Tuesday, April 12, 2011

कोई जाति के नाम से पुकारता है, तो गर्व होता है- रवि जाकू

जाने-माने पंजाबी गीतकार के रूप में युवाओं के बीच चर्चित हो रहे रवि जाकू पंजाब के मूलनिवासी हैं. रवि इन दिनों यूनान (ग्रीस) में हैं, जहां वह एक होटल में नौकरी कर रहे हैं. लेकिन इसके साथ-साथ जाकू रविदास जाति के गौरवशाली विकास की परिकल्पना को भी साकार करने में जुटे हैं. इसके लिए वह अपने लिखे गाने के माध्यम से दलित समाज के युवाओं को उनके गौरवशाली इतिहास की जानकारी दे रहे हैं और उनमें जोश भर रहे हैं.

जाकू का जन्म 23 जून 1976 को गांव कटपलोन, फिल्लौर पंजाब में एक दलित परिवार मे हुआ था. ज्ञान चंद और गुरुदेव कौर की संतान जाकू दो भाई और एक बहन में सबसे छोटे हैं. पिछले दिनों जाकू से स्वतंत्र लेखक ‘केपी मौर्य’ ने बातचीत की. मेल और फेसबुक के जरिए हुए बातचीत में जाकू ने अपने उद्देश्य और सपने के बारे में बताया.

जाकू का उद्देश्य दलित समाज की गरिमा को स्थापित करना है. और वह आने वाले दो सालों में यह कर दिखाने का दावा भी कर रहे हैं. दलित युवाओं में जोश भरने और उन्हें अपने गौरवशाली इतिहास की जानकारी देने के लिए उन्होंने नायाब तरीका ढ़ूंढ निकाला है. वह अपने लिखे गानों के जरिए यह काम कर रहे हैं. अब तक उनके दो एलबम भी रिलीज हो चुके हैं. पहला ‘टेक ओवर द वर्ल्ड’ औऱ दूसरा ‘फाइटर चमार’ है. दोनो एलबम पंजाबी में है और इनकी तकरीबन 20 से 25 हजार प्रतियां बिक चुकी है. जल्दी ही उनका तीसरा एलबम आने वाला है. एक विशेष जाति के ऊपर गाने लिखने के बारे में पूछने पर जाकू कहते हैं, ‘मैं अपने गानों के माध्यम से दलित समाज के युवाओं में जोश भरना चाहता हूं.’ वहीं, सपने के बारे में पूछने पर वो कहते हैं ‘मेरा सपना भारत को 'बेगम पुर' बनाने का है. जहां कोई ‘गम’ न हो. संत रविदास ने यह सपना बहुत पहले देखा था. उनकी चाहत थी कि सभी का सम्मान हो, सभी को इज्जत से रोटी मिले और हरेक बच्चा स्कूल जाए. सभी लोगों में प्यार हो और हर जाति को बराबर का सम्मान मिले. हम सभी को संत रविदास के सपने को पूरा करना चाहिए.’ जाकू को पंजाब में यह खुशहाली थोड़ी-बहुत दिख भी रही है. कहते हैं, ‘अब यहां जागृति हो गई है. सभी अच्छा काम कर रहे हैं. पंजाब के बहुत से दलित विदेशों में बस गए हैं. सभी के पास पैसा है और अच्छे मकान हैं. 5-10 साल पहले लोग हमें हमारी जाति के नाम से पुकारते थे तो अच्छा नहीं लगता था. अब कोई हमें हमारी जाति के नाम से पुकारता है तो खुशी होती है. हमें हमारी जाति पर गर्व है. मेरे गानों में भी यही बातें हैं. अब हम ईंट का जवाब पत्थर से देना जानते हैं.’

हालांकि रवि के आगे बढ़ने की कहानी बहुत आसान नहीं थी और एलबम ऐसे ही नहीं निकल गया. अपनी पत्नी और पूरे परिवार को छोड़कर रवि को पैसे के लिए 2001 में पंजाब छोड़कर यूनान जाना पड़ा. हालांकि भविष्य में वो फिर से भारत आना चाहते हैं. वो यूनान में 40-45 हजार दलितों के होने की जानकारी भी देते हैं. मीडिया के बारे में बात कहने पर जाकू अन्य देशों में दलित मीडिया का उदारहण देते हैं और भारत में भी इसकी जरूरत बताते हैं. जाकू का कहना है कि भारत में भी दलित समाज को अपने मीडिया माध्यम की बहुत जरूरत है. इसके माध्यम से हमारी बात सभी दलितों तक आसानी से पहुंच सकती है. अभी इंग्लैंड से ‘कांशी रेडिया’ का प्रसारण हो रहा है. बहुत जल्दी ही टीवी चैनल भी शुरू हो जाएगा, जिसका नाम ‘बेगमपुरा टीवी’ है. हम चाहते हैं कि ऐसा ही भारत में भी हो, ताकि लोगों में और तेजी के साथ जागृति आ सके. दलित समाज का समाचार पत्र भी होना चाहिए. लेकिन टीवी चैनल होने से बहुत जल्दी लोगों तक पहुंचा जा सकता है. इसलिए दलितों का अपना टीवी चैनल बहुत जरूरी है. जाकू जिस पंजाब से ताल्लुक रखते हैं, वहां की सांस्कृति विरासत भी काफी मजबूत रही है. दलित समाज के अन्य कलाकारों के बारे में पूछने पर जाकू का बताते हैं कि पंजाब के बहुत से दलित कलाकार फिल्मी दुनिया से जुड़े हुए हैं. जाने-माने सूफी गायक हंसराज हंस, मास्टर सलीम, सरदूल सिकंदर ऐसे ही प्रचलित नाम हैं.

Friday, April 1, 2011

भारत में जाति की उत्पत्ति और उसका सच

मै सबसे पहले यह बता दूं की दुनिया में किसी भी समाज, व्यवस्था और धर्म का निर्माण किसी भी ईश्वर, अल्लाह या गॉड ने नहीं किया है. इससे साफ जाहिर होता है की जाति को भी ईश्वर ने नहीं बनाया है. दुनिया की सभी व्यवस्थाओं को मनुष्य ने बनाया है. यानि जाति की व्यवस्था को भी मनुष्य ने ही बनाया है. भारत में जाति की उत्पत्ति आर्यों के आगमन के बाद हुई. प्रत्येक कार्य और व्यवस्था के पीछे एक कारण और सम्बन्ध होता है. ऐसा ही सम्बन्ध जाति और उसकी व्यवस्था के पीछे है.

जाति व्यवस्था को आर्यों ने बनाया. यहाँ एक सवाल यह उठता है की आर्यों ने जाति व्यवस्था बनाई क्यों? और आर्य हैं कौन? यह सभी जानतें है की आर्य मध्य एशिया से भारत में आएं. आर्यों का मुख्य काम युद्ध और लूट-पाट करना था. आर्य बहुत ही हिंसक प्रवृत्ति के थे और युद्ध करने में बहुत माहिर थे. युद्ध का सारा साजो सामान हमेशा साथ रखते थे. अपने लूट-पाट के क्रम में ही आर्य भारत आए. उस समय भारत सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध था. इस समृद्धि का कारण भारतीय मूलनिवासियों की मेहनत थी. भारतीय मूलनिवासी बहुत मेहनती थे. अपनी मेहनत और उत्पादन क्षमता के बल पर ही उन्होंने सिन्धु घाटी सभ्यता जैसी महान सभ्यता विकसित की थी. कृषि कार्य के साथ-साथ अन्य व्यावसायिक काम भी भारत के मूलनिवासी करते थे. मूलनिवासी बेहद शांतिप्रिय, अहिंसक और स्वाभिमानी जीवन यापन करते थे. ये लोग काफी बहादुर और विलक्षण शारीरिक शक्ति वाले थे. बुद्धि में भी ये काफी विलक्षण थे. अपनी इस सारी खासियत के बावजूद ये अहिंसक थे और हथियारों आदि से दूर रहते थे. आर्यों ने भारत आगमन के साथ ही यहाँ के निवासियों को लूटा और इनके साथ मार-काट की. आर्यों ने उनके घर-द्वार, व्यापारिक प्रतिष्ठान, गाँव और शहर सब जला दिया. यहाँ के निवासियों के धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतीकों को तोड़कर उनके स्थान पर अपने धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतीक स्थापित कर दिया. मूलनिवासियों के उत्पादन के सभी साधनों पर अपना कब्जा जमा लिया. काम तो मूलनिवासी ही करते थे लेकिन जो उत्पादन होता था, उस पर अधिकार आर्यों का होता था.

धीरे-धीरे आर्यों का कब्जा यहां के समाज पर बढ़ता गया और वो मूलनिवासियों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य करने की कोशिश करने लगे. बावजूद इसके मूलनिवासियो ने गुलामी स्वीकार नहीं की. बिना हथियार वो जब तक लड़ सकते थे, तब तक आर्यों से बहादुरी से लड़े. लेकिन अंततः आर्यों के हथियारों के सामने मूलनिवासियों को उनसे हारना पड़ा. आर्यों ने बलपूर्वक बड़ी क्रूरता और निर्ममता से मूलनिवासियों का दमन किया. दुनिया के इतिहास में जब भी कहीं कोई युद्ध या लूट-पाट होती है तो उसका सबसे पहला और आसान निशाना स्त्रियाँ होती हैं, इस युद्ध में भी ऐसा ही हुआ. आर्यों के दमन का सबसे ज्यादा खामियाजा मूलनिवासियों कि स्त्रियों को भुगातना पड़ा. आर्यों के क्रूर दमन से परास्त होने के बाद कुछ मूलनिवासी जंगलों में भाग गए. उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति को गुफाओं और कंदराओं में बचाए रखा. इन्हीं को आज ‘आदिवासी’ कहा जाता है. यह गलत रूप से प्रचारित किया जाता है कि आदिवासी हमेशा से जंगलों में रहते थे. असल में ऐसा नहीं है. आदिवासी हमेशा से जंगलों में नहीं रहते थे. बल्कि उन्हें अपनी सुविकसित संस्कृति से बहुत प्यार था, जिसे उन्होंने आर्यों से बचाने के लिए जंगलों में शरण ली थी. बाद में आर्यों ने झूठा प्रचार करके उन्हें हमेशा से जंगल में रहने वाला प्रचारित कर दिया और उनकी बस्तियों और संपत्ति पर कब्जा कर लिया था. जो मूलनिवासी भाग कर जंगल नही गए, उनसे घृणित से घृणित अमानवीय काम करवाए गए. मरे हुए जानवरों को रस्सी से बांधकर और उन्हें खींचकर बस्ती से बाहर ले जाना फिर उनकी खाल निकालना, आर्यों के घरों का मल-मूत्र साफ करना तथा उसे हाथ से टोकरी में भरकर सिर में रखकर बाहर फेंकना आदि काम मूलनिवासियों से आर्य करवाते थे. मूलनिवासी इन घृणित कामों से काफी परेशान थे. इसके खिलाफ मूलनिवासी संगठित होकर विद्रोह करने लगे. हालाँकि आर्यों कि लूट-पाट एवं मार-काट से सभी बिखर गए थे, फिर भी समय-समय पर संगठत होकर वे अपनी जीवटता और बहादुरी से आर्यों को चुनौती देते रहते थे.

इसके परिणामस्वरुप आर्यों और अनार्यों (मूलनिवासियों) के कई भयंकर युद्ध हुए. मूलनिवासियों के इस तरह के बार-बार संगठित विद्रोह से आर्य परेशान हो गए. तत्पश्चात आर्य इससे निपटने के लिए दूसरा उपाय ढूंढ़ने लगे. उत्पादन स्रोतों और साधनों पर हमेशा अपना कब्ज़ा बनाये रखने को लेकर वो षड्यंत्र करने लगे. इसके लिए आर्यों ने रणनीति के तहत मनगढंत धर्म, वेद, शास्त्र और पुराणों की रचना की. इन शास्त्रों में आर्यों ने यहाँ के मूलनिवासियों को अछूत, राक्षस, अमंगल और उनके दर्शन तक को अशुभ बता दिया. धर्म शास्त्रों में आर्यों का सबसे पहला वेद ‘ऋगुवेद’ है, जिसके 'पुरुष सूक्त' में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है. इसमें समाज व्यवस्था को चार वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा गया. पुरुष सूक्त में वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा नाम के मिथक (झूठ) के शरीर से हुई बताई गई. इसमें कहा गया कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों की, भुजाओं से क्षत्रियों की, पेट से वैश्यों की तथा पैर से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है. इस व्यवस्था में सबके काम बांटे गए. आर्यों ने बड़ी होशियारी से अपने लिए वो काम निर्धारित किए, जिनसे वो समाज में प्रत्येक स्तर पर सबसे ऊंचाई पर बने रहें और उन्हें कोई काम न करना पड़े. आर्यों ने इस व्यवस्था के पक्ष में यह तर्क दिया कि चूंकि ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ है इसलिए ब्राह्मण का काम ज्ञान हासिल करना और उपदेश देना है. उपदेश से उनका मतलब सबको सिर्फ आदेश देने से था. क्षत्रिय का काम रक्षा करना, वैश्य का काम व्यवसाय करना तथा शूद्रों का काम इन सबकी सेवा करना था. क्योंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से हुई है. इस प्रकार आर्यों ने शूद्रों को पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ नौकर बनाये रखने के लिए वर्ण व्यवस्था बना लिया.

इस प्रकार आर्यों ने अपने आपको सत्ता और शीर्ष पर बनाए रखने के लिए अपने हक में एक उर्ध्वाधर (खड़ी) समाज व्यवस्था का निर्माण किया. समाज संचालन और उसमें अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए समाज के प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्थान जैसे शिक्षा और व्यवस्था पर अपने अधिकार को कानूनी जामा पहना कर अपना अधिकार कर लिया. वर्ण व्यवस्था को स्थाई और सर्वमान्य बनाने के लिए आर्यों ने झूठा प्रचार किया कि वेदों कि रचना ईश्वर ने की है और ये वर्ण व्यवस्था भी ईश्वर ने बनाई है. इसलिए इसको बदला नहीं जा सकता है. जो इसे बदलने की कोशिश करेगा भगवान उसको दंड देंगे तथा वह मरने के बाद नरक में जाएगा. आयों ने प्रचार किया की जो इस इश्वरीकृत व्यवस्था को मानेगा वह स्वर्ग में जाएगा. इस प्रकार मूलनिवासियो को ईश्वर, स्वर्ग और नरक का लोभ एवं भय दिखाकर अमानवीय एवं भेदभावपूर्ण वर्ण व्यवस्था को मानने के लिए बाध्य किया गया. मूलनिवासी अनार्यों ने इस अन्यायपूर्ण सामाजिक विधान को मानने से इंकार कर दिया. तत्पश्चात वर्ण व्यवस्था मृतप्राय हो गई और आर्यों की शक्ति और प्रभाव कमजोर होने लगा.

अपनी कमजोर स्थिति को देखकर मनु नाम के आर्य ने 'मनुस्मृति' नामक एक और सामाजिक विधान की रचना की. इस विधान में वर्ण व्यवस्था की श्रेणीबद्धता को बनाए रखते हुए एक कदम और आगे बढ़कर वर्ण में जाति और गोत्र की व्यवस्था बनाई. यानि मनु ने एक वर्ण के अन्दर अनेक जातियां बनाई और गोत्र के आधार पर उनमे उनमे उच्च से निम्न का पदानुक्रम निर्धारित किया गया, जिससे जातियों के भीतर उच्च और नीच की भावना का जन्म हुआ. मनु ने यह बताया कि चार वर्णों में से किसी भी वर्ण कि कोई भी जाति अपने से नीचे वर्ण कि जाति में कोई रक्त सम्बन्ध यानि शादी विवाह नहीं करेंगे अन्यथा वह अपवित्र और अशुद्ध हो जाएगा. सिर्फ समान वर्ण वाले ही आपस में रोटी-बेटी का रिश्ता कर सकते हैं . लेकिन मनु ने यहां भी चलाकी दिखलाई. उसने इस नियम को ब्राह्मणों के लिए लागू नहीं किया. ब्राह्मणों को इसकी छूट दी गई कि एक निम्न गोत्र का ब्राह्मण उच्च गोत्र के ब्राह्मण के यहाँ रोटी-बेटी का रिश्ता कर सकता था. इस तरह ब्राह्मणों की आपस में सामूहिक एकता बनी रही. यही नियम क्षत्रिय वर्ण में भी लागू रखा गया, जिससे क्षत्रिय भी एकजुट रहें. वैश्य में यह नियम लागू नहीं हुआ, जिसका परिणाम यह हुआ कि ये आपस में एकजुट नहीं हो सके और उच्च-नीच की भावना के कारण बिखरते रहे.

ऋगुवैदिक वर्ण व्यवस्था में जिसमें सभी मूलनिवासियों को रखा गया था. इसलिए उनमे सामुदिक भावना थी. वो अक्सर संगठित होकर आर्यों की वर्ण व्यवस्था और अमानवीय शोषण का विरोध करते रहते थे. मनु ने मूलनिवासियों की संगठन शक्ति को कमजोर करने के लिए नई चाल चली. उसने मनुस्मृति नामक वर्ण व्यवस्था के नए विधान में शूद्र वर्ण को जातीय पदानुक्रम के साथ-साथ दो जातीय समुदायों में बाँट दिया. शूद्र, समाज की सीढ़ी नुमा वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर था इसलिए इस वर्ण की जातियों को अछूत भी कहा गया था. ऋगुवैदिक वर्ण व्यवस्था में तो इनसे जबरदस्ती गंदे और अमानवीय काम करवाए जाते थे इसलिए इनको अन्य वर्णों के लोग छूते नहीं थे अर्थात वहां पर कर्म के कारण मूलनिवासियों की स्थिति निम्न थी लेकिन आर्यों ने इस स्थति को स्थिरता प्रदान करने के किए शास्त्रों में पुनर्जन्म के सिद्धांत की रचना की और मनु ने सभी मूलनिवासियों को जिन्हें आर्यों ने अछूत बनाया था को कमजोर, अछूत और गुलाम बनाए रखने के लिए वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था में बदल दिया. इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आर्यों ने समय-समय पर झूठे और आधारहीन धर्मंशास्त्र लिखें. आर्य भारत में मुग़लों के आने के बाद अपने आपको हिन्दू कहने लगे थे ताकि इससे उनके भारतीय मूलनिवासी होने का बोध हो. इस तरह भारत में जाति पैदा करने का श्रेय वर्तमान हिन्दुओं के पुरखों को जाता है. मनु की जाति व्यवस्था में जातियों की जनन क्षमता इतनी अधिक है कि आज जातियों की संख्या हजारों में पहुँच गई है और जाति का यह रोग भारत की सीमाएं लांघकर अमेरिका और ब्रिटेन तक पहुँच गया है.
Written by अरुण कुमार प्रियम
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लेखक दिल्ली विश्व विद्यालय में पीएचडी (शोध) के छात्र हैं और दलितों से जुड़े विषयों पर अक्सर लिखते रहते हैं. आप उनसे संपर्क करने के लिए उन्हें akpriyam@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या उनके मोबाइल नंबर 09560713852 पर फोन कर सकते हैं.
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