ कहा है, या अपने ‘धर्म’ को. तथागत ने न अपने लिए और न अपने धर्म-शासन के लिए कोई ऐसा दावा किया. उनका दावा इतना ही था कि वे भी बहुत से मनुष्यों में से एक हैं और उनका संदेश एक आदमी द्वारा दूसरे को दिया गया संदेश है.”15 यहां बुद्ध शुरु से अंत तक साधारण आदमी हैं लेकिन डा. धर्मवीर शुरु से अंत तक पैगम्बरी/ईश्वयरी अहंकार में लिप्त हैं.
जहां तक ‘नियति’ का सवाल है, डा. धर्मवीर इसे प्रकृति के नियमों व परिस्थितियों के आधार पर घटित होने वाली अनेक घटनाओं को सिर्फ जन्म तक सीमित बताते हैं- “नियति को जन्म् लेने की घटना से आगे बढ़ाना ही अनु‍चित है. अन्यथा यह वृद्धि-प्राप्त दोष के तर्क से ग्रस्त हो जाती है.”16 डा. अम्बेडकर के लिए तो नियति को जन्मन से आगे बढ़ना अनुचित है क्योंकि उनपर पुनर्जन्म का पक्षधर होने का जो दोष मढना है. लेकिन फिर आंए-बांए बघार वे बताते हैं-“मक्ख लि गोसाल के यहां ‘नियति’ कोई बंद अर्थ वाला शब्दन नहीं है. इसके अर्थ खुल सकते हैं.”17 तो फिर ये समझा जाए कि इस विषय पर बात करने का अधिकार डा. धर्मवीर ने पेटेंट करा लिया है? यदि सब कुछ डा. धर्मवीर को ही करना है तो डर किस बात का, खोल क्यूं नहीं देते डा. धर्मवीर अपने पत्ते और बन क्यूं नहीं जाते चमत्कारी बाबा, यानी आजीवक पैगम्बर?

नौ- आगे अहंकार की दीवनगी में बाबा साहब को जबरन कबीर तक सीमित करने की जिद ही नहीं करते बल्कि उनपर कबीर पर किताब न लिखने का दोषारोपण करते हैं. फिर बाबा साहब द्वारा बुद्ध के लिए प्रयोग किए गए विशेष नामों को भक्ति की संज्ञा देते हैं और अपना हिन्दुरवादी हिडन ऐजेंडा प्रस्तुत करते हैं-“जब आदमी के मन में भक्ति की भावना इतनी प्रबल है तो बुद्ध के बजाय सीधे ईश्वुर पर जाया जाएं. फिर, अपने जैसे आदमी की भक्ति क्या करनी, उसी की डोर पकड़ी जाए जो सारे जहां का मालिक है, जिसके हुकम में बुद्ध भी रहते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी पैदा होते हैं.”18 डा. धर्मवीर बाबा साहब पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें क्षत्रियों और ब्राह्मणों की पौराणिक स्पर्धा में नहीं पड़ना चाहिए था- वे तीन में न तेरह में. खुद धर्मवीर यहां हिन्दूवाद और ईश्वर के अवतारों की स्थांपना कर रहे हैं जो अलग-अलग अवतार लेकर पृथ्वी पर आ रहे हैं. वे किसी भी स्पर्धा में पड़ सकते हैं लेकिन अन्यक नहीं, आखिर पैगम्बरर जा ठहरे. क्या यह विश्वथ हिन्दू परिषद व आर. एस. एस. के ऐजेंडे का हिस्सा़ नहीं है, जो डा. धर्मवीर को असीम शक्तियां प्रदान करता है?
इसी ईश्व‍रवादी बजरंगी ऐजेंडे को आगे बढाते हुए डा. धर्मवीर टिप्पकणी करते हैं,“उसे भावनात्मवक बनाकर उससे रागात्मसक संबंध जोड़े जाएं कबीर के पास वही राम तो सजे-धजे दुल्हें के रूप में हैं. इस मामले में रैदास और कबीर के नामों के हमारे बजुर्गो ने कुछ भी गलत नहीं किया. उन्होंने जीवा को राजा नहीं कहा. वे बुद्ध वंदना नहीं कर सकते थे क्योंकि बुद्ध एक आदमी थे.‍ भला रैदास और कबीर की संतान एक आदमी को ऐसे कैसे पूज लेंगी?”19 धर्मवीर पूजा की वकालत करते हैं हुए क्यों भूल जाते हैं कि पूजा तो पूजा होती है, राम की हो या रहीम की. इतना तय है कि इसके पीछे मानसिकता कमोबेश समपर्ण की ही रहती है, भले ही पद्धतियां कितनी ही भिन्नक क्यूं न हों. यही नहीं डा. धर्मवीर के यहां ईश्वीर भी है और जाति भी. उन्हें जाति से बहुत प्यार है और अच्छी लगती हैं, भले ही वे कितनी ही यातनाओं के तहत थोपी गई हैं. इसीलिए वे जाति मजबूत करने की बात भी करते हैं. असल में डा. धर्मवीर आदमी ही नहीं हैं, वे तो पैगम्ब्र/ईश्वजर हैं इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, और कुछ भी कर सकते हैं.
डा. धर्मवीर ने डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्मी के मात्र एक सकारात्महक पक्ष को नकारात्माकता के चश्मे से देखा है और डा. अम्बेडकर और बुद्धिज्म के बारे में विष-वमन किया है. आमतौर पर साधारण पाठक ऐसे ही लेखन से अपनी राय बना लेता है और सच्चा‍ई की तह तक जाने की जहमत नहीं उठाता. दूसरे, विरोधी व्यपक्ति ऐसे पूर्वाग्रही लेखन का लाभ उठाकर दुष्प्रचार करते हैं और समाज को भ्रमित करते हैं. सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में बाबा साहब की ही पुस्तक से कुछ उद्धृरण देखे जा सकते हैं, जो डा. धर्मवीर द्वारा लगाए सारे आरोपों के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने में सक्षम हैं.
बुद्धिज्म की विशेषता है कि यहां समानता हैं. यह अपने निर्णय स्वयं के विवेक से लेने के लिए स्वुतंत्रता प्रदान करता है और दूसरे लोगों पर निर्भरता के लिए कोई खास जगह नहीं छोड़ता. परिणामस्वरूप, व्यक्ति की शंकाओं का व्यवहारिक समाधान आसानी से संभव है. यह अन्य धर्मो से अलग है, जैसे-“ईसा ने ईसाइयत का पैगम्बर होने का दावा किया. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद साहब का दावा था कि वे खुदा के भेजे गए इस्लाम के पैगंबर थे. भगवान बुद्ध ने ऐसी कोई शर्त नहीं रखी. उन्होंने शुद्धोदन और महामाया का प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी कोई दूसरा दावा नहीं किया.”20 यहां परिस्थितियों से उत्पन्न‍ समस्याओं का समाधान भी बिना किसी आडंबर और टंटघंट के व्यूक्तियों द्वारा ही सांसारिक परिस्थितियों के अनुरूप मिल सकता है. इसके लिए न किसी पैगम्बंर की जरूरत है, न किसी ईश्वसर और न किसी मंन्दिर-मस्जिद व किसी पूजा पद्धति की. सभी कुछ इसी जन्म और मानव शरीर के द्वारा हल किया जा सकता है.
बुद्धिज्म में सब कुछ सहज भाव से चलता है. यहां न किसी मोक्ष की जरूरत है और न किसी स्वीर्ग-नरक की और न ही किसी कयामत के दिन के इंतजार की, जो ईश्वारीय व्यवस्था के अनिवार्य अंग माने जाते है. यहां व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य् निर्वाण है और इसमें व्यक्ति की भूमिका सर्वोच्च है. इसका श्रेय बुद्ध को जाता है क्योंकि उन्होंने स्वयं को विशेष व कोई मुक्तिदाता नहीं माना. इसे बुद्धिज्म के माध्यम से इस प्रकार समझा जा सकता है-“बुद्ध ने ‘मोक्ष दाता’ को ‘मुक्ति दाता’ से सर्वथा अलग रखा है-एक तो मोक्ष देने वाला, दूसरा केवल उसका मार्ग बता देने वाला. बुद्ध केवल मार्ग-दाता थे. अपनी मुक्ति के लिए हर किसी को स्वेयं अपने आप ही प्रयास करना होता है. ”21
बुद्धिज्म में मुक्ति का संबंध हिन्दूईज्म की तरह व्यक्ति के जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति से नहीं है. बुद्धिज्म में मुक्ति का अर्थ राग-द्वेष से मुक्ति है- “भगवान बुद्ध के लिए मुक्ति का मतलब है ‘निर्वाण’ और ‘निर्वाण’ का मतलब है राग-द्वेष की आग का बुझ जाना.”22
जिस “बुद्धिज्म” की बात बाबा साहब कर रहे हैं, वह पूरी दुनिया के धर्मों को तब पीछे जाता है जब इस धर्म के जनक, यानी बुद्ध को भी मानवीय कमजोरियों से मुक्ता नहीं माना जाता. उसे भी जवाबदेह बनाया जाता है और बुद्ध स्वबयं यह जवाबदेही स्वीकार करते हैं. बाबा साहब उल्लेख करते है-“उन्होंने कभी यह भी दावा नहीं किया कि उनकी बात गलत हो ही नहीं सकती. उनका दावा इतना ही था कि जहां तक उन्हों ने समझा है, उनका पथ मुक्ति का सत्यह मार्ग है. क्योंकि इसका आधार संसार भर के मनुष्यों के जीवन का व्यापक अनुभव है.”23
इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज बुद्धिज्म का पुरोहितिकरण हो रहा है, जिसने बुद्धिज्म की मूल भावना को क्षति पहुंच रही है. लेकिन यह बुद्धिज्‍म वह नहीं है जिसकी बात बाबा साहब कर रहे हैं. असली बुद्धिज्म में सभी कार्य परिस्थितियों के शूक्ष्म अवलोकन, विश्लेषण और अनुभवजन्य तथ्यों पर आधारित होते हैं. जीवन स्थितियों को समझने और तथ्यों तक पहुंचने की अनुभवजन्य पद्धति ही आजीवक चिंतन का मूलाधार है. आजीवक कोई धर्म नहीं है. आजीवक-चिंतन के केन्द्र् में प्रकृति है और अपने नए संदर्भ व तेवर के साथ नियति है, लेकिन कबीर और रैदास का राम, वह राम नहीं है, जिसकी पूजा की वकालत डा. धर्मवीर करते हैं. एक हकीकत और भी है‍ कि आजीवक सभ्यता और संस्कृति के सूत्रधार भी मक्खीलि गोसाल नहीं हैं. इन विषयों पर बात करना विषयांतर होगा इसलिए अभी इस पर यहां बात नहीं की जा सकती.
खैर...डा. धर्मवीर आजकल जिस चिंतन पद्धति का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे डस्टबिन पद्धति कहा जा सकता है. क्योंकि वे किसी भी विषय-वस्तु में गंदगी ढूंढने की कोशिश करते हैं, भले ही उसमें हकीकत का मादा आज 1% प्रतिशत हों. लेकिन डा. धर्मवीर उसी एक प्रतिशत को शेष 99% पर थोपने की जद्दोजहद करते हैं. ऐसा नहीं है कि बुद्धिज्म में गड़बडि़यां नहीं आई. समय के साथ–साथ जब सब कुछ ही बदलता आया है इसलिए देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप बुद्ध–धम्म में भी कई प्रकार के बदलावों का आना स्वाभाविक है. किंतु वो बुद्ध व बाबा साहब के आचार-विचार व चिंतन-दर्शन के अनुरूप नहीं, अपितु उनके अनुयाइयों की कमजोरियों व परिस्थितियों को देखने के अपने नजरिए के कारण हैं. किंतु इन बदलावों को डा. धर्मवीर के कहीं पे निगाहें, कही पे निशाना वाले अंदाज से मुक्त होकर देखा जाना चाहिए. संभवत: तभी पाठक समकालीन परिस्थितियों को आसानी से समझ पाएंगे. यही नहीं, दलित किसी नए धर्म के नाम पर स्वयं को बलि का बकरा बनाने की किसी भी कोशिश को नाकाम कर पाएंगे.

Tuesday, October 18, 2011

बहुजन समाज का बहुजन धाम


सदियों से साजिश के तहत दबा कर रखा गया वंचित तबका जब अपने आत्मविश्वास को हासिल करता है तो वह क्षण बड़ा अद्भुत होता है. शुक्रवार को गौतम बुद्ध नगर के नोएडा में ऐसा ही पल था, जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 33 हेक्टेयर में बने राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल एवं ग्रीन गार्डेन का उद्घाटन किया. इस पल के गवाह बहुजन समाज के हजारों लोग बनें. लेकिन हजारों की भीड़ होने के बावजूद वहां एक अजब सी खामोशी थी. या शायद वह सकून था, जब लब खामोश थे और आंखे सारा माजरा अपने में समेट रही थी. जैसे इस समाज को यकीन ना हो रहा हो कि यह सचमुच में हो रहा है. राष्ट्रीय दलित स्मारक नाम के इस भवन में वंचित समाज के सभी मसीहा को सम्मान के साथ एक धरोहर की तरह रखा गया है. इस पार्क के तीन हिस्से हैं. पार्क के बीच में बड़ा सा स्तूप है. मुख्य बौद्धिक स्तूप के नीचे विशालकाय पत्थरों में मायावती की जीवनगाथा उकेरी गई है. मुख्य भवन के अंदर बहुज नायकों की प्रतिमाएं हैं.
जब से बहुजन समाज के इस ‘धाम’ के बनने की शुरुआत हुई, तभी से इसको लेकर क
ई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा. 700 करोड़ के इस स्थल को बनाने के लिए उत्तर प्रदेश की की मुख्यमंत्री की भी कम आलोचना नहीं हुई. लेकिन इन तमाम आलोचनाओं का जवाब भी वंचित तबके के एक सामान्य से युवा ने दे दिया. जब एक टीवी रिपोर्टर ने उससे इस पर खर्च हुए पैसों की बात पूछी तो उसने साफ कहा कि यह हमारे पूर्वजों का सम्मान है. अब तक इन्हेेरिडयन के बगल में जनपथ रोड पर पांच फ्लैट दे दिया और जिस पर भव्य पुस्तकालय बनाना था, वह अभी तक क्यों नहीं बन पाया है. जिस दिल्ली में देश के एक बड़े तबके के रहनुमा भारत रत्न बाबा साहब अंबेडकर ने अंतिम सांस ली, उन्हें कांग्रेस की सरकार या फिर भाजपा की सरकार ने क्या सम्मान दिया. आप दिल्ली के लुटियन जोन में जाइए, यहां ऐरे-गैरे नेताओं और अंग्रेजों के नाम तक पर सड़कें हैं लेकिन बाबा साहब या फिर फुले, नारायण गुरु और पेरियार के नाम पर आपको शायद ही कोई सड़क दिखे. एक सवाल और है, राजीव गांधी तक को भारत रत्न अवार्ड (हालांकि इस पर मेरा मतभेद नहीं है) दे देने वाली कांग्रेस बाबा साहेब जैसे कही कद्दावर व्यक्तित्व को भारत रत्न का अवार्ड देने से क्यों बचती रही? सवाल कई हैं जो उठेंगी. जहां तक पार्क पर खर्च हुए पैसों की बात है तो इस देश में सरकारें जो टैक्स लेती हैं, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुजन समाज भी देता है. इस बहुजन समाज को इस स्मारक पर कोई ऐतराज नहीं. जिन्हें ऐतराज है, वो हमारे ठेंगे पे. ऐसे पार्क और बनने चाहिए.

मराठवाड़ा आंदोलन के 31 साल

मराठवाड़ा विद्यापीठ के नामांतर के लिए किया गया लांग मार्च दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मार्च था. 31 साल बीत जाने के बावजूद उस ऐतिहासिक आंदोलन का अभी भी पूरी तरह से पटाक्षेप नहीं हो पाया है. आंदोलनकारियों का कानूनी संघर्ष का दौर जारी है. आंदोलन से जुड़े लोग अब भी उस काली रात को नहीं भूल पाए हैं, जब सोये हुए आंदोलनकारियों पर लाठियां भांजी गई थीं. औरंगाबाद में मराठवाड़ा विद्यापीठ को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम देने को लेकर विवाद था. मराठवाड़ा में उन दिनों दलितों को शिक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. उपाधि महाविद्यालय, हैदराबाद की विद्यापीठ से संलग्न थे. ऐसे में औरंगाबाद के नागसेनवन में पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी का शिक्षा क्षेत्र में सराहनीय कार्य था. सोसायटी के तहत कई महाविद्यालय चल रहे थे. उसी के प्रयास से औरंगाबाद में नई विद्यापीठ की नींव रखी गई थी.
27 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र विधानसभा ने औरंगाबाद की विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर विद्यापीठ रखने का प्रस्ताव मंजूर किया. उसी दिन मराठवाड़ा में असंतोष उमड़ पड़ा. कहा जाने लगा कि विद्यापीठ को समुदाय विशेष की विद्यापीठ बनाने का प्रयास किया गया है. इसे अन्य समाज वर्ग की प्रतिष्ठा का सवाल भी बनाया गया. गुस्सा व्यक्त करते हुए दलितों पर हमले किये गए. बस्तियां जलाई गईं. महिलाओं के साथ अशोभनीय व्यवहार हुआ. हिंसा में कुछ लोगों की जान गई. 11 दिनों तक असंतोष का बवंडर छाया रहा. उस पर काबू पाने में तत्कालीन शरद पवार सरकार भी हतबल साबित हो रही थी. देखते ही देखते वह मसला आम समाज की चिंता का विषय बन गया. समाजसेवी, जनप्रतिनिधि, विधि व पत्रकारिता क्षेत्र के लोगों की शाब्दिक प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सब अनसुनी थीं. ऐसे में नागपुर में नामांतर आंदोलन ने करवट ली. सरकार के प्रस्ताव को अमल में लाने की मांग को लेकर लोग लामबंद हुए. रिपब्लिकन पार्टी के तत्कालीन युवा नेता प्रा. जोगेंद्र कवाड़े ने आंदोलन की कमान संभाली.
डॉ. कवाड़े का परिवार रिपब्लिकन राजनीति से जुड़ा था. उनके दादा पंडित रेवाराम कवाड़े व पिता लक्ष्मणराव कवाड़े ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के साथ सक्रिय राजनीति में काम किया था. रेवाराम कवाड़े, शिडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के विदर्भ के अध्यक्ष थे. लक्ष्मणराव नागपुर इकाई के कोषाध्यक्ष थे. प्रा. कवाड़े के साथ दलित आंदोलन से जुड़े कई कार्यकर्ता आए. 4 अगस्त 1978 को आंदोलन का आगाज हुआ. प्रा. कवाड़े के नेतृत्व में दीक्षाभूमि से जिलाधिकारी कार्यालय तक मोर्चा निकाला गया. आकाशवाणी चौक में बड़ी सभा हुई. उसमें बड़ी संख्या में छात्र शामिल हुए. सभा के बाद लोग उत्साहपूर्ण अपने घरों की ओर लौट रहे थे, तभी उत्तर नागपुर के 10 नंबर पुलिया चौक पर अचानक हिंसा भड़क उठी. कुछ असामाजिक तत्वों ने सरकारी बसों पर पत्थर फेंके. हिंसा पर काबू पाने के लिए पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. चंद मिनटों के फासले में वहां 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कइयों को गंभीर जख्मी अवस्था में मेयो, मेडिकल अस्पताल भिजवाया गया. नागपुर में कर्फ्यू लग गया. अखबारों में माध्यम से घटना की खबर फैली तो देश भर में दलित अत्याचार रोकने के स्वर गूंजने लगे. तब नागपुर से औरंगाबाद लांग मार्च ले जाने की घोषणा की गई. दिल्ली, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु से दलित आंदोलनों से जुड़े लोग यहां आने लगे.
उसी वर्ष दीक्षाभूमि पर धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह से लांग मार्च की शुरुआत हुई. बौद्ध पंडित भदंत आनंद कौशल्यायन ने आशीर्वाद दिया. दीक्षाभूमि की मिट्टी माथे से लगाकर आंदोलनकारी औरंगाबाद के लिए रवाना हुए. लांग मार्च को विदायी देने मेला सा लगा हुआ था. नागपुर की बाहरी सीमा तक वर्धा मार्ग पर हजारों लोग स्वागत मुद्रा में खड़े थे. हर उम्र के लोग उसमें शामिल थे. 30 किमी प्रतिदिन पैदल चलते हुए इस मार्च ने 18 दिनों में 470 किमी का सफर तय किया. पैदल मार्च की खबर अखबारों के माध्यम से लोगों तक पहुंच रही थी. गांव-गांव में स्वागत व विश्राम के स्थान तय किये गए थे. लोगों ने स्वागत कमेटियां बना रखी थीं. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. बावजूद इसके लांग मार्च में गांव के गांव शामिल होने से संख्या बल काफी बढ़ने लगा था. औरंगाबाद में संभावित स्थिति को लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई थी. माना जा रहा था कि लांग मार्च के पहुंचने से औरंगाबाद में वर्ग संघर्ष होगा. आंदोलन के विरोध में मुंबई से बयान आने लगे थे.
27 नवंबर की बात है. आंदोलनकारी खड़कपूर्णा नदी तक पहुंच गए. औरंगाबाद से 100 किमी पहले सिंधखेड़राजा तहसील के दूसरबीड़ राहेरी गांव के पास वह नदी है. नदी पर अर्धसैनिक बल के साथ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी. गृहमंत्रालय का आदेश था कि आंदोलनकारियों को एक इंच भी आगे नहीं बढ़ने दिया जाए. औरंगाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक नदी पर तैनात थे. दोपहर में ही आंदोलनकारियों को रोक लिया गया था. उन्हें वापस जाने के लिए कहा जा रहा था, लेकिन वे अपनी मांग पर अड़े थे. संयोग से उस दिन बारिश भी हो रही थी. हजारों की संख्या में लोग जमा हुए थे. पुल पर ही धरना पर बैठ गए. रात 12 बजे के बाद लाठीचार्ज शुरू हुआ. पुल के खाईनुमा छोरों को लांघकर आंदोलनकारी झुड़पी क्षेत्र में भागे. कइयों ने गहरी नींद में लाठी खायी. प्रा. कवाड़े समेत सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तारी के दौर में मासूम छात्र-छात्राओं को भी जेल जाना पड़ा. बड़ी संख्या में महिलाओं ने गिरफ्तारी दी. अमरावती, वाशिम, अकोला, औरंगाबाद व नागपुर की जेल भर गई.
मार्च में अग्रक्रम में रहे आंदोलनकारियों को विभिन्न जेलों में डाला गया. प्रा. कवाड़े पर राज्य के 22 जिले में जाने व भाषण देने पर पाबंदी लगायी गई. 2 माह तक उन्हें मुंबई प्रवेश पर भी पाबंदी लगायी गई. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत प्रकरण दर्ज किये गए. आंदोलन धीरे-धीरे अन्य प्रदेशों में भी नजर आने लगा. आगरा, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद में मोर्चे निकाले गए. 16 वर्ष ताकत आंदोलन के समर्थन में सभाओं, मोर्चो का दौर चला. बार-बार गिरफ्तारियां हुईं. आखिरकार, नामांतर के लिए सकारात्मक पहल हुई. दोनों पक्षों की मांग को ध्यान में रखते हुए निर्णय आया कि विद्यापीठ का नाम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विद्यापीठ रखा जाए. 14 जनवरी 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने विद्यापीठ का नामांतर किया. उसके साथ ही नांदेड में स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विद्यापीठ की स्थापना की गई. राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज प्रकरण वापस लेने की पहल की. अदालत में अर्जी भी की गई, लेकिन कानूनी तकनीकी पेंच के चलते अभी भी आंदोलनकारियों को पूरी तरह से राहत नहीं मिली है. उनके विरुद्ध दर्ज प्रकरण अभी भी चल रहे हैं. प्रा. कवाड़े मानते हंर कि अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध दलितों को तैयार करने की दिशा में यह आंदोलन कारगर साबित हुआ. आंदोलन के बहाने अलग-अलग समुदाय के लोग पास आये.

साभारः दैनिक भास्कर