Monday, March 23, 2009

मैं दलित हूं।

पूजा खतम होने के बाद मैं चौबे को प्रसाद देता। वो चुपचाप ले लेता, मगर सुबह वही प्रसाद किसी खिड़की के कोने में पड़ा हुआ दिखता। मैं पापा से कहता ‘मैं उसे प्रसाद नहीं दूंगा। वो नहीं खाता है।’ पापा समझाते, कहते, प्रसाद भगवान का है। इसे सभी को देना चाहिए। तब मैं सोचता कि चौबे जैसे ‘शैतान’ को तो नहीं ही देना चाहिए। छूआछूत की ‘हरामी परंपरा’ से यह मेरा पहला सामना था। तब मैं चौदह साल का था।
हम जिस मुहल्ले में रहते थे, उसका मकान मालिक ‘मिश्रा’ था। एक बड़ा सा गेट था जिसके अंदर करीब पंद्रह घर थे। दलित होने के बावजूद भी हमें मकान इसलिए मिल गया था क्योंकि पापा कोर्ट में अच्छे पद पर थे और मिश्रा को उनसे काम रहता था। सुबह आठ बजे ‘बीबीसी’ समाचार सुनने के लिए सभी लोग मकान मालिक के दरवाजे पर इकठ्ठा होते थे। तब अक्सर चाय का दौर चलता था। सबके लिए चाय आता, पापा के लिए भी। फर्क बस यह होता कि उनका कप पुराना सा, सबसे अलग होता था। मकान मालिक के यहां आने वाले बढ़ई, धोबी आदि भी इसी कप में चाय पीते थे। मैं पापा से झगड़ पड़ता कि अपमानित होकर चाय पीने की क्या जरूरत है। वो टाल जाते। पापा गांव में अपने टोले में सरकारी नौकरी पाने वाले पहले ‘दलित’ थे। काफी वक्त उन्होंने गांव में ही गुजारा था और शायद उन्हें वह अपमान सहने की थोड़ी बहुत आदत थी।
यही हाल मां का था। मुहल्ले के सभी मर्द आफिस चले जाते तो औरतें एक जगह इकठ्ठा होती थीं। चाय वगैरह बनता तो मां पीने से मना कर देती। वह चाय की जगह अपमान पीने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती थी। उसे पता था जो सुबह उनके पति (मेरे पापा) के साथ होता था दोपहर में वह उसके साथ दोहराया जाएगा। वहां से घर आते ही वो सबसे पहले चाय बना कर पीती थीं। एक नहीं, दो कप। मेरा अंतर पीड़ा से भर जाता, मैं रो पड़ता। कहता कि क्या जरूरत है उनके साथ बैठने की। मां कहती कि आखिर हम इंसान हैं, अकेले कैसे रह सकते हैं। हम इंसान ही थे। ऐसे इंसान, जिनसे सब हंस कर बातें करतें, हमारे साथ घूमने जाते मगर जैसे ही बात खाने-पीने की आती वो अपना दोगलापन दिखाने से बाज नहीं आते। वक्त वदल गया था और छूआछूत का तरीका भी।
ग्रेजुएशन करने के बाद 2005 में भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में दाखिला मिल गया था। यहां से पत्रकारिता की डिग्री ली। पहली नौकरी लोकमत समाचार, औरंगाबाद में लगी। यहां जातिवाद चरम पर था। लोगों ने नाम पूछा। मैने कहा अशोक। आगे क्या? अब मैं नौकरी में आ गया था और हर जगह ‘आगे क्या’ पूछा जाने लगा था। हालांकि मैने औरंगाबाद में झूठ बोल दिया था। मैं वहां सिर्फ दो महिने ही रहा।
दूसरी नौकरी अमर-उजाला, अलीगढ़ में मिली। नई यूनिट शुरू होनी थी सो दस नए लोग आए थे। सभी लगभग हमउम्र थे। फिलहाल काम कम था। सभी को एक साथ ही छुट्टी मिल जाया करती थी। एक को छोड़ सभी ब्राह्मण थे। एक दिन छुट्टी के बाद रात में हम सभी होटल में खाना खा रहे थे। संदीप त्रिपाठी ने नाम पूछा। अशोक, मैने कहा। आगे क्या? मैने तय किया था कि मैं अब जाति को लेकर झूठ नहीं बोलूंगा। "मैं दलित हूं।" मैने सीधे कहा। सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे थे। दूसरे दिन से चर्चा शुरू हो गई थी। अपने पिछार में शुक्ला, मिश्रा, ओझा, द्विवेद्वी, और पांडे लगाए घूमते ये लोग मुझे अपने साथ देखने के लिए अंदर से तैयार नहीं हो पा रहे थे। दलित वर्ग का आत्म सम्मान सवर्णों की नजरों में नाग के फन की तरह चुभ रहा था। चौदह साल की उम्र में चौबे द्वारा कराए गए छूआछूत से साक्षात्कार का सिलसिला अब गहरा रहा था।
नौकरी करते डेढ़ साल से अधिक हो गए थे। प्रोमोशन होना था। संदीप त्रिपाठी, कौशल ओझा और मैं नंबर में थे। प्रोमोशन हुआ, मगर सिर्फ त्रिपाठी और ओझा का। मेरी स्थिति आग में फेंके उस आदमी की तरह थी जो भीतर से भी जलता है और बाहर से भी झुलसता है। मैं चुप था और अपने दलित होने का एक बड़ा खामियाजा भुगत रहा था। संपादक गितेश्वर ने एक घंटे में एक विज्ञप्ति बनाने वाले ओझा, जो उसी की जाति का था, सब एडिटर बना दिया था। मैं समझ गया था कि हम किसी भी सदी में भले ही चले जाएं न सवर्णों की फितरत बदलेगी न दलित उत्पीड़न थमेगा।
कुछ दिनों बाद ऊपर वाले ने न्याय किया। गितेश्वर का पैर टूट गया। लेकिन मुझे दुख हुआ। मैं उसका बुरा नहीं चाहता था। फिर मैने वहां से नौकरी छोड़ दी थी।

4 comments:

  1. अशोक जी आपका स्वागत है .आपका यह लेख पढ़ा तो मन द्रवित हो गया .मैं आपके अनुभवों से सहानुभूति जता सकती हूँ पर यह बड़ा बचकाना सा शब्द लगता है .मुझे बहुत बुरा लग रहा है .

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  2. हमारे यहां भी कुछ लोगों के बर्तन अलग रखे जाते थे। हांलांकि माता-पिता स्वभाव से दूसरों की तरह क्रूर नहीं थे। पर सालों से चला आ रहा, भीड़ का दुष्प्रभाव तो था ही।
    फिर भी, आज सोचता हंू, तो शर्मिंदगी होती है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने पिछले चुनावों में जीत के बाद सिखों से माफी मांग ली थी। अमेरिका ने बराक ओबामा को लाकर प्रायश्चित किया। मगर हमारे मुल्क के सवर्ण बजाय माफी मांगने के, आज भी उल्टे-सीधे तर्क देकर वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने की तरकीबें करते रहते हैं। सच कहूं तो बहुत शर्म आती है।
    आपके ब्लाग का लिंक अपने ब्लाग पर लगा रहा हंू, उम्मीद है अनुमति देंगे।

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  3. बिल्कुल संजय जी। अनुमति की कोई जरूरत नहीं है।

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  4. aapka lekh padha achha laga asha karta hon ki ishi tarah likhete rahaenge|

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