Tuesday, May 17, 2011

जीवन जीने की कला सिखाता है बौद्ध धर्म- आनंद श्रीकृष्ण

धम्म की दीक्षा लेने के बाद सांसारिक जीवन में रहते हुए भगवान बुद्ध के आदर्शों, उनके विचारों को किस तरह जीया जाता हैं, आनंद श्रीकृष्ण इसके उदाहरण हैं. धम्म और भगवान बुद्ध के बारे में वो आपसे घंटों चर्चा कर सकते हैं. बिना थके, बिना रुके. बुद्ध की बातें करते-करते वो खो से जाते हैं. लगता है जैसे बुद्ध के साथ खुद को एकाकार कर रहे हों. यह शायद धम्म दीक्षा का ही परिणाम है कि देश के शीर्ष सेवा ‘राजस्व सेवा’ का अधिकारी होने के बावजूद अहंकार उनको छू तक नहीं गया और वह हर किसी के लिए सहज-सरल उपलब्ध हैं. नौकरी करने के बाद उनके जीवन का हर पल बुद्ध को समर्पित है. पावन पर्व बुद्ध पूर्णिमा के एक दिन पहले बौद्ध धर्म के उद्भव, उसको नष्ट करने की कोशिश, धर्म को लेकर फैलाई गई तमाम भ्रांतियां और दलित संतों को ब्राह्मण साबित करने की साजिश सहित कई पहलुओं के बारे में दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक ने बौद्ध चिंतक आनंद श्रीकृष्ण से विस्तार से चर्चा की. पेश है बातचीत के अंश..

आप कहां के रहने वाले, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई?
यूपी में एक जिला है सीतापुर, वहीं का रहने वाला हूं. प्राइमरी शिक्षा यहीं सरकारी स्कूल में हुई. एमसएसी एग्रीकल्चर कालेज कानपुर से किया. फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया और अभी इंडियन लॉ स्कूल, दिल्ली से एलएलएम कर रहा हूं. अभी भी स्टूडेंट हूं.

राजस्व सेवा में आने के इतने सालों के बाद भी पढ़ाई जारी रखने का जज्बा कैसे बना रहा?
ये बाबा साहब की प्रेरणा है. बाबा साहब कहा करते थे कि हमें अंतिम सांस तक विद्यार्थी बने रहना चाहिए. सीखने की लालसा कम नहीं होनी चाहिए. नौकरी करना तो जीवन यापनकरने का साधन है, लेकिन ज्ञान अर्जित करना तो आदमी के स्वभाव में है. शौक है, पढ़ाई में मन लगा रहता है.

भारतीय राजस्व में कब आएं, कहां-कहां रहें?
राजस्व सेवा में आने के पहले दो साल तक बैक में प्रोबेसनरी अधिकारी था. 84-86 तक. उसके बाद राजस्व सेवा में आया, नागपुर, बड़ोदा, अहमदाबाद, मुंबई आदि शहरों में रहा. दिल्ली में रेलवे मंत्रालय में डिप्टेशन पर रहा और अब वापस राजस्व सेवा में हूं.

‘धम्म‘’ कब अपनाया, उसको अपनाने की वजह क्या रही?
मेरे ऊपर बाबा साहब का बहुत असर रह और अभी भी है. मैं उनको अपना मोटिवेटर भी मानता हूं. आईकॉन तो वो पूरे समाज हैं. जब मैं बाबा साहब की जीवनी पढ़ रहा था तो उसमें जिक्र आता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को क्यों अंगीकार किया. तो इसमे यह आया कि बौद्ध धर्म पूर्णतः एक वैज्ञानिक धर्म है. इसमें कहीं भी अंधविश्वास की जगह नहीं है. भगवान बुद्ध ने वही सिखाया जो उन्होंने खुद अपने अनुभवों की कसौटी पर कसा. वही किया जो कहा, और वही कहा जो किया. भगवान बुद्ध को ‘ यथाकारी तथावादी- यथावादी तथाकारी’ कहा जाता है. तो जब मैंने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में पढ़ना शुरू किया. तो सब विचार करने के बाद में बाबा साहब का जो तर्क पढ़ा कि बौद्ध धर्म पूर्णतः भारतीय है. यहीं पैदा हुआ, यहीं फला-फूला. यहीं से दुनिया में फैला. आज जब दुनिया भारत की ओर आदर से देखती है वो बौद्ध धर्म के कारण है. आज आधी दुनिया जो भारत को अपना गुरु मानती है, वह बौद्ध धर्म के कारण है. चाहे वो चीन हो, जापान हो, चाहे वियतनाम हो, कोरिया हो, भूटान हो, वहां के लोग भारत की ओर आदर की दृष्टि से देखते हैं तो भगवान बुद्ध के कारण. फिर मैंने तमाम धर्मों का अध्ययन भी किया तो मैने पाया कि बौद्ध धर्म है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है. जो भी आदमी जीवन में सुख और शांति चाहता है उसे शील, समाधि और प्रज्ञा के मार्ग पर चलना पड़ेगा. ये सब सोच कर मैं बौद्ध धर्म की ओर झुका और वैसे यह कह लिजिए कि परिवार का भी एक प्रभाव था.
हालांकि मेरे मां-बाप खुद को बौद्ध नहीं कहते थे लेकिन उनके जीवन-यापन का जो तरीका था वो बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के जैसा ही था. तो मुझे लगता है कि हमारे पूर्वज भी बौद्ध ही रहे होंगे. भगवान बुद्ध की शिक्षाएं जीवन जीने की कला सिखाती है और सच पूछा जाए तो भगवान बुद्ध ने कोई संप्रदाय तो खड़ा नहीं किया था. क्योंकि उनकी शिक्षाएं सबके लिए थी. इसलिए ही भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को सार्वजनीन कहा जाता है, सार्वजनिक कहा जाता है (सबके लिए) और सार्वकालिक कहा जाता है क्योंकि यह जितना भगवान बुद्ध के समय प्रासंगिक थी, उतनी ही आज है. उतना ही आगे भी रहेंगी. तो इन सब चीजों ने मुझे बहुत प्रभावित किया. इसको देखकर मुझे लगा कि यही वह मार्ग है, जिसपर चलकर जीवन को सुखमय और शांति से जिया जा सकता है.

बौद्ध धर्म के ऊपर आपकी चार किताबें आ चुकी हैं, इनको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
प्रेरणा तो यह रही कि सबसे पहले 1997 में मैं बिपस्सना के एक शिविर में गया, नागपुर में. उसमें अनुभव के स्तर पर बौद्ध धर्म को जानने का मौका मिला. मुझे यह इतना अच्छा लगा कि बाद में भी छुट्टी लेकर मैं चार बार इस शिविर में गया. फिर मेरे पूरे परिवार ने इसमें हिस्सा लिया और इससे पूरा परिवार धर्म के रास्ते पर आया. बिपस्सना से लौटने के बाद मैने उसके अनुभवों को ‘बिपस्ना फॉर हैप्पी लाइफ’ शीर्षक से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा. इसे काफी सराहा गया. तमाम प्रतिक्रियाएं आईं. लोगों ने कहा आपको लिखना चाहिए. उसी वक्त जब मैं लोगों से मिलता था तो मैं महसूस करता था कि लोगों को भगवान बुद्ध के बारे में आस्था तो बहुत है लेकिन जो चीजें जीवन में उतारनी चाहिए उसके बारे में पता नहीं है. साथ ही कोई ऐसी किताब नहीं थी जो उनको सारी बातों को एक जगह मुहैया करा सके.
एक आम आदमी, जो अपने जीवन-यापन मे व्यस्त है और उसके पास इतना वक्त नहीं है कि वह ‘त्रिपिटिक’ पढ़ सके या फिर धर्म की गहराईयों में गोता लगा सके, उसे क्या दिया जाए कि वह अपने रोजमर्रा के काम को करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सके. मुझे कम शब्दों में और जनभाषा में एक पुस्तक का अभाव दिखा. यह सोचते हुए मैने एक संक्षिप्त रुप में भगवान बुद्ध के संक्षिप्त जीवन, उनकी दिनचर्या, आम बौद्ध उपासक के बारे में कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए. वह कैसे अपना जीवन जिए और त्यौहार आदि को कैसे मनाएं तो इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए यह किताब लिखी. ‘भगवान बुद्धः धम्म सार व धम्म चर्या’ नाम से यह किताब 2002 में आई थी. यह इतनी चर्चित हुई कि फिर इसका अनुवाद गुजराती, तेलुगू, तमिल और मराठी में हुआ. अभी कुछ दोस्तों ने इसका पंजाबी अनुवाद किया है. यह छपने जा रहा है. उड़िया भाषा में अनुवाद हो रहा है. श्रीलंका से प्रस्ताव आया है कि वह अपने यहां भी इसका अनुवाद करना चाहते हैं. इसी के अंग्रेजी संस्करण की मांग नेपाल, जापान आदि कई जगहों पर है.
किताब लिखने के दौरान आप कहां-कहां गए. लेखन का यह क्रम कितने दिनों तक चला?
मैं ज्यादातर जगहों पर गया. बोधगया गया, श्रावस्ती गया, सारनाथ, कुशीनगर, अजंता-एलोरा, अमरावती आदि कई जगहों पर गया. लुम्बिनी नहीं जा पाया जहां भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है. तो एक दोस्त को भेजा, जो फोटो लेकर आएं. जापान भी गया हूं. यूरोप, अमेरिका कई जगहों पर गया और जानकारियां लेता रहा. इस दौरान तमाम लोगों से मिलता रहा. खासकर बौद्ध भिक्खुओं से मिलना और उनसे परामर्श करना चलता रहा. मेरी प्राथमिकता कम शब्दों में और जनभाषा में अधिक से अधिक जानकारी देने की थी ताकि लोग इसे जीवन में उतार सके. इसमें तकरीबन ढ़ाई साल लगे.

इस्लाम और ईसाई धर्म ने बौद्ध धर्म को कितना नुकसान पहुंचाया. क्योंकि गुप्तकाल के दौरान बौद्ध धर्म यूनान, अफगानिस्तान और कई अरब देशों में फैल गया था लेकिन अब वो वहां नहीं है.?

ऐसा है कि ईसाई धर्म और इस्लाम तो बाद में आएं. सबसे बड़ा जो नुकसान हुआ वह तब हुआ. जब पुष्यमित्र सुंग ने सम्राट ब्रहद्रथ, (सम्राट अशोक के पोते) जो अंतिम बुद्धिस्ट राजाथे कि हत्या कर दी. इसके पीछे कहानी यह है कि पुष्यमित्र सुंग, सुंग वंश का था. वह भारतीय तो था नहीं. वह एक अच्छा सैनिक था. बौद्ध धर्म के दुश्मनों ने उसको इस बात के लिए तैयार किया कि अगर वो ब्रहद्रथ कि हत्या कर दे तो वह लोग उसे राजा बना देंगे. एक षड्यंत्र के तहत उसे सेनापति के पद तक पहुंचाया गया और एक दिन ब्रहद्रथ जब सलामी ले रहे थे तो उसने उनकी हत्या कर दी. वह राजा बन गया. फिर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए उसने अश्वमेध यज्ञ किया. हालांकि इसमे ज्यादा लोग शरीक नहीं हुए. तब इनलोगों ने बौद्ध धर्म के आचार्यों और विद्वानों की चुन-चुन कर हत्या कर दी. अब जब बौद्ध धर्म को सिखाने वाले नहीं रहे तो यह कालांतर में फैलता कैसे? हालांकि कुछ लोग जान बचाकर भागने मेंकामयाब रहे और वो तिब्बत, जापान और चीन आदि जगहों पर चले गए. एक और चाल चली गई. जन मानस में भगवान बुद्ध इतना व्याप्त थे कि अगर उनके खिलाफ कुछ भी कहा जाता तो लोग विद्रोह कर देते. इससे निपटने के लिए एक चाल के तहत भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया. साथ ही उनके बारे में झूठा प्रचार किया गया कि वो लोगों को सही शिक्षा नहीं देते थे. यहां तक कहा गया कि कोई बौद्ध विद्वान रास्ते में दिख जाए तो सामने से हट जाना चाहिए. कभी भी बौद्ध विद्वान को अपने घर में नहीं बुलाना चाहिए. तो इस तरह की कई कहानियां गढ़ी गईं, भ्रांतियां फैलाई गई. जबकि वास्तव में बुद्ध बहुत व्याप्त थे. हर आदमी में बुद्ध के गुण मौजूद हैं और कोई भी बुद्ध बन सकता है.
यहां एक और विरोधाभाष दिखता है कि भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार तो घोषित कर दिया गया लेकिन आप देख लिजिए कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर अरुणाचल तक किसी भी मंदिर में बुद्ध की मूर्ति नहीं लगाई गई. अगर ईमानदारी से भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया होता तो हर मंदिर में उनकी मूर्ति होती. तो वास्तव मे यह बौद्ध धर्म को अपने में सोखने की चाल थी. दूसरा, ऐसे शास्त्रों की रचना की गई जो बुद्ध के विरोध में थे. इसमे यह लिखा गया कि मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक गुरु कृपा और भगवान की कृपा ना हो. इससे लोगों में यह बात फैलने लगी कि हमारा मोक्ष तब तक नहीं होगा जब तक कि कोई तथास्तु न कह दे. उनको यह सरल मार्ग लगा जिसमें उन्हें खुद कुछ नहीं करना होता था. जैसे बुद्ध कहते थे कि व्याभिचार, नशा, हिंसा आदि न करो, झूठ न बोलों. लेकिन नए ग्रंथों में लिखा गया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. अगर भगवान कृपा कर देगा तो सब माफ हो जाएगा. ऐसी कहांनिया और ऐसी कविताएं लिखी गई कि जिसमें कहा गया कि किसी ने सारी जिंदगी पाप किया और भगवान की कृपा से वह तर गया. तो लोगों को यह लगने लगा कि यह सरल मार्ग है. दिन भर चाहे जो भी करो, शाम को भगवान का नाम ले लो तो सब माफ है. ऐसे में वो क्यों शील, समाधि और प्रज्ञा का मार्ग अपनाएं, जो लंबा भी है और जरा कठिन भी.

आपने कहा कि हर आदमी में ‘बुद्ध’ के अंकुर मौजूद हैं, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बुद्ध धर्म से ज्यादा एक थ्योरी है?

थ्योरी भी है और प्रैक्टिकल भी है. आप यह कह सकते हैं कि बुद्ध की जो शिक्षाएं हैं वो जीवन जीने की कला सिखाती है. वह कहते हैं कि एक सीधा सा रास्ता है. इस रास्ते पर जो भी चलेगा वह वहां पहुंचेगा, जहां मैं पहुंचा हूं. इसको ऐसे देखिए कि भगवान बुद्ध के पास उनके दर्शन करने हर रोज एक व्यक्ति आता था. भगवान बुद्ध ने उससे पूछा कि तुम रोज क्यों आते हो. व्यक्ति ने कहा कि भगवान आपके दर्शन करने से मुझे लाभ मिलता है. तो भगवान बुद्ध ने उससे कहा कि मेरे दर्शन करने से तुम्हे कोई लाभ नहीं होगा. तुम धम्म के रास्ते पर चलो क्योंकि जो धम्म को देखता है वह बुद्ध को देखता है. भगवान बुद्ध के जीवन की एक और घटना है. वह श्रावस्ती में रुके हुए थे. एक नवयुवक रोज वहां आता था. एक दिन वह जल्दी आ गया. उसने उनसे अकेले में बात करनी चाही. भगवान बुद्ध ने पूछा कि बोलो बेटा. उसने कहा कि भगवन मुझे कुछ शंकाएं हैं. मैं देखता हूं कि यहां जो लोग रोज आपका प्रवचन सुनने आते हैं वह तीन तरह के लोग हैं. एक तो आपके जैसे हैं जो पूर्ण तरीके से मुक्त हो गए हैं और उनके अंदर कोई विकार नहीं है. वो बुद्धत्व तक पहुंच गए हैं. दूसरे वो लोग हैं जो बुद्धत्व तक तो नहीं पहुंचे हैं लेकिन उनमें काफी गुण आ गए हैं. उनके अंदर का अध्यात्म झलकता है. लेकिन काफी लोग ऐसे भी हैं, जिनमें से मैं भी एक हूं, जो आपकी बातें तो सुनते हैं लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है. फिर उसने कहा कि भगवन आप तो महाकारुणिक हैं, तथागत हैं, आप सब पर एक साथ कृपा करके ‘तथास्तु’ कह कर सबको एक साथ क्यों नहीं तार देते हैं. भगवान बुद्ध मुस्कुराएं. उनकी एक अनूठी शैली थी कि प्रश्न पूछने वाली मनःस्थिति जानकर जवाब देने के पहले प्रतिप्रश्न करते थे. उन्होंने युवक से पूछा कि तुम कहां के रहने वाले हो. उसने उत्तर दिया कि श्रावस्ती का. बुद्ध ने कहा कि लेकिन तुम्हारी बातें और नैन-नक्श से तो तुम कहीं और के रहने वाले लगते हो. युवक ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं. वाकई में मैं मगध का रहने वाला हूं और यहां व्यापार करने के लिए बस गया हूं. भगवान बुद्ध- फिर तो श्रावस्ती से मगध जाने वाले तमाम लोग तुमसे रास्ता पूछा करते होंगे. तुम उन्हें बताते हो या नहीं बताते. युवक- बताता हूं भगवन. भगवान बुद्ध- तो क्या सभी मगध पहुंच जाते हैं? युवक ने कहा, भगवन मैने तो सिर्फ रास्ता बताया है. लेकिन जब तक वो जाएंगे नहीं, तब तक पहुंचेंगे कैसे. फिर भगवान बुद्ध ने कहा कि मैं तथागत हूं, इस बुद्धत्व के रास्ते पर चला हूं इसलिए जो लोग मेरे पास आते हैं मैं केवल उन्हें रास्ता बता सकता हूं कि यह बुद्धत्व तक पहुंचने का रास्ता है. इस पर चलोगे तो बुद्धत्व तक पहुंचेगें. तो ऐसे ही जो लोग इस रास्ते पर चले ही न, वह कैसे पहुंचेगा. तो आपने जो थ्योरी की बात करी तो वह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक आप थ्योरी जानेंगे नहीं, उसपर चलेंगे कैसे. जैसे भगवान बुद्ध ने कहा कि हिंसा मत करो. तो जब आप अपने भीतर उतरेंगे तो देख पाएंगे कि हिंसा तब तक नहीं हो सकती है जब तक आपका क्रोध नहीं जागे. ऐसे ही आप तब तक चोरी नहीं कर सकते जब तक आपके अंदर लालच न आएं.

भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध भिक्खुओं में मतभेद के कारण दो टुकड़े हो गए. क्या इससे भी धम्म के प्रचार-प्रसार पर कोई फर्क पड़ा क्या?

प्रचार-प्रसार में थोड़ा फर्क यह पड़ा कि भगवान बुद्ध यह कहते थे कि हर आदमी अपना स्वयं मालिक है और उसे स्वयं से ही निर्वाण प्राप्त करना होता हैं. जो लोग भगवान बुद्ध की असली शिक्षा को मानने वाले थे, उनको ‘थेरवादी’ कहा गया, इनको ‘हिनयानी’ भी कहते हैं लेकिन कुछ लोगों का मानना था कि ध्यान के साथ में पूजा-अर्चना भी जरूरी है तो जिन लोगों ने भगवान की मूर्ति लगाकर पूजा-अर्चना करना शुरू कर दिया उन्हें ‘महायान’ कहा गया. तिब्बत और चीन में महायान फैला. लेकिन मैं इसे क्षति इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि बाद में इसमें ‘तंत्रयान’ भी जुड़ गया, इसमें तंत्र-मंत्र जुड़ गए. लेकिन इस तीनों में जो फर्क है वह ऊपरी है. क्योंकि तीनो बुद्ध को अपना गुरु मानते हैं. तीनों शील,समाधि और प्रज्ञा को मानते हैं. तीनों चार आर्य सत्यों को मानते हैं. तीनों आर्य आसांगिक मार्ग को मानते हैं.

धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों में क्या ईसाई और बौद्ध धर्म को लेकर कोई ऊहा-पोह की स्थिति रहती है?
जो पढ़े लिखे हैं, उनमें कोई ऊहापोह नहीं है. क्योंकि बाबा साहेब ने ईसाई धर्म का अध्ययन किया. इस्लाम का अध्ययन किया, सिक्ख धर्म का भी अध्ययन किया. उन्होंने 1936 में घोषणा कर दी थी कि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ तो यह मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन मैं हिंदू धर्म में मरुंगा नहीं यह मेरे बस की बात है. मगर धर्म परिवर्तन किया 1956 में. तो 20 साल तक उन्होंने धर्मों के बारे में बहुत गहन अध्ययन किया और बाबा साहेब इस नतीजे पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म भारत में ही जन्मा, भारत में ही पनपा और यहीं फैला तो अगर हम ईसाई बनेंगे तो हमारे सर येरुशलम की ओर झुकेंगे. अगर हम इस्लाम कबूल हैं तो हमारे सर मक्का-मदिना की ओर झुकेंगे जबकि अगर हम बौद्ध धर्म में जाएंगे तो वह पूरी तरीके से भारतीय है और भारतीय संस्कृति में ही पैदा हुआ है और जो हमारे पूर्वज हैं वो बौद्ध थे. एक समय सम्राट अशोक के शासनकाल में तो पूरा भारत ही बौद्ध था. तो बाबा साहेब यह मानते थे कि बौद्ध धर्म अपनाने का मतलब है कि हम अपने पुराने धर्म में ही वापस जा रहे हैं, किसी नए धर्म में नहीं जा रहे हैं. तो जो भी डा. अंबेडकर के अनुयायी हैं उनकी पहली पसंद बौद्ध धर्म ही होगी.

लेकिन जैसा आपने कहा कि सम्राट अशोक के समय में पूरा भारत बौद्ध था (आनंद जी मुझे टोकते हैं, पूरा तो नहीं लेकिन ज्यादातर हिस्सा) लेकिन सवाल उठता है कि फिर बौद्ध धर्म अचानक इतना सिमट क्यों गया और हिंदुज्म इतना हावी कैसे हो गया. इसको कैसे साबित करेंगे. क्योंकि यह सवाल तमाम जगहों पर उठते हैं?
ये सवाल उठते तो हैं लेकिन आप देखिए कि ब्रहद्रथ के वक्त में कत्लेआम हुआ. बौद्ध भिक्खुओं को चुन-चुन कर मारा गया. फिर बाद में कई ऐसे ग्रंथ लिखे गए जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा गया. कई ऐसे गंथ्रों की रचना की गई जो सीधे बौद्ध धर्म के खिलाफ जाते थे. ऐसे में जब बौद्ध धर्म के प्रचारक नहीं रहे तो कालांतर में भौतिक स्तर पर वह धीरे-धीरे कम हुआ लेकिन बौद्ध धर्म की जो स्पिरिट थी, वह कभी भी भारत से लुप्त नहीं हुई. तो बुद्ध के जो तत्व थे, वैदिक धर्म ने उसे कई रूपों में अपने अंदर सोख लिया. जैसे यज्ञों के दौरान हिंसा बंद हो गई. दूसरा कारण यह रहा कि जो बौद्ध धर्म के प्रचारक होते थे वो एक विशेष पोशाक में रहते थे. जब मुस्लिम शासकों के हमले हुए तो उन्हें गुमराह किया गया कि बौद्ध प्रचारक सेना के लोग हैं. अलाउद्दीन खिलजी और बख्तियार खिलजी के वक्त में उनको चुन-चुन कर मारा गया. नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगा दी गई. बौद्ध मानकों को लेकर भ्रांतिया फैलाई गई जैसे कहा गया कि पीपल के पेड़ के पास भी मत जाओ क्योंकि उस पर राक्षस रहता है. जबकि सत्य यह है कि यह बोद्धिवृक्ष है. उसका मान इ
सलिए है कि क्योंकि बुद्ध ने उसके नीचे ज्ञान पाया था.

बौद्ध धर्म दलितों के धर्म के रूप में प्रचलित होता जा रहा है, यह स्थिति कितनी विचित्र है?
यह स्थिति सही नहीं है. मैं तो कहूंगा कि जो भगवान बुद्ध के विरोधी हैं वो ऐसी कहानियां गढ़ रहे हैं. क्योंकि देखिए भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में जाकर जिन पांच लोगों को दीक्षा दी उनमें कोई दलित नहीं था. पांच में से तीन ब्राह्मण थे. उसके बाद भगवान बुद्ध ने यश और उसके जिन 54 साथियों को दीक्षा दिया वह सभी व्यपारी थें. उरुवेला काश्यप और उसके 500 शिष्य, गया काश्यप और उसके 300 शिष्य औऱ नदी काश्यप और उसके 200 शिष्य और फिर ऐसे ही अनेक शिष्यों को दीक्षा दिया वो सब वैदिक धर्म को मानने वाले थे. राजा बिंबसार क्षत्रिय था. उसके बाद शाक्यों को दिया था. सम्राट अशोक जिसने बौद्ध धर्म को अपने समय में राजधर्म बनाया और श्रीलंका सहित कई देशों में फैलाया वह भी क्षत्रिय थे. अभी की बात करें तो महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, जिन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में इतना कुछ लिखा और खुद भिक्षु बने, वो ब्राह्मण थे. डीडी कौशांबी ब्राह्मण थे. अभी बिपस्सना के माध्यम से भगवान बुद्ध की शिक्षाएं पूरी दुनिया में फैला रहे हैं परमपूज्य सत्यनारायण गोयनका जी, वो दलित तो नहीं है. फिर जी टीवी के जो मालिक हैं सुभाष चंद्रा वो भी बिपस्सना साधक हैं. वो दलित नहीं हैं. बाबा साहेब ने 1956 में इसे जिस तरह फैलाया या यह कह सकते हैं कि इसे पुनर्जीवन दिया और इसमे जान डाली. तो इसको आधार बनाकर कुछ वेस्टेड इंट्रेस्ट वाले कह रहे हैं कि यह दलितों का धर्म है लेकिन भगवान बुद्ध कि शिक्षा सार्वजनिन है, सार्वकालिक है, सबके लिए है. आप कभी बिपस्सना शिविर में जाकर देखिए उसमें अमेरिका, जापान सहित कई देशों के लोग आते हैं. उसमें क्रिश्चियन पादरी और मौलवी भी आते हैं, ब्राह्मण भी आते हैं. तो यह जो कहानियां फैलाई जाती है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है वह झूठी कहानियां हैं. यह जरूर है कि बाबा साहेब अंबेडकर का और ओशो का जो कंक्लूजन (conclusion) है वह यह है कि आज के जो भी दलित हैं वो पूर्व के बौद्ध हैं और इसलिए उन्हें बौद्ध धर्म में वापस जाना चाहिए. जापान में तो दलित नहीं है. श्रीलंका में थाईलैंड और वर्मा तीनों में जहां बौद्ध धर्म राजधर्म है, वहां भी दलित नहीं है. आज अमेरिका और यूरोप में जहां बौद्ध धर्म बहुत तेजी से फैलने वाला धर्म है, वहां तो दलित नहीं है तो यह सब गलत प्रचार है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है.

वर्तमान में भारत में बौद्ध धर्म के सामने किस तरह की चुनौतियां है?
बौद्ध धर्म की जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह है भिक्खुओं की कमीं, उनका ना होना. दूसरी यह है कि कोई धर्म तभी फैलता है, जब उसके प्रचारक हों. आज बौद्ध धर्म के पास प्रचारकों की कमी है. गृहस्थों मे ऐसे प्रचारक बहुत कम हैं जिनको पूरी तरह संस्कार आते हों. बौद्धाचार्य भी संख्या में कम है. क्योंकि आम आदमी को जीवन में जन्मदिन, शादी-ब्याह जैसे कई संस्कार करने होते हैं तो संस्कार करवाने वाले लोग हमारे पास नहीं है. यह सबसे बड़ी चुनौती है कि हम कैसे बौद्धाचार्य या फिर ऐसे लोग तैयार करें जो विनय, शील और संपदा में कायदे से दीक्षित हों और उनको सारे संस्कार आते हों. दूसरी चुनौती यह है कि लोग बौद्ध धर्म में आ तो गए हैं लेकिन पुराने रीति-रिवाज को छोड़ नहीं पाएं है. इससे अधकचरे वाली स्थिति है कि इधर भी हैं औऱ उधर भी. तीसरी चुनौती यह है कि बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध के उपदेशों का तब तक फायदा नहीं होगा, जब तक आप उसे जीवन में ना उतारें.

बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद भी यह देखने में आता है कि लोग उपजाति जैसी बातों को छोड़ नहीं पाएं हैं. शादी-ब्याह के मामलों में यह दिखता भी है. तब लोग अपनी उपजाति (जो पूर्व धर्म में थी) का ही वर ढूढ़ते हैं?
वो गलत है. ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह बौद्ध धर्म के बुनियादी दीक्षा के ही खिलाफ है. जब आप बौद्ध बन गए तो जाति या उपजाति का मतलब ही नहीं बचता, आप सिर्फ बौद्ध हैं. ऐसा शायद लोग इस वजह से करते हैं कि शिड्यूल क़ॉस्ट से धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण का लाभ मिलता रहता है. सच यह भी है कि ईसाई धर्म में जाति का कोई चलन नहीं है, इस्लाम में जाति नहीं है. विदेशो में ऐसा ही है लेकिन भारत में इन धर्मों में भी जाति है. तो इस बारे में भारत में एक विशेष स्थिति है कि समाज में जाति इतने गहरे तक पैठी है. एक संत ने भारत के बारे में कहा भी है कि ‘पात-पात में जात है, डाल-डाल में जात.’ कहावत है जात न पूछो साधु की, लेकिन यहां तो साधु-संतों की भी जाति पूछी जाती है. लेकिन यह गलत है. मैं लोगों से अपील करूंगा कि एक बार जब आप बौद्ध धर्म में आ गए हैं तो जाति के रोग को वहीं छोड़ दीजिए जहां से आएं हैं.

ग्रेटर नोएडा में स्थित गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में ‘बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन’ नाम से एक पाठ्यक्रम की शुरुआत की गई है. बौद्ध धर्म के दर्शन को समझने के लिए यह कितना मददगार होगा?
मुझे लगता है बहुत मददगार होगा. क्योंकि भारतीय संविधान का जो आर्टिकल 51 (सी) है उसके मुताबिक सभी की एक फंडामेंटल ड्यूटी बनती है कि Development a scientific temper के लिए काम करें. और भगवान बुद्ध की सारी शिक्षाएं ही वैज्ञानिक हैं. तो उस सेंटर ये यह होगा कि वहां पर एक फोकस्ड (focused) रिसर्च होगी कि पूर्व में क्या-क्या कारण रहे जिससे बौद्ध धर्म का इतना नुकसान हुआ. जो इतना साहित्य था जैसे सम्राट अशोक के समय में 84 हजार बौद्ध स्तूप थे, तो 84 हजार बौद्ध स्तूप कैसे नष्ट हुए. यह किसने नष्ट किया. जो पूरा त्रिपिटिक था वह कैसे जला, भगवान बुद्ध ने जो बात बार-बार कहा कि यह मेरा अंतिम जन्म है और मेरा कोई पुनर्जन्म नहीं होगा तो फिर किस तरह भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया गया. कैसे तमाम ग्रंथों में उनके बारे में अनाप-शनाप लिखा गया. भ्रांतियां फैलाई गई. तो यह सेंटर होने से तमाम बातें सामनें आएंगी ऐसा मेरा मानना है.

इस पाठ्यक्रम के बारे में आप क्या सुझाव देंगे?
देखिए, जब सुझाव मांगा जाएगा तो मैं देखूंगा कि कैसे क्या करना है लेकिन अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा. खासकर मीडिया के माध्यम से कुछ भी कहना उचित नहीं है.

आपके भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
अभी तो मैं डा. अंबेडकर पर एक किताब लिख रहा हूं. साथ में तमाम समाचार पत्रों में कोई न कोई आर्टिकल लिखते ही रहता हूं. ऑल इंडिया रेडियो में बीच-बीच में जाकर बोलता रहता हूं. तो नौकरी में पूरा वक्त देते हुए शनिवार और रविवार को जो छुट्टियां होती हैं, उनमें जो भी वक्त बचता है. उसमें सामाजिक विषयों के बारे में लिखता रहता हूं. मैं बाबा साहेब पर जो किताब लिख रहा हूं उसका विषय यह है कि आज के वक्त में बाबा साहेब की क्या प्रासंगिकता है और उनके जीवन-दर्शन को अपने अंदर उतारकर लोग कैसे आगे बढ़ सकते हैं. आज भी गांवों और पिछड़े इलाकों में लोगों को बाबा साहेब के जीवन के बारे में बहुत कम मालूम है. जैसे बाबा साहब क्या सोचते थे, उनका सपना क्या था, उनका जीवन-दर्शन क्या था, औरों से क्या अपेक्षा करते थे, इसके बारे में लोगों को कम जानकारी है. इसी के बारे में लिख रहा हूं.

दलित संतों को लेकर तमाम तरह कि किवदंतियां गढ़ी गई हैं, जिनमें उन्हें आखिरकार ब्राह्मण साबित करने की कोशिश की गई है. तो मुख्य धारा में उनका जो इतिहास बताया जाता है, वह कितना सच है?
संत रविदास के बारे में ओशो रजनीश की एक किताब भी है और एक कैसेट भी है जिसमें उन्होंने संत रविदास की महानता का जिक्र किया है. इसमे बताया गया है कि वह इतने महान थे कि मीरा बाई, झाली बाई (राजस्थान की राजकुमारी) सहित कितनी राजकुमारियों एवं राजकुमारों ने संत रविदास को अपना गुरु माना. मीरा ने साफ कहा है कि रविदास के रूप में मुझे मेरा गुरु मिल गया. तो वह ऐसा तभी कह सकती हैं जब उन्हें संत रविदास में ज्ञान और ध्यान की कोई अलख दिखी होरविदास ने शास्त्रार्थ में काशी के पंडितों को कई बार परास्त किया. इस तरह की कहानियां सिर्फ इस सत्य को झुठलाने के लिए गढ़ा जाता है कि दलित जाति का कोई व्यक्ति कोई संत भी इतना महान हो सकता है. अध्यात्म की इतनी ऊंचाईयों को छू सकता है. आपकी बात सही है. काफी लोगों ने कहानियां गढ़ी है. जो लोग ऐसी कहानियां गढ़ते हैं, वह उनकी हीनता को दिखाता है. सच्चाई मानने की बजाए वो कहानियां गढ़ देते हैं कि वो पूर्व जन्म के ब्राह्मण थे. ये सब अनुसंधान करने वालों के लिए ज्वलंत और महत्वपूर्ण प्रश्न है.

वर्तमान में भारत और विश्वस्तर पर बौद्ध धर्म की स्थिति क्या है और भविष्य में इसकी क्या संभावनाएं हैं?
मुझे बौद्ध धर्म का भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई देता है. यह भूमंडलीकरण का दौर है. कम्यूनिकेशन और इंफारमेशन टेक्नोलॉजी में जो तेजी आई है उसकी वजह से पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन कर रह गई है. आप दिल्ली में नास्ता करके लंदन में डिनर कर सकते हैं. संभावना उज्जवल है. ग्रंथ इंटरनेट पर हैं. ज्यों-ज्यों ग्लोबलाइजेशन बढ़ेगा, गरीब-अमीर की खाई बढ़ेगी. राबर्ट मर्टन (socialist) का कहना है कि हर कोई आगे बढ़ना चाहता है. नहीं पहुंचने पर वह frustrated हो जाता है. जब-जब ऐसा होगा शांति की तलाश बढ़ेगी. तो ज्यों-ज्यों भूमंडलीकरण बढ़ेगा, लोग बुद्ध की तरफ खिचेंगे. पश्चिम में यही हो रहा है. प्रसिद्ध निर्देशक रिचर्ड गेरे, प्रोड्यूसर टीना टर्नर और फुबालर राबर्ट वैगियों बौद्ध धर्म की ओर आ चुके हैं.

सर आपने इतना अधिक वक्त दिया. आपका धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी।।
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यह इंटरव्यूह दलित मुद्दों और खबरों पर केंद्रित वेबसाइट www.dalitmat.com से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.'दलित मत' से संपर्क के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं. इस इंटरव्यूह को आप www.dalitmat.com पर भी देख सकते हैं.
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Friday, May 6, 2011

ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर

Written by अशोक

जब आप एस.आर लाखा के बारे में बात करेंगे तो लगेगा जैसे कोई फिल्म देख रहे हैं. एक अद्भुत फिल्म. जो हर किसी के लिए प्रेरणा हो सकती है. सफलता को पाने की ललक, जिद और जूनून उनके पूरे जीवन में साफ दिखता है. बचपन में अपने मां-बाप के साथ उन्होंने ईंट-भट्ठे पर काम किया लेकिन हार नहीं मानी. पढ़ाई के दौरान कई बार घर से स्कूल की दूरी बढ़ने के बावजूद वह हर बार उसका पीछा करते रहे.
चप्पल पहनने से कितनी राहत मिलती है यह वो आठवीं कक्षा के बाद जान पाएं. इन तमाम मुश्किलों के बावजूद लाखा सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर कलेक्टर बने. इसके बावजूद वो अपने गर्दिश के दिनों को कभी नहीं भूले और 30 साल के करियर में हर वक्त समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे. चाहे तमाम जिलों में कलेक्टर का पद हो, या सोशल सेक्टर में रहे हों या फिर यूपी के 570 आईएएस में से सबसे भ्रष्ट तीन नौकरशाह चुनने की बात हो, हर नई जिम्मेदारी के साथ उन्होंने साबित किया कि उनसे बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता था.
रिटायर होने के बाद एस.आर लाखा इन दिनों एक नई जिम्मेदारी के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके है. हाल ही में उन्हें ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ के कुलपति पद की जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके 'विजन' के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है-----

अपका जन्म कहां हुआ, बचपन कहां गुजरा?
- जन्म 12 मार्च 1949 को पंजाब में एक गांव है भंगरनाना. नवाशहर जिले में है, वहीं हुआ था. एक छोटे से घर में हुआ था. मां-बाप खेती करते थे. चौथी तक की पढ़ाई यहीं हुई. मिडिल क्लास में पढ़ने के लिए घर से पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में गया. हाई स्कूल के लिए गांव से आठ किलोमीटर गया. डिग्री तक की शिक्षा सिख नेशनल कॉलेज से की. एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से किया. इस दौरान मां-बाप के साथ खेती-बारी में सहयोग भी करता था. फिर 76 में दिल्ली आ गया. पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद 77 फरवरी में सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी मिली थी. सेक्सन आफिसर की नौकरी थी. इसमें रहा. साथ-साथ आईएएस की तैयारी भी करता रहा. 78 का जो आईएएस का रिजल्ट आया, उसमें सेलेक्ट हो गया. 79 में मंसूरी में ट्रेनिंग हुई, फिर मैं यूपी कैडर में आ गया.

परिवार में कौन-कौन था. सामाजिक परिवेश और घर की आर्थिक स्थिति कैसी थी?
- जब मैं पैदा हुआ था तब घर की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी. जब बारिश होने लगती थी तो पूरा परिवार चिंतित हो जाता था कि अगर बारिश नहीं रुकी तो रोटी कैसे खाएंगे. तब मां कहती की जाओ काम कर के कुछ खाने को ले आओ. तो ऐसी स्थिति थी. चप्पल मुझे आठवी क्लास के बाद पहनने को मिली. उससे पहले गर्मी के दिनों में हम यूं ही नंगे पांव स्कूल में जाते थे. तो आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी. मां-बाप मजदूरी करने जाते थे. हम भी उनके साथ चले जाया करते थे. पहले सुबह स्कूल में पढ़ने जाते, फिर शाम को मां-बाप के साथ काम करने जाते थे. वो भट्ठे पर ईंट बनाने का ठेका लेते थे, फिर बटाई पर खेती करते और जानवर रखते तो हम भी उनकी मदद करते. जानवर होते थे तो उनको चारा डालने का काम करते थे. दूध निकालते थे. हम चार भाई थे, एक बहन थी. मैं चौथे नंबर का भाई था. मुझसे छोटी एक बहन थी. बड़ा भाई इंग्लैंड चला गया तो पैसे भेजने लगा. फिर मेरे पिताजी ने देखा कि मैं पढ़ने में ठीक हूं तो मुझे पढ़ाने लगे.

बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए?
- हां, आर्थिक स्थिति खराब थी तो मां-बाप भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करते थे. एक हजार ईंट बनाने के तब दो रुपये मिलते थे. तो हम भी मां-बाप के साथ रात को काम करते थे. सन् 1966 की बात है.

इतनी मुश्किलों और गरीबी से गुजरने के बाद आप कलेक्टर बने थे. इस दौरान आपका सामना तमाम गरीब परिवारों से होता होगा. उन्हें देखकर उस वक्त आपके जहन में क्या चलता था. क्या आपको अपनी मुफलिसी के दिन याद आते थे?

- मेरी पूरी ब्यूरोक्रेसी लाइफ के कुल 30 सालों में से छह साल तक मैं सोशल सेक्टर में रहा. यहां मुझे वंचित समाज के लिए काम करने का मौका मिला. एससी/एसटी समाज के लोगों का प्रोजेक्ट मंजूर करना, उनकी दिक्कतें दूर करने का काम था. यहां मुझे बहुत मजा आता था. एक आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. मैं यह भी ध्यान रखता था कि कोई स्टॉफ उनसे कमिशन ना ले. ऐसा करने पर मैं बड़ी कार्रवाई करता था. तो अपने समाज के गरीब लोगों के लिए काम करने का अपना आनंद है. मुझे याद है कि जब मैं फैजाबाद में कलेक्टर था. मैं कहीं जा रहा था तो एक ईंट-भट्ठा दिखा. मै अपनी गाड़ी रुकवा कर वहां काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया. मैने उनसे पूछा कि आजकल ईंट बनाने का दाम कैसा चल रहा है. तो उन्होंने बताया कि अब एक हजार बनाने के दस रुपये मिलते हैं. वहां से चले तो मेरे ड्राइवर ने पूछा कि साहब आप इतनी गर्मी में इतनी दूर क्यों गए थे? हालांकि मैने तब ड्राइवर को नहीं बताया कि मैं इसलिए गया था क्योंकि आज जिस झोपड़ी में वो मजदूर रहते थे. मैं भी उसी झोपड़ी से निकला था और वहां से उठकर अब कलेक्टर की गाड़ी में यहां आया हूं. यह जो सफर मैने तय किया है. वह मुझे याद आता था. तो ब्यूरोक्रेसी में रहने के दौरान भी मेरे पूरे करियर में यह अहसास, यह दर्द मेरे अंदर रहा. जब मैं पब्लिक सर्विस कमिशन का चेयरमैन बना. तब उस समय एससी/एसटी/ओबीसी और गरीबों का जो भी बैकलॉग था. मैने उसे भरने की पूरी कोशिश की और भरा भी. इससे मुझे आज भी बहुत संतुष्टि मिलती है.
आज भी मैं किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई वगैरह में कोई कठिनाई होते देखता हूं तो खुद को रोक नहीं पाता. जैसे हमारे यहां इंटर कॉलेज खुले है. कुछ दिन पहले वाल्मीकी परिवार के कुछ लोग हमारे पास आएं कि साहब फीस बहुत ज्यादा है और हम इतनी फीस नहीं दे पाएंगे. मैनें उनसे कहा कि वो बच्चों की पढ़ाई जारी रखें उनकी फीस मैं भर दूंगा. वाल्मीकी समाज में आज शिक्षा का बड़ा अभाव है. जब भी किसी गरीब आदमी को देखता हूं तो तुरंत मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ जाते हैं. जैसे हमारे मां-बाप काम करते थे. हम भी उनके साथ काम करते थे. फिर गांव से दलिया बनाकर भट्ठे पर ले जाते थे. दूध बेचते थे. जानवर चराते थे. तो हमेशा गरीबों के लिए दर्द रहता है.

सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने के बाद जब आप ट्रेनिंग के लिए मसूरी पहुंचे, वो आपके लिए कितने गौरव का पल था?

- 11 जुलाई को मैं मसूरी पहुंचा था, सन् 79 को. तब मसूरी में बहुत बारिश हो रही थी. इससे पहले मैने कभी पहाड़ देखे नहीं थे. जब हम टैक्सी में देहरादून से मसूरी जा रहे थे तो हमारी गाड़ी बादल और पहाड़ों के बीच में चल रही थी. तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं. यह एक सपने के जैसा था. फिर हम अकादमी में पहुंचे. वहां हमें कमरा अलॉट किया गया. ट्रेनिंग सोमवार से शुरू होनी थी और मैं शनिवार को ही पहुंच गया था. मैं खाना खाकर अपने कमरे में सो गया. दो दिन-दो रात तक बारिश होती रही. मैं दो दिन-दो रात तक लगातार सोता रहा. मैं खाना खाने के बाद जैसे बेहोश हो जाता था. वहां के स्टॉफ ने पूछा कि आप दो दिन से लगातार सो रहे हो. तो मैने कहा कि यार मैने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है (चेहरे पर वह दर्द फिर उभर आया). अब जरा अच्छी जगह आया हूं मुझे चैन से सो लेने दो. इसके बाद फिर शुरू करना है काम.

अपने करियर में आपने किन-किन शहरों में किन-किन पदों पर काम किया?
-सबसे पहली पोस्टिंग जहां बैठे हैं (यूनिवर्सिटी कैंपस की ओर इशारा करते हुए), और जिसे आज ग्रेटर नोएडा कहते हैं, इसी इलाके में हुई. तब यह सारा एक था. मैं एसडीएम सिकंदराबाद के पद पर आया था. फिर तीन साल बाद यहीं कलेक्टर बन गया. बुलंदरशहर जिले में. फिर फैजाबाद में और देवरिया में कलेक्टर रहा. ज्यादा काम मैने सोशल सेक्टर में किया. डायरेक्टर सोशल वेलफेयर साढ़े तीन साल रहा, तीन साल शिड्यूल कास्ट कॉरपोरेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर रहा. इसमें जो भारत सरकार की योजनाएं थी, स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के अंतर्गत इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जो आर्थिक योजना थी, वो उन्हें दिया. साथ ही उनके लिए स्पेशल ट्रेनिंग का कार्यक्रम भी आयोजित किया. इसके बाद भी कई विभागों में काम किया. सूडा का चेयरमैन रहा.

बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
- खुद के और अपने मां-बाप के जिस सपने और अरमान के साथ मैं आईएएस बना, उसका मैने हमेशा ख्याल रखा. जो हमारे बड़े थे, वो मुझसे अक्सर कहा करते थे कि आईएएस बनने के बाद तुम अपने समाज के लोगों का ख्याल रखना. उनकी जितनी मदद हो सके जरूर करना. तो इसे मैं अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं कि मैं पूरी जिंदगी अपने बड़ों की उम्मीद और अपने इस कमिटमेंट को नहीं भूला, चाहे मुझे कितनी भी दिक्कते आईं. मैं कभी नहीं भूला.

जब आप बुलंदशहर में थे तो 26 जनवरी के दिन दलित बस्ती में झंडा फहराने को लेकर आप काफी चर्चा में रहे थे. दलित समाज से तमाम आईएएस होते हैं. आम तौर पर ऐसा सुनने को नहीं मिलता. लेकिन वो कौन सी बात थी जिसने आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया?

- इसकी एक कहानी है. हुआ यह था कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो नवाशहर में हमारे एसडीएम बैठते थे. वहां डीएसपी का भी आफिस था. एक दिन मैं उसके आगे से निकलने लगा तो लोग कहने लगे कि यहां से मत जाओ, यहां एसडीएम का बंगला है, डीएसपी का बंगला है. तो मुझे उस वक्त बड़ा अजीब लगा कि हम उनके बंगले के आगे से भी नहीं निकल सकते? तो जब मैं खुद डीएम बना तो मुझे एक बात याद आई कि बाबा साहेब आगरा में आए थे. यहां उन्होंने काफी काम किया और स्कूल भी खोला था. जब मैं सिकंदराबाद का एसडीएम था तो मैने वहां म्यूनिसिपल कारपोरेश बोर्ड में बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई. लेकिन कुछ लोगों ने अपने वाल्मीकी समाज के लोगों को भड़का दिया और मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया. वो मुकदमा चलता रहा. जब मैं कलेक्टर बनकर बुलंदशहर आया तो मैने इसे ठीक करवाया. यानि लोग चाहते नहीं थे कि मैं बाबा साहब की प्रतिमा लगवाऊं. उसके बाद कासगंज गया तो वहां भी एक चौराहे पर बाबा साहेब का बुत लगवाया.
तो जो आपने पूछा कि मैं दलित बस्ती में क्यों गया था तो मैं वहां इसलिए गया था ताकि उनलोगों का हौंसला बढ़े कि हमारे समाज का कलेक्टर आया है और हमारे बीच में आया है. आमतौर पर वो लोग कलेक्टर की गाड़ी को बाहर से देखते थे. मैने सोचा उनके बीच जाकर उन्हें कांफिडेंस दिया जाए. ताकि उन्हें लगे कि अपना आदमी है तो इसके दिल में अपनों के लिए दर्द भी है.

आप बतौर ब्यूरोक्रेट्स रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. इस जिम्मेदारी को आप कितना बड़ा मानते हैं?

- मैं आईएएस के पद से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से रिटायर नहीं हुआ. मेरी जिंदगी में जो अरमान हैं, मेरे अंदर समाज के लिए काम करने की जो ख्वाहिश है, वह अभी भी है. और मेरी ख्वाहिश है कि मैं जब तक जिंदा रहूं इस समाज के लिए काम करुं. गुरु रविदास जी ने कहा था कि ‘जे जन्म तुम्हारे लिखे’ बल्कि अब मुझे काम करते हुए ज्यादा खुशी हो रही है. क्योंकि आईएएस रहते हुए ऑल इंडिया सर्विस रुल का ख्याल रखना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस के बाहर रहने के बाद आदमी खुलकर काम कर सकता है. मगर काम समाज के लिए करना है, अपने लिए काम नहीं करना है. समाज के लिए ‘पे-बैक’ करना है. समाज ने जो हमें दिया है, अब मुझे उसे समाज को लौटाना है.
जहां तक कुलपति की जिम्मेदारी का सवाल है तो जब मैं कमिशन में गया था. तो मैने उस जिम्मेदारी को भी बहुत बड़ा माना था और बहुत अच्छा काम किया. अब इस जिम्मेदारी को भी मैं बहुत बड़ा चैलेंज मानता हूं. यह एक ड्रीम प्रोजेक्ट है. और मैं चाहता हूं कि इसकी ख्याति दुनिया भर में फैले और यह संस्थान सामाजिक परिवर्तन का सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बने.

देश में पहले से ही कई विश्वविद्यालय (University) है. ऐसे में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय औरों से किस मायने में अलग है. आप इसको किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं?

- गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय परंपरागत विश्वविद्यालयों से थोड़ा अलग है. इसकी जो सबसे खास बात है, वह यह कि इसको तीन हिस्सों में बांटा गया है. एक मैनेजमेंट का है, दूसरा इंजीनियरिंग का है जबकि तीसरा ह्यूमिनिटिज (Huminities) का है. यूनिवर्सिटी का मकसद होता है यूनिवर्सिलाइजेशन ऑफ एजूकेशन. तो जो बुद्धिस्ट दर्शन है, बुद्धिस्ट कल्चर है, सिविलाइजेशन है, इसमे हजारों सालों से जो काम नहीं हुआ है, लोगों को उसकी जानकारी देना और जागरूक करना है. खासकर के शिड्यूल कॉस्ट के बच्चे हैं हम उनकों स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के तहत बाहर के देशों में भी पढ़ने के लिए भेजते हैं. ताकि विद्यार्थियों का एक्सपोजर विदेशों में भी हो. किसी और विश्वविद्यालय में यह सुविधा नहीं है. यह सिर्फ हमारे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में है. अगर अनुसूचित जाति के वैसे बच्चे जिनके पास पैसे नहीं है लेकिन वो बाहर पढ़ने जाना चाहते हैं, तो हम उन्हें भेजते हैं. इस साल भी हमने इसके लिए तीन करोड़ रुपये की व्यवस्था की है और 30 बच्चे बाहर भेजना है. पिछले साल 12 बच्चे गए थे. बाहर की कुछ यूनिवर्सिटी के साथ हमारा एग्रीमेंट है, उससे टाइअप करके बच्चों को भेजा जाता है.
दूसरा जो बुद्धिस्ट दर्शन है, उस पर रिसर्च करना, सिविलाइजेशन पर रिसर्च करना और उसकी पब्लिसिटी करना ये बहुत महत्वपूर्ण है.

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है?
- इसका पूरा कैंपस 511 एकड़ में फैला हुआ है. ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी इसको फाइनेंनसियली सपोर्ट करती है. पहले 2002 में इसकी नींव पड़ी लेकिन फिर कुछ राजनीतिक परिवर्तन होने के कारण 2008 से ठीक से काम शुरू हुआ. अभी यहां 60 फीसदी से ज्यादा का निर्माण हो गया है. कुल चार स्कूल (फैकल्टी) बाकी हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाएंगें. इसके साथ ही सभी आठो स्कूल (फैकल्टी) काम करना शुरू कर देंगे. अभी एक हजार बच्चे हैं और जुलाई से 2100 और बच्चे हो जाएंगे. हमारे हॉस्टल (लड़के-लड़कियां) की कैपेसिटी तीन हजार से ज्यादा हैं. यहां कांशीराम जी के नाम पर एक बहुत बड़ा आडिटोरियम बनने जा रहा है. 40 एकड़ में हमारा स्पोर्ट्स स्टेडियम बन रहा है. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का मैदान औऱ स्वीमिंग पूल बनेगा. यह शुरू हो चुका है. इसी तरीके से बुद्धिस्ट सेंटर, मेडिटेशन सेंटर और लाइब्रेरी सब आधुनिक हैं. एक साल में यह सारे काम खत्म हो जाएंगे.

सन् 2008 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी, जल्दी ही इसके तीन साल होने वाले हैं. इन तीन सालों में विश्वविद्यालय ने कितना सफर तय किया है?

- यह तीसरा सत्र है. अभी तक यहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में ज्यादा बच्चे रहे हैं. जबकि ह्यूमिनिटिज में अब तक अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाया है. अब हमारा फोकस बच्चों को ह्यूमिनिटिज में दाखिला देना है. एससी/एसटी वर्ग के गरीब बच्चों के लिए यहां मुफ्त शिक्षा है लेकिन हम इस कोशिश में भी हैं कि समाज के अन्य बच्चों को भी जो पढ़ने में ठीक हैं, उन्हें लिए फीस स्ट्रक्चर में थोड़ी रियायत दी जाए ताकि वो भी आगे बढ़ें.

अभी तक कितने पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं. कितने बाकी है?
- चार पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं और चार बाकी है. जैसे वोकेशनल एजूकेशन का बाकी था. लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस का बाकी था. स्कूल ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन ये अभी नहीं चल पाया है. स्कूल ऑफ मैनेजमेंट चल रहा है, स्कूल ऑफ इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी चल रहा है, स्कूल ऑफ लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस शुरू होना है. स्कूल ऑफ वोकेशन स्टडीज भी शुरू होना है, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलाजी और इंजीनियरिंग चल रहा है.

इस विश्वविद्यालय के तमाम पाठ्यक्रम में बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन एक महत्वकांक्षी पाठ्यक्रम था. यह शुरू नहीं हो पाया है, इसके पीछे क्या वजह थी. इसको आप कैसे शुरू करेंगे?

- मुझे लगता है कि इसमें माइंड सेट की दिक्कत थी. पहले ज्यादा ध्यान मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग पर दिया गया. ध्यान देना भी चाहिए. लेकिन यह यूनिवर्सिटी है. इसका जो मुख्य फोकस था वो बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन और वोकेशनल स्टडीज पर था. इसको थोड़ा सा पीछे कर दिया गया था. अब मैने 2008 में इस विश्वविद्यालय की चांसलर बहन जी ने जिस-जिस विषय की घोषणा की थी, मैने उसे फिर से बिल्कुल वैसा ही (रि स्टोर) कर दिया है. अब इसमें रिसर्च का काम होगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां बुद्धिज्म फिलासफी के ऊपर काम हो रहा है, उन विषयों के विद्वानों को बुलाया जाएगा. हम सोच रहे हैं कि अगस्त में बुद्धिज्म पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार विश्वविद्यालय में करवाई जाए. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन्हें बुलाया जाए. हमारी कोशिश है कि एक डिस्कशन हो और उससे एक थीम निकले कि बुद्धिस्ट स्टडीज का पाठ्यक्रम (syllabus) कैसे बनाया जाए. जैसे जापान की एक यूनिवर्सिटी में बुद्धिज्म पर काफी काम हो गया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इस पर काफी काम हो रहा है. बाहर के देशों में बुद्धिज्म एंड सिविलाइजेशन पर कैसे काम हो रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए हम अपने कोर्स को एडप्ट करें और इसके पहले बुद्धिज्म पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कांफ्रेंस करवाएं. इसके बाद हम यह तय करेंगे कि बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर भविष्य में हमारा लाइन ऑफ एक्शन क्या होगा.
इसी प्रकार से लॉ, जस्टिस एंड गवर्नेंस है. यह बाबा साहेब का सब्जेक्ट है. वैसे बाबा साहेब को किसी विषय में बांधा नहीं जा सकता. तो हम सोच रहे हैं कि इसमें एक सब्जेक्ट ऐसा बनाया जाए, जिसमें शिड्यूल कॉस्ट के लिए संविधान में जो कानून बने हैं उस एक विषय अलग से रखा जाए. इस विषय पर एक पेपर रखा जाए ताकि लोगों को पता चल सके. साथ
ही विद्यार्थी अनुसूचित जाति को मिलने वाले कानूनी अधिकार को जान सके.

गौतम बुद्ध का जो दर्शन है, वह शांति, समानता और सौहार्द है. यह विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर है. ऐसे में दलित एवं वंचित समाज को आगे बढ़ाने के लिए यह विश्वविद्यालय कितना प्रतिबद्ध है?

- सौ फीसदी...। हमने पहले ही कह रखा है कि यहां एससी/एसटी समुदाय के बच्चे यहां तक बीपीएल परिवार के जनरल वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो हमने उनकी फीस माफ की हुई है. इसके अलावे अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ऐसे बच्चें जो पढ़ने में काफी अच्छे हैं और जिनके आगे बढ़ने की संभावना है उन्हें हम पढ़ने के लिए विदेशों में भेजते हैं. यह व्यवस्था किसी और विश्वविद्यालय में नहीं है. यहां बच्चों के लिए आवासीय व्यवस्था जरूरी है. इससे बच्चों को एक विशेष वातावरण मिलेगा. बच्चों के व्यक्तित्व का और बेहतर विकास हो पाएगा.

विश्वविद्यालय को लेकर भविष्य की योजना क्या है?
- फिलहाल तो सबसे प्रमुख योजना ‘बुद्धिस्ट स्टडीज और सिविलाइजेशन’ को टेक आफ कराना है. लॉ, जस्टिस को शुरू करना है. 40 एकड़ में जो हमारा स्पोर्ट्स कंप्लेक्स है उसको लांच करना है.

आने वाले पांच सालों में आप इस विश्वविद्यालय को कहां देखना चाहते हैं?
- आने वाले पांच सालों में न सिर्फ भारत बल्कि एशिया और विश्व स्तर पर इस विश्वविद्यालय की एक पहचान बने, ऐसा मैं चाहता हूं. इसके लिए हमने तीन चीजों को चिन्हित किया है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना
इकठ्ठा कर के यह पता लगाएं कि ऐसी कौन सी किताबें हैं जो हार्वर्ड में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में, या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है और हमारे पास नहीं है. इसी तरह हमारी जो इंजीनियरिंग लैब है. उसमें हम आईआईटी खड़गपुर, कानपुर और आईआईटी दिल्ली के स्तर के सारे इंस्ट्रूमेंट लाने के लिए प्रतिबद्ध है. हम देख रहे हैं कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है. तो जो गैप है, उसे पहचान करके दूर करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि बच्चों को उसका पूरा फायदा मिले. हम पाली भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश में लगे हैं.

कई ब्यूरोक्रेट्स रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आ जाते हैं. क्या आपने राजनीति में आने की सोची है?
- मेरा मकसद समाज की सेवा करना है ना कि राजनीति में आना. अभी तक मैने राजनीति से बाहर रह कर अच्छा काम किया है. मैं आज भी यह सोचता हूं कि मैं राजनीति से बाहर रह कर समाज के लिए ज्यादा बेहतर काम कर सकता हूं.

आपकी किन चीजों में रुचि है?
- मैं लिखने के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन पढ़ने का मुझे बहुत शौक है. मेरे घर पर और ऑफिस में दोनों जगह लाइब्रेरी है. आज भी बाबा साहेब को पढ़ता रहता हूं. लेकिन इतना कष्ट है कि मुझे समाज के लिए जितना करना चाहिए था लगता है कि मैं उतना कर नहीं पाया. यही जो टिस है वो मुझे और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करती है. जिंदगी निकलती जा रही है. मगर काम करने को लेकर मेरी भूख बनी हुई है.

क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है?
समाज के लोगों द्वारा मिली सराहना ही मेरे लिए पुरस्कार है. जब समाज के लोग आकर मिलते हैं और यह बताते हैं कि मैने विभिन्न पदों पर रहते हुए समाज के लिए, उनके लिए कुछ अच्छा किया. जब समाज के लोग इज्जत देते हैं तो अच्छा लगता है. यही मेरे लिए सच्चा पुरस्कार है.

एक ब्यूरोक्रेट्स का जीवन तमाम लोगों से घिरा हुआ होता है. आपके करियर की ऐसी कौन सी घटना है, जिसने आपको प्रभावित किया हो और जिसे आप याद रखना चाहते हैं?

- जब कानपुर में मैं स्लम एरिया का चेयरमैन था तो एक बस्ती में लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे. कोई बुनियादी व्यवस्था तक नहीं थी. मैने उनके लिए पीने के साफ पानी, सड़क एवं सफाई, उनके बच्चों के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था कराई. मैने उनके लिए सरकार द्वारा प्रायोजित रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से मदद किया. उन्हें बताया कि शराब पीना गलत है, इसे छोड़ दो. इस प्रकार जो बस्ती एक स्लम एरिया थी मैने उसे दो साल में आदर्श कालोनी बना दिया. तभी मुझमें यह विश्वास आया कि जब एक कालोनी आदर्श बन सकती है, तो पूरा समाज बन सकता है. बस उनके बीच काम करने की जरूरत है. लोग सुनते हैं और रेस्पांस देते हैं.

व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कौन सा वक्त आपके लिए मुश्किल औऱ चुनौती वाला रहा?
- जो मुझे याद आ रहा है तो 30 साल के नौकरीपेशा पीरियड में सबसे बड़ी चुनौती 96 में आई. तब सभी आईएएस ने एजीएम की बैठक में 530 आईएएस में से सर्वसम्मति से मुझे जनरल सेक्रेट्री सेलेक्ट कर लिया. यूपी या फिर पूरे देश की ब्यूरोक्रेसी में मैं पहला शिड्यूल कॉस्ट आईएएस था जिसे आईएएस की इतनी बड़ी बॉडी ने जनरल सेक्रेट्री नियुक्त किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा.
मेरे साथ एक दूसरी घटना बचपन में घटी. मुझे याद है कि 66-67 में मेरे मां-बाप ने एक एकड़ जमीन बटाई पर ली थी. जुलाई या फिर अगस्त का महीना था. बहुत गर्मी और उमस थी. मां ने कहा कि पास वाले कुंए से पानी लेकर आओ. मैंने पास के ही मंदिर के एक कुएं से पानी खींच लिया. तभी एक आदमी भागा-भागा आया. वह पुजारी था. उसने कहा कि तुम तो शिड्यूल कास्ट हो तो तुमने कैसे पानी निकाल लिया और उसने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैने पूछा कि मुझे क्यों मार रहे हो तो उसने कहा कि तुम छोटी जाति से हो और यहां से पानी नहीं निकाल सकते. जब वह मुझे मारता रहा तो मुझे भी गुस्सा आ गया फिर मैने भी पानी की बाल्टी उठाकर उसके सर पे मार दी. वह वहीं बेहोश हो गया. फिर गांव में पंचायत हुई और समझौता हुआ. उस वक्त मैने महसूस किया कि जाति की जो पीड़ा है, जो दुख है, वह कितना बड़ा है.

आपके सपने क्या हैं?
- मैं गुरुग्रंथ साहब के दर्शन पर बहुत ज्यादा विश्वास करता हूं. उसमें कहा गया है कि ‘नानक साचक आइए, सच होवे तो सच पाइये’. यानि कि अगर आप सच पर चलते रहिए तो जीत निश्चित ही आपकी ही होगी. मैं इस पर काफी विश्वास करता हूं. हमारे समाज को सच्चाई नहीं मिली. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है. वह यह है कि हमारा समाज जिस चीज का हकदार था उसे वह नहीं मिला. बावजूद इसके अगर हम सच पर चलेंगे तो एक दिन जीत हमारी होगी. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है और इसको कैसे ठीक किया जाए. यह मेरा एक्शन प्लान है.

सर आपने इतना अधिक वक्त दिया. विस्तार से बातें की. आपका धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी. धन्यवाद दलिमत.कॉम
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यह इंटरव्यूह दलित मुद्दों और खबरों पर केंद्रित वेबसाइट www.dalitmat.com से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.'दलित मत' से संपर्क के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.
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