बात थोड़ी पुरानी जरूर हो गयी है लेकिन हालात अभी भी बदले नहीं है. नागरिक अधिकार मंच और युवा संवाद के द्वारा मजदूर दिवस के अवसर पर शहर के मजदूर पीठों पर नुक्कड़ सभा का आयोजन किया गया । इसी दरमियान नेहरू नगर चौक पर मुलाकात हुई काम के इंतजार में खड़े राज मिस्त्री मूलचंद मेधोनिया से । इस मजदूर से मजदूर दिवस की बात करते - करते दलित साहित्यकार की उपेक्षा का नया ही अध्याय खुल गया ।
35 साल के मूलचंद ग्राम चीचली जिला नरसिंहपुर के रहने वाले है। अपने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लड़ने वाले दादा से प्रेरित होकर वे दलित समाज व साहित्य की सेवा में युवावस्था से ही जुट पड़े । संत रविदास , कबीर ,गुरू घासीदास के साहित्य और मानव सेवा को आधार बनाकर मूलचंद ने दलित व आदिवासी समाज के बीच चेतना जगाने और संगठित करने का काम किया । स्वयं दलित समाज से होने तथा क्षेत्र में दलित समाज की उपेक्षा को देखते हुए उन्होंने तमाम पत्र - पत्रिकाओं में काव्य , आलेख व बुंदेलखंड शैली के साहित्य का लेखन किया। नरसिंहपुर जिले में न सिर्फ दलित समाज को संगठित व जागरूक करने का पराक्रम किया साथ ही दलित साहित्य अकादमी व दलित समाज के राष्ट्रीय आयोजनों में हिस्सा लिया । स्वयं मूलचंद जी ने मध्यप्रदेश दलित साहित्यकार मंच की स्थापना कर उल्लेखनीय कार्य किया । साहित्य भूषण की मानद उपाधि प्राप्त यह साहित्यकार समाज सेवा व पत्रकारिता के लिए वर्ष 1994 में दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है । बात सम्मान की हो तो मेधोनिया के पास सम्मानपत्रों का ढेर लगा हुआ है, लेकिन इन सम्मानपत्रों के ढेर से तो गुजारा नहीं किया जा सकता।
मध्यप्रदेश के शीर्षस्थ साहित्यकारों और नेताओं के साथ खिची फोटो और समाचार की कतरनें इसी ढ़ेर में दिखाई पड़तें है ।परिवार से बातचीत में मूलचंद की बूढ़ी माँ बताती है कि हमारे बेटे ने यही कमाई की है। युवा ऊर्जा से भरे मूलचंद ने जिला पंचायत के चुनाव में भी उतरने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि क्षेत्रीय दलीय नेताओं के लिए वे मनमानी और भ्रष्टाचार के बीच रोड़ा बनने लग गये । अंतत: संगठित दलीय नेतृत्व ने उन्हें मारने पीटने से लेकर बदनाम करने तक के हर हथकंडे का प्रयोग किया ।मजबूर होकर मेधोनिया को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ी ।
गत 5 वर्षों से मूलचंद मेधोनिया शेपाल शहर के झुग्गी बस्ती पंपापुर में 8x8 के किराये के मकान में रहता है। दलित साहित्य और समाज सेवा के क्षेत्र का यह सक्रिय रचनाधर्मी नेहरू नगर चौक के मजदूर पीठे पर तपती दोपहर में खड़ा रहने को मजबूर है। मूलचंद की अब पहचान राष्ट्रीय दलित साहित्यकार की न होकर राज मिस्त्री के रूप में होती है। वह बताते है कि मजदूरी मिलने के इंतजार में पीठे पर दोपहर तक भी खड़ा रहना पड़ता है कि शायद आधे दिन ही मजदूरी नसीब हो जाये । परिवार की गरीबी और सरकार की उपेक्षा से तंग आ चुके मूलचंद बताते है कि उन्होंने असंगठित मजदूरो और दलित साहित्यकारों को संगठित करने हेतु मंच भी बनाया किंतु मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी और संस्कृति विभाग से आज तक किसी प्रकार का पुरस्कार या आर्थिक सहयोग नहीं मिल सका ।
प्रदेश में राजनैतिक आधार पर साहित्यकारों को जहाँ सम्मान मिलता रहा वही वास्तविक हकदार की उपेक्षा की गईं । एक बार तो तंग आकर इस साहित्यकार ने राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति तक मॉग ली लेकिन न वह मिली और न आज तक उसकी जिंदगी का , उसके अंदर बैठे साहित्यकर्म और सेवा के जज्बे का घुट घुट कर मरना खत्म हुआ। तो तपते पीठे पर अपनी मजदूरी की आस में खड़ा यह मजदूर अपने हक का इंतजार कर रहा है। तो कब खत्म होगा यह इंतजार? ..... प्रश्न तो हमारी तरफ भी है।
(विस्फोट.कॉम से साभार)
दलित कहने से मामला सिर्फ जातिवादी शोषण का बनता है जबकि यह पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग की लड़ाई का मामला है। आपके ब्लाॅग में सर्वहारा वर्ग की आवाज़ उठाई जाएगी ऐसी उम्मीद है।
ReplyDeleteप्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
Pramod ji, sach kaha aapne.
ReplyDelete