Friday, September 30, 2011

यूपी को 'भीम' नगर और 'प्रबुद्ध' नगर का तोहफा


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कु. मायावती ने प्रदेश को तीन और जिलों का तोहफा दिया है. पहले की तरह ही इन जिलों को उन्होंने वंचित समाज का उत्थान करने वाले महापुरुषों को समर्पित किया है. 28 सितंबर को घोषित नए तीन जिलों में एक का नाम बाबा साहेब के नाम पर भीम नगर तो दूसरे का महात्मा बुद्ध के नाम पर प्रबुद्ध नगर रखा गया है. जबकि तीसरे का नाम पंचशील नगर रखा गया है. 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक मायावती ने पंद्रह से ज्यादा जिलों का गठन किया है. इनमें नए दोनों जिलों को मिलाकर कुल 15 जिलों के नाम वंचित समाज के महापुरुषों के नाम पर या फिर उनसे संबंधित स्थानों के नाम पर रखा गया है.
मुख्यमंत्री बनने के बाद शुरुआत से ही मायावती वंचित समाज के महापुरुषों के नाम को अमर करने में जुटी हुई हैं. 1995 में मायावती ने पहली बार उधमसिंह नगर बनाकर जिलों के गठन की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने आंबेडकर नगर, गौतमबुद्ध नगर, कांशीराम नगर, संत रविदास नगर, महामाया नगर, सिद्धार्थ नगर, कौशांबी, श्रावस्ती, कुशीनगर, रमाबाई नगर, ज्योतिबा फुले नगर और संत कबीर नगर जिलों का गठन किया था. बुधवार को तीन नए जिलों की घोषणा के बाद इसी लिस्ट में अब भीम नगर और प्रबुद्ध नगर भी शामिल हो गया है. हालांकि दलित रहनुमाओं को आगे बढ़ाने की मायावती की यह कोशिश उनके विरोधी मुलायम सिंह यादव और भाजपा को कभी रास नहीं आई है. समय-समय पर वो इसका विरोध करते रहे हैं. एक बार फिर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आ गया है. भाजपा ने मायावती द्वारा प्रबुद्ध नगर नाम का नया जिला गठित करने का विरोध किया है. भाजपा इस जिले का नाम शामली रखने के पक्ष में है. भाजपा ने तो यहां तक घोषणा कर दी है कि विधानसभा चुनावों के बाद सत्ता में आने पर वह प्रबुद्ध नगर का नाम बदल कर शामली रख देंगे.
सिर्फ भाजपा नहीं बल्कि दलित महापुरुषों के नाम पर गठित जिलों को लेकर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह की खुन्नस भी छिपी नहीं है. मुलायम के दलित और पिछड़ा प्रेम के ढ़ोंग को इसी से समझा जा सकता है कि 2003 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने मायावती द्वारा बनाए गए सभी 11 जिलों को समाप्त कर दिया था. लेकिन हाई कोर्ट के आदेश के बाद इन जिलों को फिर से बहाल करना पड़ा.

Thursday, September 29, 2011

संजीव खुदशाह के ''तुष्टिकरण'' पर डी एम एम का जवाब

गत 17 सितंबर को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ‘जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार’ विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया. इसके बाद कथाकार, लेखक एवं समीक्षक संजीव खुदशाह ने इस कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए आयोजक डी एम एम (दलित मुक्ति मोर्चा) पर कई सवाल उठाए थे. संजीव के सवालों के बाद काफी बवाल मचा था और इस पर कई प्रतिक्रियाएं देखने को मिली थी. डी एम एम ने संजीव खुदशाह के आरोपों का जवाब देते हुए दलित मत को एक पत्र भेजा है, जिसे हम यहां हूबहू प्रकाशित कर रहे हैं. (संजीव खुदशाह का आरोप पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

संपादक

आदरणीय मित्र संजीव खुदशाह जी,

सादर जय भीम!

आपके द्वारा गत १७-१८ सितम्बर को रायपुर में "जाति भेदभाव और प्राकृतिक संसाधनों पर दलित अधिकार" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में भेजे गए अवलोकन को पढ़ने का मौका मिला. संघठन से जुड़े कई कामों के कारण तथा कंप्यूटर एवं इन्टरनेट के यांत्रिक दुनिया से नहीं जुड पाने की वजह से हम लोगो को आपके तुष्टिकरण का जवाब देने में कुछ समय लगा है. आपके पत्र के सन्दर्भ में संघठन के सभी वरिष्ठ साथियों के बीच चर्चा हुई और सभी ने हम दोनों (मधुकर गोरख एवं विभीषण पात्रे) को इसका जवाब देने की जिम्मेदारी सौपी है.
आपने अपने तुष्टिकरण में बहुत सी बाते कही है जिसका हम दोनों क्रमबद्ध जवाब देने का प्रयास करेंगे. सर्वप्रथम यह है कि किसी भी सम्मलेन या बैठक की समीक्षा वही कर सकता है या उसे ही करना चाहिए जो पूरे बैठक में उपस्थित रहा हो. वैसे यह सम्मलेन एक दिन के लिए ही था लेकिन सम्मेलन स्थल पर ही उसे दो दिन के रूप में परिवर्तित किया गया था. यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी संघठन की प्रक्रिया में ऐसी बाते आम होती है कि समय और सन्दर्भ के अनुरूप कार्यक्रम के स्वरुप में बदलाव आते ही है. इसलिए आपके द्वारा इस कार्यक्रम का तुष्टिकरण करना ही अपने आप में संदर्भहीन है.
पहले आपको पूरे कार्यक्रम के रहना था और उसके बाद उसका अवलोकन करना चाहिए था, जिसके आधार पर आपके द्वारा की गयी तुष्टिकरण का कम-से-कम कुछ महत्व होता लेकिन आपने कार्यक्रम में आधे अधूरे ढंग से रहकर ही इसका तुष्टिकरण करना उचित समझा. दूसरी बात है कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम का तुष्टिकरण करे तो उस कार्यक्रम में जो बाते उठती है, या फिर उससे जो विचारधारा उभरकर सामने आते है, उसका विश्लेषण होना अति आवश्यक है. क्योंकि उसी से ही उस प्रक्रिया की आगे की दशा और दिशा भी निर्धारित होगी. एक लेखक के नाते एवं एक चिंतनशील नागरिक के वास्ते आपसे ऐसी उम्मीद करना किसी भी प्रकार से ज्यादा नहीं है. बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपके द्वारा की गए समीक्षा में ऐसा कुछ भी नहीं है. शायद तुष्टिकरण का उद्देश्य ही कुछ और था.
तुष्टिकरण के पहले ही वाक्य में आपका कहना है कि छत्तीसगढ़ कि राजधानी रायपुर में जातिगत भेदभाव एवं दलितों का प्राकृतिक संसाधनों में अधिकार विषय पर एक राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन आयोजित करने का प्रयास किया गया. इसका मतलब ऐसा भी लगता है कि शायद यह आयोजन ही नहीं हुआ, केवल एक विफल प्रयास ही रहा.
आपने लिखा है कि इसे यदि दलित प्रोफेसर वक्ताओं का तथा आम संघर्षशील दलित श्रोताओं का सम्मेलन कहना ज्यादा उचित होगा. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 16 में से 3 को छोड बाकी सभी 13 लोग सामाजिक कार्यकर्ता या अन्य व्यवसाय से जुड़े हुए है. आपकी जानकारी के लिए उन 13 लोगो की सूची भी यहाँ देते है. मधुकर गोरख, गोल्डीजी, अनीता भारती, आशीष राजहंस, गिरिजा, डॉ. बासुदेव सुनानी, सेबास्त्यानजी, लक्ष्मण चौधरी, प्रियदर्शी, प्रभातजी, हेमंत दलपति, सुनीत और चन्द्रिका कौशल. गिरिजा को छोड़कर बाकी तमाम लोगों ने अपनी बात को हिंदी में ही रखा. यहाँ तक की डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े ने भी हिंदी में अपनी बात रखी थी. इतना ही नहीं ये सभी लोग टाटा इन्टीटूयूट आफ सोशल सांईस एवं उड़िसा के महाविद्यालय से ही नहीं थे, बल्कि ये लोग मुंबई, दिल्ली, बिहार, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ जैसे प्रान्तों से आये हुए थे. इसका मतलब आपका इस सन्दर्भ में तमाम कथन बेबुनियादी है.
आपने लिखा है कि शायद हिन्दी या अपनी मातृभाषा मे बोलना वे अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. कितने प्रदेश के आम जनता हिंदी में बात करते है? बिहार में भोजपुरी, मगही, मैथिलि इत्यादि, ओडिशा में उड़िया, केरल में मलयालम, महाराष्ट्र में मराठी की विभिन्न बोलियां, राजस्थान में स्थानीय बोलियां एवं छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, कुड़ुक, हल्बी, और अन्य भाषाओ का बोलबोला है. इतना ही नहीं और भी अन्य राज्यों के लोगों के अपने अपने मातृभाषा है. इस देश में 7500 से अधिक भाषाएं और उससे भी अधिक उसकी बोलियां है. मातृभाषा पर भाषण देना आसान है, पर मातृभाषा की समझ बनाना बहुत मुश्किल है. और दूसरी बात कभी भी कोई भी राष्ट्रीय स्तर के सम्मलेन में आमतौर पर भाषाओ की विविधता को सम्मान देते हुए और एक क्षेत्र/समुदाय/समाज की भाषा दूसरे को समझने में दिक्कत होने की वजह से अंग्रेजी में ही सारे बातें होती है. बावजूद इसके हमने हिंदी में ही पूरे कार्यक्रम का इंतजाम किया. जो लोग हिंदी नहीं समझते थे, उनके लिए अनुवादक की व्यवस्था भी की थी. बावजूद इसके आपने मातृभाषा में बातों को नहीं रखना, हिंगलीस में बोलने इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जो आपके भाषा के प्रति एवं छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में अज्ञानता को दर्शाती है.
आपके अनुसार दिन भर के पूरे कार्यक्रम में आम दलित अपने आपको इन वक्ताओं से नही जोड़ पाये और न ही इस कार्यक्रम में आम दलितों की कोई सहमागिता रही. यह भी उतना ही तर्कहीन है जितना ऊपर की बाते है. जल, जंगल और जमीन के सवालों से वो ही दलित जुड़ पाते है जिसने इस संदर्भ में कुछ समस्या को झेला हो. आमतौर पर ग्रामीण स्तर के दलितो की मुख्या समस्या जमीन से जुड़ी हुई है. कई दफा यह भी देखा गया है कि दलित अत्याचार का कारण भी जमीन ही है. यह बात अलग है की शहरी दलित इस मुद्दे को कैसे देखते है. वैसे तो यह समस्या शहरी दलितो के साथ भी जुडा हुआ है. यदि आप शहरो में उजर रही बस्तियों को देखे तो यह बात आपको समझ में आएगी. सवाल यह उठता है कि आप इस प्रकार के कितने आंदोलनों से वाकिफ है? यदि आप वाकिफ नहीं है तो अपने आसपास को थोडा अच्छी तरह से देखे, ताकि आपको वास्तविकता से रूबरू होने का एक मौका मिले. यदि आप ऐसे समस्याओ को नहीं देख पाते है तो हमारे पास आये, हम आपको इन मुद्दों से शहर के भीतर ही परिचय करवा सकते है.
आपके तुष्टिकरण पढकर हमें ऐसा महसूस होता है कि इस विषय पर आपकी समझ काफी कमजोर है. इसलिए हम आपकी समझ बढ़ाने हेतु कुछ बातें सम्मलेन के विषय के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, ताकि आगे ऐसे संदर्भो में आपको ज्यादा दिगभ्रम न हो.
प्राकृतिक संसाधनों का सवाल कई रूप में दलितो से जुडा हुआ है. वास्तव में जाति भेदभाव और दलितों का प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार भारत के सन्दर्भ में एक जटिल विषय है. वैसे यह कोई नया मसला नहीं है, लेकिन आज के सन्दर्भ में यह एक नए रूप में सामने आया है. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था के कारणों ने दलितों को तमाम प्रकार के जमीन और संपत्ति से अलग-थलग किया. आज भी यही व्यवस्था समाज में कायम है. परंपरागत तौर से समझा जाये तो यह व्यवस्था न केवल एक वैचारिक अवधारणा थी, बल्कि एक सुनियोजित एवं संगठित आर्थिक एवं राजनैतिक व्यस्थित भी थी. इसके तहत शुद्र और अतिशूद्र को किस भी प्रकार की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहा था. यह व्यवस्था कई सदियों से चला आ रहा है और आज भी कायम है.
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानता की इस व्यवस्था को धार्मिक स्तर पर भी सही ठहराया गया जिसे शुद्ध-अशुद्ध, पाप-पुण्य, सही-गलत, स्वर्ग-नर्क की अवधारणाओ के साथ सहेजा गया. इसके चलते मूलवासियों के हाथों से जल, जंगल, जमीन, उत्पादन सब कुछ निकलता चला गया और वे केवल गुलाम के रूप में सीमित रह गए. धीरे धीरे सभी संसाधनों से दलितों को पराया कर दिया गया. किन्तु दलितों की सांस्कृतिक इतिहास में समुदाय का प्राकृतिक सम्पदा के साथ जुड़े रहने की कई गाथाएं है. बुद्ध काल में भी वनभूमि पर शूद्रों के संघ होने के कई प्रमाण भी हैं. कई अछूत समुदाय आज भी वनभूमि क्षेत्र में हजारों वर्षों से बॉस के कारीगर, बुनकर, के रूप में रहते आ रहे है.
वर्तमान में जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक सम्पदा पर काफी जोरों से बहस छिडी हुई है. यह एक वास्तविकता है कि जब जाति समाज व्यस्था की केंद्र बिंदु बन जाती है, तब संपदा पर कब्ज़ा एवं प्रबंधन उसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही वजह था कि समुदाय आधारित संघीय प्रबंधन में परिवर्तन हुआ और इसकी जगह उत्पादन, संग्रहण एवं बचत ने ले लिया. इसका विपरीत असर दलितों पर सबसे अधिक हुआ और जमीन व सम्पति से अलग-थलग होते गये. इस वजह से अपने जीवन जीने के सभी आयामों के लिए ऊची जाति के नए भू-मलिको पर उनकी निर्भरता पूर्ण रूप से सदा के लिए बनी रही.
आजादी के बाद भारत में जब भी दलितों के भू-अधिकार कि बात सामने आई है तब अधिकाँश ऐसा हुआ कि कुछ तकनीकि कारणों को दर्शाते हुआ हुए टालमटोल करते गए. कई राज्यों में उनके द्वारा काबिज जमीन को भी अवैध कब्जे के बहाने छीन लिया गया. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, दलितों का कई बार जमीन से विस्थापन भी हुआ है. संसाधनों से बेदखली की प्रक्रिया आज भी चल रहा है. कई क्षेत्रो में पड़ती-पथरी जमीन का विकास, पठारो में खेती के तरीके एवं अन्य भू-आधारित संस्कृत एवं सभ्यता का विकास दलितों ने ही किया. इस प्रकार की जीवन शैली की कुछ झलक आज भी दिखाई देती है. इसके बावजूद सामाजिक व्यवस्था और इसके द्वारा संचालित सत्ता आज तक दलित समुदायों का प्रकृति सम्पदा पर अधिकार की बात को निरंतर नकारती आई है.
संपदा पर अधिकार ही वास्तविक अधिकार है. निश्चित तौर पर यह आरक्षण, जाति प्रमाण पत्र इत्यादि से भी आगे है. यह हर दलित और अन्य लोगो को स्वाभिमान के साथ रोजी-रोटी देने की बात है ना की भीख के तौर पर. यही लड़ाई वास्तव में स्वाभिमान की लड़ाई है. बाकी तमाम बाते इसकी सखाये है. शायद आप इस पूरे प्रक्रिया को ही गंभीरता से नहीं ले पाए जिसके परिणामस्वरुप इन सारी बातों को आपको और हमें लिखना पडा, जो वास्तव में आपकी और हमारे समय की बर्बादी के सिवाय कुछ और नहीं है.
आपके अनुसार दूर-दूर से आये श्रोता अपने समय और धन की बर्बादी को लेकर दुखी रहे एवं आपस में चर्चा करते रहे. क्या आप बता सकते है कि वो कौन-कौन लोग है और उनको कौन लेकर लाया था? जहां तक हमारी याद्दाश्त है, हमने प्रायः सभी संगठनों के मित्रों से ये बाते कही थी कि जो भी साथी प्राकृतिक सम्पदा के किसी भी विषय के सन्दर्भ में काम कर रहे हो, उनका स्वागत है. अधिकांश लोग उसी आधार पर आये भी थे. इनके अलावा और भी लोग पहुंचे थे जो प्रत्यक्ष रूप से इन विषयो पर काम नहीं करते पर वे अपनी समझ बढ़ाने हेतु इसमें शामिल हुए थे. ऐसे में किस बर्बादी के बारे में आपने लिखा है? आपका कथन लोगों के दिल और दिमाग में केवल भ्रम ही पैदा करती है. रही बात भीड़ से तसल्ली पाने की वो तो किसी भी हाट, बाजार में भी मिलता है.
इस राष्ट्रीय सम्मेलन के सन्दर्भ में 7 तैयारी बैठकें हुई और सभी बैठकों की जानकारी आपको भी दी गयी थी. लेकिन आप इन बैठकों में न ही उपस्थित हुए और न ही इस सन्दर्भ में फोन या अन्य माध्यमों से चर्चा की या अपनी राय दी. एक और बात यहां हम बताने को मजबूर है कि आप भी डी.एम.एम. की कार्यकारणी के सदस्य है. आपको एक विशेष जिम्मेदारी के तहत “दलित एवं साहित्य” विभाग के सह-संयोजक के रूप में भी रखा गया है. जैसे श्री गोल्डी ने हमसे बातचीत के माध्यम से डी.एम.एम. के नेतृत्व के बारे में चर्चा छेडी, उसी तरह आपसे भी चर्चा करने की बात हमारी जानकारी में है. परन्तु आपने इस सन्दर्भ में क्या किया है इसका हमको कोई अता-पता नहीं है. क्या आप इसका जवाब संघठन के अगले बैठक में देंगे? क्या आप दूसरों पर ऊँगली उठाने की हिम्मत के साथ इस सन्दर्भ में स्वयं आपने क्या किया इसका खुलासा करेंगे?
आपके अनुसार हम दोनों डमी अध्यक्ष और सचिव है. पहले तो आप ये समझे की डी.एम.एम. कोई समिति नहीं है, बल्कि यह एक जन-संघठन है. और जन-संघठनो का अपनी एक संघठनात्मक स्वरुप भी होता है. मै मधुकर गोरख आपको बता दूं कि आपकी उम्र से अधिक मेरी आन्दोलोनात्मक एवं संघठनात्मक कार्यों का अनुभव है. पिछले 40 सालों से छत्तीसगढ और पूर्व के मध्यप्रदेश में छात्र जीवन से ही कई सारे दलित, गरीब, मजदूर, महिला, छात्रों के आंदोलनों का हिस्सा रहा हॅू. आज भी मैंने अपने इस परंपरा को कायम रखा है. कई दफा बिलासपुर, रायपुर, भोपाल, दिल्ली के जेल जाना, लाठी खाना, केस लड़ना, इत्यादि मेरे अब तक के जीवन का हिस्सा रहा है. आज भी शहरो के बस्तियों में रहने वाले दलित व अन्य मेहनतकश लोगो के उजाड एवं विस्थापन के खिलाफ आन्दोलन का अटूट हिस्सा हॅू. जब ओम प्रकाश गंगोत्री पर हमले हुए थे तो उसके खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व कौन कर रहा था? जब रामलाल सूर्यवंशी की हत्या हुई तो उसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कौन थे? कभी आपने इसके बारे में सोचा है या जनने की कोशीश की है? ये तमाम दलित साथियो पर हमले पर हमले होते रहे और हम उसके खिलाफ में मोर्चे निकलते रहे. राजनैतिक जीवन में छुआछुत, भेदभाव, जाति प्रथा, इत्यादि के ऊपर निरंतर आवाज़ उठाना और उसपर नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करना क्या मेरे नेतृत्व क्षमता का परिचय नहीं है? आज में छत्तीसगढ़ में इप्टा का राज्य अध्यक्ष भी हॅू. तो फिर आपको किस मायने में मेरी नेतृत्व क्षमता डमी लगी? वैसे मैं डी.एम.एम. से आरम्भ से ही जुडा हुआ हॅू. आपसे मेरी पहली मुलाकात भी डी.एम.एम. के द्वारा पामगढ़ में 14 अप्रैल 2005 को आयोजित एक बैठक में हुई, जब आप किसी महिला मित्र के साथ उसमे आये थे. क्या आप बता सकते है कि क्रियाशील नेतृत्व क्या होता है?
मधुभैय्या के सामने मेरा अनुभव बौना है, पर बात को आगे बढ़ाते हुए मै विभीषण पात्रे भी अपना बात रखना चाहता हॅू. 1994 के जेल भरो आन्दोलन से मै निकला हुआ हूं और तब से अब तक मै निरंतर दलित आन्दोलन का हिस्सा रहा हूं. जिस प्रकार रामलाल गुरूजी के साथ हुआ, वैसे ही महेश गुरूजी का भी मर्डर हुआ. उसके खिलाफ के आन्दोलन में सक्रिय रूप से शरीक रहा हूं. टुंड्रा, बोडसरा, खोकेपुर, गौद, गोदना इत्यादि में हुए जाति आधारित अत्याचार के घटनाओ पर तुरंत उपस्थित होना, फैक्ट फाइंडिंग करना, पुलिस प्रशासन को कार्यशील करना, पीडितो को राहत पहुंचाना इत्यादि का अनुभव क्या समाज से जुड़े रहने का नहीं है? इसके अलावा अनिता सूर्यवंशी मर्डर, बसंत कुर्रे हत्या, बेलगहना मर्डर कांड, इत्यादि के खिलाफ आन्दोलन को नेतृत्व देना क्या मेरे नेतृत्व का परिचय नहीं है? क्या आप हमें डमी और वास्तविक नेतृत्व की परिभाषा दे सकते है? यदि हम दोनों में से किसी भी व्यक्ति के बातों पर आपको शंका है, तो आप हममें से किसी के भी कार्यक्षेत्र का कभी भी भ्रमण कर सकते है. इस सन्दर्भ में हम आपको खुला आमंत्रण एवं चुनौती देते है.
गोल्डीजी और आपका रिश्ता क्या है ये बात हमें नहीं मालूम है और न ही हमको जानने की आवश्यकता भी है. परन्तु ये बात आपको स्पष्ट करना चाहेंगे की हम सब उनसे हमेशा से प्रेरित थे, है और रहेंगे. लिखा तो आपने ऐसा है के वे आपके कोई लंगोटिया यार है, पर आपके तात्पर्य से ऐसा लगता है कि आपकी उनसे कोई लंबी दुश्मनी है. एक और बात बताना चाहेंगे कि केवल हम लोग ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के सैकड़ो-हजारो दलित, आदिवासी, बच्चे-नौजवान-बूढे, स्त्री-पुरुष, उनसे प्रेरित है. वे डी.एम.एम. ही नहीं, बल्कि कई सारे संघठनो के संस्थापक भी है. हमने अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में कई सारे नेताओ को देखा है, जो केवल आदेश देना जानते है. गोल्डीजी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो सभी मसलो को सामूहिकता के साथ लेकर चलते है, जो वास्तविक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अमल करते है, जो हर विषयों पर खुली चर्चा करते है और सामूहिक निर्णय ही लेते है. वे एकमात्र दलित स्तंभ के रूप में छत्तीसगढ़ में तब से है, जब आप और हम या कोई भी, दलित का द भी नहीं जनता था. ये तो उनका बड़प्पन है कि आपके द्वारा इतने अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के बावजूद वो आपके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करने की सिफारिश कर रहे है. यदि वे कहते है कि डी.एम.एम. आपका है तो वाकई वो उसमे विश्वास भी करते है. वे वाकई आपको उसके जिम्मेदारी देना चाहते होंगे, अन्यथा हम लोग इस स्तर पर कैसे आये? इसलिए उनके लिए ऐसे शब्द आपकी जुबान से, दिल से, दिमाग से शोभा नहीं देती.
यदि वे हम दोनों को और अन्य साथियो को डी.एम.एम. के नेतृत्व एवं जिम्मेदारी में लाये है, तब निश्चित है कि उन्होंने आपके साथ भी ऐसा कोशिश किया होगा. पर सवाल यह है की आपकी उस जिम्मेदारी को उठाने हेतु क्या तैयारी थी? आप क्या उस जिम्मेदारी को उठाने के स्तर तक अपने आपको उठा पाएं? आप तो बड़े लेखक है, बुद्धिजीवी है, नौकरीवाले है, और आपको ऐसे कामो के लिए समय नहीं है, इच्छा नहीं है, प्रतिबद्धता नहीं है और न ही रूचि है. तो फिर आप निर्णय लेने की भूमिका में कैसे रहेंगे? यदि हम लोग निर्णायक भूमिका में है तो आप क्यों नहीं हो सकते है. आप डी.एम.एम. के या अन्य किसी भी दलित संगठन के कितने आन्दोलन में शामिल हुए, क्या आप इसका सूची देंगे? दलित आन्दोलन केवल एकाध किताब लिखने से ही नहीं चलता बल्कि लोगों के दैनिक जीवनचक्र के साथ जुड़ाव और उससे उभरनेवाली समझदारी से आगे बढती है. यह समाज से निरंतर जुड़े रहने से ही होती है.
आपने आगे लिखा है कि, ‘कार्यक्रम में डा. अम्बेडकर की फोटो के साथ गुरू घासीदास की फोटो भी लगाई गई. डॉं अम्बेडकर के साथ जनेउ-धारी गुरूघासीदास की फोटो लगाना दलित आंदोलन को एक भ्रमित संदेश देता दिखाई पड़ रहा था. आयोजन समिती का झुकाव किसी एक दलित जाति की ओर है यह इंगित करता है.’ यदि आपको गुरु घासीदास के फोटो से इतनी अस्पृश्यता है तो फिर आपको छत्तीसगढ़ छोड़ देना चाहिए. क्योंकि मध्य भारत में 18वीं और 19वीं सदी का सबसे बड़ा अछूतो का आन्दोलन गुरु घासीदास के ही नेतृत्व में हुआ था. किसी भी प्रान्त या क्षेत्र में आप ऐसे सामाजिक सम्मलेन करते है, तो अनिवार्य है कि स्थानीय महापुरुषों का भी सम्मान हो. गुरु घासीदास के फोटो से ऐसा कोई भी तात्पर्य नहीं है कि अन्य समुदायों का बहिष्कार है. वैसे भी गुरु घासीदास का आन्दोलन एक समता मूलक समाज की स्थापना के लिए था और इससे सभी समुदाय के लोगों को गौरवान्वित होना चाहिए. वास्तव में गुरु घासीदास को छत्तीसगढ़ और मध्य भारत के बुद्ध के रूप में भी जाना जाता है. यदि छत्तीसगढ़ में रहने के बावजूद आपको इतनी जानकारी नहीं है तो यह हास्यास्पद ही है.
अब बात है कि डी.एम.एम. में किन किन समुदाय के लोग है. आपको बता देते है कि डी.एम.एम. में अनुसूचित जाति के श्रेणी में आने वाले सतनामी, सूर्यवंशी, खाटिक, गाण्ङा, डोम्, चमार, महार, पाणो, पासी, वाल्मीकि इत्यादि समुदाय के लोग है. और अन्य समुदायों को भी इसमें शामिल करने के लिए सामुदायिक नेतृत्व के साथ कई स्तर में चर्चा चल रही है. अब आप बताये कि किस समुदाय को बहिष्कृत किया है इसमें?
आनंदजी जैसे व्यक्ति बाबासाहेब के परिवार से होने के बावजूद वे कभी भी उसका फायदा नहीं उठाते है. वैसे चलते फिरते लोगों ने कहा होगा की वे आंबेडकर परिवार से संबंधित है. किन्तु वे कभी भी खुद का परिचय इस सन्दर्भ में नहीं देते. बात यह नहीं है कि वे किस परिवार से संबंध रखते है. बात यह है कि उन्होंने क्या बोला. शायद आपने उनकी बातें सुनी नहीं होगी. हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि उन्होंने क्या बोला था.
वे बोले जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. पहले कुछ लोगों का मानना था कि रेल के आने से जाति व्यस्था कमजोर होगी, पर नहीं हुआ. फिर यह मान्यता थी कि औद्योगिकरण से जाति व्यवस्था कमजोर होंगी, पर नहीं हुआ. एक अन्य मान्यता यह थी कि पूँजीवाद से जाति व्यस्था कमजोर होंगी, पर तब भी ऐसा नहीं हुआ. आधुनिक समय में ऐसा कहा जा रहा था कि जगतीकरण (भूमंडलीकरण/वैश्वीकरण) से यह मिटेगा, पर ऐसा भी नहीं हुआ. लेकिन जो हुआ है वो है दलितो का प्राकृतिक संशाधनों से अधिकार घटता रहा है. प्रतिदिन जमीन घटते जा रहे है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और अधिक बढ़ रही है. आधुनिक समय में पूंजीवाद ने मजदूर को इंसान से वस्तु बनाया है, आधुनिक तकनीक एवं मशीने इंसान के श्रम को कम करने के बजाय इंसान को ही खत्म कर रही है. कुल मिलाकर इन तमाम स्थिति ने वस्तुकरण, व्यवसायीकरण और उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दिया है और इसका पहला शिकार दलित ही है. जाति व्यवस्था एवं पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक है.
ऐसी स्थिति में यदि आप डा. आनंद तेलतूम्ब्ड़े जैसे व्यक्ति से यह पूछते है कि आपने कितनी किताबे लिखी, तो अपने आप में यह उनका स्पष्ट अपमान है. बजाय इसके आप यदि उनके किताबो के ऊपर चर्चा करते तो उसमे कुछ दम की बात होती. जहा तक भाषा के बोझिलेपन का सवाल है, कभी भी कोई भी नयी विचारधारा सामने आती है तो जो लोग उस बात को समझ नहीं पाते है उन्हें भाषा भी बोझिल जरूर लगेगा. यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में यह हमारी जिम्मेदारी होती है कि हम विषय पर कुछ अपनी तैयारी के साथ आएं.
अब अंतिम बात यह है कि आपने जिन बेबुनियादी एवं अतार्किक बातों के आधार पर संघठन, समुदाय, और लोग को दिग्भ्रमित किया, उसके लिए आपको दलित समाज, सतनामी समाज और डी.एम.एम. संगठन से माफ़ी मांगना ही होगा. हम विश्वास करते है कि हमने आपके द्वारा उठाये गए बिन्दुओ पर विधिवत एवं क्रमवार जवाब दिया है. आशा है की आप इन बातो को उतनी ही गंभीरता से लेंगे, जितने गंभीरता आपने सम्मलेन का तुष्टिकरण लिखने में दिखाई थी. आशा है कि आप स्वस्थ तथा कार्यों में व्यस्त होंगे.

क्रन्तिकारी अभिवादनो के साथ,


मधुकर गोरख विभीषण पात्रे

अध्यक्ष महासचिव

Sunday, September 25, 2011

मिर्चपुर हत्याकांड में सिर्फ 15 दोषी, 82 बरी


दिल्ली की एक अदालत ने हरियाणा के मिर्चपुर गांव में पिछले साल 70 वर्षीय एक दलित और उसकी विकलांग बेटी को जिंदा जला देने के मामले में आरोपी बनाए गए 97 में से 15 लोगों को विभिन्न आपराधिक धाराओं के तहत दोषी करार दिया. जबकि अन्य 82 आरोपियों को निर्दोष बताया है. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लाउ ने जिन 15 आरोपियों को दोषी ठहराया है उन्हें हत्या के मामले में दोषी करार नहीं दिया है. कुलविंदर, रामफल और राजेन्दर को 21 अप्रैल को ताराचंद के घर को आग के हवाले करने को लेकर आईपीसी की धारा 304 के तहत दोषी करार दिया गया. गांव के प्रभावी जाटों और दलितों के बीच जातीय विवाद के बाद यह घटना हुई थी.
इन 15 आरोपियों में से 12 को आगजनी, दंगा करने और गैर कानूनी रूप से एकत्र होने के आरोप में दोषी करार दिया गया. अदालत ने अपने फैसले में इस मामले में हरियाणा पुलिस की खिंचाई करते हुए कहा, ‘‘जिस तरह से पूरे मामले को निपटाया गया वह अनुचित है.’’ गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल नौ दिसंबर को इस मामले को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया था. हरियाणा में निष्पक्ष सुनवाई नहीं होने की पीड़ितों की अर्जी पर ऐसा किया गया था. न्यायाधीश ने कहा कि राजनीतिक दबाव के चलते कई आरोपियों को फंसाए जाने की संभावना खारिज नहीं की जा सकती है. अदालत ने हिसार जिले के नारनौंद पुलिस थाना के प्रभारी विनोद के. काजल सहित 82 आरोपियों को निर्दोष करार दिया. गौरतलब है कि इस घटना के बाद आज तक मिर्चपुर गांव में दलितों की स्थिति सुधर नहीं पाई है. आज भी वहां के दलित दहशत में हैं. जाटों के डर से कई परिवार अभी भी गांव से बाहर शरण लिए हुए हैं, जहां उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. जो परिवार वापस गांव लौट गए हैं, वो भी हर पल डर के साये में जी रहे हैं. इस पूरे मामले में संसद के अंदर मौजूद 120 दलित सांसदों की भूमिका भी समाज के प्रति साकारात्मक नहीं रही थी. जिस स्तर पर विरोध प्रदर्शन होना चाहिए था, राजनीतिक स्तर पर वैसा कुछ नहीं हो पाया. यहां तक की विपक्षी दलों ने भी विरोध दर्ज करा कर महज खानापूर्ति कर ली थी. तो आरक्षित सीट से जीतने वाले उम्मीदवार भी पार्टी के दबाव में दलितों पर अत्याचार के मामले को जोरदार ढ़ंग से उठाने में नाकाम रहे थे.

मंदिर प्रांगण में दलित को काट डाला

उत्तर प्रदेश के महामाया नगर में दबंगों ने दलित जाति के राजन लाल को मंदिर कैंपस में ही तलवार से काट कर हत्या कर दी. 40 साल के राजन लाल को महज इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने दबंगों द्वारा जातिसूचक गाली देने का विरोध किया था. दंभ में चूर ठाकुर जाति के लोगों को यह नागवार गुजरा कि एक दलित व्यक्ति उन्हें रोक कैसे सकता है. घटना के बाद अपने सात बच्चों को बिलखता लेकर मृतक की विधवा न्याय की आस में दर-दर भटक रही है तो दूसरी ओर अपनी राजनीतिक पहुंच और पैसे के बूते दबंग मामले की लीपापोती में लग गए हैं, जिसमें जिले का पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोपियों को बचाने के मामले में राज्य के उर्जा मंत्री और बाहुबली बसपा नेता रामबीर उपाध्याय का नाम सामने आया है.
घटना महामाया नगर जिले के थाना सिकंदरा राउफ में बीते 22 अगस्त को जन्माष्टमी को घटी. मृतक की विधवा फूलवती के मुताबिक रात साढ़े नौ बजे सोनू, पिंटू और पल्लू नाम के तीन लोग उसके घर आएं और पूजा देखने के बहाने उसके पति को जबरन घर से बुलाकर पास के जानकी मंदिर ले गए. जानकी मंदिर में जेनरेटर की व्यवस्था में लगा दलित जाति का ही युवक देवेंद्र इस पूरे मामले का प्रत्यक्षदर्शी है. उसके मुताबिक, मंदिर में डीजे चल रहा था. राजन लाल को लेकर मंदिर परिसर पहुंचे लोगों ने राजन से भी नाचने के लिए कहा लेकिन उसने नाचने से इंकार कर दिया. बस दबंग इसी बात से भड़क गए. वो राजन लाल को जातिसूचक गालियां देने लगे. इस दौरान प्रदेश में दलित मुख्यमंत्री होने का गुस्सा भी सामने आ गया. प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक दबंगों ने राजन को गाली देते हुए कहा कि तुमलोगों का दिमाग खराब हो गया है. राजन ने इसका कड़ा प्रतिरोध किया. राजन के विरोध करने से दबंग और चिढ़ गए और सभी मिलकर उसे मारने-पीटने लगे. इससे भी उनका मन नहीं भरा तो दबंगों ने मंदिर में ही रखे तलवार से राजन को काट दिया और उसकी हत्या कर दी.
मामले पर बवाल मचने के बाद अब दबंग अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल कर बचने की जुगत में जुट गए हैं. यहां तक की मामले के एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी देवेंद्र को भी जान से मारने की धमकी देकर उसे बयान बदलने को मजबूर कर दिया गया है. इसमें पुलिस महकमा भी उनका पूरा साथ दे रहा है. आरोप है कि पुलिस ने इंकाउंटर की धमकी देते हुए देवेंद्र को बयान बदलने को राजी कर लिया है. मृतक की पत्नी के मुताबिक देवेंद्र ने अपना बयान बदलने के लिए पूरे दलित समाज से माफी मांगा है और जान के डर के कारण ऐसा करने की बात स्वीकार की है. इसके बाद अब पुलिस मामले को नया मोड़ देने में जुट गई है. चश्मदीद देवेंद्र के बयान पर पुलिस ने पहले सोनू, पल्लू और चिंटू तीनो के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की थी लेकिन अब सारा दोष पल्लू नाम के व्यक्ति पर डाल कर दो लोगों को छोड़ दिया गया है.
मृतक की पत्नी इस मामले सभी दोषियों को सजा दिलाने की मांग पर अड़ी हुई है. पुलिसिया एफआईआर को उसने पुलिस और आरोपियों की मिली-भगत का नतीजा बताया है और पुलिस द्वारा जबरन अंगूठा लिए जाने का आरोप लगाया है. उसका आरोप है कि प्रदेश के ऊर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय आरोपियों को बचाने के लिए पुलिस प्रशासन पर दबाव बना रहे हैं. इधर, मृतक राजन को इंसाफ दिलाने की मुहिम को लेकर पूरा दलित समुदाय एक हो गया है. मामले पर चर्चा के लिए जाटव महापंचायत बुलाई गई है. इसमें 25 गांव से तकरीबन 50 हजार लोगों के शामिल होने की खबर है. मामले को लेकर मायावती सरकार और खुद मुख्यमंत्री मायावती पर भी पूरे दलित समाज की नजर टिकी हुई है.

साभारः शिल्पकार टाइम्स

बांध बनाने में खर्च हो रहा है दलित कल्याण का पैसा

भाजपा के शासन वाले मध्यप्रदेश राज्य में दलित हितों की धज्जियां उड़ रही है. शिवराज सिंह चव्हाण की सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए मिले पैसे का प्रयोग धड़ल्ले से अन्य योजनाओं में कह रही है जबकि दलित हितों की अनदेखी अपने चरम पर है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के हालिया दौरे ने सारी पोल खोल दी है. आयोग के मुताबिक प्रदेश में अनुसूचित जाति (अजा) कल्याण की योजनाओं का धन बांध, पुलिया, सड़क आदि बनाने में खर्च किया जा रहा है. जबकि दूसरी ओर अनुसूचित जाति के मामलों पर कार्यवाही के लिए आठ पुलिस थानों में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं. इनमें से हर थाने में महिला पुलिसकर्मी भी तैनात नहीं हैं. अजा के फर्जी जाति प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी हासिल करने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा रही है. अजा पर अत्याचार की एफआईआर भी आसानी से दर्ज नहीं की जाती है.
दलितों पर अत्याचारे के मामले में भी मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है. राष्ट्रीय अजा आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया के मुताबिक अन्य राज्यों की तरह मप्र में भी अजा पर अत्याचार करने वाले लोगों के खिलाफ पुलिस थानों में रपट दर्ज न करने की काफी शिकायतें सही पाई गई हैं. आलम यह है कि 24 मामलों में तो न्यायालय के आदेश के बाद एफआईआर दर्ज की गई. जबकि भिंड के एक मामले में तो आयोग के निर्देश के बावजूद रपट दर्ज नहीं की गई. दलितों पर अत्याचार करने वाले 40 फीसदी मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिल पाती है. सन् 2006 से 2010 के बीच 72 लोगों ने फर्जी तरीके से अजा कोटे की नौकरियां हथिया लीं. इन शिकायतों को समिति द्वारा सही पाए जाने के बावजूद भी दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई है. ऐसे दोषी अब भी न केवल सरकारी सेवा में बने हुए हैं बल्कि पदोन्नति भी पा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर राज्य में आरक्षित पांच हजार पद लंबे समय से खाली पड़े हैं. सरकार द्वारा इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. यही वजह है कि पिछले एक दशक से आरक्षित पद खाली पड़े हैं.

शिकायत लेकर पहुंचे व्यक्ति को डीएम ने आफिस से निकाला

तथाकथित ज्यादातर सवर्ण अधिकारियों में दलितों के हित के लिए दर्द नहीं होता, उत्तर प्रदेश में घटी एक घटना से यह बात फिर साबित हो गई है. प्रदेश के इटावा में एक आईएएस अधिकारी ने एक दलित व्यक्ति को अपने आफिस से धक्के देकर निकाल दिया. पीड़ित व्यक्ति अपनी शिकायत लेकर डीएम के पास पहुंचा था. लेकिन डीएम को यह नागवार गुजरा और उसने उस व्यक्ति को आफिस से बाहर निकाल दिया. घटना 22 सितंबर की है. शहरी दलितों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की कांशीराम आवास योजना है. इसके तहत जरुरतमंद लोगों को सरकार की तरफ से मकान दिया जाता है, पीड़ित व्यक्ति इसी मांग को लेकर अधिकारी से मिलने पहुंचा था. हैरत की बात यह है कि उस दौरान विशेष मुख्य सचिव आर पी सिंह भी इटावा के जिलाधिकारी के साथ मौजूद थे. लेकिन विशेष मुख्य सचिव ने डीएम को रोकने की बजाय उसका साथ दिया और उनकी मौजूदगी में डीएम ने दलित व्यक्ति को धक्के देते हुए बाहर निकाल दिया.
यह सारी स्थिति तब है जब यूपी में चुनाव होने हैं. मुख्यमंत्री मायावती जहां दलितों के कल्याण के लिए तमाम हितकारी योजनाएं चला रही हैं, तो वहीं उनके प्रदेश के अधिकारी ही उनके मंसूबों पर पानी फेरने में जुटे हुए हैं. पिछले दिनों में अपनी पार्टी के कई सवर्ण नेताओं और अधिकारियों की वजह से माया सरकार को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. उनकी प्रशासन पर ऊंगली उठती रही है. सवर्ण और बेलगाम अधिकारियों की करनी के कारण विपक्षी दलों को माया सरकार पर निशाना साधने का मौका मिलता रहा है. ऐसे में इस घटना से मायावती सरकार पर एक बार फिर ऊंगली उठने लगी है. मुख्यमंत्री को इस तरह दलितों के साथ बदसलूकी करने वाले अधिकारियों को तुरंत सस्पेंड कर देना चाहिए और कठोर कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अन्य अधिकारी भी चौकन्ने हो जाएं. चुनाव के नजदीक आते ही कांग्रेस और सपा, बसपा सरकार में घटित हुए छोटी-छोटी घटनाओं को तूल देने में जुटी है. कांग्रेस ने तो पीएल पुनिया को इसके लिए विशेष तौर पर नियुक्त कर दिया है, जो देश भर में घूम कर माया सरकार की बखिया उधेड़ते रहते हैं. बसपा सरकार के सामने बैकफुट पर पड़ी सभी पार्टियों का निशाना दलित वोट बैंक ही हैं. कांग्रेस पार्टी जहां इसमें सेंध लगाने में जुटी है तो वहीं सपा दलितों के साथ होने वाली घटनाओं को सामने रखकर दलितों को भड़काने का काम कर रही है. बसपा सरकार को संभलते हुए अब इटावा के डीएम पर तुरंत कार्रवाई कर के पीड़ित व्यक्ति के आत्मसम्मान को वापस दिलाना चाहिए, साथ ही उसकी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिए.

Monday, September 19, 2011

'Questions of caste: Including Dalits in Global Politics'


Vivek Kumar is author of ‘Questions of Caste: Including Dalits in Global Politics’
Vivek Kumar (Ph.D.) Associate Professor at the Centre for the Study of Social Systems, School of Social Sciences, Jawaharlal Nehru University, New Delhi he’s engaged in the study of the social movements of one of the most excluded sections in South-Asia (Dalits).
He has analyzed the process and mechanism involved in strengthening the democracy by the ‘Independent Dalits Movement’ in the largest populated State of India i.e. Uttar Pradesh. Kumar has also examined how Dalit movement has diversified its demands for inclusion in the modern institutions of governance and other spheres of day-to-day life after India became a democracy.
Now Kumar is studying internal differences within the Indian Diaspora and its relationship with Indian democracy. Author of three books he has contributed few dozens of academic articles in journals and books. He also writes in newspapers and participates in debates on television channels regularly.
When asked why he joined the Building Global Democracy Programme, Vivek replied:
"...it is a unique or perhaps only attempt which promises a new world order. Secondly, he believes that only a democratic order is open to dissent and undertakes piecemeal social-engineering rather holistic reforms. Last but not least experiences of the world prove that ‘marginalized’ and ‘excluded’ have hope only in a democratic world order."
International workshop in Rio de Janeiro
Watch video footage of Vivek Kumar introducing his paper on 'including Dalits in global politics' at our international workshop in Rio de Janeiro. The workshop brought together academics, activitists and policymakers from around the world and generated lively debates and new understanding on how to understand and overcome exclusion.

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Tuesday, September 13, 2011

दिल्ली विश्वविद्यालय का दोगलापन


दिल्ली विश्वविद्यालय के एमए संस्कृत में ज्योतिष की कक्षाएं नहीं लग रहीं हैं. इसका कारण संस्कृत विभाग में प्राध्यापक नहीं होने के साथ-साथ अनुसूचित जाति की एक छात्रा भी बताई जा रही है. छात्रा ज्योतिष पढ़ने की जिद पर अड़ी है, जबकि उसकी शिकायत है कि विभागाध्यक्ष ने उसे स्पष्ट कह दिया है कि 'ज्योतिष तुम्हारी जाति के लोगों के लिए नहीं है.' छात्रा इसकी शिकायत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह से कर चुकी है लेकिन 15 दिन तक समस्या का समाधान न निकलने पर दिलेर छात्रा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग पहुंच गई है. अब आयोग ने दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन से मामले पर स्पष्टीकरण मांगा है.
विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में एमए अंतिम वर्ष की छात्रा सरिता ने बताया कि 21 जुलाई से तीसरे सेमेस्टर की पढ़ाई शुरू हो चुकी है. छात्रों को नौ ऑप्शनल विषयों में से एक विषय पढ़ना होता है. मैंने ऑप्शनल के रूप में ज्योतिष विषय चुना है. सरिता ने बताया कि कुछ दिन तक यह कहा गया कि विभाग में ज्योतिष के शिक्षक नहीं हैं. जबकि विश्वविद्यालय और उसके शिक्षकों को दोगलापन तुरंत सामने आ गया. छात्रा का कहना है कि संस्कृत के विभागाध्यक्ष डॉ. मिथलेश कुमार चतुर्वेदी के बुलावे पर अगस्त के दूसरे सप्ताह में उनके कार्यालय पहुंची. वहां विभागाध्यक्ष ने छात्रा से कहा कि ज्योतिष तुम्हारी जाति के लोगों के लिए नहीं है. इसलिए तुम इस विषय को नहीं पढ़ सकती. शिक्षक का यह कहना सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन भी है. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही विवाद पर सुनवाई करते हुए वर्ष 2004 के अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया था कि हर जाति के विद्यार्थी ज्योतिष पढ़ सकते है.
इधऱ विश्वविद्यालय के कुलपति भी मामले को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. छात्रा को ज्योतिष पढ़ाने से इंकार करने वाले शिक्षक पर कार्रवाई करने की बजाय कुलपति मामले पर ढ़ुलमुल रवैया अपना रहे हैं. कुलपति प्रोफेसर दिनेश सिंह का कहना है कि संस्कृत विभाग से कुछ छात्रों की शिकायत तो आई थी, जिसमें उन्होंने ज्योतिष पढ़ाने के लिए प्राध्यापक नियुक्त करने की मांग की थी. मैंने विभाग को छात्रों की समस्या हल करने के निर्देश दिए थे. जहां तक अनुसूचित जाति की छात्रा को ज्योतिष न पढ़ाए जाने की बात है तो यह मामला मेरे संज्ञान में नहीं है. जबकि विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार आरके सिन्हा का कहना है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने छात्रा की शिकायत पर जो स्पष्टीकरण मांगा है, उसके लिए संस्कृत विभाग से पूछताछ की जाएगी. उसके बाद आयोग के हर सवाल का जवाब दिया जाएगा.

पुलिस ने दलितों पर गोली चलाई, 6 की मौत

दक्षिण भारत के राज्य तामिलनाडु में पुलिसवालों ने गोली मारकर 6 दलितों की हत्या कर दी है. एक जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है तो दो दर्जन से ज्यादा लोग घायल हैं. रामानाथपुरम जिले में घटी इस घटना के बाद से ही इलाके में दहशत का माहौल है. घटना 11 सितंबर को तब घटी जब पुलिस ने दलित नेता जॉन पंडियन को गिरफ्तार कर लिया. पंडियन दलित नेता इमानुअल सेकरन की याद में चल रहे प्रोग्राम में हिस्सा लेने जा रहे थे. पुलिस जब पंडियन को गिरफ्तारी करके ले जा रही थी, उसी वक्त उनके समर्थकों ने पुलिस का भारी विरोध किया. इस दौरान पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प हो गई. पुलिस ने उत्तेजित लोगों को समझाने की बजाय उनपर गोली चला दी. गोली चलाने के बाद अफरा-तफऱी मच गई जिसमें पुलिसवालों सहित 50 लोग घायल हो गए. घटना के बाद पुलिस सफाई दे रही है. पुलिस का कहना है कि कानून व्यवस्था बरकरार रखने के लिए दलित नेता जॉन पंडियन को परामाकुड़ी इलाके में जाने से रोका था. दलितों पर हत्या के बाद अब राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी रोटियां सेकनी शुरू कर दी है. उन्होंने इस पुलिस फायरिंग की जांच कराने की मांग की है. इस बीच राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता ने मारे गए लोगों के परिवार वालों को 1 लाख रुपए देने का मुआवजा देने का ऐलान किया है.

कागजी योजनाओं की बांट जोह रहे हैं बिहार के महादलित

आजादी के बाद देश में दलितों के उत्थान के लिए कई कार्यक्रम और योजनाएं चलाई गईं तथा संविधान में विशेष आरक्षण की व्यवस्था भी की गई. लेकिन आजादी के छह दशक से अधिक गुजरने के बावजूद ये योजनाएं हमारे लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रही हैं. बिहार में एक कोशिश के तहत दलित वर्ग की कमजोर जातियों को एक साथ लाकर उन्हें लेकर महादलित संघ बनाया गया था. लेकिन इनकी लिए बनीं तमाम योजनाएं सरकारी कागजों तक पर सिमट कर रह गई है.
महादलित के गठन की मूल मंशा दलितों में भी अत्याधिक रूप से पिछड़ों की पहचान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है. राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदम वास्तव में क्रांतिकारी कहे जा सकते हैं. इस वर्ग में मुसहर जाति को भी शामिल किया गया. लेकिन बिहार सरकार द्वारा संचालित महादलित उत्थान योजना से अब भी ये वर्ग पूर्ण रूप से लाभान्वित होता नजर नहीं आ रहा है. सुविधाओं का लाभ मिलना तो दूर, इस वर्ग में शामिल कई महादलितों तक योजनाओं की जानकारी भी नहीं पहुंची है. गौरा बौराम प्रखंड का मंसारा मुसहर ऐसा ही एक गांव है. दरभंगा से 75 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह इलाका कमला, कोसी और गेहूंआ नदियों के बीच टापू की तरह घिरा हुआ है. हैरत की बात यह है कि मुसहर समुदाय की अच्छी खासी आबादी होने के बावजूद यहां के लोगों के पास रहने के लिए अपनी जमीन तक उपलब्ध नहीं है. ये लोग नदियों पर बनाए गए बांध के आस-पास सरकारी जमीन पर अस्थाई आशियाना बनाकर रहने को मजबूर हैं, लेकिन इन्हें हर वक्त यह डर भी सताता रहता है कि न जाने कब सरकारी बाबू का फरमान आए और इनके घर-बार उजाड़ दिए जाएं. दूसरी तरफ बरसात के मौसम में जब नदियां उफान पर रहती हैं तो मंसारा मुसहरवासियों के जीवन में भी तूफान आ जाता है. अपने और परिवार की जान बचाने के लिए ये लोग बांध पर शरण लेने को मजबूर हो जाते हैं. इस समुदाय के लोग मजदूरी कर बमुश्किल अपने परिवार का गुजारा भर कर पाते हैं जो बाढ़ के दौरान छिन जाता है. ऐसे में इन्हें पेट भरने के लिए किस तरह कठिनाईयों का सामना करना पड़ता होगा इसका अंदाजा कोई भी लगा सकता है. सरकारी महकमा न तो इनके पेट भरने का माध्यम बनता है और न ही इनकी समस्याओं का स्थाई हल ढूंढ़ पाता है.
आलम यह है कि इस समुदाय के लोगों को कई दिनों तक एक वक्त का ही खाना नसीब हो पाता है. स्थाई प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से इनके पास राशन कार्ड तक उपलब्ध नहीं है. जिससे सस्ते दर पर मिलने वाली सरकारी योजनाओं का ये लाभ उठा सकें. वहीं ग्रामीणों को इलाके में ही रोजगार मुहैया कराने की गारंटी देने वाला मनरेगा इनकी गरीबी को कम करने में असरदार साबित नहीं हो पा रहा है. इस स्कीम का हाल ये है कि ज्यादातर लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है जिनके पास है तो उन्हें कोई काम नहीं मिलता है. गुरबत की इस जिंदगी में कुदरत ने भी उनके साथ खूब मजाक किया है. गरीबी और कुपोषण के कारण इस समुदाय के बच्चे विकलांगता के भी शिकार हैं. सरकारी और गैर सरकारी सर्वे के अनुसार इलाके के पीने के पानी में अत्याधिक मात्रा में आर्गेनिक का मौजूद होना इसका प्रमुख कारण है.
राज्य सरकार ने 2008 में बिहार महादलित विकास मिशन के गठन के साथ ही उनके उत्थान के लिए 16 स्कीमों का भी ऐलान किया है. जिसमें उन्हें स्थाई घर दिलाने वाला हाउस साइट स्कीम भी शामिल है इसके तहत हर परिवार को तीन डिसीमल जमीन उपलब्ध कराना शामिल है. इसके अलावा स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर भी खास जोर दिया गया है. इन योजनाओं के प्रचार और प्रसार के लिए प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही माध्यमों का जोर-शोर से सहारा लिया जा रहा है. लेकिन मंसारा मुसहर के लोग अब भी इस योजना की बांट जोह रहे हैं.

सौजन्यः चरखा

कानपुर मेडिकल कॉलेज में 29 छात्र फेल, 25 दलित

कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज में पिछले दिनों हुई परीक्षा में 29 छात्रों के फेल होने की खबर है. इनमें 25 छात्र दलित हैं. इस सच्चाई के बाहर आने के बाद हंगामा मच गया है. फेल हुए छात्रों ने अपनी कांपियां दुबारा जांचने की मांग की है. वहीं तीन छात्रों के आत्महत्या किए जाने की कोशिश को भी जातिवाद से ही जोर कर देखा जा रहा है. एमबीबीएस प्रथम वर्ष के इन छात्रों ने बायोकेमेस्ट्री विषय में फेल होने के कारण आत्महत्या का प्रयास किया था. जीएसवीएम के प्रिसिंपल आनंद स्वरूप ने भी माना कि एमबीबीएस प्रथम वर्ष के बायोकेमिस्ट्री के पेपर में कुल 29 छात्र फेल हुए हैं, जिनमें से 25 छात्र दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं. फेल छात्रों तथा उनके परिजनों ने कानपुर के छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलकर मांग की है कि उनकी बायोकेमिस्ट्री विषय की कॉपियों की जांच दोबारा करवाई जाए. गौरतलब है कि एमबीबीएस द्वितीय वर्ष के तीन छात्रों शोभित, संजीव कुमार और विवेक ने दो सितंबर को देर रात नींद की गोलियां खा लीं थी. तीनों छात्र ब्वायज हास्टल वन में रहते थे. देर रात जब हास्टल में उनके सहयोगी छात्रों को पता चला तो वे उनके कमरे का दरवाजा तोड़ कर अंदर घुसे और इन तीनों को बेहोश पाया. बाद में तीनों को अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां से उन्हें दो दिनों के बाद ठीक होने पर डिस्चार्ज कर दिया गया.

दलित परिवार ने राष्ट्रपति से मांगी इच्छा मृत्यु

दबंगों के जुल्म और पुलिस की उदासिनता से निराश होकर एक दलित परिवार ने राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु की मांग की है. इस परिवार की पीड़ा यह है कि दबंगों द्वारा इनका घर हड़प लिया गया है और उनकी बहू-बेटियों को परेशान किया जा रहा है. पुलिस से गुहार करने के बावजूद पुलिस ने उनकी कोई मदद नहीं की है. परिवार के मुखिया का कहना है कि जिस मकान में वे बचपन से रह रहे थे, उससे निकाले जाने के बाद उसकी बेटी व बहुओं की इज्जत बचाना मुश्किल पड़ रहा है. उनके साथ मारपीट की जा रही है.
इन हालातों में इस जिंदगी से बेहतर तो मौत ही है. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के नाम लिखे पत्र में 18 सदस्यों के बैरागी परिवार के मुखिया 70 वर्षीय श्यामलाल ने कहा है कि उसके पिता गांव बधवाड़ी स्थित पंचायती जमीन में मकान बनाकर रहते थे. दिल्ली से सटे गुड़गांव में एक जाति विशेष के दबंग परिवार ने 25 जून की रात उनके घर में घुसकर बहू बेटियों के साथ बदतमीजी करने की कोशिश की गई. विरोध करने पर परिवार के लोगों के साथ मारपीट किया गया. सुबह जब उसने गांव में कुछ लोगों को पीड़ा सुनाई तो दबंगों ने उसके घर में तोडफ़ोड़ की. गाली गलौज और परिवार की महिलाओं को परेशान करना दबंगों का नियम सा बन गया. असल में दबंगों की नियत उस जमीन को हथियाने में थी, जिस पर श्यामलाल जी अपने परिवार के साथ रहते थे. दबंगो का कहना था कि जिस जमीन पर श्यामलाल रहते हैं वो उनके पूर्वजों की जमीन है. पीड़ित परिवार की पैरवी करने वाले वकील दुर्गेश बोकन ने बताया कि इस बीच जब श्यामलाल ने डीएलएफ फेस वन में दबंगों के खिलाफ शिकायत किया तो पुलिस ने दबंगों से मिलकर उल्टे श्यामलाल के खिलाफ ही मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया. इसके बाद आरोपियों ने पीडि़त परिवार को घर से बेघर कर दिया. इस अत्याचार के खिलाफ श्यामलाल ने 19 जुलाई को उपायुक्त कार्यालय में शिकायत दी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. चारो ओर से निराश होने के बाद श्यामलाल ने राष्ट्रपति से पूरे परिवार सहिंत इच्छा मृत्यु की मांग की है.

दिलीप अश्क स्मृति सम्मान के लिए 30 नवंबर तक जमा होंगे आवेदन

वंचित समाज से ताल्लुक रखने वाले हिन्दी के कवि श्री दिलीप अश्क की स्मृति में एक पुरस्कार शुरू किया जा रहा है. ‘आरोही और संज्ञान’ के माध्यम से दिया जाने वाला यह पुरस्कार हर वर्ष दिसंबर महीने में दिया जाएगा. इसके तहत 11,000 रुपये एवं सम्मान पत्र दिया जाएगा. यह सम्मान हिंदी में कविता लिखने वाले किसी भी दलित या गैर दलित युवा को उनके पहले कविता संग्रह या किसी विशिष्ठ कविता के लिए दिया जाएगा. आयोजकों के शर्त के मुताबिक कवि की उम्र 40 वर्ष से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. विशिष्ठ परिस्थितियों में आरोही और संज्ञान के सदस्यों द्वारा उम्र सीमा बढ़ाई जा सकती है. सर्वश्रेष्ठ कवि का चयन एक समिति करेगी. इसमें हिंदी के दो विशिष्ठ कवि और आरोही और संज्ञान के एक-एक सदस्य शामिल होंगे. युवा कवि अपनी विशिष्ट काव्य रचना या कविता संग्रह 30 नवम्बर 2011 तक भेज सकते हैं.
जिन दिलीप अश्क की स्मृति में यह पुरस्कार शुरू किया गया है उनके जीवन वृत पर नजर डालने पर साफ हो जाता है कि वह उन दिनों से कविता कर रहे थे जब दलित साहित्य अस्तित्व में भी नहीं आया था. हिन्दी के अनेक मूर्धन्य कवियों के साथ कविता पाठ कर चुके और उनके समकालीन रहे कवि दिलीप अश्क हिन्दी की मुख्य धारा में तो उपेक्षित रहे ही साथ ही दलित साहित्य आंदोलन भी उन्हें लगभग भुलाये हुए ही है. हिन्दी के युवा कवि मुकेश मानस के अथक प्रयासों से उनकी कविताओं का एक संग्रह “सच खड़ा है सामने” 2000 में प्रकाशित हो चुका है. उनके एक और संग्रह “मैंने झूठ नहीं बोला” को आरोही द्वारा प्रकाशित किए जाने की योजना है.

पुरस्कार के लिए युवा कवि अपनी रचना इस पते पर भेज सकते हैं-

आरोही/संज्ञान : ए-2/128, सेक्टर-11, रोहिणी, दिल्ली-110089

फोन : 09013292928, ईमेल : aarohibooks@gmail.com / hindimanchindia@gmail.com

लोकपाल बिल में भागीदारी को लेकर सोशल जस्टिस फोरम का प्रदर्शन

लोकपाल में वंचित समाज की भागीदारी और हित सुरक्षित रखने की मांग को लेकर तकरीबन 40 संगठनों के समूह ‘सोशल जस्टिस फोरम’ द्वारा 5 सितंबर को एक विशाल रैली निकाली गई. सुबह तकरीबन 11 बजे अंबेडकर भवन से शुरू होकर यह रैली स्टेशन रोड और कनॉट प्लेस के कई हिस्सों में अपनी मांगों का उदघोष करती हुई जंतर-मंतर पहुंची. हाथों में मांगों की तख्तियां लिए और माथे पर दलित आंदोलन की पट्टी बांधे रैली में प्रबुद्ध वर्ग, तमाम अधिकारी, व्यवसायी और जेएनयू एवं डीयू के छात्र-छात्रा सहित समाज के हर तबके के लोग मौजूद थे. अपनी मांगों को लेकर उनके इरादों की मजबूती इसी से भांपी जा सकती है कि इस दौरान दो बार बारिश आने के बावजूद किसी के कदम नहीं डिगे. हर कोई मांग का झंडा थामे खड़ा रहा.
जंतर-मंतर पर आम सभा करने के बाद यह रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट की ओर कूच कर गई. इस दौरान पुलिसकर्मियों ने तीन जगह रैली को रोकने की कोशिश की लेकिन ‘भीम’ के बेटे और बेटियों के आगे पुलिस को हार मानना पड़ा. सभी पुलिसिया बैरिकेट्स को तोड़ते हुए रैली पार्लियामेंट स्ट्रीट पर पहुंचीं, जहां जेएनयू के डा. विवेक कुमार ने सभा को संबोधित करते हुए पिछले दिनों जनलोकपाल को लेकर चले मुहिम को आंदोलन मानने से इंकार कर दिया. उन्होनें कहा कि आंदोलन विचारधारा से बनते हैं ना कि कुछ लोगों के बैठने से. अन्ना के अनशन को धिक्कारते हुए उन्होंने कहा कि वहां आरक्षण और बाबा साहेब के विरोध में नारे लग रहे थे. चेताया कि उसमें दलित समाज के भी युवा मौजूद थे और उन्हें अब चेत जाना चाहिए. चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि अगर ‘बाबा’ के बेटे जाग गए तो गांधी के बेटों को भागना पड़ेगा. साथ ही जोर दिया कि लोकपाल में सबकी आवाज शामिल होनी चाहिए. इस दौरान बेला ग्रुप ने शानदार नाटक किया.
फोरम द्वारा जिन पांच मुख्य मांगों को लोकपाल में शामिल करने की मांग की जा रही है, उनमें लोकपाल में दलितों के साथ जातीय, सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आधार पर भेदभाव को शामिल करने की मांग शामिल है. इसके अलावा मीडिया, कॉरपोरेट जगत, सरकारी अनुदान पर चल रहे स्वयं सेवी संगठनों (एनजीओ) सहित केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा वंचित समाज के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एससी/एसटी को उनकी संख्या के मुताबिक बजट न देने को भी लोकपाल बिल में भ्रष्टाचार मानने की सिफारिश की गई है. फोरम द्वारा सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा चलाने वाले लोगों को सामाजिक भ्रष्टाचार मानते हुए इस बिल में शामिल करने एवं न्यायपालिका, भूमि वितरण, पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों एवं अन्य स्वायतशासी संस्थाओं को भी लोकपाल के दायरे में लाने की मांग शामिल है.
फोरम ने इस बात को लेकर भी सरकार को साफ चेता दिया है कि बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान की मूल भावना के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए. ज्ञापन सौंपने गए लोगों में पॉल दिवाकर, आशा गौतम, महेंद्र जी, राजेंद्र गौतम और कमल सिंह शामिल थे. पूरे कार्यक्रम के दौरान मौजूद रहे मुख्य लोगों में जेएनयू के डा. विवेक कुमार, व्यवसायी एवं वरिष्ठ समाजसेवी जय भगवान जाटव, विमल थोरात, अशोक भारती (नैक्डोर), डा. एस.एन गौतम, जयप्रकाश कर्दम, सहित तमाम वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे. पिछले दिनों उदित राज के बहुजन लोकपाल बिल के बाद दलित वर्ग के संगठन का यह दूसरा बिल है.

Sunday, September 4, 2011

लोकपाल में दलितों के हित और प्रतिनिधित्व के लिए सामने आया सामाजिक न्याय मंच

सामाजिक न्याय मंच (Social Justice forum) द्वारा 5 सितंबर, 2011 को जंतर-मंतर पर विशाल रैली आयोजित की जा रही है. यह रैली सुबह 10 बजे रानी झांसी रोड स्थित अंबेडकर भवन से शुरू होकर जंतर-मंतर पहुंचेगी. लोकपाल में दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी एवं उनके हितों की रक्षा के लिए यह एक प्रयास है. आप सब भी आएं. हमारी लड़ाई हमें ही लड़नी है. तो सुबह 10 बजे अंबेडकर भवन पर इंतजार रहेगा....
प्रिय साथियों, कुछ विचारनीय सवालः-
- क्या दलित, आदिवासी, धार्मिक अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग इस देश के नागरिक नहीं हैं?
- बंधुआ और बाल मजदूर अधिकांश केवल दलित व आदिवासी वर्ग से ही क्यों?
- लोकपाल तैयार करने में इन वर्गों के प्रतिनिधियों को क्यों नहीं रखा गया है?
- आज भी छह लाख दलित परिवार सिर पर मैला ढोकर पेट पालते हैं. इस शर्मनाक प्रथा को चलाने वाले क्या भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते, जबकि इसके खिलाफ कानून बना है.
- शिक्षा में भ्रष्टाचार के कारण लगभग 80 प्रतिशत दलित व 85 प्रतिशत आदिवासी अशिक्षित हैं.
- क्या 15 प्रतिशत स्वर्ण जाति के लोग हमारा प्रतिनिधित्व करते है?
- देश के प्राकृतिक संसाधनों जिसमें जमीन प्रमुख है, का दलितों और आदिवासियों में न बॉंटा जाना सबसे बडा भ्रष्टाचार है इस वजह से 80 प्रतिशत से अधिक दलित और आदिवासी परिवार भूमिहीन क्यों हैं?
- क्या इस कथित बिल के पास हो जाने के बाद भ्रष्टाचार पूर्णतया खत्म हो जाएगा, जबकि भ्रष्टाचार की जडें वर्तमान सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और धार्मिक व्यवस्था में बहुत गहरे में पैठीं हों जिसे हम आए दिन अपने इर्द-गिर्द महसूस करते हैं और उसके शिकार होते हैं.
- वर्तमान शिक्षा तंत्र, मीडिया, निजी क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार के बारे में चुप्पी क्यों?
- क्या भ्रष्टाचार खत्म करने के इस तमाम प्रायोजन में कहीं कोई छद्म एजेंडा है?
‘’लोकपाल या जन लोकपाल भारत के दो इंडिया बनाने का षड्यंत्र’’
इन दिनों लोकपाल और जन लोकपाल पर बहस चल रही है. जिस ढंग से जनलोकपाल पर हुए अनशन को मीडिया, कार्पोरेट जगत और कुछ संगठनों का बढ़-चढ़ कर सहयोग दिखाई दिया मानों यह सारा कार्यक्रम उन्हीं के द्वारा प्रायोजित है. इसके समानान्तर दलित संगठनों द्वारा विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से यह प्रयास किया गया कि लोकपाल बिल में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ा वर्ग एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे सामाजिक और आर्थिक शोषण को भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में डालकर लोकपाल का हिस्सा बनाया जाए. दलित संगठनां द्वारा चलाए गए इतने आंदोलनों के बावजूद देश की 85 प्रतिशत जनता के प्रतिनिधियों को लोकपाल बनाने वाली समिति में न रखकर कुछ व्यक्तियों द्वारा चलाए जा रहे अनशन के समक्ष ऐसा लगता है मानो देश की संसद तक ने समर्पण कर दिया हो. हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम लोकपाल विधेयक के बिल्कुल समर्थन में हैं किन्तु उस लोकपाल बनाने वाली समिति में हमारी जनसंख्या के अनुपात में भागीदारी सुनिश्चित की जाए जिससे हमारे अधिकारों की अनदेखी न हो.
सामाजिक न्याय मंच के माध्यम से हम पुरजोर मांग करते हैं कि:
- प्रस्तावित लोकपाल बिल में भ्रष्टाचार की व्यापक परिभाषा- जैसे दलितों के साथ जातिय, सामाजिक, धार्मिक व शैक्षिक आधार पर भेदभाव को भी शामिल किया जाए.
- बाबासाहेब द्वारा बनाए गए संविधान की मूल भावना के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाए.
- मीडिया, कॉरपोरेट जगत, सरकारी अनुदान पर चल रहे स्वयं सेवी संगठनों (एन.जी.ओ.) भारत सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा अनुसचित जाति उपकार्य योजना एवं अनुसूचित जनजाति कार्ययोजना के अंतर्गत दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में बजट न दिए जाने को भी इस बिल में भ्रष्टाचार माना जाए.
- सिर पर मैला ढ़ोने की प्रथा को चलाने वाले लोगों को सामाजिक भ्रष्टाचार मानते हुए इस बिल में शामिल किया जाए.
- न्यायपालिका, भूमि वितरण, पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों एवं अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं को भी प्रस्ताववित लोकपाल बिल के अंतर्गत लाया जाए.

Friday, September 2, 2011

और...बाबा साहब की किताब ने बदल दी जिंदगी

वो तेरह रुपए की किताब बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर की थी. इस किताब ने मुझे एक नई राह दी. मुझे यकीन दिलाया कि जिंदगी में कुछ भी करना नामुमकिन नहीं है. मुझे भरोसा हो गया कि मैं भले ही निम्नवर्ग में पैदा हुआ हूं, मैं डाक्टर बन सकता हूं. वह किताब मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. और आखिरकार एक ऐसा वक्त आया जब मैने अपने सपनों को पा लिया.’ ये शब्द डा. एस.एम श्यामलाल का है. यह उस साहसी इंसान के शब्द हैं, जिसने यह दिखाया कि अपने सपने कैसे पूरे करते हैं.
हरियाणा के सोहना के खेड़ा खलीलपुर गांव में एक किसान पिता के घर जन्में श्यामलाल ने डाक्टर बनने का सपना संजोया था. और अपनी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास के बूते वो ना सिर्फ मशहूर डाक्टर हैं बल्कि हरियाणा के गुड़गांव में सौ बेड वाला Multi Specialty Hospital के मालिक हैं. करोड़पतियों की लिस्ट में उनके नाम की एक धाक है. लेकिन जाहिर है, यह इतना आसान नहीं रहा. जिंदगी के पन्ने को पलटते हुए डॉ श्यामलाल कहते है कि हरियाणा में दलित किसान परिवार में जन्म लेना और सात भाई-बहनों का पालन-पोषण ही मां-बाप के लिए मुश्किल साबित हो रहा था. पिता की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने की वजह से मुझे सरकारी स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. जातिवादी समाज में दलित बच्चों के लिए पढ़ना पहले इतना आसान नहीं था. स्कूल की एक घटना का जिक्र कर बताते हैं कि कैसे सवर्ण मानसिकता वाले शिक्षक पूछते थे कि इतना पढ़कर क्या करोगे? ऐसे मुश्किल हालातों का उन्होंने डटकर सामना किया और गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाई जारी रखी. आखिर एक दिन उनका सपना पूरा हुआ और उनके नाम के आगे डॉक्टर लग गया.
संघर्ष के दिन भी रोज नई परेशानी खड़ी कर रहे थे. कहते हैं ‘मेडिकल की डिग्री लेने के बाद एक क्लीनिक में नौकरी तो मिल गई, ठीक-ठाक कमा भी रहा था. लेकिन काम करने के दौरान ऐसा लगा कि जानबूझ कर नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है.’ इस दरम्यान उन्होंने जब दूसरी जगह नौकरी पाने के लिए प्रमाण-पत्र, एक्सपीरियंस लेटर की मांग की तो टालमटोल का रवैया अपनाया गया. यह उनकी जिंदगी का दूसरा टर्निंग प्वाइंट था. उन्होंने नौकरी दी और खुद का क्लीनिक खोलने का फैसला किया. उस वक्त उन्होंने सोचा कि दूसरे की नौकरी से अच्छा है अपना क्लीनिक खोला जाए. उन्होंने फैसला तो कर लिया, लेकिन जेब में मात्रा 300 रुपए ही थे. वे जिस जगह क्लीनिक खोलना चाहते थे उसका किराया उनकी जमा पूंजी से भी ज्यादा था. क्लीनिक का किराया 500 रुपए था, और वो भी एडवांस में देना था. लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उन्होंने मकान मालिक से किराए को लेकर बात की. किराया एडवांस की बजाए मरीजों के इलाज के दौरान कमाई राशि से महीने के आखिर में देने को राजी कर लिया. इस तरह से उस तीन सौ रुपए की जमा पूंजी के भरोसे क्लीनिक खुल गया.
भविष्य को लेकर थोड़ी आशंका तो थी, लेकिन खुद पर यकीन था. ये भरोसा काम आया और देखते ही देखते डॉ श्यामलाल के क्लीनिक में मरीजों की भीड़ लगने लगी. डॉ श्याम बताते है कि उन्होंने मरीजों के इलाज के दौरान सामाजिक सोच बनाए रखी. उन्होंने दवाई कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने के बजाए मरीजों की सेहत के साथ-साथ उनकी आर्थिक स्थिति का ज्यादा ख्याल रखा. इस मूलमंत्र के सहारे दिन-ब-दिन सफलता की उड़ान भरते रहे. फिर वो समय आ गया, जिसका सपना उन्होंने बचपन में देखा था. डॉ श्यामलाल का कहना है कि 1995-96 में हॉस्पिटल की नींव रखी गई, जिसे 2009-10 में 100 बेड वाले मल्टी स्पेश्यलिटी हॉस्पिटल में बदल दिया गया. उनके अस्पताल में दो दर्जन से ज्यादा प्रशिक्षित डॉक्टर, सौ से ज्यादा कर्मचारी अपनी सेवा दे रहे हैं. हॉस्पिटल की खासियत के बारे में बताते हुए डॉ श्यामलाल कहते हैं कि यहां हर जरूरतमंद और गरीब मरीजों का ख्याल रखा जाता हैं. समाज के एक तबके ने भले ही उनके साथ भेदभाव किया लेकिन उनके लिए मानव हित सबसे पहले हैं. यही वजह है कि दिल्ली से सटे गुड़गांव में गरीब लोगों के लिए इन्होंने अलग से जनरल वार्ड बना रखा है. यहां सिर्फ 500 रुपये देकर गरीब व्यक्ति अपना इलाज करा सकता है.
डा. श्यामलाल की सफलता में एक वक्त ट्विस्ट भी आया. तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी मेहनत और ईमानदारी से भले ही उन्होंने हास्पिटल को खड़ा किया, कई लोगों से उनकी सफलता हजम नहीं हुई. सफल होने के बाद भी जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. वो बताते है कि कुछ सवर्ण मानसिकता के लोगों ने उनके हॉस्पिटल के विस्तार के बारे में बड़े-बड़े वायदे और दावे किए, लेकिन उन्हें जब पता कि वो जिनके यहां काम कर रहे हैं वो दलित हैं तो उन्होंने नौकरी छोड़ दी. वो दुःख के साथ बताते हैं कि उनलोगों में कुछ दलित भी शामिल रहे. लेकिन इसकी परवाह किए बगैर उनका कहना है कि ये अभी तो मंजिल का पड़ाव भर है.

साभारः शिल्पकार टाइम्स

मेरिट का रिजर्वेशन से कोई मतलब नहीं- प्रो. मालाकार

पिछले दिनों आई प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ ने देश भर में रिजर्वेशन और मेरिट को लेकर एक बहस छेड़ दी थी. ये संयोग है या सोची समझी रणनीति की मंडल कमीशन के 21 साल गुजरने के बाद फिल्म को रिलीज करने का फैसला किया गया. फिल्म की रिलिज होने से पहले से लेकर बात तक इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष के बीच चैनलों से लेकर अखबारों तक में खूब बहस हुई. सभी पक्षों ने अपनी राय दी. लेकिन जेएनयू में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के चेयरमैन एस एन मालाकार का मानना है कि मेरिट का रिजर्वेशन से कोई मतलब नहीं है. जब मेरिट का अवसर ही नहीं मिला तो मेरिट के साथ इसकी तुलना ही क्यों की जाती है?
देश में मेरिट और डीमेरिट को लेकर न्यायालय ने साफ तौर पर कहा है कि रिजर्वेशन का मेरिट से कोई लेना-देना नहीं है. इतिहास में निचले तबके को मेरिट से वंचित रखा गया इसलिए रिजर्वेशन दिया गया. रिजर्वेशन मेरिट के सवाल पर नहीं दिया जाता है. वंचित समाज के लोगों में मेरिट नहीं था यही डिमेरिट था, जिसकी वजह से रिजर्वेशन दिया गया है. इस बारे में दिल्ली हाईकोर्ट पहले ही फैसला सुना चुकी हैं. मनु स्मृति में लिखा हुआ है कि शुद्र और स्त्रियों को धन और शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है. शिक्षा हासिल करने वाले के कान में शीशा पिघला कर डाल दिया जाएगा. इसका मतलब ये हुआ कि पूर्व में सवर्ण तबके ने शोषित समाज के लोगों को धन और शिक्षा से वंचित कर दिया. ऐसी स्थिति में मेरिट का सवाल कहा से उठता है? जब आपने निचले तबके को पढ़ने ही नहीं दिया तो इस सवाल का कोई औचित्य नहीं है. इसलिए संविधान सभा में जब बहस हुई तो साफ कहा गया कि मेरिट का रिजर्वेशन से कोई मतलब नहीं है. जब मेरिट का अवसर ही नहीं मिला तो मेरिट के साथ इसकी तुलना ही क्यों की जाती है.
मेरिट क्या होता है? अगर इसे सही तरीके से परिभाषित करें तो मेरिट को लेकर हंगामा मचाने वालों को बात समझ में आ जाएगी. मेरिट उसे कहते है जो अपने श्रम के द्वारा कोई व्यक्ति नई चीज उत्पादित करता है. जो सोसाइटी के लिए भी उपयोगी हो. मेरिट का मतलब ये नहीं है कि हमने किताब को पढ़ लिया.
उदाहरण के तौर पर स्कूल से दो बच्चे को चुनते हैं. उनमें से एक बच्चा आदिवासी इलाके का है जबकि दूसरा एलिट घराने का. अब इन दोनों से दाल के अलग-अलग किस्म पहचानने को कहें तो आदिवासी बच्चा सभी दालों की पहचान बता देगा, लेकिन एलिट घराने का बच्चा दालों की पहचान नहीं बता पाएगा. इन हालातों में मेरिट क्या है, यह किसके पास है? जो प्रकृति के साथ, श्रम के साथ उत्पादन की प्रक्रिया में जीता है वो मेरिट के दायरे में है. मेरिट का मतलब सिर्फ किताबी ज्ञान होना ही नहीं है. मेरिट का मतलब ये है कि जो प्रकृति को जाने और जानने की इच्छा रखें. सोसाइटी को बचाए रखने के लिए जिसके पास सृजनात्मक क्षमता हो, वो मेरिट कहलाता है. हमारे ही पैदा किए अन्न पर ब्रह्मणवाद और एलिट वर्ग भोजन करते हैं और एक बार भी मेहनत करने के लिए खेत में नही जाते हैं. ये हमारी मेरिट है कि हम आपको भोजन देने में सक्षम है. मेरिट ये नहीं है कि हम आपके मुंह में श्लोक दे रहे हैं.
एलिट वर्ग, जो अंग्रेजी बोलता और उस भाषा में पढाई करता है तो उसके पास मेरिट है. और जो गांव में रहकर हिंदी में पढाई करता है उसके पास मेरिट नहीं है. ये सोच सही नहीं है. मेरिट का मतलब अंग्रेजी में पढाई करना भर ही नहीं है. दरअसल ब्रह्मणवाद और पूंजीवाद भी मेरिट के इसी लकीर को पकड़कर रखना चाहते हैं. ब्रह्मणवाद और पूंजीवाद भी यही चाहता है कि वंचित लोगों को अंग्रेजी जुबान में नौकरी देंगे, लेकिन इस जुबान में पढने भी नहीं देंगे. इसका सीधा मतलब ये है कि खास जुबा़न में खास पूंजीपति वर्ग पढे़गा और उन्हीं खास लोगों के लिए नौकरी का भी इंतजाम करेगा. आज के समय में रोजगार देने का सवाल कौन तय करता है? ये इस देश की सरकार, सरकार में बैठे लोगों का चरित्रा तय करता है. मेरिट का मतलब अंग्रेजी और किताबी ज्ञान ही होता तो रूस, जापान और चीन जैसे देशों का विकास नहीं होता. इन देशों में अंग्रेजी नहीं होने के बावजूद इनका विकास हमसे बेहतर हुआ है. ये सच्चाई छुपने वाली नहीं है.
एक खास वर्ग चाहता है कि सच के आग को राख से ढक कर रखा जाए तो ये संभव नहीं है. देश में होने वाला प्राइवेटाइजेशन, डिमेरिटाइजेशन है. प्राइवेटाइजेशन का मतलब-मेरिट को डिमेरिट में बदलना है. इस बार दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों ने दाखिले के लिए 100 प्रतिशत कट ऑफ लिस्ट जारी किया. आखिर इस कट ऑफ लिस्ट का क्या मतलब है? ये एक साजिश है ग्रामीण पृष्ठ के बच्चों को अच्छे कॉलेजों से वंचित रखने की. आज 100 फीसदी रिजल्ट निकालने के लिए ज्यादातर सीबीएसई का स्कूल पहले ही प्रश्न की जानकारी दे देता है, यहां तक की उत्तर भी ब्लैक बोर्ड पर लिख दिया जाता है, ताकि रिजल्ट 100 प्रतिशत हो. प्राइवेट स्कूल प्रतिशत बनाए रखने के लिए चोरी तक कराने से नहीं चूक रहे. वहीं गांव का कोई बच्चा दिन-रात मेहनत करता है और 60 प्रतिशत नंबर लाता है तो उसे मेरिट नहीं है. ये कैसी व्यवस्था है. दरअसल 100 प्रतिशत कट ऑफ लिस्ट वाले बच्चे की मेरिट कम नहीं है बल्कि उस स्कूल का मेरिट कम है जो शिक्षा का व्यवसायिकरण बनाए रखने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है. असल में पूंजीवाद और बाजारवाद की दुनिया में मेरिट की अपनी परिभाषा गढी जा रही है.
जो छात्रा-छात्राएं मेरिट और 100 फीसदी कट ऑफ लिस्ट के नाम पर दिल्ली के नामी-गिरामी कॉलेजों में दाखिला लेते हैं, उन छात्रा-छात्राओं की मेरिट स्नातक करते-करते हवा हो जाती है. यानि उनका प्रतिशत घटकर 60 फीसदी के आस-पास आ जाता है. आखिर 100 फीसदी वाला मेरिट कहां छूमंतर हो जाता है? ये साबित करता है कि निजीकरण कैसे अशिक्षाकरण को बढ़ावा दे रहा है. नॉलेज कमिशन को सरकार कितना भी बना लें, उससे कुछ नहीं होने वाला है. देश में ज्यादातर कोचिंग संस्थान प्रश्न पत्र लीक करने के जुगाड़ में होते है ताकि मेरिट के नाम पर कमाई की जा सके. यही वजह है कि समय-समय पर पर्चे लीक होने की जानकारी मिलती रहती है. ऐसे में गरीब के बच्चे/ओबीसी/एससी/एसटी के बच्चे महंगे कोचिंग क्लासेस में कहां से पढाई करेंगे. सामाजिक न्याय को पूंजीवाद और ब्रह्मणवाद ने काफी हानि पहुंचाया है. जागरुक लोगों को ये बात सोचना काफी जरुरी है. ऐसा नहीं है कि सरकार इन सभी बातों से अंजान है. लेकिन सरकार किसी खास वर्ग की होती है. ऐसे में मेरिट और रिजर्वेशन को लेकर जो लोग भी तर्क-वितर्क करते हें वो बेमानी है.

(शिल्पकार टाइम्स के सिनियर असिस्टेंट एडिटर पंकज कुमार द्वारा की गई बातचीत पर आधारित. साभारःशिल्पकार टाइम्स)