आजादी के तत्काल बाद संविधान में संवैधानिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है. इसे संविधान में दलित वर्ग के समकक्ष खड़ा करते हुए ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था. इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है. इन सबके लिये निश्चय ही कुछ ऐसे कारक रहे हैं जिन पर ध्यान नहीं दिये जाने के कारण देश के मूल निवासी आज अपने ही देश में ही पराएपन, तिरस्कार और दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं. आदिवासी की मानवीय गरिमा को हर रोज तार-तार किया जा रहा है. आदिवासी की चुप्पी को नजर अंदाज करने वालों को आदिवासियों के अंतर्मन में सुलग रहा आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा है.
बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है. जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा. हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासियों की ये दुर्दशा हुई है. सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है. इसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है. एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं. दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं. यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती. जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!
एक अन्य समस्या आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके. आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता हुए हैं लेकिन वे आदिवासी नेता होने की बजाय कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं. ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है. इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है. देश में दलितों एवं आदिवासियों के जितने भी संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है. दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है. आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं.
आदिवासी पहाड़ों और नदियों के बीच जंगलों में रहता आया है. उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है. जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है. जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर उनके स्थान पर बड़े बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है. जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष की अटूट श्रद्धा से सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है. शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये गए. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है.
आज भी वास्तविक आदिवासियों का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है. इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं. जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और ऐशो आराम से ही फुर्सत नहीं है. अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो तमाम दिक्कतें खड़ी की जाती हैं. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. वहीं उनके हाट बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है. इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है. इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है. लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है. इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है.
साभारः प्रेस नोट
Tuesday, October 18, 2011
रोटी की तलाश में भटकती जनजातियां
हम तकनीकी सेवा में का़फी आगे निकल गए हैं. प्रगति के लिए भारत का नाम दुनिया के गिने चुने देशों में आता है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है. हमें अपने देश पर गर्व होता है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बेशक हमने तरक्क़ी कर ली है, लेकिन क्या हम देश के पिछड़े लोगों को उनका हक़ देने में कामयाब हुए है? क़तई नहीं, जबकि विश्व में भारत की लोकतंत्र के लिए एक अलग पहचान है. देश में आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष हो रहा है. ऐसी कई जनजातियां हैं जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है, क्योंकि सरकार में उनका प्रभाव नहीं है. शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इन जातियों के लोगों में एकजुटता नहीं है.
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.
साभारः चौथी दुनिया
अगर सुबह खाना नसीब हो गया तो रात का चूल्हा कैसे जलेगा, इस चिंता में इनकी ज़िंदगी गुज़रती है. देश को आज़ादी तो मिली, लेकिन यहां का पिछड़ा वर्ग आज भी ग़ुलामों से बदतर ज़िंदगी जी रहा है, उसका क्या? महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, बिहार और पंजाब सहित ऐसे कई राज्य हैं, जहां पिछड़ी जाति के लोगों की ब़डी आबादी है. इनमें ज्योतिषि, विविध रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करने वाले बहुरूपिये, नंदी बैल लेकर भिक्षा मांगने वाले, खेल दिखाकर अपनी रोटी के लिए लोगों के सामने हाथ ङ्गैलाने वाले डोंबारी, किंगरीवाले, नाथजोगी, गोसावी, वासुदेव, रायरन, काठियावाड़ी, देवदासी वाघ्यामुरली, पांगुल, गोंधली, बंदरवाला (कुंचीकोरवा), धनगर, वडार, शिकलची, अपने शरीर पर ङ्गटके लगानेवाला पोतराज, हाथ में दीया लेकर नमोनारायण कहनेवाला पिंगला, घर बांधनेवाला बेलदार, डोली उठाने वाला कहार, नाड़ी परीक्षा से जड़ी-बूटी देने वाला वैद्य, भाट, नदी-नालियों में से सोना ढूंढनेवाला सोनझरी, शमशान में काम करने वाला मसानजोगी और सांप पकड़कर खेल दिखाने वाले सपेरे आदि शामिल हैं.
महाराष्ट्र में इन पिछड़ों को भटके विमुक्त के तौर पर पहचाना जाता है. महाराष्ट्र सरकार ने इन लोगों के लिए चार प्रतिशत आरक्षण रखा है, लेकिन शिक्षा की कमी के कारण ये लोग इसका लाभ नहीं उठा पाए. इन जातियों के लोगों के पास ख़ुद के घर नहीं थे. ये लोग काम की तलाश में इस गांव से उस गांव भटकते थे. इन लोगों पर चोरी के भी आरोप लगते रहते थे. इसलिए अंग्ऱेजों ने 1871 में क़ानून बनाया. इस समुदाय को हमेशा बंदी बनाया जाता था. स्वतंत्रता के बाद 1949-50 में ए. अयंगार की अध्यक्षता में इस क़ानून को रद्द करने के लिए समिति बनाई गई. इस समिति के सुझाव पर 28 फ़रवरी 1952 को संसद में विधेयक लाया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समिति की रिपोर्ट को संसद में मंज़ूर कराने के लिए पूरी कोशिश की और यह क़ानून रद्द हो गया, लेकिन बात यहीं तक सीमित रही. इस समिति ने पिछड़ी जाति के विकास के लिए जो स़िफारिशें की थीं उनकी तऱफध्यान नहीं दिया गया. पंडित नेहरू ने सोलापुर जाकर 1952 में इस समाज के हज़ारों बंदिस्थ लोगों को मुक्त कराया था. तभी से महाराष्ट्र में इस समाज की भटके विमुक्त के नाम से पहचान होने लगी. यह क़ानून रद्द होने के बाद तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री से बहुत-सी अपेक्षाएं थीं, लेकिन वह केवल एक ही समाज का उद्धार करने में लगे रहे. सामाजिक न्याय मंत्री के नाते वह इस समाज को न्याय नहीं दे सके. इस समाज का उपयोग केवल वोट बैंक के रूप में किया गया. 2006 में सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर बालकृष्ण रेणके की अध्यक्षता में आयोग बनाया. रेणके ने दो साल में देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अध्ययन किया और उनके सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए क्या करना चाहिए, इसकी रिपोर्ट प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को दी. रेणके आयोग की रिपोर्ट बनवाने में सरकार को 20 करोड़ रुपये ख़र्च करने पड़े. रेणके ने इन दो सालों में पिछड़ों के विकास के लिए अध्ययन तो किया, लेकिन साथ में अध्ययन के नाम पर विदेश में भी अपनी यात्रा करवा ली थी. रेणके रिपोर्ट को कैबिनेट में लाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार को सूचना दी, लेकिन इस रिपोर्ट की स्टडी करके कैबिनेट में भेजने के लिए उन्हें व़क्त नहीं मिल पाया. 2008 से लेकर अभी तक इस रेणके समिति ने जो सुझाव दिए है उसे लागू करने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों ने कई आंदोलन किए. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो महाराष्ट्र में इसका नेतृत्व भी किया, लेकिन सरकार की तऱफ से इसे अनदेखा किया गया. मनमोहन सिंह ने रेणके आयोग के साथ-साथ इस समाज के विकास के लिए रिपोर्ट तैयार करने का काम गणेशदेवी की समिति को सौंपा. गणेश देवी की रिपोर्ट भी रेणके आयोग के पास भेज दी गई, लेकिन वहां इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनजातियों के हित के लिए जिन्हें काम सौंपा गया, वही आपस में लड़ने लगे.
रिपोर्टों पर करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बावजूद देश के पिछड़े लोग आज भी बदहाल हैं. प्रधानमंत्री द्वारा सामाजिक न्याय मंत्री को दो बार सूचना भिजवाए जाने के बाद भी डेढ़ साल में रेणके आयोग की रिपोर्ट को आगे नहीं बढ़ाया गया. कुछ समय पहले नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के सदस्य डॉ. नरेंद्र जाधव ने सोनिया गांधी को इस समाज के पिछड़ेपन और इसकी समस्याओं से अवगत कराया. इस पर सोनिया गांधी ने दो महीने में रिपोर्ट बनाने को कहा. यह बात समझ में नहीं आ रही है कि अभी तक बनी रिपोर्टों पर कुछ भी कार्रवाई क्यों नहीं की गई. जब रेणके आयोग बिठाया गया तब इस जाति के लोगों ने ख़ुश होकर महाराष्ट्र विधानसभा में तीन सदस्य कांग्रेस को चुनकर दिए. क्या इस बात को इन लोगों को भूलना चाहिए, इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यह ऐसा समाज है जो कई मायनों में दलित वर्गों से भी ज़्यादा पिछड़ा हैं. अगर सरकार उन्हें न्याय देना चाहती है तो उन्हें दलितों से भी ज़्यादा आरक्षण देना होगा. यह बात सरकार जानती है, लेकिन उसे डर है कि ऐसा करने से कहीं अन्य वर्ग नाराज़ न हो जाएं.
साभारः चौथी दुनिया
Sunday, October 2, 2011
दलितों के हक का हिसाब लेने में जुटे हैं जाधव
जब कोई दमित समाज आगे बढ़ता है और दमन करने वालों को चुनौती देने लगता है तो कई तरह से उसके बढ़ते कदम को रोकने की कोशिश की जाती है. उसे उसका हक नहीं दिया जाता, उसके साथ धोखा किया जाता है. ऐसे वक्त में समाज को अपने एक पहरुआ की जरूरत होती है, जो न सिर्फ उसके हितों को बताता है बल्कि उसे बचाता भी है. उसके लिए लड़ता है. नरेंद्र जाधव दलित समाज के ऐसे ही पहरुआ हैं, जो हर वक्त वंचित समाज को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे हैं. चाहे पुणे विश्वविद्यालय का कुलपति पद हो, रिजर्व बैंक में 31 साल तक पॉलिसी मेकर का काम हो, या फिर वर्तमान में योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य जैसी अहम जिम्मेदारी, शिक्षाविद एवं प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जाधव जिस भूमिका में भी रहे दलितों के हित ढ़ूंढ़ते रहे.
1953 में महाराष्ट्र में जन्मे जाधव ने अपने बड़े भाई के मार्गदर्शन में शुरू में ही तय कर लिया था कि उन्हें पब्लिक सेक्टर में काम करना है. वजह था दलित समाज का उत्थान, जो सिस्टम में रहकर ही किया जा सकता था. इसी जुनून और जिद्द कि वजह से उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति का पद मिलने पर सालाना सवा करोड़ की नौकरी ठुकरा दी, ताकि दलितों से अमानवीय व्यवहार करने वाले पुणे शहर में समाजिक न्याय की मशाल जला सकें. तब उन्होंने जो किया वो इतिहास में दर्ज हो चुका है. फिलहाल वो सरकारी मंत्रालयों और राज्यों में दलित हित के फंसे हजारों करोड़ रुपयों को बाहर निकालने में लगे हैं. बीती उपलब्धियों और वर्तमान चुनौतियों पर ‘दलितमत.कॉम’ के संपादक अशोक दास ने उनसे विस्तार से बातचीत की. इस बातचीत के दौरान जाधव ने अपने परिवार के ऊपर लिखी किताब आमचा बाप आनू आम्ही के लिखे जाने की दिलचस्प कहानी का भी जिक्र किया. पेश है उनसे बातचीत ...... पूरा इंटरव्यूह पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
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Friday, September 30, 2011
यूपी को 'भीम' नगर और 'प्रबुद्ध' नगर का तोहफा

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कु. मायावती ने प्रदेश को तीन और जिलों का तोहफा दिया है. पहले की तरह ही इन जिलों को उन्होंने वंचित समाज का उत्थान करने वाले महापुरुषों को समर्पित किया है. 28 सितंबर को घोषित नए तीन जिलों में एक का नाम बाबा साहेब के नाम पर भीम नगर तो दूसरे का महात्मा बुद्ध के नाम पर प्रबुद्ध नगर रखा गया है. जबकि तीसरे का नाम पंचशील नगर रखा गया है. 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक मायावती ने पंद्रह से ज्यादा जिलों का गठन किया है. इनमें नए दोनों जिलों को मिलाकर कुल 15 जिलों के नाम वंचित समाज के महापुरुषों के नाम पर या फिर उनसे संबंधित स्थानों के नाम पर रखा गया है.
मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरुआत से ही मायावती वंचित समाज के महापुरुषों के नाम को अमर करने में जुटी हुई हैं. 1995 में मायावती ने पहली बार उधमसिंह नगर बनाकर जिलों के गठन की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने आंबेडकर नगर, गौतमबुद्ध नगर, कांशीराम नगर, संत रविदास नगर, महामाया नगर, सिद्धार्थ नगर, कौशांबी, श्रावस्ती, कुशीनगर, रमाबाई नगर, ज्योतिबा फुले नगर और संत कबीर नगर जिलों का गठन किया था. बुधवार को तीन नए जिलों की घोषणा के बाद इसी लिस्ट में अब भीम नगर और प्रबुद्ध नगर भी शामिल हो गया है. हालांकि दलित रहनुमाओं को आगे बढ़ाने की मायावती की यह कोशिश उनके विरोधी मुलायम सिंह यादव और भाजपा को कभी रास नहीं आई है. समय-समय पर वो इसका विरोध करते रहे हैं. एक बार फिर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आ गया है. भाजपा ने मायावती द्वारा प्रबुद्ध नगर नाम का नया जिला गठित करने का विरोध किया है. भाजपा इस जिले का नाम शामली रखने के पक्ष में है. भाजपा ने तो यहां तक घोषणा कर दी है कि विधानसभा चुनावों के बाद सत्ता में आने पर वह प्रबुद्ध नगर का नाम बदल कर शामली रख देंगे.
सिर्फ भाजपा नहीं बल्कि दलित महापुरुषों के नाम पर गठित जिलों को लेकर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह की खुन्नस भी छिपी नहीं है. मुलायम के दलित और पिछड़ा प्रेम के ढ़ोंग को इसी से समझा जा सकता है कि 2003 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने मायावती द्वारा बनाए गए सभी 11 जिलों को समाप्त कर दिया था. लेकिन हाई कोर्ट के आदेश के बाद इन जिलों को फिर से बहाल करना पड़ा.
Thursday, September 29, 2011
संजीव खुदशाह के ''तुष्टिकरण'' पर डी एम एम का जवाब
गत 17 सितंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ‘जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार’ विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया. इसके बाद कथाकार, लेखक एवं समीक्षक संजीव खुदशाह ने इस कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए आयोजक डी एम एम (दलित मुक्ति मोर्चा) पर कई सवाल उठाए थे. संजीव के सवालों के बाद काफी बवाल मचा था और इस पर कई प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थी. डी एम एम ने संजीव खुदशाह के आरोपों का जवाब देते हुए दलित मत को एक पत्र भेजा है, जिसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं. (संजीव खुदशाह का आरोप पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
संपादक
आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,
सादर जय भीम!
आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.
क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,
मधुकर गोरख विभीषण पात्रे
अध्यक्ष महासचिव
संपादक
आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,
सादर जय भीम!
आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.
क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,
मधुकर गोरख विभीषण पात्रे
अध्यक्ष महासचिव
Sunday, September 25, 2011
मिर्चपुर हत्याकांड में सिर्फ 15 दोषी, 82 बरी

दिल्ली की एक अदालत ने हरियाणा के मिर्चपुर गांव में पिछले साल 70 वर्षीय एक दलित और उसकी विकलांग बेटी को जिंदा जला देने के मामले में आरोपी बनाए गए 97 में से 15 लोगों को विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत दोषी करार दिया. जबकि अन्य 82 आरोपियों को निर्दोष बताया है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने जिन 15 आरोपियों को दोषी ठहराया है उन्हें हत्या के मामले में दोषी करार नहीं दिया है. कुलविंदर, रामफल और राजेन्दर को 21 अप्रैल को ताराचंद के घर को आग के हवाले करने को लेकर आईपीसी की धारा 304 के तहत दोषी करार दिया गया. गांव के प्रभावी जाटों और दलितों के बीच जातीय विवाद के बाद यह घटना हुई थी.
इन 15 आरोपियों में से 12 को आगजनी, दंगा करने और गैर कानूनी रूप से एकत्र होने के आरोप में दोषी करार दिया गया. अदालत ने अपने फैसले में इस मामले में हरियाणा पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा, ‘‘जिस तरह से पूरे मामले को निपटाया गया वह अनुचित है.’’ गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल नौ दिसंबर को इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया था. हरियाणा में निष्पक्ष सुनवाई नहीं होने की पीड़ितों की अर्जी पर ऐसा किया गया था. न्यायाधीश ने कहा कि राजनीतिक दबाव के चलते कई आरोपियों को फंसाए जाने की संभावना खारिज नहीं की जा सकती है. अदालत ने हिसार जिले के नारनौंद पुलिस थाना के प्रभारी विनोद के. काजल सहित 82 आरोपियों को निर्दोष करार दिया. गौरतलब है कि इस घटना के बाद आज तक मिर्चपुर गांव में दलितों की स्थिति सुधर नहीं पाई है. आज भी वहां के दलित दहशत में हैं. जाटों के डर से कई परिवार अभी भी गांव से बाहर शरण लिए हुए हैं, जहां उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. जो परिवार वापस गांव लौट गए हैं, वो भी हर पल डर के साये में जी रहे हैं. इस पूरे मामले में संसद के अंदर मौजूद 120 दलित सांसदों की भूमिका भी समाज के प्रति साकारात्मक नहीं रही थी. जिस स्तर पर विरोध प्रदर्शन होना चाहिए था, राजनीतिक स्तर पर वैसा कुछ नहीं हो पाया. यहां तक की विपक्षी दलों ने भी विरोध दर्ज करा कर महज खानापूर्ति कर ली थी. तो आरक्षित सीट से जीतने वाले उम्मीदवार भी पार्टी के दबाव में दलितों पर अत्याचार के मामले को जोरदार ढ़ंग से उठाने में नाकाम रहे थे.
मंदिर प्रांगण में दलित को काट डाला
उत्तर प्रदेश के महामाया नगर में दबंगों ने दलित जाति के राजन लाल को मंदिर कैंपस में ही तलवार से काट कर हत्या कर दी. 40 साल के राजन लाल को महज इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने दबंगों द्वारा जातिसूचक गाली देने का विरोध किया था. दंभ में चूर ठाकुर जाति के लोगों को यह नागवार गुजरा कि एक दलित व्यक्ति उन्हें रोक कैसे सकता है. घटना के बाद अपने सात बच्चों को बिलखता लेकर मृतक की विधवा न्याय की आस में दर-दर भटक रही है तो दूसरी ओर अपनी राजनीतिक पहुंच और पैसे के बूते दबंग मामले की लीपापोती में लग गए हैं, जिसमें जिले का पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोपियों को बचाने के मामले में राज्य के उर्जा मंत्री और बाहुबली बसपा नेता रामबीर उपाध्याय का नाम सामने आया है.
घटना महामाया नगर जिले के थाना सिकंदरा राउफ में बीते 22 अगस्त को जन्माष्टमी को घटी. मृतक की विधवा फूलवती के मुताबिक रात साढ़े नौ बजे सोनू, पिंटू और पल्लू नाम के तीन लोग उसके घर आएं और पूजा देखने के बहाने उसके पति को जबरन घर से बुलाकर पास के जानकी मंदिर ले गए. जानकी मंदिर में जेनरेटर की व्यवस्था में लगा दलित जाति का ही युवक देवेंद्र इस पूरे मामले का प्रत्यक्षदर्शी है. उसके मुताबिक, मंदिर में डीजे चल रहा था. राजन लाल को लेकर मंदिर परिसर पहुंचे लोगों ने राजन से भी नाचने के लिए कहा लेकिन उसने नाचने से इंकार कर दिया. बस दबंग इसी बात से भड़क गए. वो राजन लाल को जातिसूचक गालियां देने लगे. इस दौरान प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री होने का गुस्सा भी सामने आ गया. प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक दबंगों ने राजन को गाली देते हुए कहा कि तुमलोगों का दिमाग खराब हो गया है. राजन ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया. राजन के विरोध करने से दबंग और चिढ़ गए और सभी मिलकर उसे मारने-पीटने लगे. इससे भी उनका मन नहीं भरा तो दबंगों ने मंदिर में ही रखे तलवार से राजन को काट दिया और उसकी हत्या कर दी.
मामले पर बवाल मचने के बाद अब दबंग अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर बचने की जुगत में जुट गए हैं. यहां तक की मामले के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी देवेंद्र को भी जान से मारने की धमकी देकर उसे बयान बदलने को मजबूर कर दिया गया है. इसमें पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोप है कि पुलिस ने इंकाउंटर की धमकी देते हुए देवेंद्र को बयान बदलने को राजी कर लिया है. मृतक की पत्नी के मुताबिक देवेंद्र ने अपना बयान बदलने के लिए पूरे दलित समाज से माफी मांगा है और जान के डर के कारण ऐसा करने की बात स्वीकार की है. इसके बाद अब पुलिस मामले को नया मोड़ देने में जुट गई है. चश्मदीद देवेंद्र के बयान पर पुलिस ने पहले सोनू, पल्लू और चिंटू तीनो के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी लेकिन अब सारा दोष पल्लू नाम के व्यक्ति पर डाल कर दो लोगों को छोड़ दिया गया है.
मृतक की पत्नी इस मामले सभी दोषियों को सजा दिलाने की मांग पर अड़ी हुई है. पुलिसिया एफआईआर को उसने पुलिस और आरोपियों की मिली-भगत का नतीजा बताया है और पुलिस द्वारा जबरन अंगूठा लिए जाने का आरोप लगाया है. उसका आरोप है कि प्रदेश के ऊर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं. इधर, मृतक राजन को इंसाफ दिलाने की मुहिम को लेकर पूरा दलित समुदाय एक हो गया है. मामले पर चर्चा के लिए जाटव महापंचायत बुलाई गई है. इसमें 25 गांव से तकरीबन 50 हजार लोगों के शामिल होने की खबर है. मामले को लेकर मायावती सरकार और खुद मुख्यमंत्री मायावती पर भी पूरे दलित समाज की नजर टिकी हुई है.
साभारः शिल्पकार टाइम्स
घटना महामाया नगर जिले के थाना सिकंदरा राउफ में बीते 22 अगस्त को जन्माष्टमी को घटी. मृतक की विधवा फूलवती के मुताबिक रात साढ़े नौ बजे सोनू, पिंटू और पल्लू नाम के तीन लोग उसके घर आएं और पूजा देखने के बहाने उसके पति को जबरन घर से बुलाकर पास के जानकी मंदिर ले गए. जानकी मंदिर में जेनरेटर की व्यवस्था में लगा दलित जाति का ही युवक देवेंद्र इस पूरे मामले का प्रत्यक्षदर्शी है. उसके मुताबिक, मंदिर में डीजे चल रहा था. राजन लाल को लेकर मंदिर परिसर पहुंचे लोगों ने राजन से भी नाचने के लिए कहा लेकिन उसने नाचने से इंकार कर दिया. बस दबंग इसी बात से भड़क गए. वो राजन लाल को जातिसूचक गालियां देने लगे. इस दौरान प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री होने का गुस्सा भी सामने आ गया. प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक दबंगों ने राजन को गाली देते हुए कहा कि तुमलोगों का दिमाग खराब हो गया है. राजन ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया. राजन के विरोध करने से दबंग और चिढ़ गए और सभी मिलकर उसे मारने-पीटने लगे. इससे भी उनका मन नहीं भरा तो दबंगों ने मंदिर में ही रखे तलवार से राजन को काट दिया और उसकी हत्या कर दी.
मामले पर बवाल मचने के बाद अब दबंग अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर बचने की जुगत में जुट गए हैं. यहां तक की मामले के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी देवेंद्र को भी जान से मारने की धमकी देकर उसे बयान बदलने को मजबूर कर दिया गया है. इसमें पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोप है कि पुलिस ने इंकाउंटर की धमकी देते हुए देवेंद्र को बयान बदलने को राजी कर लिया है. मृतक की पत्नी के मुताबिक देवेंद्र ने अपना बयान बदलने के लिए पूरे दलित समाज से माफी मांगा है और जान के डर के कारण ऐसा करने की बात स्वीकार की है. इसके बाद अब पुलिस मामले को नया मोड़ देने में जुट गई है. चश्मदीद देवेंद्र के बयान पर पुलिस ने पहले सोनू, पल्लू और चिंटू तीनो के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी लेकिन अब सारा दोष पल्लू नाम के व्यक्ति पर डाल कर दो लोगों को छोड़ दिया गया है.
मृतक की पत्नी इस मामले सभी दोषियों को सजा दिलाने की मांग पर अड़ी हुई है. पुलिसिया एफआईआर को उसने पुलिस और आरोपियों की मिली-भगत का नतीजा बताया है और पुलिस द्वारा जबरन अंगूठा लिए जाने का आरोप लगाया है. उसका आरोप है कि प्रदेश के ऊर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं. इधर, मृतक राजन को इंसाफ दिलाने की मुहिम को लेकर पूरा दलित समुदाय एक हो गया है. मामले पर चर्चा के लिए जाटव महापंचायत बुलाई गई है. इसमें 25 गांव से तकरीबन 50 हजार लोगों के शामिल होने की खबर है. मामले को लेकर मायावती सरकार और खुद मुख्यमंत्री मायावती पर भी पूरे दलित समाज की नजर टिकी हुई है.
साभारः शिल्पकार टाइम्स
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