Tuesday, March 31, 2009

"दीन दलित" के सहारे जारी है गौरीशंकर की जंग

आजादी के 60 साल बाद भी हम आम दलितों में आत्मविश्वास कम ही आ पाया है। अमूमन अगर कोई हमें डराता है तो हम डर जाते हैं। कोई झिड़क देता है तो चुप हो जाते है। कोई ऐसी चीज जिस पर हमारा हक है, अगर न मिले तो भी चुपचाप सह लेते हैं। झारखंड के दुमका शहर के गौरीशंकर जब सामाजिक सुरक्षा योजना में अपना नाम जुड़वाने के लिए कुछ लोगों के साथ अधिकारियों के पास गए तो उनका भी अपमान किया गया। मगर, एक सामान्य दलित की तरह गौरीशंकर खामोश नहीं रहें। उन्होंने लड़ने की ठान ली। इसके बाद सामने आया 'दीन दलित' नाम का साप्ताहिक अखबार, जिसके बूते गौरीशंकर आमलोगों की लड़ाई लड़ रहे हैं।
वह हाथ से लिखे जाने वाले इस अखबार के संपादक हैं। या यूं कहें कि रिपोर्टर, डेस्क प्रभारी, पेजमेकर, हॉकर और मालिक सबकुछ वही हैं। दीन दलित का पहला संस्करण अक्टूबर, 1986 में निकला था। तब से आज इक्कीस साल हो गए, सफर बदस्तूर जारी है। खास यह कि वह कभी स्कूल नहीं गए। और आज भी जातिगत पेशे के तहत धोबी का काम करते हैं। गौरीशंकर की आमदनी बहुत कम है लेकिन जज्बा अथाह, जिसके बलबूते वह डटे हुए हैं। लगातार। बिना थके। बिना डरे। बिना रुके।
लेकिन सब इतना आसान नहीं था। गौरीशंकर को शुरुआत में ही मुसीबत का सामना पड़ा। अखबार शुरु करने के लिए उन्हें इसको रजिस्ट्रार ऑफ़ न्यूज़पेपर्स फॉर इंडिया (आरएनआई) में पंजीकृत कराना था। मगर एक दलित, वो भी बिना पढ़ा-लिखा, ऊपर से जेब से करक, के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया सहज नही थी। इस काम के लिए उन्हें कई बार चक्कर काटना पड़ा। आखिर में देश के पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन के सहयोग के बाद जाकर अख़बार पंजीकृत हो सका।
हर हफ्ते अखबार निकालने की प्रक्रिया भी आसान नहीं है। चार पेज के इस हिन्दी अखबार को गौरीशंकर खुद अपने हाथ से लिखते हैं। तब जाकर यह पाठकों के पास पहुंचता है। गुजर-बसर के लिए पूरे ह़फ्ते कपड़े धोने के बाद रविवार की सुबह अख़बार की 100 प्रतियां तैयार की जाती है। लगभग 50 प्रतियां नियमित ग्राहकों को बांटी जाती है, 25 सरकारी विभागों में जाती है और बाकी प्रतियों को दुमका की प्रमुख जगहों की दीवारों पर चिपका दिया जाता है। इस नेक काम में उनका पूरा परिवार उनके साथ खड़ा रहता है। उनकी पत्नी और चार बच्चे हर प्रक्रिया में उनकी मदद करते हैं। हालांकि कुछ समय पहले ही ‘दीन दलित’ को उसका पहला रिपोर्टर मिल गया है। किराने की दुकान पर काम करने वाले 45 वर्षीय रविशंकर गुप्ता अब अखबार के लिए खबरें जुटाते हैं। अखबार में स्थानीय स्तर पर हो रहे अन्याय और भ्रष्टाचार से संबंधित खबरें होती है। अब तक इसने कई बार सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टाचार के बारे में लिखा और उसका असर भी हुआ। कई बार ऐसा हुआ जब अख़बार में ख़बर छपने के बाद प्रशासन की आंख खुली और लोगों को न्याय मिला।
हालांकि मैं इस खबर को लिख रहा हूं। पर मुझे पता है कि इसे गौरीशंकर रजक नहीं पढ़ पाएंगें। मगर, जज्बे से भरा यह इंसान हर दलित के लिए प्रेरणा लेने लायक है। जैसे गौरीशंकर दुष्यंत कुमार की लाइनें गुनगुना रहे हों ...."कौन कहता है आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।"

Thursday, March 26, 2009

दलित हित के कानून कितने कारगर

दलितों के हित में कई कानून बनाए गए हैं, यही सोचकर कि हमेशा से शोषित समाज को उनका हक मिल सके, कानून के भय से ही सही, उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थिति मिल सके। लेकिन कानून किताबों में होता है और उसे लागू करवाने वाली संस्थाएं, पुलिस, वकील एवं न्यायाधीश अभी इसकी आत्मा से रूबरू नहीं हैं। वे मानसिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि दलित वास्तविक जीवन में बराबरी के अधिकारी हैं।

मुकदमे हो जाते हैं खारिज

दलितों पर सवर्णो के अत्याचारों के बाबत मुकदमे दर्ज तो हो जाते हैं, पर अदालतों में सवर्ण वकीलों के दांव-पेंच और अनिच्छा के आगे वे मामले दम तोड देते हैं। ज्यादातर मुकदमे वे हार जाते हैं टेक्निकल गडबडियों के कारण। जबकि सर्वोच्च न्यायालय दूसरे मुकदमों में कहता रहता है कि टेक्निकल नुक्तों पर मुकदमे खारिज न करें, न्याय की दृष्टि से फैसला दें।

अन्याय को साबित कैसे करें

प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट, 1989 (अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून 1989) की धारा 3 (1)(एक्स) का लगातार ऐसा मतलब अदालतों द्वारा निकाला जा रहा है कि दलितों के मुकदमों में सजा हो ही नहीं पाती। धारा 3 (1)(एक्स) कहती है, दलित कानून के अंतर्गत मुकदमा तभी चलेगा जब किसी दलित का अपमान या प्रताडना इस इरादे से किया जाए कि प्रताडना देने वाला खुद ऊंची जाति से है और पीडित दलित है। यानी इस अपराध के पीछे अपमानित या प्रताडित करने वाले की मंशा क्या थी यह साबित करना जरूरी होगा। जाहिर है कि प्रताडना देने वाला ऊंची जाति की मानसिकता के चलते ऐसा कर रहा है, इसे साबित करना मुश्किल कार्य है। दलित यह साबित कर दे कि अभियुक्त की मंशा यही है तो भी अदालतें कहती हैं कि इस अपराध का संज्ञान विशेष अदालत ने खुद क्यों लिया या इस घटना की छानबीन डीएसपी से नीचे रैंक वाले पुलिस ऑिफसर ने क्यों की। अंत में यहां तक भी कहा जा सकता है कि तमाम गवाह झूठे हैं।

नायनार बनाम कुटप्पन का केस

उदाहरण के लिए एक मुकदमा देखें। एक दलित व्यक्ति डॉ. कुटप्पन ने शिकायत दर्ज की कि ई.के. नायनार ने एक राजनीतिक जनसभा में अपने भाषण में इस बात पर बार-बार जोर दिया कि डॉ. कुटप्पन दलित वर्ग से आते हैं। उनके बारे में असम्मानजनक शब्दों का इस्तेमाल भी किया गया और ऐसा समूची भीड के सामने किया गया। मुकदमे का ट्रायल विशेष जज थलसरी के समक्ष हुआ। ट्रायल के बाद मुकदमा जब केरल उच्च न्यायालय के सामने आया तो उच्च न्यायालय ने स्थापना दी कि धारा 3 (1)(एक्स) यहां लागू नहीं होती। धारा कहती है-जनता की आंखों के सामने, न कि आम स्थान पर।

अदालत के अनुसार धारा का अर्थ है आम आदमी शिकायतकर्ता को अपनी आंखों के सामने बेइज्जत होता देखे। इसके लिए आवश्यक है कि बेइज्जत होने वाला व्यक्ति वहां मौजूद भीड एवं बोलने वाले के सामने उपस्थित रहे। चूंकि इस मायने में डॉ. कुटप्पन जनता एवं वक्ता के सामने उपस्थित ही नहीं थे, लिहाजा इस घटना को कानून की धारा 3 (1)(एक्स) का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।

सर्वोच्च न्यायालय में भी हार

अदालत ने यह भी माना कि प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट की धारा 7 (1) (डी) के अंतर्गत किसी को हरिजन कह कर बुलाना छूतछात की प्रवृत्ति को बढावा देना या इसे जारी रखना नहीं है। ई. कृष्णन नायनार बनाम डॉ. एम.ए. कुटप्पन-1977 क्रिमिनल लॉ जर्नल, 2036 का यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश संतोष हेगडे एवं बीपी सिंह के सामने पहुंचा। लेकिन यहां भी डॉ. कुटप्पन को हार का मुंह देखना पडा। (2004) 4 एस.सी.सी. 231 इन फैसलों से जाहिर है कि अदालतों में दलित हित में बने कानूनों के अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है। ऐसा अनजाने में हो रहा है या जानबूझकर, कहा नहीं जा सकता, लेकिन सच तो है कि ऐसा हो रहा है।

कमलेश जैन
(दैनिक जागरण से साभार)

Wednesday, March 25, 2009

मीडिया में दलित, ढ़ूंढ़ते रह जाओगे।

........मीडिया जगत में 10 से 50 हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता से की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती हैं। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च जाति के लोग आते हैं। वजह है मीडिया में फैसले लेने वाले जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी का 71 प्रतिशत के करीब होना जबकि उनकी देश में कुल आबादी मात्र आठ प्रतिशत ही है। उनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे, इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता........''
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आजादी के दौरान दलितों के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के प्रयास विभिन्न आयामों पर शुरू हुए थे। ज्योतिबा फुले से लेकर डा. भीम राव अम्बेदकर तक ने दलित चेतना को नई दिशा दी। ब्राह्मणवादी संस्कृति को चुनौती देते हुए दलितों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास से दलित समाज में नई चेतना का संचार हुआ। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने को गोलबंद कर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को धकेलने के प्रयास शुरू हुए। दलित-पिछड़ों ने सामाजिक व्यवस्था में समानता को लेकर अपने को गोलबंद किया। हालांकि आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी समाज के कई क्षेत्रों में आज भी असमानता का राज कायम है। आरक्षण के सहारे कार्यपालिका, न्यायापालिका, विधायिका आदि में दलित आए, लेकिन आज भी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के चौथे खम्भे पर काबिज होने में दलित पीछे ही नहीं बल्कि बहुत पीछे हैं। आकड़े इस बात के गवाह हैं कि भारतीय मीडिया में वर्षों बाद आज भी दलित-पिछड़े हाशिए पर हैं। उनकी स्थिति सबसे खराब है। कहा जा सकता है कि ढूंढते रह जाओगे, लेकिन मीडिया में दलित नहीं मिलेंगे। गिने चुने ही दलित मीडिया में हैं और वह भी उच्च पदों पर नहीं हैं।
‘राष्ट्रीय मीडिया पर उंची जातियों का कब्जा’ के तहत हाल ही में आए एक सर्वे ने मीडिया जगत से जुड़े दिग्गजों की नींद उड़ा दी थी। आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चला। किसी ने समर्थन में दलित-पिछड़ों को आगे लाने की पुरजोर वकालत की। तो किसी ने यहां तक कह दिया कि भला किसने उन्हें मीडिया में आने से रोका है। मीडिया के दिग्गजों ने जातीय असमानता को दरकिनार करते हुए योग्यता का ढोल पीटा और अपना गिरेबान बचाने का प्रयास किया। दलित-पिछड़े केवल राष्ट्रीय मीडिया से ही दूर नहीं हैं बल्कि राज्य स्तरीय मीडिया में भी उनकी भागीदारी नहीं के बराबर है। वहीं उंची जातियों का कब्जा स्थानीय स्तर पर भी देखने को मिलता है। समाचार माध्यमों में उंची जातियों के कब्जे से इनकार नहीं किया जा सकता है।
मीडिया स्टडी ग्रुप के सर्वे ने जो तथ्य सामने लाए हालांकि वह राष्ट्रीय पटल के हैं लेकिन कमोवेश वही हाल स्थानीय समाचार जगत का है। जहां दलित-पिछडे़ खोजने से न मिलेंगे। आजादी के वर्षों बाद भी मीडिया में दलित-पिछड़े हाशिए पर हैं। मीडिया के अलावा कई क्षेत्र हैं जहां अब भी सामाजिक स्वरूप के तहत प्रतिनिधित्व करते हुए दलित-पिछड़ों को नहीं देखा जा सकता है, खासकर दलितों को। आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत होने के बावजूद उंची जातियों का मीडिया हाउसों में 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा बना हुआ है। जहां तक मीडिया में जातीय व समुदायगत होने का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि कुल 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, सात-सात प्रतिशत वैश्य/जैन व राजपूत, नौ प्रतिशत खत्री, दो प्रतिशत गैर-द्विज उच्च जाति और चार प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियां हैं। इसमें दलित कहीं नहीं आते।
वहीं पर जब देश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर विरोध और समर्थन का दौर चल रहा था तभी पांडिचेरी के प्रकाशन संस्थान ‘नवयान पब्लिशिंग’ ने अपनी वेबसाइट पर दिए गए विज्ञापन में 'बुक एडिटर' पद के लिए स्नातकोत्तर छात्रों से आवेदन मांगा और शर्त रख दी कि 'सिर्फ दलित ही आवेदन करें।' इस तरह के विज्ञापन ने मीडिया में खलबली मचा दी। आलोचनाएं होने लगीं। मीडिया के ठेकेदारों ने इसे संविधान के अंतर्गत जोड़ कर देखा। यह सही है या गलत, इस पर राष्ट्रीय बहस की जमीन तलाशी गई। दिल्ली के एक समाचार पत्र ने इस पर स्टोरी छापी और इसके सही गलत को लेकर जानकारों से सवाल दागे। प्रतिक्रिया स्वरूप संविधान के जानकारों ने इसे असंवैधानिक नहीं माना।
सवाल यह उठता है कि अगर ‘‘नवयान पब्लिशिंग’’ ने खुलेआम विज्ञापन निकाल कर अपनी मंशा जाहिर कर दी तो उस पर आपत्ति क्यों? वहीं गुपचुप ढंग से मीडिया हाउसों में उंची जाति के लोगों की नियुक्ति हो जाती है तो कोई समाचार पत्र उस पर बवाल नहीं करता है और न ही सवाल उठाते हुए स्टोरी छापता है? कुछ वर्ष पहले बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ने जब अपने कुछ पत्रकारों को निकाला था तब एक पत्रिका ने अखबार के जाति प्रेम को उजागर किया था। पत्रिका ने साफ-साफ लिखा था कि निकाले गए पत्रकारों में सबसे ज्यादा पिछड़ी जाति के पत्रकारों का होना अखबार का जाति प्रेम दर्शाता है। जबकि निकाले गये सभी पत्रकार किसी मायने में सवर्ण जाति के रखे गये पत्रकारों के काबिलियत के मामले में कम नहीं थे।
जरूरी काबिलियत के बावजूद मीडिया में अभी तक सामाजिक स्वरूप के मद्देनजर दलित-पिछड़े का प्रवेश नहीं हुआ है। जाहिर है, कहा जायेगा कि किसने आपको मीडिया में आने से रोका? तो हमें इसके लिए कई पहलुओं को खंगालना होगा। सबसे पहले मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर जाना होगा। मीडिया में होने वाली नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए चर्चित मीडियाकर्मी राजकिशोर का मानना है कि दुनिया भर को उपदेश देने वाले टीवी चैनलों में, जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं, नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह सोर्स चल रहा है। वे मानते हैं कि मीडिया जगत में दस से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो जाती हैं। इन नियुक्तियों में ज्यादातर उच्च जाति के ही लोग आते हैं। इसकी खास वजह यह है कि मीडिया चाहे वह प्रिन्ट (अंग्रेजी-हिन्दी) हो या इलेक्ट्रानिक, फैसले लेने वाले सभी जगहों पर उच्च वर्ण की हिस्सेदारी 71 प्रतिशत है जबकि उनकी कुल आबादी मात्र आठ प्रतिशत ही है। उनके फैसले पर सवाल उठे या न उठे, इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
वहीं दूसरे पहलू के तहत जातिगत आधार सामने आता है। प्रख्यात पत्रकार अनिल चमड़िया कास्ट कंसीडरेशन को सबसे बड़ा कारण मानते हैं। चमड़िया ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए बताया है कि मीडिया में फैसले लेने वालों में दलित और आदिवासी एक भी नहीं है। जहां तक सरकारी मीडिया का सवाल है तो वहां एकाध दलित-पिछड़े नजर आ जाते हैं। चमड़िया कहते हैं कि देश की कुल जनसंख्या में मात्र आठ प्रतिशत उंची जाति की हिस्सेदारी है और मीडिया हाउसों में फैसले लेने वाले 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर उनका कब्जा बना हुआ है। यह बात स्थापित हो चुकी है और कई लोगों ने अपने निजी अनुभवों के आधार पर माना है कि कैसे कास्ट कंसीडरेशन होता है। यही वजह है कि दलितों को मीडिया में जगह नहीं मिली। जो भी दलित आए, वे आरक्षण के कारण ही सरकारी मीडिया में आये। रेडियो-टेलीविजन में दलित दिख जाते हैं, दूसरी जगहों पर कहीं नहीं दिखते। जहां तक मीडिया में दलितों के आने का सवाल है तो उनको आने का मौका ही नहीं दिया जाता है।
चमड़िया का मानना है कि मामला अवसर का है। हम लोगों का निजी अनुभव यह रहा है कि किसी दलित को अवसर देते हैं तो वह बेहतर कर सकता है। यह हम लोगों ने कई प्रोफेशन में देख लिया है। दलित डाक्टर, इंजीनियर, डिजाइनर आदि को अवसर मिला तो उन्होंने बेहतर काम किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में बेहतर अंग्रेजी पढ़ाने वाले लेक्चररों में दलितों की संख्या बहुत अच्छी है, यह वहां के छात्र कहते हैं। बात अवसर का है और दलितों को पत्रकारिता में अवसर नहीं मिलता है। पत्रकारिता में अवसर कठिन हो गया है। उसको अब केवल डिग्री नहीं चाहिये। उसे एक तरह की सूरत, पहनावा, बोली चाहिये। मीडिया प्रोफेशन में मान लीजिये कोई दलित लड़का पढ़कर, सर्टिफिकेट ले भी ले और वह काबिल हो भी जाय, तकनीक उसको आ भी जाए, तो भी उसकी जाति भर्ती में रुकावट बन जाती है।
पत्रकारिता में दलितों की हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई। तभी तो हिन्दी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का भी आरोप लगता रहा है। हंस के संपादक और चर्चित कथाकार-आलोचक राजेन्द्र यादव ने एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में माना है कि हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्रही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ने भी अपनी पत्रकारिता के दौरान वर्ण-व्यवस्था के प्रश्न पर कभी कोई बात नहीं की। इसका कारण बताते हुए यादव कहते हैं कि ये पत्रकार जातिभेद से दुष्प्रभावित भारतीय जीवन की वेदना कितनी असह्य है, इसकी कल्पना नहीं कर पाये। सच भी है, इसका जीवंत उदाहरण आरक्षण के समय दिखा। मंडल मुद्दे पर मीडिया का एक पक्ष सामने आया। वह भी आरक्षण के सवाल पर बंटा दिखा। दूसरी ओर महादलित आयोग, बिहार के सदस्य और लेखक बबन रावत मीडिया में दलितों के नहीं होने की सबसे बड़ी वजह देश में व्याप्त जाति व वर्ण व्यवस्था को मानते हैं। रावत कहते है कि हमारे यहां की व्यवस्था जाति और वर्ण पर आधारित है जो एक पिरामिड की तरह है। जहां ब्राह्मण सबसे उपर और चण्डाल सबसे नीचे हैं और यही मीडिया के साथ भी लागू है। जो भी दलित मीडिया में आते हैं पहले वे अपनी जात छुपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ज्योंही उनकी जाति के बारे में पता चलता है, उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार शुरू हो जाता है। वह दलित कितना भी पढ़ा लिखा हो, उसकी मेरिट को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित पत्रकार हाशिये पर चला जाता है।
वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे मीडिया में दलितों की भागीदारी के सवाल पर एक पत्रिका को दिये गये साक्षात्कार में मानते हैं कि पत्रकारिता के लिए लिखाई-पढ़ाई चाहिए और ऐसी लिखाई पढ़ाई चाहिए जो सरकारी नौकरी के उद्देश्य से प्रेरित न हो। पत्रकारिता तो सोशल इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। दलितों में सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ यह है कि उनमें शिक्षा-दीक्षा का अभाव है। दूसरे, आजकल उनकी शिक्षा दीक्षा आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरी प्राप्त करने की ओर निर्देशित होती है। इससे पत्रकारिता में उनका प्रवेश नहीं हो पाता। दलित और पिछड़े वर्ग के डीएम, एसपी, बीडीओ और थानेदार बनने के लिए अपने समाज को प्रेरित करते हैं पर पत्रकार बनने के लिए नहीं। जहां तक प्रतिभा का सवाल है, वह सभी में समान होती है और दलित समाज एक के बाद एक प्रतिभा पेश करेगा तो उसे पत्रकार बनने के अवसरों से वंचित रखना असंभव हो जाएगा।
मीडिया पर काबिज सवर्ण व्यवस्था में केवल दलित ही नहीं, पिछड़ों के साथ भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है, चाहे वो कितना भी काबिल या मीडिया का जानकार हो? ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। इन दिनों दिल्ली में एक बडे़ मीडिया हाउस में कार्यरत पिछड़ी जाति के एक पत्रकार को उस वक्त ताना दिया गया जब वे पटना में कार्यरत थे। उनके सर नाम के साथ जाति बोध लगा था। मंडल के दौरान उनके सवर्ण कलिगों का व्यवहार एकदम बदल सा गया था जबकि उस हाउस में गिने-चुने ही पिछड़ी जाति के पत्रकार थे। यही नहीं, मीडिया में उस समय कार्यरत पत्रकारों के बारे में जब सवर्ण पत्रकारों को पता चलता तो वे छींटाकशी से नहीं चूकते थे। यह भेदभाव का रवैया सरकारी मीडिया में दलित-पिछडे पत्रकारों के साथ अप्रत्यक्ष रूप से दिखता है। जातिगत लाबी यहां भी सक्रिय है लेकिन सरकारी नियमों के तहत वह प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आता। उनका केवल तरीका बदल जाता है और आरक्षण से आये को ताना सुनने को मिलता ही है। सरकारी मीडिया में भले ही दलित-पिछड़े आ गये हों लेकिन वहां भी कमोवेश निजी मीडिया वाली ही स्थिति है। अभी भी सरकारी मीडिया में उच्च पदों पर, खासकर फैसले लेने वाले पदों पर दलितों-पिछड़ों की संख्या उच्च जाति/वर्ण से बहुत पीछे है।
जो भी हो समाज में व्याप्त वर्ण/जाति व्यवस्था की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि इसे उखाड़ फेंकने के लिए एक मजबूत आंदोलन की जरूरत है, जिसके लिए मीडिया और मीडियाकर्मियों को आगे आना होगा। जब तक यह नहीं होता, दलितों को मीडिया में जगह मिलनी मुश्किल होती रहेगी।
(नंबर वन हिंदी मीडिया न्यूज पोर्टल भड़ास4मीडिया से साभार)

Monday, March 23, 2009

मैं दलित हूं।

पूजा खतम होने के बाद मैं चौबे को प्रसाद देता। वो चुपचाप ले लेता, मगर सुबह वही प्रसाद किसी खिड़की के कोने में पड़ा हुआ दिखता। मैं पापा से कहता ‘मैं उसे प्रसाद नहीं दूंगा। वो नहीं खाता है।’ पापा समझाते, कहते, प्रसाद भगवान का है। इसे सभी को देना चाहिए। तब मैं सोचता कि चौबे जैसे ‘शैतान’ को तो नहीं ही देना चाहिए। छूआछूत की ‘हरामी परंपरा’ से यह मेरा पहला सामना था। तब मैं चौदह साल का था।
हम जिस मुहल्ले में रहते थे, उसका मकान मालिक ‘मिश्रा’ था। एक बड़ा सा गेट था जिसके अंदर करीब पंद्रह घर थे। दलित होने के बावजूद भी हमें मकान इसलिए मिल गया था क्योंकि पापा कोर्ट में अच्छे पद पर थे और मिश्रा को उनसे काम रहता था। सुबह आठ बजे ‘बीबीसी’ समाचार सुनने के लिए सभी लोग मकान मालिक के दरवाजे पर इकठ्ठा होते थे। तब अक्सर चाय का दौर चलता था। सबके लिए चाय आता, पापा के लिए भी। फर्क बस यह होता कि उनका कप पुराना सा, सबसे अलग होता था। मकान मालिक के यहां आने वाले बढ़ई, धोबी आदि भी इसी कप में चाय पीते थे। मैं पापा से झगड़ पड़ता कि अपमानित होकर चाय पीने की क्या जरूरत है। वो टाल जाते। पापा गांव में अपने टोले में सरकारी नौकरी पाने वाले पहले ‘दलित’ थे। काफी वक्त उन्होंने गांव में ही गुजारा था और शायद उन्हें वह अपमान सहने की थोड़ी बहुत आदत थी।
यही हाल मां का था। मुहल्ले के सभी मर्द आफिस चले जाते तो औरतें एक जगह इकठ्ठा होती थीं। चाय वगैरह बनता तो मां पीने से मना कर देती। वह चाय की जगह अपमान पीने के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती थी। उसे पता था जो सुबह उनके पति (मेरे पापा) के साथ होता था दोपहर में वह उसके साथ दोहराया जाएगा। वहां से घर आते ही वो सबसे पहले चाय बना कर पीती थीं। एक नहीं, दो कप। मेरा अंतर पीड़ा से भर जाता, मैं रो पड़ता। कहता कि क्या जरूरत है उनके साथ बैठने की। मां कहती कि आखिर हम इंसान हैं, अकेले कैसे रह सकते हैं। हम इंसान ही थे। ऐसे इंसान, जिनसे सब हंस कर बातें करतें, हमारे साथ घूमने जाते मगर जैसे ही बात खाने-पीने की आती वो अपना दोगलापन दिखाने से बाज नहीं आते। वक्त वदल गया था और छूआछूत का तरीका भी।
ग्रेजुएशन करने के बाद 2005 में भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में दाखिला मिल गया था। यहां से पत्रकारिता की डिग्री ली। पहली नौकरी लोकमत समाचार, औरंगाबाद में लगी। यहां जातिवाद चरम पर था। लोगों ने नाम पूछा। मैने कहा अशोक। आगे क्या? अब मैं नौकरी में आ गया था और हर जगह ‘आगे क्या’ पूछा जाने लगा था। हालांकि मैने औरंगाबाद में झूठ बोल दिया था। मैं वहां सिर्फ दो महिने ही रहा।
दूसरी नौकरी अमर-उजाला, अलीगढ़ में मिली। नई यूनिट शुरू होनी थी सो दस नए लोग आए थे। सभी लगभग हमउम्र थे। फिलहाल काम कम था। सभी को एक साथ ही छुट्टी मिल जाया करती थी। एक को छोड़ सभी ब्राह्मण थे। एक दिन छुट्टी के बाद रात में हम सभी होटल में खाना खा रहे थे। संदीप त्रिपाठी ने नाम पूछा। अशोक, मैने कहा। आगे क्या? मैने तय किया था कि मैं अब जाति को लेकर झूठ नहीं बोलूंगा। "मैं दलित हूं।" मैने सीधे कहा। सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे थे। दूसरे दिन से चर्चा शुरू हो गई थी। अपने पिछार में शुक्ला, मिश्रा, ओझा, द्विवेद्वी, और पांडे लगाए घूमते ये लोग मुझे अपने साथ देखने के लिए अंदर से तैयार नहीं हो पा रहे थे। दलित वर्ग का आत्म सम्मान सवर्णों की नजरों में नाग के फन की तरह चुभ रहा था। चौदह साल की उम्र में चौबे द्वारा कराए गए छूआछूत से साक्षात्कार का सिलसिला अब गहरा रहा था।
नौकरी करते डेढ़ साल से अधिक हो गए थे। प्रोमोशन होना था। संदीप त्रिपाठी, कौशल ओझा और मैं नंबर में थे। प्रोमोशन हुआ, मगर सिर्फ त्रिपाठी और ओझा का। मेरी स्थिति आग में फेंके उस आदमी की तरह थी जो भीतर से भी जलता है और बाहर से भी झुलसता है। मैं चुप था और अपने दलित होने का एक बड़ा खामियाजा भुगत रहा था। संपादक गितेश्वर ने एक घंटे में एक विज्ञप्ति बनाने वाले ओझा, जो उसी की जाति का था, सब एडिटर बना दिया था। मैं समझ गया था कि हम किसी भी सदी में भले ही चले जाएं न सवर्णों की फितरत बदलेगी न दलित उत्पीड़न थमेगा।
कुछ दिनों बाद ऊपर वाले ने न्याय किया। गितेश्वर का पैर टूट गया। लेकिन मुझे दुख हुआ। मैं उसका बुरा नहीं चाहता था। फिर मैने वहां से नौकरी छोड़ दी थी।