Tuesday, March 31, 2009

"दीन दलित" के सहारे जारी है गौरीशंकर की जंग

आजादी के 60 साल बाद भी हम आम दलितों में आत्मविश्वास कम ही आ पाया है। अमूमन अगर कोई हमें डराता है तो हम डर जाते हैं। कोई झिड़क देता है तो चुप हो जाते है। कोई ऐसी चीज जिस पर हमारा हक है, अगर न मिले तो भी चुपचाप सह लेते हैं। झारखंड के दुमका शहर के गौरीशंकर जब सामाजिक सुरक्षा योजना में अपना नाम जुड़वाने के लिए कुछ लोगों के साथ अधिकारियों के पास गए तो उनका भी अपमान किया गया। मगर, एक सामान्य दलित की तरह गौरीशंकर खामोश नहीं रहें। उन्होंने लड़ने की ठान ली। इसके बाद सामने आया 'दीन दलित' नाम का साप्ताहिक अखबार, जिसके बूते गौरीशंकर आमलोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं।
वह हाथ से लिखे जाने वाले इस अखबार के संपादक हैं। या यूं कहें कि रिपोर्टर, डेस्क प्रभारी, पेजमेकर, हॉकर और मालिक सबकुछ वही हैं। दीन दलित का पहला संस्करण अक्टूबर, 1986 में निकला था। तब से आज इक्कीस साल हो गए, सफर बदस्तूर जारी है। खास यह कि वह कभी स्कूल नहीं गए। और आज भी जातिगत पेशे के तहत धोबी का काम करते हैं। गौरीशंकर की आमदनी बहुत कम है लेकिन जज्बा अथाह, जिसके बलबूते वह डटे हुए हैं। लगातार। बिना थके। बिना डरे। बिना रुके।
लेकिन सब इतना आसान नहीं था। गौरीशंकर को शुरुआत में ही मुसीबत का सामना पड़ा। अखबार शुरु करने के लिए उन्हें इसको रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़पेपर्स फॉर इंडिया (आरएनआई) में पंजीकृत कराना था। मगर एक दलित, वो भी बिना पढ़ा-लिखा, ऊपर से जेब से करक, के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया सहज नही थी। इस काम के लिए उन्हें कई बार चक्कर काटना पड़ा। आखिर में देश के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के सहयोग के बाद जाकर अख़बार पंजीकृत हो सका।
हर हफ्ते अखबार निकालने की प्रक्रिया भी आसान नहीं है। चार पेज के इस हिन्दी अखबार को गौरीशंकर खुद अपने हाथ से लिखते हैं। तब जाकर यह पाठकों के पास पहुंचता है। गुजर-बसर के लिए पूरे ह़फ्ते कपड़े धोने के बाद रविवार की सुबह अख़बार की 100 प्रतियां तैयार की जाती है। लगभग 50 प्रतियां नियमित ग्राहकों को बांटी जाती है, 25 सरकारी विभागों में जाती है और बाकी प्रतियों को दुमका की प्रमुख जगहों की दीवारों पर चिपका दिया जाता है। इस नेक काम में उनका पूरा परिवार उनके साथ खड़ा रहता है। उनकी पत्नी और चार बच्चे हर प्रक्रिया में उनकी मदद करते हैं। हालांकि कुछ समय पहले ही ‘दीन दलित’ को उसका पहला रिपोर्टर मिल गया है। किराने की दुकान पर काम करने वाले 45 वर्षीय रविशंकर गुप्ता अब अखबार के लिए खबरें जुटाते हैं। अखबार में स्थानीय स्तर पर हो रहे अन्याय और भ्रष्टाचार से संबंधित खबरें होती है। अब तक इसने कई बार सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टाचार के बारे में लिखा और उसका असर भी हुआ। कई बार ऐसा हुआ जब अख़बार में ख़बर छपने के बाद प्रशासन की आंख खुली और लोगों को न्याय मिला।
हालांकि मैं इस खबर को लिख रहा हूं। पर मुझे पता है कि इसे गौरीशंकर रजक नहीं पढ़ पाएंगें। मगर, जज्बे से भरा यह इंसान हर दलित के लिए प्रेरणा लेने लायक है। जैसे गौरीशंकर दुष्यंत कुमार की लाइनें गुनगुना रहे हों ...."कौन कहता है आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।"

No comments:

Post a Comment