विशाखा का असली नाम कम ही लोग जानते हैं. नहीं, यह बुद्ध की शिष्या विशाखा नहीं है, जिसने श्रावस्तीह में उस जमाने में 20 करोड़ स्वर्ण मुद्रायें खर्च कर के बौद्ध विहार बनाया था. वह नक्षत्र भी नहीं, जो आकाशगंगा में है. विशाखा से पूछें तो वह कहती हैं- 'मैं एक यौनकर्मी हूं, यौनकर्म मेरा पेशा है.'
दो जून की रोटी के लिये अपना देह बेचने वाली विशाखा की जिंदगी में तो सूरज कभी उगा ही नहीं. दुनिया को समझने की उम्र होती, उससे पहले ही उसे एक ऐसी काली कोठरी में धकेल दिया गया, जहां आज तक कोई रोशनी पहुंची ही नहीं. लगभग 24 साल पहले एक मुंहबोली मौसी ने विशाखा को मात्र छह हजार रुपए में सोनागाछी में एक यौनकर्मी के हाथों बेच दिया था. उस वक्त विशाखा की उम्र महज चौदह साल थी. दक्षिण 24 परगना के सुंदरवन गांव की रहने वाली विशाखा कोलकाता में क्या काम करती है, यह बात उसका परिवार जानता है. इस पेशे में होने की वजह से विशाखा के घरवालों को गांव वालों ने दस साल तक अलग-थलग रखा. जब दस साल के बाद वह पहली बार घर गई तो गांव वालों ने उसका सामूहिक बहिष्कार किया. उसे गांव से बाहर निकल जाने के लिए कहा. विशाखा ने उन्हीं गांव वालों से पूछा- “अगर मैं गांव मैं रुक जाती हूं तो क्या तुममें से कोई मुझे खाने के लिए देगा?' जाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था.
विशाखा से बातचीत करते समय किसी का फोन आया. विशाखा ने बातचीत के बाद बताया कि उसके चाचाजी का फोन था- 'किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं. बिस्तर से उठ नहीं सकते. मुझे देखना चाहते हैं.'
विशाखा बहुत साफगोई से बात करती हैं, बिना कुछ छिपाने की कोशिश किये. सिलीगुड़ी की वेश्याबस्ती खालपाड़ा में रहने वाली महिलाओं के साथ लंबे समय तक काम कर चुकी सामाजिक कार्यकर्ता सुष्मिता घोष कहती हैं- “ कोई पचास-सत्तर रुपए लेकर वे आपके सामने अपने को पूरी तरह उघाड़ कर रख देंगी. निश्चित तौर पर इस काम को करने के पीछे उनकी कोई बड़ी मजबूरी होगी. आप ही सोचिए क्या कोई खुशी से इस काम को कर सकता है?'सिलीगुड़ी सोयायटी फॉर सोशल चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक खालपाड़ा में काम करने वाली साठ फीसदी यौनकर्मियों की उम्र बीस साल से कम है.
मीता मंडल उत्तर 24 परगना के बोसीहाट की रहने वाली है. वह रविन्द्र संगीत सीखना चाहती थी. लेकिन इसके लिए उसके पिता और उसकी नई मां जो पिता की दूसरी शादी के बाद घर आई थीं, तैयार नहीं हुए. नई मां चाहती थी कि मीता दूसरों के घर में चूल्हा चौका करे और जो भी कमाई हो, वह लाकर उनके हाथ में रख दे.
मीता को लगा कि अपना रास्ता खुद ही तय करना होगा. एक दिन वह संगीत सीखने के लिए अकेली कोलकाता निकल गई. यहीं मीता की मुलाकात एक आदमी से हुई, जिसने संगीत सीखाने और नौकरी दिलाने का वादा किया. लेकिन मीता को कहां मालूम था कि संगीत के नाम पर उसे एक ऐसे नरक में धकेल दिया जायेगा, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उस आदमी ने उसे एशिया के सबसे बड़े वेश्याबस्ती सोनागाछी पहुंचा दिया.
हालांकि मीता इस बस्ती में पहले से रह रही दूसरी लड़कियों से अधिक खुशकिस्मत थीं. एक गैर सरकारी संस्था दुर्वार महिला समन्वय समिति की कार्यकर्ताओं ने उस नरक से उन्हें छुड़ा लिया. लेकिन उस बस्ती में रह रही सैकड़ों, हजारों लड़कियां अब भी उसी नरक को भोग रही हैं. अब अंजली को ही ले लीजिए.उनके माता-पिता छोटी उम्र में उसे छोड़कर चले गए. एक पड़ोसी ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे घर का काम करने के लिए सिलीगुड़ी के एक घर में रखवा दिया. यहां अंजली ने बंधुआ मजदूर की तरह दो वक्त की रोटी खाकर आठ साल तक काम किया.यहां से वह बहुत मुश्किल से निकली और जिसके सहारे निकली, उसी ने एक दिन उसे खालपाड़ा पहुंचा दिया. लेकिन इस नरक का अंत यहीं नहीं हुआ. एक दुर्घटना में उसने अपना एक पांव गंवा दिया. अब अंजली अपना एक पांव कटने के बाद भी खालपाड़ा में बतौर यौनकर्मी सक्रिय है. इसके अलावा वह कुछ घरों में झाड़ू पोछा भी करती है. अंजली कहती हैं- 'दो ही काम सीख पाई इस जिन्दगी में, एक झाड़ू पोछा और दूसरा यौनकर्म, वही कर रही हूं.'
कंचनजंघा उद्धार केन्द्र से जुड़े संजय विश्वकर्मा बताते हैं कि इस इलाके में सक्रिय यौनकर्मियों में से अधिकांश को उनके गांवों से काम करने के बहाना लाया गया. उन्हें प्लेसमेंट एजेंसियों ने अच्छा खाना, कपड़ा और वेतन का लालच देकर यहां बुलाया और फिर उन्हें यौनकर्म के पेशे में डाल दिया.
संजय कहते हैं- 'यहां काम करने वाली नब्बे फीसदी प्लेसमेंट एजेंसियों का कोई पंजीकरण नहीं है. यहां प्लेसमेंट के नाम पर मानव तस्करी का धंधा जोरो पर है.'विश्वकर्मा बताते हैं, किस तरह नेपाल के मोरम जिले का रहने वाला रॉयल नेपाल आर्मी का एक पूर्व जवान लड़कियों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार हुआ. शर्मनाक बात यह थी कि इस तस्करी में उसकी पत्नी और बेटी भी उसकी सहयोगी की भूमिका में थीं. खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में सक्रिय कुछ दलाल पिछड़े और गरीब जिलों में जाकर तीन से पांच हजार रुपए में युवा लड़कियों को खरीदकर दस से बारह हजार रुपए में वेश्या बस्तियों में बेचने का काम करते हैं. कुछ मामले ऐसे भी हैं, जहां लड़कियां मजबूरी में जरुर वेश्या बस्तियों तक लाई गईं लेकिन यहां लाने के लिए उनके साथ कोई धोखा नहीं किया गया. उन्होंने तय करके इस पेशे को अपनाया क्योंकि उनकी मजबूरी ही कुछ ऐसी थी. शिवानी कर्मकार का मामला ऐसा ही है, जो अपनी इच्छा से यौनकर्मी बनीं. उनके पति दमा के मरीज हैं. बेटे को थैलीसीमिया है. इनके ईलाज के लिए इन्हें हर महीने एक निश्चित रकम की जरुरत होती है. कोई सरकारी-गैर सरकारी संस्था उनके मदद के लिए आगे नहीं आई. सरकार की मदद इतनी भर है कि एक सरकारी अस्पताल में उनके पति और बेटे का ईलाज चलता है. उसके बावजूद दवा और समय-समय पर होने वाले जांच का पैसा उन्हें देना ही होता है. इसके साथ अपना और अपने बेटे का परिवार चलाना, आसान काम नहीं था. ऐसे में शिवानी को इस पेशे में उतरना पड़ा.
शिवानी के परिवार में उनकी तीन बेटिया भी थीं, जिनकी शादी शिवानी ने कर दी लेकिन अपने होने वाले दामादों से यह बिल्कुल नहीं छुपाया कि वे काम क्या करती हैं ? चूंकि वे नहीं चाहती थीं कि कल को इस भेद के खुलने से उनके बेटियों को किसी प्रकार के मुश्किलों का सामना करना पड़े. आज शिवानी कर्मकार के चारों बच्चे उनका बहुत सम्मान करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पर किसी प्रकार की आंच ना आए, इसके लिए उनकी मां ने अपने जीवन का बलिदान दे दिया.
सीता लोहार की कहानी शिवानी से अलग नहीं है. ग्यारह साल की उम्र में भाई ने उन्हें घर से निकाल दिया. घर से निकलने के बाद वे चार साल तक बाल सुधार गृह में रहीं. कोई काम आता नहीं था. पढ़ाई-लिखाई कर नहीं पाईं. वहीं एक लड़की से दोस्ती हो ग. उसी ने लोहार का पहला परिचय रेड लाईट एरिया से कराया. दिल माने ना माने, पेट कहां मानने वाला था. सो उन्होंने इस काम को स्वीकार लिया. इस नरक में आने के बाद भी उन्होंने अपनी दोनों लड़कियों को इस दुनिया से दूर ही रखा. आज लोहार की दोनों लड़कियां अंग्रेजी माध्यम के एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ती हैं.
स्वतंत्र पत्रकार रुपक मुखर्जी के अनुसार इस पेशे में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो अपनी और अपने परिजनों की मर्जी से यह सब कुछ कर रहे हैं. मुखर्जी के अनुसार अनुसार- “ बड़ी संख्या में ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिसे मानव तस्करी का नाम दिया गया, जबकि मामला ऐसा नहीं था. भेजने वालों को भी पता है कि वह जिसे भेज रहा है, उसे कहां ले जाया जाएगा और जाने वाले को भी पता है कि उसे जो ले जा रहा है, वह कहां लेकर जाएगा ?'
मुखर्जी आगे कहते हैं- “बड़ी संख्या में सिलीगुड़ी से लड़कियां दुबई जा रहीं हैं. यहां ऐसे मां बाप हैं, जिनकी आंख उस वक्त खुलती हैं, जब लड़की को ले जाने वाला लड़की के बदले हर महीना पैसा भेजना बंद कर देता है.'
मुखर्जी की बातों की पुष्टि सिलीगुड़ी के पूर्व एएसपी केबी दोरजी ने किया. उनकी जानकारी में ऐसे कई मामले हुए, जिसमें लड़की की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने घर वाले लड़की की गुमशुदगी के छह महीने या एक साल के बाद आए. इस देरी की कोई वजह भी उनके पास नहीं थी. दोरजी के अनुसार- 'इस समस्या की जड़ इस क्षेत्र की गरीबी, अशिक्षा और जागरुकता की कमी है. शादी और नौकरी दिलाने के नाम पर अधिकांश लड़कियों को यहां से ले जाया गया. नौकरी के नाम पर बाहर जाने वाली लड़कियों के परिजन अगर प्लेसमेंट एजेंसी या नाम-पता के बारे में पुलिस थाने में पहले से सूचना दे दें तो ऐसी घटनाओं पर रोकथाम कर पाना संभव होगा.' हालांकि इस संबंध में जिला पुलिस, एसडीओ ऑफिस, सीआईडी, गैर सरकारी संस्थाएं और पंचायत की तरफ से जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है लेकिन उनका असर कम ही है. पश्चिम बंगाल में लगभग 65 हज़ार और देश भर में सक्रिय लगभग 6 लाख यौनकर्मियों की संख्या में लगातार होता इजाफा तो कम से कम यही बताता है. ये वो आंकड़े हैं, जिनमें फ्लांइग सेक्स वर्कर्स और कॉल गर्ल्स की संख्या शामिल नहीं है. हां, यह ज़रुर है कि सरकारी आंकड़ों में यौनकर्मी मनुष्य से कहीं अधिक आंकड़े के रुप में ही जानी जाती हैं, जिसकी चिंता सभ्य समाज को भी नहीं है और सरकार को भी नहीं.
आशीष कुमार ‘अंशु’ सिलीगुड़ी से लौटकर
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