दलितों के हित में कई कानून बनाए गए हैं, यही सोचकर कि हमेशा से शोषित समाज को उनका हक मिल सके, कानून के भय से ही सही, उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थिति मिल सके। लेकिन कानून किताबों में होता है और उसे लागू करवाने वाली संस्थाएं, पुलिस, वकील एवं न्यायाधीश अभी इसकी आत्मा से रूबरू नहीं हैं। वे मानसिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि दलित वास्तविक जीवन में बराबरी के अधिकारी हैं।
मुकदमे हो जाते हैं खारिज
दलितों पर सवर्णो के अत्याचारों के बाबत मुकदमे दर्ज तो हो जाते हैं, पर अदालतों में सवर्ण वकीलों के दांव-पेंच और अनिच्छा के आगे वे मामले दम तोड देते हैं। ज्यादातर मुकदमे वे हार जाते हैं टेक्निकल गडबडियों के कारण। जबकि सर्वोच्च न्यायालय दूसरे मुकदमों में कहता रहता है कि टेक्निकल नुक्तों पर मुकदमे खारिज न करें, न्याय की दृष्टि से फैसला दें।
अन्याय को साबित कैसे करें
प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट, 1989 (अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून 1989) की धारा 3 (1)(एक्स) का लगातार ऐसा मतलब अदालतों द्वारा निकाला जा रहा है कि दलितों के मुकदमों में सजा हो ही नहीं पाती। धारा 3 (1)(एक्स) कहती है, दलित कानून के अंतर्गत मुकदमा तभी चलेगा जब किसी दलित का अपमान या प्रताडना इस इरादे से किया जाए कि प्रताडना देने वाला खुद ऊंची जाति से है और पीडित दलित है। यानी इस अपराध के पीछे अपमानित या प्रताडित करने वाले की मंशा क्या थी यह साबित करना जरूरी होगा। जाहिर है कि प्रताडना देने वाला ऊंची जाति की मानसिकता के चलते ऐसा कर रहा है, इसे साबित करना मुश्किल कार्य है। दलित यह साबित कर दे कि अभियुक्त की मंशा यही है तो भी अदालतें कहती हैं कि इस अपराध का संज्ञान विशेष अदालत ने खुद क्यों लिया या इस घटना की छानबीन डीएसपी से नीचे रैंक वाले पुलिस ऑिफसर ने क्यों की। अंत में यहां तक भी कहा जा सकता है कि तमाम गवाह झूठे हैं।
नायनार बनाम कुटप्पन का केस
उदाहरण के लिए एक मुकदमा देखें। एक दलित व्यक्ति डॉ. कुटप्पन ने शिकायत दर्ज की कि ई.के. नायनार ने एक राजनीतिक जनसभा में अपने भाषण में इस बात पर बार-बार जोर दिया कि डॉ. कुटप्पन दलित वर्ग से आते हैं। उनके बारे में असम्मानजनक शब्दों का इस्तेमाल भी किया गया और ऐसा समूची भीड के सामने किया गया। मुकदमे का ट्रायल विशेष जज थलसरी के समक्ष हुआ। ट्रायल के बाद मुकदमा जब केरल उच्च न्यायालय के सामने आया तो उच्च न्यायालय ने स्थापना दी कि धारा 3 (1)(एक्स) यहां लागू नहीं होती। धारा कहती है-जनता की आंखों के सामने, न कि आम स्थान पर।
अदालत के अनुसार धारा का अर्थ है आम आदमी शिकायतकर्ता को अपनी आंखों के सामने बेइज्जत होता देखे। इसके लिए आवश्यक है कि बेइज्जत होने वाला व्यक्ति वहां मौजूद भीड एवं बोलने वाले के सामने उपस्थित रहे। चूंकि इस मायने में डॉ. कुटप्पन जनता एवं वक्ता के सामने उपस्थित ही नहीं थे, लिहाजा इस घटना को कानून की धारा 3 (1)(एक्स) का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय में भी हार
अदालत ने यह भी माना कि प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट की धारा 7 (1) (डी) के अंतर्गत किसी को हरिजन कह कर बुलाना छूतछात की प्रवृत्ति को बढावा देना या इसे जारी रखना नहीं है। ई. कृष्णन नायनार बनाम डॉ. एम.ए. कुटप्पन-1977 क्रिमिनल लॉ जर्नल, 2036 का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश संतोष हेगडे एवं बीपी सिंह के सामने पहुंचा। लेकिन यहां भी डॉ. कुटप्पन को हार का मुंह देखना पडा। (2004) 4 एस.सी.सी. 231 इन फैसलों से जाहिर है कि अदालतों में दलित हित में बने कानूनों के अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है। ऐसा अनजाने में हो रहा है या जानबूझकर, कहा नहीं जा सकता, लेकिन सच तो है कि ऐसा हो रहा है।
कमलेश जैन
(दैनिक जागरण से साभार)
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